September 18, 2007

पांच सौ वर्ष पुराना है कश्मीर की गुलामी का इतिहास


फिल्मकार संजय काक से अनीश अंकुर की बातचीत

कश्मीर पर फिल्म बनानी चाहिए यह ख्याल कैसे आया? 'जश्न-ए-आजादी` बनाने के पीछे कोई खास मकसद?

संजय काक : नर्मदा पर डाक्यूमेंट्री बनायी थी। वहां जाने का उद्देश्य साफ था, कुछ सवाल थे कि लोगों का राज्यसत्ता से क्या संबंध है? वे कैसे निगोशिएट करते हैं? सुप्रिम कोर्ट का निर्णय आनेवाला था। मूवमेंट में भी कई सवालों के बारे में उलझन थी। उस डाक्यूमेंट्री का नाम था 'पानी पर लिखा` (वर्ड्स ऑन वाटर)। मैंने पंजाब की दलित रैली के दौरान एक दलित से पूछा 'क्यों वोट करते हैं?` तो उसने कहा एक ही हथियार है। नर्मदा के दौरान जनतंत्र का और पहलू सामने आया। यह लगा कि सिस्टम के जितने चेक्स एंड बैलेंसेस ;बीमबो ंदक इंसंदबमेद्ध हैं, वे फेल हो चुके हैं। पूरी व्यवस्था बुनियादी तौर पर निष्क्रिय हो चुकी है। किस किस्म की ताकतों की चलती है, यह सब साफ होने लगा। नर्मदा वाली डाक्यूमेंट्री मैं सफल मानूंगा। अभी भी उसकी सीडी खरीदने को लेकर ई-मेल आते हैं। खासकर शिक्षा-संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों की ओर से। इसी बीच २००१ में संसद पर हमला हुआ। एस.ए.गिलानी के डिफेंस लॉयर ने मुझसे संपर्क किया कि कश्मीरी में कुछ अनुवाद करना है। मेरी कश्मीरी ठीक-ठाक है। पर उन लोगों को कश्मीरी पंडित चाहिए था। क्योंकि उनकी समझ थी कि उसका अनुवाद कोई कश्मीरी पंडित ही करे। लगा कि कोर्ट में ये क्या हो रहा है? उन्होंने कहा कि सबसे पूछ चुकी हूं कोई तैयार नहीं है। मुझे लगा ये क्या स्थिति है? किस तरह की दरार कश्मीरी मुसलमान एवं हिन्दुस्तान के बीच बनी हुई है? कैसे व्यवस्था उस दरार को बढ़ाने में ही लगी हुई है? नंदित हवसर (डिफेंस लॉयर) ने एक ऑल इंडिया कमिटि बनायी तो उस काम में लगा। फिर केस को बारीकी से फॉलो किया। मैं जितना कुछ जानता गया उतना ही हताश होता चला गया। कितने सांप्रदायिक तरीके से स्टेट की तरफ से डील हो रहा है। पहली दफा लगा कि हमारी भी कोई जिम्मेवारी है। पहले कश्मीर १९८९ में गया था फिर १४ साल बाद २००३ में गया। बेटी १३-१४ साल की थी उसे भी ले गया यह देखने कि हो क्या रहा है वहां? मुझे बेहद धक्का लगा कि कश्मीर को क्या हो गया। २००३ से २००७ के बीच सेना काफी रिड्यूस कर दी गयी है। २००३ में तो एयरपोर्ट से लेकर घर तक हर २० मीटर पर बंकर, चेकपोस्ट देख लगता था कि आक्यूपाइड टेरिटरी (Occupied territory) में हैं।

नर्मदा वाली डाक्यूमेंट्री को ब्राजील फिल्म उत्सव में एक अवार्ड मिला तो मैंने सोचा कि वहां से जो पैसा मिला है उसे कश्मीर पर फिल्म बनाने के लिए लगाऊंगा। जब दूसरी बार कश्मीर गया तो अकेला था। १२-१३ अगस्त का गया, तो सबने कहा कि अजीब समय पर आए हो। १४ अगस्त को पाकिस्तान इंडिपेंडेंस डे है। १५ अगस्त का इंडिया का। १३ अगस्त से ही हड़ताल सा माहौल रहता है। मेरा घर लाल चौक पर है। १५ अगस्त को जब घर से निकला तो आदमी तो क्या एक परिंदा तक न था। जिसे वहां लोग सिविल कर्फ्यू कहते हैं, जबकि आम दिनों में लाल चौक इलाका काफी व्यस्त रहता है। व्यवसायिक परिसर है पर १५ अगस्त को अजीब सन्नाटा था। कश्मीर पर यह मेरी जो फिल्म है, उसका मकसद ही है १५ अगस्त के उस सन्नाटे को समझने की कोशिश। शाम ३-४ बजे तक कोई न निकला उस दिन। मेरी फिल्म की शुरूआत २००४ के १५ अगस्त से होती है। फिल्म का टाइटिल भी उसी से जुड़ा है। 'जश्न-ए-आजादी` उसका अंग्रेजी अनुवाद है : "How we celebrate our freedom." में हम २ ही आदमी थे, मैं और मेरा कैमरा मैन। साउंड मैं ही करता था। ६ बार गया। ४०-४२ दिन की शूटिंग हुई। मैंने डाक्यूमेंट्री में न तो कश्मीर का इतिहास का बयान करने की कोशिश है और न ही किसी किस्म का विश्लेषण या स्पष्टीकरण की कोशिश है। यह सब तो कोई भी किताब उठाकर जान सकता है। जो बात नहीं मिलती है कि कश्मीरियों के अनुभव, उनकी भावनाएं क्या है? वे सोच क्या रहे हैं? यदि हम मास मीडिया पर भरोसा करें तो समझना न समझना बराबर है। अखाबार, टेलीविजन के जरिए कश्मीर को नहीं समझा जा सकता। मीडिया ने अपनी स्वतंत्रता वहां गवां दी है। सरकार की लाइन एवं मीडिया की लाइन लगभग एक है। मैं मीडिया की कोस नहीं रहा दबाव रहता है। पर दबाव तो आप पर हमेशा रहता है।

हम सब एक राष्ट्रवाद के जाल में फंसे हैं हरेक यही सोचता है कि कश्मीर में मीडिया सरकार का बिना सवाल पूछे समर्थन करता है तो यह काम देश हित में हो रहा है। यह मेरे ख्याल में ठीक नहीं। मीडिया को अपनी भूमिका निभानी चाहिए। ऐसे में इंडिपेंडेंट डाक्यूमेंट्री फिल्ममेकर की जिम्मेवारी है कि जहां मेनस्ट्रीम मीडिया ईमानदारी से कवर नहीं कर पा रहा वहां उसका बहुत अह्म रोल है। मेरी फिल्म कश्मीरियों के लिए नहीं बनी है बल्कि पटना, मुबई और बंगलोर के लिए बनायी गयी है।

एक आम भारतीय के मन में कश्मीर को लेकर जो विचार आते हैं, अब तक जो समझ कश्मीर को लेकर बनी हुई है उसमें क्या दिक्कतें हैं? आपकी यह फिल्म 'हमारी पारंपरिक समझ से किस किस्म का रिश्ता बनाती है?

संजय काक : यदि आप १०० लोगों से पूछें कि कश्मीर-मसला क्या है? तो वे कहेंगे कश्मीर हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच का मसला है। हिन्दुस्तान की जमीन है पाकिस्तान डिस्टर्ब कर रहा है। वह डिस्टर्ब करना छोड़ दे तो सब ठीक हो जाएगा। बड़ा साधारण सा मामला है जिसमें कश्मीरी या तो गायब है या फिर पिस रहा है, दो बड़े पावर के बीच। कश्मीरियों को स्वायत्तता नहीं दी जाती। वे किस नजरिऐ से देखते हैं? हिन्दुस्तान को लगता है कि आजादी वगैरह पाकिस्तान का मसला है। हमें यह तो समझना चाहिए कि आजादी की उनकी मांग क्या है?

कश्मीर को जानने वालों में दो तरह का नजरिया रहता है। एक तो हार्डलाइनर दूसरा लिबरल प्रोग्रेसिव नजरिया। जिसके अनुसार यह मानवाधिकार का मसला है, हिरासत में लेकर हत्या जैसे घटनाएं नहीं होनी चाहिए, आदि। जबकि मुख्य जरूरत है कि कश्मीर मामले पर लोगों को राजनीतिक स्तर पर शामिल करें कि भई आखिर वहां के लोग कह क्या रहे हैं?

यदि आप नर्मदा पर फिल्म बनायें तो लिबरल तबका कहेगा कि बहुत बढ़िया है, ये स्टेट क्या कर रहा है? कश्मीर पर फिल्म बनायें तो ये तबका भी काफी सोचकर आएगा कि आजादी की बात कहां से आई? कल बातचीत में किसी ने कहा कि कश्मीर के लोग राष्ट्र विरोधी हो गए हैं, आप ऐसे कैसे हो गए? दरअसल राष्ट्र का आपका जो कांसेप्ट है उसमें कश्मीर फिट नहीं बैठता। ये जरूरी नहीं कि कश्मीर के बारे में राय तुरंत बदल जाएगी पर लोग इतना तो सोचना शुरू कर दें कि निर्णय लेने का उनका हक बनता है कि वे इंडिया के साथ रहें या नहीं। अभी तो हम हिन्दुस्तान में इस समझ से भी काफी दूर हैं।

इस देश का प्रोग्रेसिव, ले‍फि़टस्‍ट समाज वही समझ तो नहीं रखता जो सरकार रखती है? कश्मीर को लेकर यहां के राजनैतिक नेतृत्व में भी अलग-अलग राय रही है।

संजय काक : जो हमारा लिबरल, प्रोग्रेसिव, ले‍फि़टस्‍टट समाज है वह वहां मूवमेंट का जो इस्लामिक स्वरूप है, उससे कतराता है। इस कारण जो लोग उस मूवमेंट के सिंपैथाइजर हो सकते थे वे एक दूरी रखते हैं। फिल्म में हमने इसे संबोधित (ऐड्रस) करने की कोशिश की है। मंगलेश डबराल ने इस फिल्म की समीक्षा में बिल्कुल सही पकड़ा है जब कोई दूसरा विकल्प नहीं रहता तो इस्लामिक रास्ते के सिवा कुछ बचता नहीं है।

जयप्रकाश नारायण इस देश में एकमात्र ऐसे नेता थे जो मानते थे कि राइट टू सेल्फ डिटरमिनेशन (Right to self determination) होना चाहिए। अस्सी व नब्बे के दशके में वाहिनी वाले लोग भी मानते थे कि हां अलग होने का हक बनता है। जयप्रकाश नारायण की स्टेटेड पोजीशन (Stated position) थी। आंध्रप्रदेश के सिविल लिबर्टीज, पीयूसीएल के लोगों ने एक रिपोर्ट बनायी थी कि कश्मीर में दरअसल सेना का कब्जा है। लेकिन नब्बे के दशक के मध्य तक आते-आते ऐसे सारे लोग गायब हो गए। जेकेएलएफ (जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट) एक सेक्यूलर संगठन था। बाद में हिज्बुल मुजाहिदीन, जो प्रो-पाकिस्तानी संगठन था, ने चुन-चुन कर सेक्यूलर लोगों को मारा। जब हिज्बुल का प्रभाव बढ़ा तो उसके पाकिस्तान परस्त होने की वजह से ऐसे लोग ठंढ़े पड़ गए। कश्मीर के बाहर के जो लोग पहले समर्थन दे रहे थे वे भी डर गए कि एक प्रो-पाकिस्तानी ताकत को कैसे समर्थन देंे?

कहीं आप यह तो नहीं कहना चाह रहे कि इंडियन स्टेट का भी हित ऐसी ताकतों को बढ़ावा देने का रहा है?

संजय काक : सौ फीसदी स्टेट का रोल रहा है। यह समझ कि वे सिर्फ पाकिस्तानी हैं, गलत है। इस आंदोलन से नब्बे के दशक की शुरूआत में वैसे सेक्यूलर, लिबरल जो कश्मीरी सेंटीमेंट से जुड़े थे, उनमें से कईयों को मार डाला गया। किसने मारा? इस पर आज तक विवाद है। जैसे एक प्रसिद्ध वकील की हत्या हुई। वह आतंकवादियों का केस लड़ते थे। एक ऐसा आदमी जो मिलीटेंट का केस लड़ता है उसे वही लोग क्यों मारेंगे? स्थानीय लोग कहते हैं कि उस वकील को इंटेलीजेंस के लोगों ने मरवाया। राज्यपाल जगमोहन के बाद कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ फिर भारत सरकार ने यह कहना शुरू कर दिया कि देखो ये तो पाकिस्तान चाहते हैं।

दोनों देशों के लिए कश्मीर बेहद परेशानी का सबब रहा है क्या कश्मीर के समस्या का हल दोनों देश के बंटवारे के वक्त (१९४७) में नहीं खोजा जाना चाहिए? १९४७-४८ में क्या ऐसी वजह बनी कि ६० वर्षों पश्चात भी बजाए सुलझने के कश्मीर उलझता जा रहा है?

संजय काक : मेरा अपना मानना है कि कश्मीर की समस्या को १९४७ से देखना सही नहीं है। वहां की ९५ प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या के उपनिवेशीकरण, गुलामी का इतिहास ५०० वर्ष से अधिक पुराना है। १४०० ई. के करीब तक कश्मीरी राजा था। अफगान, मुगल, सिख, डोगरा आए, हर १०० बाद एक नई साम्राज्यवादी सत्ता आई। डोगरा महाराज ने अंत में सिक्खों से कश्मीर को ६० लाख में खरीदा था। कश्मीर के लोगों में सांस्कृतिक स्तर पर, मनोवैज्ञानिक स्तर पर यह बात घर कर गई है कि हम उपनिवेश हैं। १९३० में शेख अबदुल्ला ने सामंतवाद विरोधी संघर्ष चलाना शुरु किया। जब डोगरा महाराज का राज चला गया तो लोगों को लगा कि अब हमारा राज आ गया। शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान से बचने के लिए हिन्दुस्तान से जुड़े। वे वैचारिक रूप से नेहरू के नजदीक थे। वे सेक्यूलर हो चुके थे। वहां के लोग काफी आशान्वित थे। १९५१-५२ से गड़बड़ शुरू हो गई। आपको जानना होगा कि १९५० में जो भूमि सुधार कश्मीर में हुआ उससे लोगों की आकांक्षा काफी बढ़ गयी थी। बहुत ज्यादा। ५०० वर्षों से जो गुलामी की दंश झेल रहे किसान, काश्तकार थे उन्हें लगा कि हमारा राज आ गया। उसके जवाब में आपने क्या किया? उनके सबसे बड़े नेता को जेल में ठूंस दिया, तो गुस्सा स्वभाविक रूप से बढ़ेगा, ये तमाम चीजें आपको कश्मीर की आंतरिक गतिशलता को समझने में मदद करंेगी। यह सिर्फ हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का मामला नहीं है। जेकेएलएफ १९६६ में मकबूल भट्ट ने शुरू किया था, जिसे बाद में फांसी लगायी गयी। राजनीतिक स्तर पर काफी कुछ चल रहा था। १९८९-९० से सामरिक पहलू (Militant asfeet) प्रधान होता गया। अफगान की जंग (१९७९-८९) खत्म हुई। पाकिस्तान को भी लगा कि सोवियत रूस को हरा दिया तो कश्मीर क्या चीज है? तो आर्म्ड मिलीटेंसी शुरू हो गयी।

आपके कहने का मतलब है कश्मीर के लोगों में गुलामी से मुक्ति एवं आजादी की कई सौ वर्षों पुरानी ख्व़ाहिश है। इसलिए कश्मीर के लोग मुख्यत: आजादी चाहते हैं भारत-पाकिस्तान दोनों से? मान लीजिए कश्मीर स्वतंत्र भी हो जाए विश्व स्तर या राजनैतिक शक्ति संतुलन अमेरिका के पक्ष में जिस कदर झुका है वैसे में कश्मीर के स्वतंत्र देश के बजाए दक्षिण एशिया में एक अमेरिका अड्डा बन जाने का खतरा नहीं होगा?

संजय काक : देखिए कश्मीर के लोग क्या चाहते हैं? हमें यह वहां लोगों से पूछना चाहिए कि वे क्या चाहते हैं? आजादी या और कुछ? लोग क्या चाहते हैं यह हम तभी जान पायेंगे जब उन्हें थोड़ी ढील दी जाएगी। यदि चुनाव करवाना है तो सैनिक कंपनी मौजूद नहीं रहनी चाहिए अन्यथा आप स्वतंत्र चुनाव नहीं करा सकते। कश्मीर में २० साल से मेजर बैठा हुआ है तो कैसे 'इलेकशन` होगा। आप कश्मीर के किसी भी छोटे शहर कुपवाड़ा, पांडीपूर आदि जायेंगे तो बोर्ड पर लिखा मिलेगा टाउन कमांडर-फलां-फलां। ऐसे में फ्री एंड फेयर इलेक्शन कैसे हुआ? कश्मीर में एसडीओ, बीडीओ, सरपंच, डीएम जैसी कोई चीज नहीं है। सब कुछ फौज के हाथ में है। तो सबसे पहला काम कश्मीर में सेना की वापसी, (De-miliratisation) होना चाहिए, कम से कम राजनीतिक कार्यकलाप सामान्य हो जाए। मैं कहना चाहता हूं कि यदि आपके आस-पास सात लाख सैनिक रहेंगे तो आपका जीवन कैसा होगा? पूरी दुनिया के सबसे ज्यादा मिलिटिराइज्ड जोन (सैन्यीकृत इलाके) में लगातार रहने पर आप कैसा महसूस करेंगे? इराक को कब्जे में रखने के लिए जितनी अमेरिकी सेना है उससे ज्यादा भारतीय फौज कश्मीर पर कब्जे के लिए तैनात की गयी है। खुफिया ऐजेंसियों का जाल बिछा है, इन पर अरबों रुपये खर्च किए जा रहे है। क्या वहां वही हो रहा है जो हमें बताया जा रहा है या दिखता है उपर से।

आप हमारे पाठकों को अपनी व्यक्तिगत पृष्ठभूमि के बारे में भी बतायें। डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाने की ओर कैसे रूख किया?

संजय काक : बीए अर्थशा से किया जबकि एमए समाजशा में-उस वक्त न्यूज पेपर जर्नलिज्म में जाने की ख्वाहिश थी। फिर किसी ने मुझे रिसर्च करने के लिए बुलाया। पहले जो एकेडमिक शिक्षा थी उसमें किसी चीज को गंभीरता से देखने का मौका न था। डाक्यूमेंट्री फिल्मों की तरफ जब बढ़ा तो पता लगा कि इसमें किसी भी मुद्दे पर पहले गंभीरता से रिसर्च करते हैं फिर उसे फिल्मों में अभिव्यक्त करते हैं। डाक्यूमेंट्री में काम करते हुए मुझे लगा कि यह एक इवाल्वड किस्म का फॉर्म है, इसमें काफी पोटेंशियल है। पिछले चार-पांच वर्षों से लग रहा है कि अच्छी फिल्मों का दौर है। अस्सी के दशक मंे टी.वी. का निजीकरण शुरू हो रहा था। दूरदर्शन की मोनोपॉली खत्म हो रही थी। इन सबके बीच २-३ साल काम किया। फिर चुनाव पर एक कार्यक्रम बनाया। प्रणव राय ने इसे अपने प्रोडक्शन में लिया। आज जैसी दुर्गत है इन सबकी, तब ऐसा न था।

१९९० के लगभग से मैं मुख्यत: डाक्यूमेंट्री पर काम कर रहा हूं। कई तरह की फिल्में बनायी हैं। डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकिंग का काफी बड़ा स्कोप है। १९९७ में आजादी की स्वर्ण जयंती पर डाक्यूमेंट्री बनायी। पंजाब में आतंकवाद के बाद औपचारिक चुनाव (formal election) जो हुआ उसे शूट किया। फिर तमिलनाडु में एक दलित रैली को। इन दोनों को लेकर देखा कि क्या बनता है? इनसे काफी बेचैन करने वाला अनुभव हुआ। पिछले १० वर्षों से जो भी किया, लगता है उस प्रथम डाक्यूमेंट्री के दौरान उठे सवालों के ही जवाब ढूंढ रहा हूं।

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