September 3, 2007

सचिन कुमार जैन

पानी विश्‍वयुद्ध नहीं ग़हयुद्ध का कारण बनेगा



हीं और नहीं मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के पास ही एक बड़ा औद्योगिक क्षेत्र है मण्डीदीप। उद्योगों से भरेपूरे इस क्षेत्र में पूंजीपतियों को पालने-पोसने में सरकार ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी। पर इन्हीं उद्योगों में काम करने वाले और मण्डीदीप के रहवासियों को पीने का पानी उपलब्ध कराने का मसला आया तो सरकार ने नजरें लगभग फेर लीं। जिस इलाके में १० दिन में एक बार पानी की आपूर्ति की जाती हो वहां लोगों का प्यास बुझाने के लिये भटकना स्वाभाविक है। यहां के १६ ट्यूबवेल में से चार में पानी का स्तर नीचे जा चुका है और बाकी बिजली की कमी से बेजार हैं। मण्डीदीप में ही एक और खतरनाक संकेत छिपा है। वह संकेत है पानी के सामुदायिक हक का। मण्डीदीप के पास से ही बेतवा बैराज से नगरपालिका ने पानी दिये जाने की मांग की थी किन्तु जल संसाधन विभाग ने यह स्प ट कर दिया कि बेतवा बैराज के पानी पर केवल औद्योगिक इकाइयों का हक है। बेतरतीब भूजल दोहन और खराब प्रबंधन के कारण इस इलाके का भूजल स्तर चार मीटर से नीचे जा चुका है पर सरकारी रिकार्ड में यह क्षेत्र जल सुरक्षित क्षेत्र माना जाता है क्योंकि यहंा पीने का पानी आम लोगों को भले ही न मिले पर इलाके में पानी का औसतन व्यय ४० लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तो हो ही रहा है फिर भले ही उसमे से ३७ लीटर पानी उद्योग ही क्यों न ले रहे हों !


आश्चर्य की बात है कि गर्मी का मौसम शुरू होने से पहले मध्यप्रदेश के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री ने रतलाम में २४ फरवरी २००७ को यह कहा था कि इस साल चूंकि बारिश अच्छी हुई है इसलिये राज्य में पानी का कोई संकट सामने नहीं आयेगा। इसका मतलब तो यही नजर आता है कि सरकार मानती है कि पानी के प्रबंधन की कोई जरूरत नहीं है, और पानी का संकट केवल बारिश की मात्रा से जुड़ा है। परन्तु यह सरकारी सोच समाज के लिये बहुत घातक है क्योंकि जिस तरह से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया गया है और पृथ्वी के गर्म होने के प्रमाण हमारे सामने आये हैं, उसे अच्छे मानसून से भी सुधारा नहीं जा सकता है। जल संरक्षण के नाम पर राज्य में बेतहाशा स्टपडेम बनाये गये हैं और अभी भी बनाये जा रहे हैं किन्तु हरदा नगरपालिका के अध्यक्ष, पार्षदों और स्थानीय लोगों ने मिलकर ४ मई २००७ को अजनाल डेम नदी पर बने हुये बांध को तोड़ दिया क्योंकि इस नदी की झीलों के लगभग मृतप्राय स्थिति में पहुंच जाने के कारण बिरजाखेड़ी पंप हाउस के पास पानी कम हो गया जिससे पीने का पानी लोगों को मिलना बंद हो गया। जंगलों के विनाश, शहरीकरण और पानी के अनियोजन के कारण मध्यप्रदेश की नदियां भी अब सूखने लगी हैं। जिसके फलस्वरूप पानी के लिये भूजल उपयोग पर निर्भरता खूब बढ़ी है। सरकार भी विरोधाभासी स्थिति में काम कर रही है। एक ओर तो ११वीं पंचवयोजना में भूजल स्तर को बढ़ाने के लिए ९० करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है किन्तु भूजल के दोहन के लिये सरकार १८० करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करने वाली है। वर्तमान आर्थिक और औद्योगिकीकरण की नीतियों के तहत उद्योगों को उनकी जरूरत के मुताबिक बिजली और पानी (वह भी रियायत के साथ) उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता सरकार ने प्रदर्शित की है। जहां तक आम आदमी के लिये पीने के पानी के अधिकार का सवाल है उन्हें तो टैंकरों से जलापूर्ति के भरोसे ही रहना होगा। इसी साल सरकार लगभग ९ करोड़ रुपये खर्च करने वाली है जिससे लगभग ३० हजार टैंकर पानी की आपूर्ति होगी परन्तु निजी स्तर पर समुदाय अपनी जरूरत पूरी करने के लिये मध्यप्रदेश में साढ़े तीन करोड़ रुपये खर्च कर चुका है। जीवन की सबसे बुनियादी जरूरत है पानी, जिसके बिना अस्तित्व बनाये रखना संभव नहीं है। और जीवन की सबसे बड़ी जरूरत होने कारण ही पानी बाजार के लिये एक भारी फायदे की वस्तु बन चुका है। इतना ही नहीं पानी का फायदा उठाने के लिये सरकार ने भी बाजार को खुला छोड़ दिया है। एक ओर औद्योगिक इकाईयां बेतरतीब जलदोहन कर रही हैं वहीं दूसरी ओर बहुरा ट्रीय और अब तो रा ट्रीय कम्पनियां भी एक लीटर शीतल पेय बनाने के लिये ४१ लीटर पानी का उपयोग कर रही हैं। जलाभाव के कारण जिन परिस्थितियों का निर्माण राज्य में हो रहा है वह चिंता पैदा करने वाले है। यह तो कहा ही जा चुका है कि पानी अगले विश्वयुद्ध का कारण बनेगा; परन्तु अब इस वक्तव्य में बदलाव लाने की जरूरत है। पानी विश्वयुद्ध का नहीं बल्कि गृहयुद्ध का कारण बनेगा। वर्ष २००५ में मध्यप्रदेश में पानी के लिये होने वाले टकराव के २२७ मामले दर्ज हुए थे, २००६ के वर्ष में ऐसे ३०३ मामले हुये और व र्ा २००७ में अब तक ५८७ मामले दर्ज हो चुके हैं। इस साल तो शिवपुरी, हरदा और इन्दौर में स्थानीय शासन निकायों के जनप्रतिनिधि भी सरकार के विरोध में सड़कों पर उतर आये। केन्द्रीय भूजल बोर्ड (जल स्थिति का आकलन-विश्लेश्‍ण करने वाली सरकारी एजेंसी) के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार राज्य के २२ जिलों में भूजल स्तर दो से चार मीटर तक गिर चुका है। जबकि १४ जिलों में यह गिरावट चार मीटर से ज्यादा दर्ज की गई है। भोपाल अब देश में सबसे ज्यादा गैस्ट्रोएन्टार्टिस से प्रभावित लोगों वाला शहर है। २२ जिलों में पानी में फ्लोरोसिस की मात्रा बढ़ी है। एक अध्ययन के मुताबिक सिवनी में १६ हजार बच्चे और गुना में १२० गांव फ्लोरोसिस की अधिकता से प्रभावित हैं। राज्य के ३०११८ स्कूलों में आज भी पीने का साफ पानी बच्चों को उपलब्ध नहीं है। मध्यप्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़ों के अनुसार प्रदेश की ८१९२ नल और सतही जल प्रदान करने वाली योजनाओं में से १५०७ योजनायें बंद हैं जबकि ९९८८ हैण्डपम्प जल स्तर कम होते जाने के कारण बंद हो चुके हैं। राज्य से अब और क्या अपेक्षायें की जा सकती हैं जबकि मध्यप्रदेश में २४५१७ बसाहटें ऐसी हैं जहंा सरकार पानी की न्यूनतम जरूरत को भी पूरा नहीं कर पाई है। इनमें से ज्यादातर बसाहटें जलस्रोतों से ३ से ५ किलोमीटर दूर हैं। वास्तव में आजीविका और रोजगार का संकट वैसे ही राज्य के तीन करोड़ लोगों को परेशान किये हुये है, अब तो पानी भी उन्हें नसीब नहीं हो रहा है। ऐसे में राज्य को यह जरूर याद करना होगा कि जीवन की बुनियादी जरूरत और बुनियादी अधिकार के दायरे इतने सीमित न होने दिये जायें कि आम आदमी का दम घुटने लगे। पानी की कमी ऐसी कमी नहीं है जिसे लोग नियति मान कर स्वीकार कर लेंगे। इस पर प्रतिक्रिया होगी। आज टुकड़ों-टुकड़ों में संघर्ष हो रहा है, कल निश्चित रूप से संगठित संघर्ष होगा।

सचिन कुमार जैन मीडिया अध्येता हैं।

( जून,2007 में प्रकाशित )

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