September 18, 2007

शांति प्रक्रिया का परिप्रेक्ष्य

कश्मीर



  • राम पुनियानी



कश्मीर का खून पिछले कई दशकों से बह रहा है। निश्चित तौर पर पिछले कुछ सालों में समस्याओं की तीव्रता घटती दिखी है, हालांकि यह पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। हरी वादी में लाल धब्बे हैं। चरमपंथियों और सश बलों के खून के लाल धब्बे। कश्मीरियों की हत्याओं, चरमपंथियों द्वारा हत्याओं और दूसरी अन्य झड़पों की निरंतर खबरें आती हैं। सेना और चरमपंथियों के बीच की गोलीबारी में अनेक आम कश्मीरी नागरिक मारे जाते हैं। जबकि पाकिस्तान 'द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत` के आधार पर दावा करता है कि कश्मीर पाकिस्तान का है, भारत दावा करता है कि विलय की संधि के आधार पर कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। जब इन देशों में से कोई भी बातचीत चाहता है, दूसरा पीछे हट जाता है और दो राष्ट्रों के बीच लुका-छिपी का खेल होने लगता है। इन सब के असली पीड़ित कश्मीरी लोग हैं और कश्मीरियत है, जो इस धरती की विशिष्ट और गौरवशाली धरोहर है।

स्वतंत्रता आंदोलन के समय पर एक नजर डालना आज के कश्मीर के विक्षोभ में योगदान दे रहे प्रमुख कारकों को समझने में हमारी मदद करेगा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान दोनों सांप्रदायिकों, मुस्लिम लीग एक तरफ और हिंदू महासभा-आरएसएस दूसरी तरफ, और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की समझ एक जैसी थी। ब्रिटिशों के भी 'बांटो और राज करो` की नीति के आधार पर अपने साम्राज्य के हित थे, जिनके लिए दोनों रंगों के ये सांप्रदायिक उनकी कठपुतली बन गये। उपनिवेशवादियों और सांप्रदायिकों के गहरे कपटपूर्ण रिश्ते थे। सांप्रदायिकों ने ब्रिटिशों के खिलाफ संघर्ष नहीं किया। ब्रिटिशों ने उन पर कभी लगाम नहीं लगायी, उस समय को छोड़ कर जब वे एक-दूसरे से नफरत करने में सीमाएं लांघने लगे। दुर्भाग्यवश सांप्रदायिकों और उपनिवेशवादियों के इस मुकम्मल सैद्धांतिक गंठजोड़ का नतीजा विभाजन की त्रासदी के रूप में सामने आया।

कश्मीर मुद्दे के इतिहास पर आते हैं, स्वतंत्रता के समय ५००० से अधिक रजवाड़े थे। इन रजवाड़ों को तीन विकल्प दिये गये। १. भारत में विलय, २. पाकिस्तान में विलय, ३. स्वतंत्र रहना। राजाओं को भौतिक निकटता और जनमत के आधार पर निर्णय लेने के दिशा-निर्देश दिये गये। अधिकतर राज्यों की समस्याएं आसानी से सुलझ गयीं जबकि हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर के शासकों ने निर्णय लेने में हिचक दिखायी। हैदराबाद और जूनागढ़ सैन्य कार्रवाई के जरिये भारत में मिले।

जम्मू-कश्मीर ८० प्रतिशत से अधिक मुसलमानों के साथ मुस्लिम बहुल राज्य था। कश्मीर के राजा हरि सिंह स्वतंत्र बने रहना चाहते थे और उनका कश्मीर को एशिया के स्विट्जरलैंड की तरह विकसित करने का इरादा था। उन्होंने भारत और पाकिस्तान दोनों को यथास्थिति बरकरार रखने की संधि का प्रस्ताव दिया। पाकिस्तान ने संधि स्वीकार ली, भारत ने इनकार कर दिया। कश्मीर की स्थिति के बारे में किसी अंतिम निर्णय तक पहुंच सकने से पहले ही, पाकिस्तान ने कश्मीर पर चढ़ाई कर दी, कबीलों के भेस में सेना के जरिये। कश्मीर ने स्वतंत्र रहना चुना था। जिन्ना अपने पड़ोस में एक स्वतंत्र मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य (कश्मीर) का होना बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। तर्क था कि चूंकि कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक हैं, इसलिए उन्हें पाकिस्तान में मिल जाना चाहिए। यही वह वजह थी जिस कारण कबीलाइयों के भेस में पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला किया।

इसी तरह प्रजा परिषद (जो कि भाजपा के पूर्ववर्ती संस्करण जनसंघ का पूर्ववर्ती थी) के पंडित प्रेमनाथ डोगरा, ने हिंदू राजा को सलाह दी कि वे एक धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ 'हिंदू राज्य` (कश्मीर) का विलय न करें। उनका मानना था कि राज्य की प्रकृति राजा के धर्म से निर्धारित होती है। पंडित डोगरा जैसे लोग कैसे हैदराबाद को कैरेक्टराइज करते होंगे, जहां का शासक एक मुसलिम था?

कश्मीरी लोग पाकिस्तान में विलय नहीं चाहते थे। पाकिस्तानी हमले के सम्मुख जब हरि सिंह अपनी सुरक्षा में भाग खड़े हुए, शेख अब्दुल्ला ने बड़ी जिम्मेवारियां निभायीं। अगर शेख अबदुल्ला जिन्ना-सावरकर के राजनीतिक स्कूल से निकले होते तभी वे मार्च करती हुई पाकिस्तानी सेना के आगे पाकिस्तान में विलय पसंद कर सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं था। वे कश्मीरियत को पसंद करने वाले लोगों में थे। कश्मीरियत जो सूफी, ऋषि और बौद्ध परंपराओं से मिल कर बनी संस्कृति है, इसी समन्वयवादी संस्कृति की श्रेष्ठता के लिए, न कि इस या उस धर्म के लिए। वे हमेशा लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खड़े हुए। जब पाकिस्तानी कबीलों ने कश्मीर पर हमला किया, नेशनल कांफ्रेंस के प्रमुख शेख अबदुल्ला ने हमले के बाद के परिदृश्य में बड़ी भूमिका निभायी। कश्मीर के तत्कालीन राजा ने दूतों के जरिये भारत से कश्मीर को बचाने के लिए सेना भेजने के लिए बात चलायी। शेख अब्दुल्ला ने इसका समर्थन किया और सुनिश्चित किया कि भारतीय सेना हस्तक्षेप करे।

नेहरू ने कहा कि जब तक कोई समझौता नहीं हो जाता, भारत उस राज्य में सेना नहीं भेज सकता, जहां इसका कोई वैधानिक आधार नहीं है। इसके बाद राज्य के लोगों के लिए अनुच्छेद ३७० के सुरक्षाकवच के साथ एक समझौते का प्रारूप बना। संधि का सिद्धांत था 'दो प्रधान, दो विधान।` भारत को सुरक्षा, विदेश मामले, संचार एवं मुद्रा व्यवस्था देखनी थी, जबकि असेंबली बाकी दूसरे मामलों में फैसला लेगी। भारतीय संविधान के प्रावधान कश्मीर पर लागू नहीं होने थे, क्योंकि कश्मीर का अपना संविधान था। इन शर्तों के साथ भारत ने अपनी सेना भेजी। तब तक पाकिस्तानी सेना कश्मीर के एक तिहाई हिस्से पर कब्जा कर चुकी थी। लोगों की जान न जाये, इससे बचने के लिए युद्ध विराम घोषित कर दिया गया और मामला संयुक्त राष्ट्र पहुंचा। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के मुताबिक, दोनों सेनाओं द्वारा अधिकृत कश्मीर में एक जनमत संग्रह कराया जाना था, जिसकी निगरानी संयुक्त राष्ट्र को करनी थी। यह अब तक नहीं हो पाया है। पाकिस्तान ने अपने कश्मीर को आजाद कश्मीर के बतौर घोषित किया। भारतीय हिस्से का भी अपना प्रधानमंत्री, सदरे रियासत था।

भारत सरकार बाद में कश्मीर की स्वायत्तता को धीरे-धीरे घटाते और क्षीण करते हुए उसे जबरन भारत में मिला लेने संबंधी, जनसंघ के श्यामाप्रसाद मुखर्जी और अन्य अतिराष्ट्रवादी तत्वों के, दबाव में आ गयी। कश्मीर के लोकप्रिय प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने भारत सरकार के दबावों को नकार दिया। सांप्रदायिक दबाव बढ़ने पर ही वे अमेरिकी राजदूत के पास भी पहुंचे किन्तु स्वतंत्र कश्मीर का विचार बह गया। देशद्रोह के आरोप में कई सालों के लिए उन्हें जेल की सजा दे दी गयी और धीरे-धीरे कश्मीर के प्रधामंत्री का पद मुख्यमंत्री में और सदरे रियासत का पद राज्यपाल में बदल दिया गया और भारतीय संविधान की पहुंच कश्मीर तक विस्तारित हो गयी। भारत में सरकार ने कश्मीर के मामलों को सुपरवाइज करना शुरू किया। लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर से कमजोर होती गयी।

सभी केंद्रीय सरकारों ने कश्मीर के मामले में स्थानीय नेतृत्व पर अविश्वास के आधार पर काम किया है। १९८४ में फारूक अब्दुल्ला की बर्खास्तगी और १९८७ के चुनावों में भारी धांधली के बाद घाटी के लोगों में मोहभंग की प्रक्रिया पूरी हो गई और युवा हिंसा के रास्ते की ओर बढ़ने लगे। इसने कश्मीरी युवाओं में एलियेनेशन की प्रक्रिया शुरू की। इसका नतीजा लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर पाबंदी के कारण चरमपंथ के उभार के रूप में सामने आया। आंतरिक असंतोष ने आतंकवाद को समर्थन देना शुरू किया। इसे और आगे बढ़ाते हुए, पाकिस्तान ने अपने चरमपंथी भेजने शुरू किये और समस्या दिन-ब-दिन बदतर होती गयी। फिर फारूक अब्दुल्ला को सात वर्षों का लंबा कारावास दे दिया गया, जिसने दिखलाया कि केंद्रीय सरकार चुने हुए स्थानीय जनप्रतिनिधियों पर कतई विश्वास नहीं करती। दूसरा कारण था अलकायदा का प्रवेश। अलकायदा, जो अफगानिस्तान में सोवियत सेना से लड़ने के लिए अमेरिका द्वारा खड़ा किया गया था, वहां अपना लक्ष्य पाने के बाद घाटी में प्रवेश कर गया।

८० के दशक में भारत में बदतर होते सांप्रदायिक परिदृश्य में कश्मीर के आतंकवाद ने आग में घी का काम किया। जबकि उसी दौरान कश्मीरी पंडितों और स्थानीय मुस्लिम आबादी के सद्भाव के बीच सांप्रदायिक नजरिया फैलाया जाने लगा। आतंकियों ने इस विकृति को और बढ़ाया। आतंकियों के एक हिस्से ने हिंदुओं को इसी उद्देश्य से निशाना बनाना शुरू किया। हिंदुओं मेंे भय और असुरक्षा की भावना व्याप्त हो गयी।

जगमोहन, जो कश्मीर के राज्यपाल नियुक्त हुए थे, इस आधार वाक्य पर काम करते थे कि सभी कश्मीरी मुसलमान आतंकवादी हैं और इसलिए यदि पंडित घाटी छोड़ दें तो वे चरमपंथियों से दृढ़ता से निपट सकेंगे। इसके बाद उन्होंने पंडितों के समक्ष घाटी छोड़ने का प्रस्ताव रखा। मुस्लिम समुदाय के स्थानीय नेताओं ने इसका जोरदार विरोध किया। मगर जगमोहन द्वारा प्रोत्साहित पंडितों ने घाटी छोड़ दी और शरणार्थी शिविरों में फटेहाल जिंदगी जीने लगे। यह भी जरूर उल्लेेख किया जाना चाहिए कि आतंकी हिंसा के पीड़ितों में बड़ी संख्या मुसलमानों की है जो या तो मारे गये या घाटी छोड़ कर चले गये। दो पड़ोसी देशों के बीच की समस्या को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया। कश्मीरी नेतृत्व के पास पाकिस्तान में विलय के सारे मौके थे, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। यहां तक कि विभिन्न सर्वेक्षणों के मुताबिक आज भी अनेक कश्मीरी मुस्लिम पाकिस्तान में विलय का विरोध करते हैं।

भारतीय शासकों की नीतियों कश्मीरियों की मानवीय आकांक्षाओं के दमन, भारत सरकार द्वारा लोकप्रिय सरकारों की बार-बार बर्खास्तगी के नतीजे में तीव्र आक्रोश ;ंसपमदंजपवदद्ध के बावजूद कश्मीरी जनता आज भी पाकिस्तान को एक विकल्प के रूप में नहीं देखती। उसकी प्रमुख मांग होती है संधि में किये गये वादे के अनुसार उनकी स्वयत्तता को बरकरार रखा जाये; उनकी प्रमुख आकांक्षा है कश्मीर के एथनिक चरित्र को बचाये रखना एवं पाकिस्तानी दखलंदाजी और भारतीय राज्य के अविश्वास के फलस्वरूप होनेवाली गोलीबारी से दूर एक सामान्य जीवन जी सकना। हाल में कराये गये जनमत सर्वेक्षणों में से आउटलुक द्वारा कराये गये सर्वेक्षण (१६ अक्टूबर, २०००) से यह उजागर हुआ कि ७४ प्रतिशत लोगों के अनुसार जो जरूरत थी, वह थी-कश्मीर की अलग पहचान। १६ प्रतिशत वृहत्तर स्वायत्तता के पक्ष में थे और केवल २ प्रतिशत पाकिस्तान में विलय चाहते थे। ३९ प्रतिशत लोग अब भी महसूस करते थे कि समाधान भारतीय संविधान के दायरे में ही पाया जा सकता है। चरमपंथी गतिविधियों में तीव्रता १९९० के बाद आयी, १९८७ के चुनाव में धांधली के नतीजे के रूप में। हम कश्मीर में चरमपंथियों द्वारा हत्याओं और संपत्ति के विनाश पर एक नजर डालेंगे।

कश्मीरी पंडित विभिन्न दिशाओं से हो रही गोलीबारी के पीड़ित हैं। पंडितों का भारी संख्या में घाटी से पलायन घाटी की परंपराओं के लिए गहरा झटका है। आगे दर्ज आंकड़े चरमपंथियों द्वारा दोनों समुदायों के, न कि केवल हिंदुओं के नुकसानों को दिखाते हैं। पहले १९८६ में पंडितों ने सोचा था कि वे पलायन कर जायेंगे, लेकिन यह फैसला बहुलतावादी संस्कृति में रचे-बसे सद्भावना मिशन, जिसमें प्रतिष्ठित कश्मीरी शामिल थे, के तहत स्थगित कर दिया गया। १९९० में चरमपंथ खड़ा हुआ। इस समय हार्डकोर दक्षिणपंथी मिस्टर जगमोहन कश्मीर के गवर्नर थे और उन्होंने पंडितों के गुडविल मिशन के खात्मे को जम्मू प्रवास कर जाने का दबाव डाल कर सुनिश्चित किया (पुरी कश्मीर, ओरियेंट लांगमैन, १९९४ पृष्ठ-६५)। टीम के पंडित सदस्यों में से एक बलराज पुरी ने मार्च, १९९० में लिखा-'मैंने कश्मीर में मुसलमानों में पंडितों के खिलाफ कोई शत्रुता नहीं पायी, सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों की जांच की जरूरत है।` उस समय हिंदू सांप्रदायिक शक्तियों ने पंडितों के बीच भय और आतंक फैलाने का बीड़ा उठा लिया। 'ढेर सारी गलत सूचनाएं जम्मू और दिल्ली में फैलनी शुरू हुइंर् कि कश्मीर में कितने हिंदू मंदिर और तीर्थ भ्रष्ट या ध्वस्त कर दिये गये। यह केवल आंशिक सच था और यह विस्मयकारी था कि सरकार ने दूरदर्शन को कश्मीर में मंदिरों पर कार्यक्रम करने को नहीं कहा, ताकि लोग आश्वस्त हो सकें कि उनका कोई नुकसान नहीं होगा` (प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, १९९१)। अत: पंडितों के पलायन की समस्या कश्मीरी लोगाों के गुस्से के फलस्वरूप उभरे चरमपंथ, हिंदू सांप्रदायिकों द्वारा फैलाये गये आधारहीन भय के मानस और राज्यपाल जगमोहन के दबाव का दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा है न कि हिंदू-मुस्लिम शत्रुता का।

१९८८ से २००० तक जम्मू कश्मीर में चरमपंथ से जुड़ी हिंसा में हुई मौतें हमें बताती हैं कि यह एक सांप्रदायिक मुद्दा नहीं है। (अनुवाद : ममता श्रीवास्तव)

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