आपातकाल - एक डायरी
आइएएस अधिकारी विशन नारायण टंडन सात वर्षों (१९६९-७६) तक प्रधानमंत्री के संयुक्त सचिव रहे।
भारतीय जनतंत्र के इतिहास में यह समय कितना महत्वपूर्ण बन गया है यह सर्वविदित है। यहां प्रस्तुत
है इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल के निर्णय के दौरान लिखी गई उनकी तीन दिन की डायरी
भारतीय जनतंत्र के इतिहास में यह समय कितना महत्वपूर्ण बन गया है यह सर्वविदित है। यहां प्रस्तुत
है इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल के निर्णय के दौरान लिखी गई उनकी तीन दिन की डायरी
२५ जून, १९७५
आज सुबह नये गृह सचिव (खुराना) मुझसे मिलने आये। मेरा परिचय उनसे बीस वर्ष पुराना है। राजस्थान के मुख्य सचिव के पद पर काम करते समय भी वे मुझसे हर दस-पन्द्रह दिन में मिला करते थे। आज केवल औपचारिकता के नाते आये थे। उनका सुझाव है कि मैं वर्धन की जगह गृह मंत्रालय मेंं आ जाऊं। मंत्रालय को मुझसे बड़ी सहायता मिलेगी। वे मेरी सहमति चाहते थे।
प्रधानमंत्री आजकल कार्यालय नहीं आ रही है। काम का वातावरण नहीं है। वैसे भी काम कुछ कम है।
सन्ध्या को शिक्षामंत्री प्रो। नूरुल हसन एक मीटिंग के सिलसिले में साउथ ब्लॉक आये थे। मीटिंग समाप्त होने पर मेरे पास आकर घंटा-भर बैठे रहे। उन्होंने आजकल की स्थिति के सन्दर्भ मेंे दो बातें कही। पहली तो यह कि प्रधानमंत्री को निर्वाचन सम्बन्धी विधान में संशोधन करा लेना चाहिए। जब जनता चाहती है (चाहे इसका प्रदर्शन किराये की रैलियों ने किया) तो यह देश के हित में है कि प्रधानमंत्री की अयोग्यता कानूनी तरीके से दूर कर दी जाये। किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। इस विषय पर वे प्रधानमंत्री को पत्र लिखेंगे। दूसरी बात उन्होंने कही कि संसद का सत्र अवश्य होना चाहिए। जनता में विश्वास इसी से दृढ़ होगा, पर वे इस विषय पर प्रधानमंत्री से न कुछ कहना चाहते हैं, न लिखना चाहते हैं। क्यांे? उत्तर की आवश्यकता नहीं।
नूरुल हसन के जाने के बाद मैं रुस्तम जी से मिलने चला गया। गृह मंत्रालय के कुछ कागजात मेरे पास दो-चार दिन से पड़े हैं। प्रधानमंत्री को प्रस्तुत करने से पहले उनसे बातचीत करना आवश्यक था। रुस्तम जी से जब बातचीत समाप्त हुई, वहीं देवेन्द्र सेन आ गये। मैं उनके साथ उनके कमरे में चला गया। देवेन्द्र सेन ने बताया कि प्रधानमंत्री निवास पर सब काम संजय के निर्देशन में हो रहा है। उसने स्थिति का पूरा चार्ज ले लिया है। एक-दो दिन पहले निगमेंद्र (देवेन्द्र सेन के छोटे भाई और सी।आर.पी. के महानिदेशक) को प्रधानमंत्री निवास पर बुलाया गया। संजय ने उनसे मुलाकात की और सुप्रीम कोर्ट के फैसले वाले दिन सी.आर.पी. का क्या प्रबन्ध हो, इस पर निर्देश दिये। प्रधानमंत्री ने न निगमेंद्र को बुलवाया था, न वे उनसे मिलीं।
आज की दो बातें मुझे अजीब लग रही हैं। दोपहर को किशन चन्द का फोन आया था। वे कह रहे थे कि बहल और नवीन चावला के घर 'रैक्स` आज ही लग जाने चाहए। सहज भाव से कहा अगर रात में जरूरत पड़े तो क्या होगा? मैंने उनसे बहस नहीं कि और कहा कि खुराना से कह दीजिए। दूसरे जयपुर से भनोट का फोन आया था। वह राजस्थान का कार्यवाहक मुख्य सचिव है। वह चाहता था कि मैं उसे एयरफोर्स का प्लेन दिलवा दूं। प्रधानमंत्री ने आज ही मुख्यमंत्री को दिल्ली पहुंचने को कहा है, पर वे अपने परिवार में एक विवाह के उपलक्ष्य में डूंगरपुर गये हुए हैं। मैंने उससे भी यही कहा कि खुराना से बात करो। पर मुख्यमंत्री को एकदम यहां बुलाने की आवश्यकता क्या हो गयी? एकाध दिन बाद भी आ सकते हैं। मैंने प्रो। खुराना से पूछा पर उन्हें भी कुछ पता नहीं है।
२६ जून, १९७५
कल रात एक बजे के बाद रैक्स पर खुराना का फोन आया। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मुझे कुछ मालूम है कि प्रधानमंत्री ने कुछ निर्देश दिये हैं जिनको आज रात में ही कार्यान्वित करना है। उन्होंने बताया कि दिल्ली के उप-राज्यपाल ने उन्हें फोन किया था और चण्डीगढ़ के मुख्य आयुक्त ने। चण्डीगढ़ के मुख्य आयुक्त को पंजाब के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री के कुछ निर्देश दिये हैं। निर्देश यही थे कि विरोधी दलों के नेताओं को गिरफ्तार करना था। मैंने अपनी अनभिज्ञता प्रकट की। उनके बार-बार पूछने पर यही सलाह दी कि वे गृहमंत्री या ओम मेहता से बात करें। मुझे शेषन की बात याद आयी। उसका कहना ठीक निकल रहा है। आश्चर्य यह कि बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हांेगी, पर गृह सचिव को इसका कुछ पता नहीं। निर्मल मुखर्जी को बताना ठीक नहीं था पर खुराना की नियुक्ति तो तभी की गयी है जब वे विश्वसनीय पाये गये हैं। उन्हें भी नहीं बताया गया।
सुबह जब उठा तो कम्मी ने कहा कि वर्धन का फोन आया था, उनसे बात कर लूं। एक परिचित पत्रकार का फोन भी सुबह आया था कि रात में लगभग १०० विरोधी नेता गिरफ्तार किये गये हैं। अखबर केवल 'स्टेटसमैन ` और 'हिन्दुस्तान टाइम्स` आये थे बाकी छपे ही नहीं । इन्हीं पत्रकार ने कम्मी को बताया था कि उनकी बिजली काट दी गयी थी, जिससे छपाई नहीं हुई।
सुबह जब उठा तो कम्मी ने कहा कि वर्धन का फोन आया था, उनसे बात कर लूं। एक परिचित पत्रकार का फोन भी सुबह आया था कि रात में लगभग १०० विरोधी नेता गिरफ्तार किये गये हैं। अखबार केवल 'स्टेट्समैन` और 'हिन्दुस्तान टाइम्स` आये थे। बाकी छपे ही नहीं। इन्हीं पत्रकार ने कम्मी को बताया था कि उनकी बिजली काट दी गयी थी, जिससे छपाई नहीं हुई।
मैं सुबह कभी रेडियो नहीं सुनता, पर आज कम्मी मेरे कमरे में ट्रांजिस्टर ले आयी। उसे पता लगा था कि राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री का सन्देश आने वाला है। वह मैंने सुना। प्रधानमंत्री ने बहुत अटक-अटक कर अपना सन्देश हिन्दी में पढ़ा। बाद में अंग्रेजी में बहुत ठीक से पढ़ा। सन्देश यही था कि राष्ट्रपति ने आपात्काल की घोषणा कर दी है, पर घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। विरोधी दलों के भीषण षड्यंत्र से देश को बचाने के लिए ऐसा करना आवश्यक हो गया था। कुछ तत्व प्रजातंत्र के नाम पर प्रजातंत्र को समाप्त करने में लगे हुए हैं। उन्हें ऐसा करने से रोकना है (मेरे मन में प्रश्न हुआ-कौन है वह?)
कार्यालय के लिए जब घर से निकल रहा था तो शारदा का फोन आया। उसने अंग्रेजी में कहा, 'सब सुन लिया। सब कुछ समाप्त हो गया। (यू मस्ट हैव हर्ड इट इज ऑल ओवर) कार्यालय आओगे तो पूरी बात होगी।` शारदा का स्वर बहुत दबा हुआ था।
कार्यालय में मैं सीधे शारदा के कमरे में ही गया। उसने मुझे विस्तार से, जो कुछ उसे मालूम था, बताया। कल रात दस बजे प्रधानमंत्री ने प्रो। धर और शारदा को अपने निवास-स्थान पर बुलाया। वहां बरुआ और सिद्धार्थ पहले से ही उपस्थित थे। जब प्रो. धर और शारदा पहुंचे तो प्रधानमंत्री ने कहा, 'आई हैव डिसाइडेड टु डिक्लेयर इमर्जेंसी। प्रेजीड़ेण्ट हैज एग्रीड। आई विल इन्फार्म द कैबिनेट टुमौरो।` यह कहते हुए आपात्काल की घोषणा का प्रारूप प्रो. धर के हाथ में रख दिया। प्रो. धर और शारदा आवाक् रह गये, उन दोनों को केवल सूचना देने के लिए बुलाया गया था और उनकी सलाह चाहिए थी प्रचार अभियान के लिए। उन दोनों से प्रधानमंत्री ने 'राष्ट्र के नाम सन्देश` का प्रारूप भी तैयार करने को कहा। वे दोनों लगभग एक बजे तक प्रधानमंत्री निवास पर रहे। सुबह छ: बजे मंत्रिपरिषद् की मीटिंग थी।
सुबह की मीटिंग में जो मंत्री दिल्ली में थे, सभी उपस्थित थे। प्रधानमंत्री ने भूमिका बतायी, पर किसी एक मंत्री ने भी चूं तक नहीं की। किसी प्रकार का विरोध नहीं। केवल सरदार स्वर्ण सिंह ने कुछ प्रशासनिक प्रश्न किये। मंत्रिपरिषद् में रात को की गयी गिरफ्तारियों की बिल्कुल चर्चा नहीं हुई। किसी एक मंत्री ने कहा कि उन्होंने सुना है कि कुछ गिरफ्तारियां हुई हैं, पर बात टाल के वहीं समाप्त कर दी गयी। प्रो। धर को भी इन गिरफ्तारियों का कुछ पता नहीं था, शारदा ने बताया कि जे.पी., मोरारजी, चरण सिंह आदि सब प्रमुख विरोधी नेता गिरफ्तार कर लिये गये हैं।
शारदा ने यह भी बताया कि प्रधानमंत्री निवास पर पूरा कन्ट्रोल संजय ने ले लिया है। मंत्रिपरिषद् की मीटिंग के बाद उसने गुजराल को बुला कर प्रचार-कार्य के प्रति अप्रसन्नता और असंतोष प्रकट किया। कहा कि आगे से हर समाचार बुलेटिन प्रधानमंत्री-निवास पर भेजा जाये। इस पर गुजराल ने कहा कि कार्य की दृष्टि से अच्छा होगा कि किसी अधिकारी को मनोनीत कर दिया जाये। वह ए.आर. में ही रहे। उसे सब बुलेटिन दिखा दिये जायेंगे। उन्होंने शारदा का नाम सुझाया, पर संजय ने इसे स्वीकार न करके इस काम के लिए बहल की ड्यूटी लगायी।
जब ये सब बातें हो रही थीं वी।आर. भी वहीं आ गया था। शारदा की बात सुनकर उसने कहा कि अब इस देश में भी 'गाइडेड डेमोक्रेसी` ही रहेगी। शारदा ने हल्का-सा 'हां` कहा।
शारदा थका हुआ तो काफी था। १५ जून से हमारे सचिवालय में सबसे अधिक काम उस पर ही पड़ा है क्योंकि प्रधानमंत्री की पूरी स्टे्रटेजी प्रचार-अभियान पर ही आधारित है। पर शारीरिक थकान से अधिक मानसिक क्लेश में था। मैंने शारदा को कभी ऐसा नहीं देखा था। शारदा अवश्य ही सोच रहा होगा कि क्या ऐसी ही स्वतंत्रता के लिए वह १९४२ में जेल गया था। शारदा पत्रकार है। स्वतंत्रता के बाद पहली बार देश में 'प्री-सेंसरशिप` लागू की गयी है।
शारदा के कमरे से आने पर मुझे सन्देश मिला की पन्त मुझसे एकान्त में बातचीत करना चाहते हैं; मैं कब उनके घर जा सकता हूं? पन्त भी अन्य मंत्रियों की भांति कायर हैं। मैं क्यों इस बीच में पड़ूं? मैंने वासुदेवन को बुलवाया। वह पन्त का विशेष सहायक है। मेरे साथ मेरठ में काम कर चुका है; गा़ज़ियाबद में ज्वाइंट मैजिस्ट्रेट था। उसको बुलाकर मैंने समझाया कि जो कुछ हुआ है मुझे उसकी पूरी जानकारी नहीं है। पन्त से बात करने में इसलिए अभी कोई लाभ नहीं। मैं उनसे दो-चार दिन में मिल लूंगा।
वासुदेवन ने कहा कि पन्त जी में किसी से कुछ कहने की हिम्मत नहीं है। वे मुझसे यही पूछेंगे कि प्रधानमंत्री की क्या मदद की जाये? पर मैं जानता हूं अन्दर-ही-अन्दर प्रधानमंत्री से कितने दु:खी होंगे।
शेषन आज कार्यालय बहुत देर से आया। आते ही मेरे पास आया। कहा कि-'देखिए, मैंने कहा था। पर मेरी समझ में नहीं आता कि आगे क्या होगा? कब तक ऐसे चलेगा? संजय ने पूरा कन्ट्रोल से ले लिया है।`
दिन-भर मन बहुत उदास रहा। मन में बहुत कटुता भी आ गयी थी। क्या प्रजातंत्र का अन्त वास्तव में आ गया? मैं दिन-भर अपने कमरे में ही रहा। प्रो। धर से भी मिलने नहीं गया। क्या करता मिल कर? उनकी व्यथा मैं समझ सकता हूं । मैंने सोचा कि आपात्काल सम्बन्धी सब काम नया होगा। मेरी इच्छा भी यह काम करने की नहीं है। मैंने बहल से बात की कि वह यह काम करे। उसे लाया भी इसलिए गया है कि काम बढ़ेगा और धीरे-धीरे वह मेरा काम भी समझ ले। मैं बार-बार यही सोच रहा था कि आज पण्डित जी की आत्मा पर क्या बीती होगी?
मैंने पहले लिखा है कि मंत्रिपरिषद् में किसी मंत्री ने कोई विरोध नहीं किया। यह बड़ी गम्भीर बात है। संविधान की धारा ७७ के अन्तर्गत भारत सरकार के राजकाज के जो नियम बने हैं, उसके अनुसार राष्ट्रपति को आपात्काल की घोषणा करने की सिफारिश करने के लिए मंत्रिपरिषद् की बैठक आवश्यक थी। इन्हीं नियमों में प्रधानमंत्री को अधिकार है कि वह यदि आवश्यक समझे तो बिना मंत्रिपरिषद् की बैठक किये भी कोई निर्णय ले सकते हैं। पर प्रश्न है कि क्या इस विषय पर मंत्रिपरिषद् की बैठक नहीं की जा सकती थी? निर्णय प्रधानमंत्री ने स्वयं लिया। ऐसा क्यों?
दूसरी बात यह है कि राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री की सलाह इन परिस्थितियों में क्यों मानी? वे संविधान की तनिक भी अवहेलना नहीं करते होते, यदि वे प्रधानमंत्री से कहते कि वे इस प्रस्ताव पर पूरे मंत्रिपरिषद् की राय जानना चाहेंगे। पता नहीं उन्होंने ऐसा कहा या नहीं, पर ये तो साफ है कि ऐसा हुआ नहीं। प्रधानमंत्री जब राष्ट्रपति से मिलने गयी थीं, तो सिद्धार्थ साथ थे। इन दोनों से मिलकर ही राष्ट्रपति को सहमत कराया। मेरी जानकारी में यह पहली बार है जब राष्ट्रपति ने केवल प्रधानमंत्री की राय पर इतना महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया हो।
२७ जून, १९७५
आज भी सुबह कोई समाचारपत्र नहीं आया। कब तक ऐसे चलेगा? कार्यालय आकर मैंने शारदा से पूछा तो उसने कहा कि सभी समाचारपत्रों के प्रेसों की बिजली कटी हुई है, फिर छपाई कैसे हो? यह केवल ढींगाढींगी से किया जा रहा है, किसी कानून के अन्तर्गत नहीं।
शारदा से मिलने के बाद मैं प्रो. धर के पास गया। कल उनसे नहीं मिला था। मैंने उनसे दो बातें कहीं-एक, आपातकाल घोषित करने की राष्ट्रपति की विज्ञप्ति मुझे संवैधानिक दृष्टिकोण से त्रुटिमय लगी। विधि मंत्रालय से परामर्श करना चाहिए। दो, जिन नेताओं को पकड़ा गया है उनको गिरफ्तारी के कारण देने में बड़ी सतर्कता की आवश्यकता होगी। प्रो. धर ने मेरी बात सुनी, संविधान के इससे सम्बन्धित अनुच्छेद भी पढ़े और फिर कहा कि मैं दोनों बातें बहल को समझा दूं। पर जैसे ही मैं उनके कमरे से निकला, मुझे वापस बुला कर कहा कि जब इस सम्बन्ध में मुझसे और आपसे काई राय ली ही नहीं गयी है तो अब हम लोग क्यों बीच में पड़ें। उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह सब काम विधि पण्डितों से पूछकर किया गया होगा, हमें इसमें नहीं पड़ना चाहिए। अन्त में कहा कि तुम कितने भागयशाली हो कि जब यह सब हुआ तो एक और अधिकारी इस सचिवालय में आ गया था। सरकारी क्षेत्रों में यही धारणा होगी कि इस काम में नये अधिकरी का हाथ है। लेकिन मेरे लिए लोग क्या सोचेंगे। मुझे तुम्हारे भाग्य से ईर्ष्या होती है। मैं चुपचाप उनके कमरे से चला आया। उनकी पीड़ा ने उनकी आंखों को नम कर दिया था।
आज प्रधानमंत्री ने भारत सरकार के सचिवों की एक मीटिंग की (कुछ अतिरिक्त सचिव भी उस मीटिंग में थे)। उनको सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि उन्होंने जो कुछ भी किया है प्रजातंत्र को बचाने के लिए किया है। प्रजातंत्र के नाम पर प्रतिपक्ष प्रजातंत्र की हत्या करने पर कटिबद्ध था। हमें न तो संसद में कुछ काम करने दिया जाता था न बाहर। निर्वाचित सदस्यों को विधानसभाओं से त्यागपत्र देने को बाध्य किया जा रहा था। अनुशासनहीनता को इससे बढ़ावा मिल रहा था। स्थिति धीरे-धीरे खराब हो रही थी। सरकार कब तक यह बर्दाश्त करती? बहुत से विदेशी नेताओं और राजदूतों ने प्रधानमंत्री से समय-समय पर यह कहा कि सरकार इन गतिविधियों के प्रति इतनी नर्म क्यों है? प्रधानमंत्री ने यह आशा ही व्यक्त नहीं की, बल्कि यह आश्वासन दिया कि सरकार ने जो कदम उठाये हैं, वे अस्थायी हैं और शीघ्र-से-शीघ्र सामान्य स्थिति लाने का प्रयत्न किया जायेगा।
प्रधानमंत्री ने सरकारी कर्मचारीगण की भी प्रतारणा की। राजनीतिज्ञों के प्रति उनका दृष्टिकोण ठीक नहीं है। उसमें सुधार लाना आवश्यक है।पर सबसे गलत बात है वरिष्ठ अधिकारियों का अनाप-शनाप बात करना। कई विदेशी राजदूतों ने प्रधानमंत्री को बताया है कि पार्टियों में भारतीय अधिकारी शराब पीकर इस प्रकार से बोलते हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि अनाप-शनाप बात करने की प्रवृत्ति बिल्कुल बन्द होनी चाहिए। इस सन्दर्भ में उन्होंन मंत्रालयों की कार्यक्षमता सुधारने पर बल दिया और कई छोटी-मोटी बातें कहीं।
कुछ अन्य बातें जो प्रधानमंत्री ने कही वे इस प्रकार थीं :
१. प्रतिपक्ष 'नाज़ीवाद` फैला रहा है। नाज़ीवाद केवल सेना और पुलिस के उपयोग से ही नहीं आता है। कोई छोटा समूह जब गल़त प्रचार करके जनता को गुमराह करे, वह भी नाजीवाद का लक्षण है।
२. भारत में दूसरे दलों की सरकारें चाहे बन जायें, पर वे मार्क्सवादी कम्युनिस्टों और जनसंघ की सरकार नहीं बनने देंगी।
३. जयप्रकाश के आन्दोलन के लिए रुपया बाहर से आ रहा है।
४. सी.आई.ए. बहुत सक्रिय है, के.जी.बी. का कुछ पता नहीं, लेकिन उनके कार्य का कोई प्रमाण अभी तक सामने नहीं आया है। (मतलब यह था कि वे कोई गल़त काम नहीं कर रहे हैं।)
५. प्रतिपक्ष का सारा अभियान उनके (प्रधानमंत्री) विरुद्ध था।
६ इसके अतिरिक्त उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं नजर आता जो इस समय देश के सामने आयी हुई चुनौतियों का सामना कर सके।
मीटिंग के बाद मुझसे वी.आर. ने पूछा कि इस स्पष्टीकरण से किसे सन्तोष हुआ होगा?
प्रधानमंत्री आज कार्यालय कई दिनों के बाद आयी थीं। मैं उनसे मिला। कोई विशेष बात नहीं हुई। कुछ रुटीन बातों पर आदेश देने थे। एक केस के सम्बन्ध में वे जानना चाहती थीं कि यू.पी.ए.सी. ने एक अमुक प्रत्याशी को इण्टरव्यू के लिए क्यों नहीं बुलाया और उसे चुना क्यों नहीं? मैंने कहा कि यू.पी.एस.सी. इसके कारण कभी सरकार को लिखकर नहीं भेजती। कहने लगीं कि मैं किदवई (यू.पी.एस.सी के अध्यक्ष) से मिलकर उनसे पूछूं। प्रधानमंत्री की जानकारी के लिए उन्हें बताने में आपत्ति नहीं करनी चाहिए। जब मैं उनके पास बैठा था किसी का फोन आया (बाद में मालूम पड़ा कि मध्य प्रदेश के राज्यपाल सत्य नारायण सिन्हा का था) कि सरकार को संविधान के अनुच्छेद ३५९ (१) के अन्तर्गत शीघ्र आदेश प्रसारित करने चाहिए। प्रधानमंत्री ने मुझसे यह अनुच्छेद समझाने को कहा। उसमें समय लगा। मैं करीब ३५ मिनट प्रधानमंत्री के पास रहा। मुझे उनकी परेशानी कम नजर नहीं आयी।
सूचना पर नियंत्रण लग गया है। पर आई।बी. की रिपोर्ट से यह स्पष्ट है कि स्थिति इतनी सामान्य नहीं है, जितना सरकार चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है। तरह-तरह की अफवाहें फैल रही हैं। एक अफवाह का तो सरकारी प्रवक्ता को खण्डन करना पड़ा। यह अफवाह थी कि जगजीवन राम व चव्हाण अपने घरों में बन्दी बनाये गये हैं। बात बिल्कुल गल़त है, पर इससे यह स्पष्ट है कि पढ़ी-लिखी जनता इन दो नेताओं से क्या अपेक्षा करती थी।
रात में वर्धन ने बताया कि उन्होंने बह्मानन्द से आज दिन में बात की थी। वर्धन को लगता है कि सरकार की कोई 'स्ट्रैटजी` नहीं है। यदि आन्देालन-चाहे कितना हल्का हो-शांतिपूर्ण रहा और अदालतों ने बंदियों को छोड़ना शुरू किया, फिर सरकार क्या करेगी? ब्रह्मानन्द, वर्धन के अनुसार, बिल्कुल अनमने-से हैंं उन्होंने कहा कि मुझसे कब कुछ पूछा गया? पर अब भी उनकी प्रधानमंत्री से बात करने कह हिम्मत नहीं है।
रात में प्रधानमंत्री निवास से फोन आया। प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को दो मंत्रियों के विभागों के परिवर्तन के बारे में पत्र लिखना चाहती हैं। मुझसे उनका प्रारूप मांगा था, वह मैंने फोन पर ही डिक्टेट कर दिया।
पालकीवाला ने प्रधानमंत्री का वकील रहना अब अस्वीकार कर दिया है। नारीमन, एडीशनल सोलीसिटर जनरल, ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया है। देश में अभी कुछ लोगों की आत्मा मरी नहीं है। इस अन्धकार में यही एक प्रकाश की रेखा लगती है।
( जून, 2007 अंक में प्रकाशित )
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