धर्म का असली धंधा
पिछले दिनों एक निजी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में कई बाबा काले धन को सफेद बनाने के लोभ में फंस गये। इस चक्कर में एक नहीं बल्कि सात-सात बाबा धरे गये हैं। इनके नाम हैं-पायलट बाबा, वेदांती महाराज, किरीट महाराज, स्वामी सूर्यम नंबूदरी, प्रज्ञानंद, आचार्य प्रमोद एवं बाबा अनिल जोशी। इस सिनेमाई घटना में रोमांच भी बहुत था। एक बाबा के बारे में टीवी पर दिखाकर दूसरे बाबा से उस पर प्रतिक्रिया ली जा रही थी। प्रतिक्रिया देने वाले बाबा फंस चुके बाबा के लिए बहुत कुछ बोल रहे थे। ब्रेक के बाद प्रतिक्रिया देने वाले बाबा ने पूरी सांस भी नहीं ली थी तभी उनके भी 'काले-सफेद` धंधे में शामिल होने का प्रमाण प्रसारित किया जाने लगा।
इससे पहले ये लोगों को धर्म और आध्यात्म की कहानियां सुनाते थे 'यह संसार कागज की पुड़िया है, बूंद पड़े घुली जाना है।` मोह और माया के बंधनों से मुक्त होने की सलाह तो हर बाबा, हरेक मिनट में देते ही रहते हैं। काला और सफेद करने के चक्कर में लोगों के सामने यह बात आ गयी कि ये धन कुबेर हैं। संत या फकीर होने का केवल ढोंग रचते हैं। यह ढोंग पूरी दुनिया में अलग-अलग समय में अलग-अलग तरीके से किया जाता रहा है। यूरोप में पोप अपना महल बनवाने के लिए लोगों को बीच स्वर्ग का टिकट बांटते थे। लोग स्वर्ग का टिकट लेने के लिए सुबह से शाम तक पंक्तियों में खड़े रहते थे। इन पंक्तिबद्ध लोगों में अथाह संपत्ति वाले और खाते-पीते लोग ही रहते थे। टिकटों का स्वरूप अलग-अलग था। पैसों के आधार पर स्वर्ग जाने और वहां की सुविधा का इंतजाम कराने का प्रलोभन पोप द्वारा दिया जाता था। स्वर्ग की लालसा भूखों और नंगों के मन में नहीं जगती। वे भूख मिटाने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। भारतीय संदर्भ में धर्म के बाजार में पैसों के खेल के बारे में राजेन्द्र्र यादव ने 'हंस` के मई, २००७ अंक में संपादकीय लिखा है-'विदेश में रह रहे अप्रवासी भारतीयों के मध्य अस्मिता की समस्या उन्हें नए सिरे से हिंदू बनाती है। जैसे-जैसे वहां की जिंदगी उन्हें संपन्न और समर्थ करती जाती है, वैसे-वैसे वे सांस्कृतिक कर्ज चुकाने के नाम पर यहां के मंदिरों-बाबाओं की आर्थिक मदद करते रहते हैं। बाबरी मस्जिद ध्वंस और राम मंदिर निर्माण में इन हिन्दुओं ने सोने की ईटें भिंजवाई थीं और यहां (दिल्ली) जो हजारों करोड़ के 'अक्षरधाम` बन रहे हैं, वे सब भी इन्हीं एनआरई प्रवासियों द्वारा हिंदुत्व के लिए योगदान की कृपा है। न जाने कितने बाबा, संत, भगवान, जादूगर करोड़ों मिलियन डॉलर लूट रहे हैं। धर्म और आध्यात्म इन दिनों सबसे ज्यादा बिकने वाला माल है।`जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव ने स्टिंग ऑपरेशन में पकड़े गये बाबाओं को तत्काल गिरफ्तार करने और उनसे कड़ी पूछताछ की सराहनीय मांग की। हालांकि अपनी सदिच्छा के बावजूद उन्हें इस सवाल पर भी गौर करना चाहिए कि आखिर उनके धन कुबेर बनने के इंतजाम में कौन से कारक सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं? इसके उलट शरद यादव ने यह तर्क दिया कि 'हवाला के आरोप में देश के नामचीन ६४ राजनेताओं के खिलाफ अदालत में चार्जशीट दायर हुई, लोकसभा में प्रश्न पूछने के लिए निर्वाचित सदस्यों को १३ दिन में सदस्यता से वंचित कर दिया गया और कबूतरबाजी के आरोप में फंसे सांसदों को लोकसभा में आने से रोक दिया गया तो अंधविश्वास फैलाने वाले इन भ्रष्ट बाबाओं की गिरफ्तारी क्यों नहीं हो रही?` अगर भ्रष्ट सांसदों के साथ ऐसा सलूक किया गया है तो इसमें आपत्तिजनक बात क्या है? हां इन सांसदों के अलावे अन्य सांसद भी भ्रष्ट हैं और उनपर उंगली किसी खास कारणों से नहीं उठायी जा रही तो श्री यादव को उस पर भी जरूर हंगामा खड़ा करना चाहिए। उनकी चिंता वाजिब है कि लोगों को धर्म की दुहाई देकर मालामाल होते बाबाओं पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। लेकिन शरद यादव के अखबारों में प्रकाशित बयानों में यह चिंता ज्यादा झलकती है कि बाबा की कमीज सांसदों से ज्यादा मैली होने पर भी उनपर कोई नोटिस क्यों नहीं लिया जा रहा है। आज धर्म बाजार का एक 'माल` बन चुका है। वह जीवन को सुंदर बनाने का स्रोत न रहकर, जीवन को कई स्तरों पर बाधित कर रहा है। सभी जानते हैं कि धर्म के नाम पर हुए लगभग सभी दंगों में पुलिस की सक्रिय भूमिका पायी गयी है।
यहां कुछ सवाल उन चैनल वालों से भी पूछा जाना चाहिए जो बाबाओं की इन करतूतों पर शोर मचा रहे थे। २४ घंटे चलने वाले तमाम खबरिया चैनलों पर धर्म के नाम पर अंधविश्वास की घटनाओं को महिमामंडित करके क्यों बेचा जाता है? बाबाओं और माताओं के माध्यम से चैनल तमाम तरह की अवैज्ञानिक बातों के प्रचार में क्यों जुटे हुए हंै? वे देश और दुनिया में हो रहे आम लोगों की लड़ाई की खबरें क्यों नहीं प्रकाश में लाते हंै? इन चैनलों पर बिहार, मध्यप्रदेश के सूदूर इलाकों में कौन अपने को सांप से कटवा रहा है, इसकी खबरें तो प्रसारित होती है, परंतु दिल्ली, पटना और भोपाल आदि जगहों पर आम जनता के हक की लड़ाई की खबरें क्यों दबा दी जाती हैं? मालूम हो सिर्फ दिल्ली में जंतर-मंतर पर प्रत्येक साल तीन हजार से ज्यादा धरना, प्रदर्शन आदि आयोजित होते हैं। क्या चैनल वाले हिसाब देंगे कि इतनी बड़ी तादाद में हो रहे विरोध कहां गुम करा दिये जाते हैं? इतनी भारी संख्या में हो रहे विरोध-प्रदर्शनों का कितना प्रतिशत वे आम लोगों के बीच खबर बनाकर ले जाते हैं? दरअसल इन चैनलों का काम बाबा, सेक्स रैकेट, क्रिकेट और बॉलीवुड की खबरों में लोगों को उलझाकर अपने लिए धन उगाहना है। इससे रोज-ब-रोज के रोटी के मुद्दे हाशिये के हाशिये पर आप ही आप चले जाते हैं। साफ सी बात है कि बाबा जीवन-दर्शन और आधात्मय की गठरी खोलने के लिए बड़े भक्तों (अमीरजादों) से खूब सारा माल लेते हैं। साथ ही 'धन, धन को उत्पन्न करता है` के सिद्धान्त पर ये बाबा कई तरह के आयोजन और प्रयोजन करते हैं। अन्यथा क्या बात है कि स्वामी रामदेव के योग-शिविर में टिकट उन्हीं को मिलता है जो २५०-५००० रुपया खर्च करने की शक्ति रखते हैं? पूंजीवादी व्यवस्था माल बनाने की खूली छूट देती है। यह व्यवस्था इसके लिए वातावरण भी तैयार करती है। माल बनाने के लिए आप कुछ भी कर सकते हैं। देह, गुर्दा, खून, धर्म, ईमान कुछ भी बेचकर आप मालदार हो सकते हैं। दीगर बात है कि पूंजीवादी व्यवस्था में माल बनाने के लिए आपको पूंजीवादी इल्म भी सीखना पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि मोटा काटने के लिए आपको शोषण करना सीखना होगा। बाबाओं ने धर्म को बाजार में आसानी से बेचने की कला सीख ली है इसलिए वे मालामाल हो गये। जो पकड़े गये उन्होंने अपनी हुनरमंदी में शायद कुछ लूपहोल अवश्य छोड़ दिये होंगे।
( जून,2007 अंक में )
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