प्रवास और अर्थव्यवस्था का संकट
साल की शुरुआत बिहारियों पर हमलों से हुई, जब असम में ४९ बिहारी मजदूर और छोटे व्यवसायी मार दिये गये। मगर सिर्फ असम में ही नहीं, दूसरे राज्यों में भी बिहारियों पर हमले होते रहे हैं। बहुत दिन नहीं हुए जब राज ठाकरे के समर्थकों ने महाराष्ट्र में बिहारी दुकानदारों पर हमले किये। इसके अलावा कई अन्य राज्यों में बिहार से गये मजदूरों, परीक्षार्थियों पर लगातार हमले हो रहे हैं या उन्हें धमकियां मिल रही हैं।
बिहारियों पर हमले का मामला प्रवासी मजदूरों से जुड़ा हुआ है और मजदूरों के प्रवास का मामला अर्थिक प्रक्रिया और वर्तमान आर्थिक प्रगति से। जिस तरह देश की अर्थव्यवस्था में रोजगारविहीन विकास हो रहा है उससे संकट और बढ़ेगा। जिस गति से बेराजगारों की संख्या बढ़ रही है उस गति से रोजगार नहीं पैदा हो रहे हैं, उल्टे सरकारों द्वारा अपनायी जा रही नीतियों से रोजगार खत्म हो रहे हैं। कहना न होगा कि यह वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह द्वारा शुरू किये गये आर्थिक उदारीकरण का नतीजा है। तथाकथित उदारीकण के शुरूआती दौर में (१९९३-९४) बेरोजगारी ६ प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी। १९९९-२००० में यह दर बढ़ कर ७.३ प्रतिशत हो गयी। इसने दो करोड़ ७० लाख अतिरिक्त बेरोजगार पैदा किए। इससे भी बदतर बात यह है कि इनमें से ७४ प्रतिशत लोग गांवों में रहते हैं और उनमें से ६० प्रतिशत लोग शिक्षित हैं।
जहां तक बिहार की बात है, यहां सभी क्षेत्रों में विकास की हालत काफी बदतर है। नये रोजगार का सृजन नहीं हो रहा है। हाल ही में राज्य के बारे में प्रस्तुत एक सरकारी आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक बिहार में लगभग चार करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। सरकार ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि उडीस़ा को छोड़ दिया जाये तो देश में सर्वाधिक बुरी हालत बिहार की है। यहां प्रति व्यक्ति आय में काफी अंतर है। राजधानी पटना में प्रति व्यक्ति आय ६,९५८ है तो शिवहर में यह मात्र २,२१९ रु है। बिहार में लगभग ९० प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के प्राथमिक पोषक के बतौर कृषि आज भी लोगों का मुख्य आधार बनी हुई है। लेकिन इसकी उत्पादकता कम है। बिहार में कृषि मानसून पर बुरी तरह निर्भर है। हालांकि सकल कृषि क्षेत्र का ५७ प्रतिशत भाग सिंचित है। लेकिन यहां की सिंचाई खुद भी मानसून के सतही जल पर ही निर्भर है। राज्य के कुछ भौगौलिक क्षेत्रफल का ७३.०६ भाग बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र है जो पूरे देश के बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र का १७.२ प्रतिशत है। इसके अलावा यहां की औद्योगिक इकाईयों में से ३५ बीआइएफ आर द्वारा बीमार घोषित कर दी गयी हैं। बिहार में उद्योगों के इस तरह बंद होने का सबसे बड़ा कारण अधिसंरचनात्मक सुविधाओं की अपर्याप्तता है। कार्यशील पूंजी की कमी, कच्चे मालों की अनुपलब्धता, सड़कों तथा संचार सुविधाओं का अभाव, ऊर्जा की विपन्न व अनिश्चित स्थिति तथा अनुसंधानों का कमजोर सहयोग ही वे कारक हैं, जिनके कारण बिहार की औद्योगिक स्थिति इतनी बुरी अवस्था में पहुंच गयी। इसका सीधा असर राज्य के रोजगार की संभावनाओं पर पड़ा है।
मगर समस्या केवल बिहार तक ही सीमित नहीं है। देश भर में लगभग सभी बड़े उत्पादक क्षेत्रों में रोजगार के लचीलेपन (इंप्लायमेंट इलास्टिसिटी) में भारी कमी आयी है। कृषि में तो यह शून्य तक पहुंच गयी है। इससे एक तरफ तो देश की अर्थव्यवस्था अबाध गति से वृद्धि कर रही है मगर दूसरी ओर जनता की परेशानियों में भी इजाफा हो रहा है। रोजगार खत्म हो रहे हैं, मंहगाई बढ़ रही है। बाजार में स्पर्धा के नाम पर रही-सही नौकरियां भी खत्म की जा रही हैं। यह ऐसा विकास है जो जनता के लिए न होकर अर्थशाय़ों और पूंजीपतियों के लिए है।
देश के विभिन्न राज्यों के बीच मौजूद असमान विकास या क्षेत्रीय असंतुलन के साथ मिल कर बढ़ती हुई बेरोजगारी बड़े पैमाने पर मजदूरों के प्रवास को बढ़ावा देती है। यह पलायन या प्रवास तब होता है जब पैतृक स्थान पर व्यक्ति या समाज की आवश्यक जरूरतें पूरी न हो रही हों । भारत में राज्यों के बीच इतना असंतुलित विकास हुआ है कि सबसे विकसित और सबसे गरीब राज्य के बीच की खाई को पाटना अब दुरूह प्रतीत होने लगा है।
हमारे देश में कृषि अब भी वर्षा पर आधारित है और इसमें काफी निम्न वृद्धि दर के कारण लगातार रोजगार का क्षय हुआ है। देश भर में बेराजगारी में वृद्धि का एक बड़ा कारण यह भी है। भारत की अर्थव्यवस्था को देखें तो राज्यों के बीच में मजदूरों का प्रवास इसकी बड़ी विशेषता है। यह प्रवास सबसे गरीब और सबसे अविकसित राज्य से होता है। एक अध्ययन के मुताबिक बिहार की एक चौथाई आबादी प्रवास कर गयी है।
ऐसा नहीं है कि पहले बिहार से प्रवास नहीं होता था। मगर तब लोगों के लिए अस्तित्व का संघर्ष इतना तीव्र न था, रोजगार का इतना गहरा संकट न था। तब कलकत्ता या दिल्ली जाने का मतलब यह नहीं होता था कि प्रवासी वहां के लोगों का रोजगार छीन रहे हैं। मगर उदारीकरण के बाद से प्रवास करने का मतलब यह होने लगा है। हाल के वर्षों में बिहारी मजदूर भारी संख्या में विभिन्न राज्यों में गये हैं। लगातार दूसरी तरफ उन राज्यों में भी आम मजदूरों और बेराजगारों के लिए संकट बढ़ा है। प्रवासी बिहारियों के वहां होने का सीधा मतलब यह होता है कि वे उन राज्यों के स्थाई निवासियों के लिए रोजगारों के मौके को कम कर देते हैं। बिहार से गये मजदूर काफी कम मजदूरी पर काम करने को तैयार हो जाते हैं, जिसका अर्थ यह होता है कि वे स्थानीय मजदूरों की बारगेनिंग क्षमता घटा देते हैं।
बिहार से दो तरह के मजदूरों का पलायन होता है। एक तो वे लोग प्रवास करते हैं जो हाई स्क्ल्डि होते हैं। ये अधिक वेतनमान श्रेणी में आते हैं। इनका रहन-सहन का स्तर भी ऊंचा होता है। मगर इनके प्रवास से अंतर्विरोध कम पैदा होता है क्योंकि इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत मांग कम है। दूसरे तरह के मजदूरों में वे होते हैं जो कम वेतनमान के लिए प्रवास करते हैं । इसमें कम कार्यकुशलता की जरूरत होती है, इसलिए इनकी संख्या ज्यादा होती है इसलिए इस क्षेत्र मे अंतर्विरोध भी अधिक है।
इसके अलावा प्रवासी मजदूरों पर बढ़ते हमलों का एक कारण है हरेक स्तर पर आर्थिक संकट का बढ़ना। जब आर्थिक संकट बढ़ता है तो वह राजनीतिक संकट को भी बढ़ाता है और राजनीतिज्ञ इन संकटों का समाधान बड़े सतही ढंग से करते हैं-वे लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल करते हैं। वे उनकी सहानुभूति हासिल करने के लिए सारा दोष प्रवासी मजदूरों पर मढ़ देते हैं। इसके बाद वहां से बिहारियों को भगाने का एक जनमत तैयार होने लगता है। यह खतरनाक प्रवृति है, क्योंकि यह बिहारियों के संकट को और बढ़ा देती है।
तो ऐसे में इसका हल क्या हो सकता है? इसके लिए कई स्तरों पर एक साथ काम करना होगा। पहला यह कि सरकार स्थानीय तौर पर रोजगार देने की पूरी जिम्मेदारी ले। दूसरे यह कि दूसरे राज्यों के स्थानीय लोगों को समझाया जाये कि वे मिल कर काम करें। फिर बिहारी मजदूरों को यह कहा जाये कि वे कम दरों पर काम करने के लिए राजी न हों, और फिर वे अपने राज्य में ही संगठित होकर काम के लिए राज्य सरकार पर दबाव डालें, संघर्ष करें।
देश जिस दिशा में ले जाया जा रहा है, उसमें इसकी संभावना कम दिखती है कि सरकारें अपने ऊपर कोई जिम्मेदारी लेंगी। वे समस्याओं के समाधान में नहीं, तात्कालिक राहतों में भरोसा रखती हैं। यह बिहारियों के लिए कहीं से भी राहत दिलानेवाली बात नहीं है।
जन विकल्प के जून ,2007 अंक में प्रकाशित
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