जातिवाद का घिनौना खेल
यह आपबीती 1982 में जन्में उत्तर प्रदेश के टा जिले के दलित छात्र अजय कुमार सिंह की है जिन्होंने सन् 2002 में अखिल भारतीय अयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में एमबीबीएस कोर्स में दाखिला लिया सम्प्रति वे एमबीबीएस अंतिम वर्ष के छात्र हैं।
जब मैं आठवीं का छात्र था तो 'एम्स` का नाम सुना था। मेरी मां एक नर्स थी और जिस डॉक्टर के साथ वह एटा में काम करती थी, उनका एक भतीजा एम्स का छात्र था। एक बार वह एटा आया। मेरी मां की हार्दिक इच्छा थी कि मैं उससे मिलूं। उसने मुझसे कहा कि एम्स में दाखिला लेने के लिए बहुत पढ़ाई करनी होगी। उसी समय मैंने अपने आप से कहा कि एक दिन मैं जरूर एम्स का छात्र बनूंगा।
टेम्पो चालक पिता मुझे कोचिंग करने के लिए दिल्ली नहीं भेज सकते थे, यदि मेरे भौतिकी के शिक्षक की मदद से फीस में कटौती नहीं हुई होती। एम्स प्रवेश परीक्षा में मुझे ६६.१६ प्रतिशत अंक प्राप्त हुआ जो सामान्य कोटा के न्यूनतम अंक से ज्यादा ही था। मेरे पिता, निरपत सिंह और मां, मुन्नी देवी, को मुझ पर नाज था तथा मेरे आस-पड़ोस, सगे-संबंधियों, मित्रों, शिक्षकों के लिए मेरा एम्स में दाखिला एक बड़ी बात थी।
हॉस्टल में मुझे छोड़कर जैसे ही मेरे माता-पिता वापस लौटे कि मेरा एक सीनियर जो बगल के कमरे में रहता था, ने मुझे अपने कमरे में बुलाकर मेरा परिचय पूछा। जैसे ही उसे मेरी दलित पहचान के बारे में जानकारी हुई उसने मुझे इतनी जोर से धक्का मारकर कमरे से बाहर निकाला कि मैं जमीन पर गिर पड़ा। यह एम्स में मेरा पहला दिन था। दूसरी बार जब उसने मेरा अपमान करना चाहा तो मैंने शिकायत करने की चेतावनी दी। उसके बाद जब तक वह कैम्पस में रहा, उसने मुझसे कोई बात नहीं की और उसके दोस्तों ने मेरा बहिष्कार किया।
तब से लेकर आज तक पल-प्रतिफल मुझे नीच जाति में जन्म लेने की याद दिलायी गयी है। होस्टल के जिस विंग में मैं रहता था वहां 'कैटगरी` छात्र केवल मैं ही था। एक दिन मेरे कमरे के दरवाजे पर कागज पर लिखकर चिपकाया हुआ था, 'तुम्हारा रहना यहां किसी को अच्छा नहीं लगता है।` इसके बाद गंदी गाली लिखी हुई थी। एक और दिन कागज पर लिखकर चिपकाया गया, 'रूम नं.-४५ छोड़कर हर कोई कैरम बोर्ड का इस्तेमाल कर सकता है।` जब न तब मेरे कमरे के दरवाजे को जोर-जोर से पीटा जाता था। जब मैं दरवाजा खोलता था तो वहां कोई नहीं मिलता था। उन्होंने मुझे वहां से भगाने की पूरी कोशिश की, लेकिन मैंने भी प्रण कर लिया कि चाहे जो हो मैं यहां से नहीं जाऊंगा। मैंने धीरे-धीरे अपने को उन लोगों से काट लिया और केवल 'कैटगरी` छात्रों से मिलने जुलने लगा।
मैंने नवोदय विद्यालय में पढ़ाई की थी। वहां मैंने जातिवाद का जो अनुभव किया था वह एम्स के जातिवाद की तुलना में कुछ नहीं था। नवोदय विद्यालय में पढ़ते हुए मैंने सोचा था कि बड़े संस्थानों में पढ़ने से यह समस्या नहीं आयेगी। लेकिन अब मैं देश के सबसे बड़े संस्थान में था और बड़े संस्थानों के बारे में मेरी अच्छी राय निरर्थक साबित हो चुकी थी। कम से कम नवोदय विद्यालय में हमलोग साथ मिलकर खाते तो थे।
यह सही है कि सामान्य वर्ग के सभी छात्र जातिवादी नहीं होते हैं लेकिन जाति एम्स की तमाम चीजों में घुसी है। वे हमसे बात नहीं करते थे। छात्र संघ में हमारा कोई आदमी नहीं है। वे हमें क्रिकेट नहीं खेलने देते थे, बॉस्केटबाल के खेल में हमलोगों को एक बार भी पास नहीं देते थे। जातिगत घृणा वर्ष २००३ के वार्षिकोत्सव में भी खुलकर सामने आई। एम्स के वार्षिकोत्सव को पल्स कहते हैं। उन्होंने एक दलित छात्र को इतनी निर्दयता से पीटा कि उसका जिंदा बच जाना एक चमत्कार ही था। हम शिकायत लेकर गये। लेकिन प्रशासन दोनों (अर्थात् जिसने मारा और जिसने मार खाई!) को ही बर्खास्त करना चाहता था। मार खाने के बाद बर्खास्तगी, इसलिए उसने अपनी शिकायत वापस ले ली। २००६ के 'आरक्षण विरोधी आंदोलन` के समय में हमारे साथ उनकी बदसलूकी की हद हो गयी। उन दिनों कैम्पस में एक हजार से ज्यादा बाहरी लोग आकर रूके हुए थे। वे हमारे होस्टल में सोते थे तथा खाना खाते थे। 'ये चमार लोग क्या करेंगे` जैसे अपमानजनक जुमले हमारे ऊपर फेंके जाते थे। हमारी पिटाई करने के लिए वे हमेशा कोई न कोई झगड़ा करने के लिए तैयार रहते थे। उन्होंने कुछ रेसिडेंट डाक्टरों की पिटायी करने की योजना भी बनायी। शिकायत करना बेमानी था। कोई हमारी शिकायत सुनने के लिए तैयार नहीं था। मीडिया ने घटनाओं की ऐसी तस्वीर प्रस्तुत की मानो एसटी-एससी-ओबीसी सभी आरक्षण का विरोध कर रहे थे। 'कैटगरी` के नये छात्रों को रैगिग में घसीटकर आरक्षण विरोधी प्रदर्शनों में भाग लेने के लिए मजबूर किया जाता था। इनमें से कईयों को पुलिस की लाठियां भी पड़ी। उस नये छात्र को ट्रॉमा में जाते हुए मैं देखता रहा। मैंने निदेशक से कहा कि समय सीमा की समाप्ति के बाद भी रैगिंग को लंबा खींचा जा रहा है। निदेशक ने कोई कार्रवाई नहीं की। उन्होंने जिमखाना के सचिव, जो कि एक कैटगरी छात्र था, की भी पिटायी की। इससे हमलोग भयभीत हो गये। कोई रास्ता नहीं देखकर हमलोगों ने ज्ञापन देने का फैसला लिया। निदेशक डा. वेणुगोपाल ने चौबीस घंटों के अन्दर कार्रवाई करने का वादा किया-उन्होंने अपने वायदे को पूरा किया। ज्ञापन में जिन लोगों के खिलाफ हमने शिकायत की थी उन्हें सावधान कर दिया गया! वे हम सभी शिकायतकर्ता के पास एक-एक करके पहुंचे और शिकायत वापस लेने के लिए दबाव डाला और शिकायत वापस नहीं लेने की स्थिति में बुरे परिणामों को भुगतने की धमकी दी। हमलोगों ने शिकायत वापस नहीं ली। हमलोगों ने इस बार एम्स के अध्यक्ष को शिकायत भेजी। कोई जवाब नहीं आया। हम फिर मीडिया में पहुंचे। हमलोगों पर पल्स, २००६ में बाधा पहुंचाने का आरोप लगाया गया। जिससे हमारी बदनामी हो सके तथा आम छात्रों की भावनाओं को हमारे खिलाफ किया जा सके। अपनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए हमने पोस्टर चिपकाये कि हम पल्स के खिलाफ नहीं हैं तथा हम केवल इतना ही चाहते हैं कि हमारा उत्पीड़न नहीं हो। पल्स के दौरान एक सीडी का वितरण किया गया जिसमें डॉ भीमराव अम्बेदकर द्वारा लिखी किताबों को जलाते हुए दिखाया गया था। हमने सीडी के खिलाफ प्रेस सम्मेलन बुलाया। मुझे ज्यादा समर्थन नहीं मिला। एक जांच समिति गठित की गयी। उल्टा मुझसे ही सवाल किया गया कि मैं एम्स की छवि क्यों बिगाड़ना चाहता हूं। मैंने जवाब दिया कि जब हमारी मदद के लिए कोई आगे नहीं आ रहा था तो ऐसा करने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। कभी किसी 'कैटगरी` छात्र ने इस तरह अपनी आवाज नहीं उठायी थी।
उन्होंने मुझे सबक सिखाने के लिए तथा बाकी 'कैटगरी` छात्रों में डर पैदा करने के लिए मुझे दिसम्बर में आयोजित फाइनल प्रोफेशनल परीक्षा में फेल कर दिया। तीन बार फेल करने पर मैं मेडिकल की पढ़ाई से बाहर कर दिया जाऊंगा। मेरी दोबारा परीक्षा ली गयी जिसका विडियो रिकार्डिंग कराया गया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। यदि उन्होंने पहले से मुझे सूचित किया होता तो विडियो रिकार्डिंग के तहत परीक्षा देने में मुझे समस्या नहीं होती। मैंने निदेशक को एक और पत्र लिखा जिसमें गैर-कानूनी ढंग से विडियो रिकार्डिंग कराये जाने के खिलाफ शिकायत की। परीक्षा परिणाम आने के एक दिन पहले मेरा परीक्षा परिणाम लीक कर दिया गया। पूरे कैम्पस में पोस्टर साट दिया गया कि जिस छात्र ने प्रेस सम्मेलन बुलाया था तथा शिकायत की थी वह फेल कर गया है। मैंने पुलिस में शिकायत दर्ज करवायी। हमलोगों ने कई प्रतिरोध दर्ज किये जिसके परिणामस्वरूप केन्द्र सरकार ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष सुखदेव थोराट की अध्यक्षता में मामले की जांच के लिए एक कमिटी गठित की। एम्स के निदेशक ने कमिटी को काम करने के लिए एक कमरा तक नहीं उपलब्ध कराया तथा सुनवाई कैम्पस से बाहर हुई। मैंने सभी को इकट्ठा किया तथा समूह में कमिटी के सामने हम उपस्थित हुए।
मैं जानता था कि मैं फिर फेल करूंगा क्योंकि जो एकमात्र सवाल साक्षात्कार में मुझसे किया गया वह था कि 'थोराट रिपोर्ट के संदर्भ में आपकी संलिप्तता कितनी है?` छ:-सात छात्रों को आंतरिक मूल्यांकन में मुझसे कम अंक प्राप्त हुए थे, किन्तु वे सभी पास हो गये, जबकि मैं फेल कर गया। डेढ़ नंबर से मैं मेडिसिन में फेल कर दिया गया। मुझे बाद में पता चला कि फैकल्टी ऐसोशियेसन ने साक्षात्कार से दो दिन पूर्व प्रस्ताव पारित किया था कि कोई भी मेरा दुबारा साक्षात्कार नहीं लेगा। निदेशक ने गवर्निंग निकाय के इस आदेश को अब तक नहीं माना है कि नये परीक्षकों द्वारा दोबारा मेरी परीक्षा ली जाये।
यह सब मेरे जूनियरर्स को हड़काने के लिए किया जा रहा है। मैं फाइनल वर्ष में हूं। कॉलेज से मेरे निकलने के बाद मेरा उदाहरण मेरे जूनियरों को आतंकित करने के काम आयेगा।
पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय, संयुक्त राज्य अमेरिका में मुझे इंटर्नशिप करने का मौका मिला। एम्स इस बारे में कुछ कर नहीं सकता था। लिहाजा उन्होंने वहां अपने सीनियर्स से सम्पर्क साधा। मैंने सुना है कि उन्होंने उनको आश्वस्त किया है कि 'उसे ठीक कर दिया जाएगा।`
यदि मेरे भाग्य में डाक्टर बनना नहीं लिखा है तो मैं डाक्टर नहीं बन पाऊंगा। मैं भले कभी डॉक्टर न बन पाऊं किन्तु मुझे अन्याय एवं उत्पीड़न के खिलाफ खड़े होने का संतोष है। इसके पहले एम्स में आवाज नहीं उठी थी। लेकिन लोग अब विरोध में बाहर निकल रहे हैं। एम्स में फिलहाल ४५ 'कैटगरी` छात्र हैं और जब भी विरोध आयोजित किया जाता है। कम-से-कम चालीस जरूर उपस्थित होते हैं।
मेरे पिता टेम्पो चालक हैं किन्तु मेरे गृहशहर में उनकी बहुत इज्जत है। मेरे माता-पिता ने मुझे अपनी गरिमा को बचाए रखने की शिक्षा दी है, इसके लिए चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े। और मैं अभी वही कर रहा हूं। यद्यपि यह इतना आसान नहीं है किन्तु असंभव भी नहीं है।
(प्रवीण धोंथी से बातचीत पर आधारित अंग्रेजी साप्ताहिक 'तहलका` के २ जून, ०७ के अंक में प्रकाशित, अनुवाद : ज.वि.टी.)
जन विकल्प के जून,2007 अंक में प्रकाशित
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