साक्षात्कार
अमर्त्य सेन से क्रिस्टैबिली नोरोन्हा (Christabelle Noronha) की बातचीत
भारत को स्वतंत्र हुए ६० वर्ष हो आए हैं, लेकिन देश का आर्थिक विकास बहुत अधिक नहीं हो पाया है। आर्थिक मॉडल के लेखे क्या अब इस बात की जरूरत आ पड़ी है कि हमारे संविधान को एक नए नजरिए से देखा जाए ताकि समाज में आय की समानता हो सके?
अमर्त्य सेन : मुझे ऐसा लगता है कि भारतीय संविधान कई मायनों में एक अद्भुत संविधान है। भले ही इसमें कुछ जगह आंशिक सुधार की जरूरत है लेकिन मेरा मानना है कि इसकी आधारभूत संरचना एकदम दुरूस्त है। यह संविधान समानता के भाव पर एकाग्र है, विशेषकर नीति निर्देशक तत्वों वाले भाग में। यह संविधान कई स्तरों पर बराबरी का भाव बरतता है। यह आय के मोर्चे पर गैरबराबरी को अच्छा नहीं समझता है, साथ ही, शैक्षणिक अवसरों की असमानता, स्वास्थ सुविधओं की असमानता और जीवन में असमानता के अन्य बिंदुओं पर भी संवेदनशील रूख अपनाता है। मुझे लगता है कि बंटन-विभाजन विषयक मुद्दों (Distributional Issues) पर भी काफी कुछ मशविरा व निर्देश संविधान से ही प्राप्त हो जाते हैं।
केवल आय संबंधी असमानता ही नहीं वरन अन्य असमानताओं से भी हम प्रभावित होते हैं। आय की असमानता अक्सर अन्य क्षेत्रों में व्याप्त असमानता के चलते ही उत्पन्न होती है। उदाहरण के तौर पर, कभी-कभी शैक्षणिक अवसरों की असमानता ही आय संबंधी असमानता की मुख्य वजह होती है।
ऐसे अनेक मुद्दों, जो कि केन्द्रीय महत्व के हैं, लेकिन लगातार उपेक्षित रहे हैं और अब भी उपेक्षित हैं, का हमारे संविधान में खास ख्याल रखा गया है। मैं संविधान पर पुनर्विचार किए जाने की बनिस्बत संविधान को अधिक प्रभावकारी बनाये जाने का पक्षधर हूं। आय की असमानता का संबंध काफी हद तक दूसरों की अपेक्षा कुछ लोगों को अवसर नहीं मिल पाने से है।
मैं तो कतिपतय नीति निदेशक तत्वों का उन्नयन करते हुए एवं लोकनीति को समानता विषयक संवैधानिक सरोकारों की ओर मोड़ते हुए संवैधानिक प्रावधानों का लागू करने के पक्ष में हूं और मुझे लगता है कि इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है। मैं कतई अनुभव नहीं करता कि संविधान को, अभी बदलने की कोई जरूरत है। संवैधानिक गारंटी के तौर पर हमें पंक्षनिरपेक्षता तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों का संरक्षण प्राप्त है जो कि बहुसंख्यक समुदाय की तरफ से असहिष्णुता के खतरे से बचने के लिए खासा महत्व रखता है। हमारा संविधान धार्मिक उल्पसंख्यकों, उनकी संस्कृति एवं सरोकारों की रक्षा का वचन लेता है।
मुझे लगता है कि यह संविधान भारत के लिए एक अच्छा खासा पृष्ठपट करता रहा है क्योंकि यह समानता, स्वतंत्रता एवं अवसर प्रदान करने का हिमायती है। इन सभी क्षेत्रों में हमें भारतीय संविधान के निर्माताओं, खासकर डा. अंबेडकर के प्रति शुक्रगुजार होना चाहिए।
आपका अधिकांश शोधकार्य अर्थशा के मानवीय चेहरे के ईद-गिर्द केंद्रित है। आपका झुकाव इस ओर कैसे हुआ?
अमर्त्य सेन : मुझे लगता है कि मेरे कामों में अर्थशा के मानवीय चेहरे का आना एक जरूरी चीज है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मेरा अधिकांश शोधकार्य इसी के आस पास घूमता है। वस्तुत: कुछ मायनों में हर अर्थशा मानवीय पक्ष से जुड़ा होता है और इस तरह मानव जीवन, मानव-क्षमता, मानव स्वतंत्रता एवं मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में प्रत्यक्ष या परोक्ष मानवीय चेहरे से दो चार हुए बिना अर्थशा का अध्ययन किया जाना असंभव है। मेरा मानना है कि मेरे काम का एक हिस्सा जरूर उन क्षेत्रों पर केंद्रित है पर वह मेरे काम का सर्वांग नहीं है। वह मेरे काम का वह अंश नहीं है जिस पर काम करते हुए मैंने अपने जीवन का अधिकांश भाग बिताया है।
मेरा शोध-अध्ययन काफी कुछ सामाजिक वरण (Social Choice) की धारणा पर केंद्रित है, जिसमें मैंने दैनिक जीवन में उत्पन्न होने वाली अनेक समस्याओं को समझने के लिए एक बड़े परिप्रेक्ष्य ;तिंउमूवताद्ध का उपयोग किया है। ऐसी समस्याओं में निर्धनता का मूल्यांकन, असमानता का आकलन, सापेक्षिक वंचना की प्रकृति का स्पष्टीकरण, वितरण-सामंजित राष्ट्रीय आय के श्रोंतों का विकास करना, रोजगारहीनता से उपजे कष्टकारक दंडों का बयान करना, लोकतंत्र की कार्यस्थिति एवं परिणामों का अन्वेषण करना, व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन के केसों की व्याख्या करना तथा लैंगिक भेदभाव एवं महिलाओं की सापेक्षिक हानियों-कठिनाईयों की खास निशानदेही करना शामिल है।
मुझे लगता है कि अर्थशा में मानवीय मुद्दों के कतिपय पक्षों को प्राय: नजरअंदाज कर दिया जाता है क्योंकि महज अधिकाधिक लाभ पाने की दृष्टि से मानवीय व्यवहार को एक रूढ़ ढ़ग से देखना अपेक्षाकृत आसान काम होता है। ऐसे सपाट विश्लेषणों में आपसे सामाजिक सबंधों के कुछ खास पक्ष अनदेखे रह जाते हैं। हमें सार्वजनिक नीति पर प्रभाव डालने वाले अन्य पक्षों मसलन, मानव व्यवहार एवं इसकी जटिलता, मानव स्वतंत्रता एवं मानवाधिकार को भी मद्देनजर रखना चाहिए।
भारत में जनमत द्वारा सत्ताच्युत की जाने वाली पहली केन्द्रीय सरकार इंदिरा गांधी नीत सरकार थी। ऐसा आपातकाल लागू करने की वजह से हुआ था। राजनैतिक एवं नागरिक स्वतंत्रता के मुद्दे लोगों की खास चिंता का विषय हुआ करते हैं। यह सत्ता परिवर्तन महज निर्धनता के मुद्दे को लेकर नहीं हुआ था बल्कि मानवीय एवं नागरिक अधिकारों तथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह कि मानवाधिकार के उल्लंघन से उपजे जनअसंतोष का नतीजा था यह।
मानव स्वतंत्रता की महत्ता पर बात करते हुए हमें यह भी जरूर पूछना चाहिए कि क्या आर्थिक कल्याण हेतु निर्धारित हमारा मापदंड सम्यक है? कदापि नहींं। वस्तुत: मानव कल्याण महत्वपूर्ण है लेकिन सामान्यतया स्वतंत्रता एवं विशेषतया अपना भला करने तथा अन्य प्रयोजनों के निमित्त भी स्वतंत्रता इतना ही महत्व रखती है।
ऐसा भान होता है कि हाल के वर्षों में आपकी चिंता का एक विषय जन सामान्य का अधिकार रहा है ताकि लोगों के जीवनस्तर में सुधार आ सके। इस आलोक में, मानव व्यवहार के नैतिक पक्षों को आप किस तरह से लेंगे? क्या वह मैकियाविलियन समाज की ओर नहीं ले जाएगा?
अमर्त्य सेन : मेरे जानते, मानवीय स्वतंत्रता का विस्तार तथा मानव जीवन की गुणवत्ता का प्रभाव ऐसा नहीं होता कि मनुष्य स्वार्थी बन जाए। बल्कि वस्तुत: इसका उलट प्रभाव हो सकता है। हमें महज अपने जीवन-स्तर को सुधारने के लिए ही स्वतंत्रता नहीं चाहिए अपितु उन चीजों के लिए भी चाहिए जिनको हम जीवन-मूल्य मानते हैं। बहुत सी ऐसी बातें जिन्हें हम अपना जीवन-मूल्य मानते हैं, दूसरे लोगों से भी जुड़ी होती हैं और इस तरह, यह सोचने का कोई तुक नहीं कि यदि हम अपनी स्वतंत्रता या अपने जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाते हैं तो उसका औरों पर कोई विपरीत या कि अन्यथा प्रभाव भी पड़ेगा और हम दूसरों के बारे में कम सोचने लगेंगे।
वास्तव में, मानव जीवन की गुणवत्ता में सुधार तथा मानवीय स्वतंत्रता के विस्तार का समाज में सवर्था विपरीत व सकारात्मक असर होगा। निर्धनता, निरक्षरता के कारण एवं स्वास्थ जागरूकता के अभाव में लोग अपने घर-परिवार में रुग्नता, दुख-दर्द एवं अन्य परेशानियों से लगातार दो चार होते रहते हैं। अतएव, जीवन को अधिक सुरक्षित, अधिक स्थिर एवं कम खतरनाक बनाने वाली कोई भी युक्ति हमें एक दूसरे की मदद में खड़ा करने की हमारी शक्ति में इजाफा करती है। और बेशक, उसी दिशा में चलने का हमारा ध्यये भी होना चाहिए।
मैकियाविली एक महान राजनैतिक विचारक थे। वह गरीबोंं वंचितों के प्रति काफी सहानुभूति रखते थे। जिस समाज में शक्ति का भारी संकेंद्रण था, उसमें शक्तिहीनों की क्षमता को सुधारने एवं बढ़ाने की उन्हें चिंता थी ताकि उन वंचितों को समाज में शक्तिशाली बनाया जा सके। अगर, 'मैकियाविलियन` शब्द से आप स्वार्थी होने का अर्थ लेते हैं तो मुझे नहीं लगता कि लोगों का जीवन-स्तर सुधारने से यह मतलब निकाला जाना चाहिए कि ऐसा होने से लोग अधिक स्वकेंद्रित व औरों के प्रति कम संवेदनशील हो जाएंगे। इस तर्क के पक्ष में कोई अनुभवजन्य साक्ष्य नहीं मिलता।
स्वास्थ्य एवं शिक्षा उत्पादकता के परस्पर संबंध पर आपके क्या विचार हैं?
अमर्त्य सेन : मुझे ऐसा लगता है कि विचार के लिए ये काफी रूचिकर विषय हंै क्योंकि शैक्षिक अवसर एवं स्वास्थ सुविधाओं की सीमित उपलब्धता भारत के अल्पविकसित रहने की मुख्य वजह रही है। भारत की स्वतंत्रता के अवसर पर पंडित नेहरू ने अपने ख्यात भाषण 'नियति से भेंट` (Tryst with destiny) में एक बात का खाका खींचा था उस पर जोर दिया था, वह यह कि शिक्षा और स्वास्थ रक्षा के अवसर मुहैया कराये जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो सका है। शिक्षा एवं स्वास्थ सुविधा के क्षेत्र में असमानताएं बढ़ी हैं। हालांकि सब कुछ नाकारात्मक ही नहीं रहा है, कुल मिलाकर शैक्षिक अवसरों में वृद्धि हुई है एवं स्वास्थ सुविधाओं में सामान्यतया सुधार हुआ है लेकिन ऊपरी स्तर पर ज्यों-ज्यों अवसरों का विस्तार होता गया है त्यों-त्यों असमानता की दरार भी चौड़ी होती गई है।
आपके पास उच्चतर शिक्षा प्रदान करने वाली आईआईटी एवं अन्य अनेक तकनीकी संस्थान हैं, जिनका प्रदर्शन काफी उम्दा रहा है। भारतीय साफ्टवेयर उद्योग एवं सूचना तकनीक भारत और विदेश में काफी सफल रहे हैं। उसमें शिक्षा की बढ़ती महत्ता का पता चलता है। लेकिन यदि आप केवल उच्चतर स्तर पर ही शिक्षा का ध्यान रखेंगे और आधार स्तर या उसकी अनदेखी करेंगे तो आप उन अवसरों से वंचित हो जाएंगे जिसकी बदौलत कम सुविधा प्राप्त लोगों को अपने जीवन स्तर में सुधार लाना है और अधिक संपूर्णता में सामाजिक जीवन में सहभागिता करनी है अथवा अपनी उत्पादकता के स्तर में इजाफा लाकर अपने आय के स्तर को समृद्ध करना है।
मुझे लगता है कि आजकल स्कूली शिक्षा में विस्तार लाना, हमारे लिए केंद्रीय प्रश्न होना चाहिए। भारतीय स्कूल संख्या और गुणवत्ता, दोनों के लिहाज से बहुत कम हैं, कमजोर हैं, हालांकि ये बातें अलग-अलग प्रदेशों के स्तर पर भिन्नता रखती हैं। उदाहरणस्वरुप, अन्य भारतीय राज्यों की अपेक्षा केरल में शिक्षा की अधिक और बेहतर पहुंच है। उत्तर प्रदेश, बिहार तथा राजस्थान में काफी सीमित शैक्षणिक अवसर उपलब्ध हैं, महिलाओं के लिए तो ऐसे अवसरों की और कमी है। फिर, बेहतर तरीके से संचालित स्कूलों के होने न होने से भी अंतर पैदा होता है। स्कूलों से शिक्षकों के गैरहाजिर रहने के केस में बच्चों की शिक्षा की काफी अनदेखी हो जाती है। स्कूलों का अच्छा प्रबंधन का होना नितांत आवश्यक है। मेरा मानना है कि इसके लिए लोक नीति में बदलाव की जरूरत पड़ेगी, शिक्षा पर और अधिक व्यापक और विस्तृत लोक नीति अपनानी होगी।
मैं कहता रहा हूं कि अनेक वर्षों तक हमारी अर्थव्यवस्था बिना किसी उल्लेखनीय सफलता के चलती रही है। लकिन इसमें नाटकीय बदलाव आ सकता है, बशर्ते कि हम जापान, दक्षिण कोरिया एवं चीन जैसी सफल अर्थव्यवस्थाओं से कुछ सीखने को तैयार हों। जनसामान्य की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने में शिक्षा की काफी सशक्त व अहम भूमिका हो सकती है।
भारत में अल्प उत्पादकता का मुख्य कारण कमजोर स्वास्थ सुविधा, अल्पपोषण एवं निम्न पोषाहार है। जनस्वास्थ में सुधार तथा निरक्षरता एवं निर्धनता निवारण के लिए बहुत कम प्रयास किए गए हैं।
उदारीकृत अर्थव्यवस्था के लाभों को सामाजिक रूप से वंचित तबकों तक पहुंचाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। देश के कुछ हिस्सों में भूमि सुधार, प्राथमिक शिक्षा एवं स्वास्थ संबंधी मुद्दों को कुशलतापूर्वक निपटाया गया है। उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार, केरल एवं हिमाचल प्रदेश में शिक्षा और केरल में लोक स्वास्थ के क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य हुए हैं। लेकिन समय की मांग यह है कि भारत भर में एक साथ हर जगह ऐसे विकासजन्य कार्य संपन्न हों।
अत: अब मैं अपनी मूल धारणा पर लौटता हूं कि कमजोर समाज में भी उसके सबसे अधिक लाभवंचित सदस्यों को पर्याप्त वैभव संपन्नता प्राप्त हो सकती है। जो समाज अपने निर्धन में निर्धन सदस्य का भी ख्याल रखता है, वह शैक्षिक एवं उत्पादक कार्यों के जरिए उनकी जीवन रक्षा कर सकता है, उनकी आयु बढ़ा सकता है, एवं उनके अवसरों को समृद्ध कर सकता है।
शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार एवं निगम क्षेत्र (Corporate sector) की आप क्या भूमिका देखते हैं?
अमर्त्य सेन : स्पष्टत: यहां सार्वजनकि क्षेत्र (Corporate sector) की भूमिका काफी अहम है लेकिन निगम क्षेत्र ;ब्वतचवतंजम ेमबजवतद्ध भी महत्वपूर्ण हैं, इसके अलावा और वह व्यक्तितक (Private corporations) योगदान भी महत्वपूर्ण है, जन स्वास्थ एवं शिक्षा क्षेत्र में अपना योगदान दे सकता है। निजी निगमों ;चतपअंजम बवतचवतंजपवदेद्ध की मदद से इन दोनों क्षेत्रों को विस्तार दिया जा सकता है, खास कर शहरी क्षेत्रों में जन सहयोग से इस व्यवस्था से अधिक कार्यदक्ष नतीजे प्राप्त किए जा सकते हैं। मैंने पूर्व में चर्चा की थी कि किस प्रकार शिक्षकों की अनुपस्थिति के चलते स्कूली बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होती है। सामान्त: स्कूलों का संचालन काफी फूहड़ व बुरे तरीके से किया जाता है। इस नकारात्मक पक्ष को स्कूलों पर अभिभावकीय पहरा बिठा कर काफी हद तक पाटा जा सकता है। और यह एक तरीके से सहकारी (Corporations) कार्रवाई होगी। मैं तो यहां तक कहूंगा कि इसमें लोक क्षेत्र की एक बड़ी भूमिका जरूर है लेकिन समाज के शेष हिस्से का भी इतना ही गुरू उत्तरदायित्व है। यह जवाबदेही जहां एक तरफ व्यक्ति से शुरू होती है वहीं निगम क्षेत्र पर जाकर खत्म होती है।
न्यासों (Trusts) की धारणा पर आप क्या राय रखते हैं?
अमर्त्य सेन : मुझे लगता है कि मानव सहयोग के तौर पर न्यास काफी महत्वपूर्ण भूमिका में है। न्यास से हमें यह लाभ प्राप्त है कि यह एक तरह का लचीलापन लिए होता है जो कि राजनीति-प्रेरित लोकनीति में नहीं होता। इसमें लोकहितकारी हस्तक्षेप के अधिक अवसर उपलब्ध होते हैं। नोबेल पुरस्कार से प्राप्त अपने पैसे के निवेश से मैंने भी एक न्यास खड़ा किया है। इससे मुझे अपने कुछ दीर्घपोषित जुनूनी कार्यों को शीघ्र अंजाम देने का सुअवसर मिला। पुरस्कार की कुछ राशि की सहायता से भारत एवं बांग्लादेश में मैंने जिस 'प्रतीची` (Pratichi) नामक न्यास की स्थापना की है वह साक्षरता, मूलभूत स्वास्थ्य सुविधा एवं लैंगिक समानता के मुद्दों पर कार्य करता है। हां, यह जरूर है कि इन समस्याओं की व्यापकता एवं परिणाम को देखते हुए हमारा यह काम काफी तुच्छ दीखता है। लेकिन शांतिनिकेतन के समीप अवस्थित गांवों में ५० से भी अधिक वर्षों पूर्व जो सांध्य स्कूल चलाये जाते थे, उस तर्ज का पुराना उत्तेजक अनुभव पुन: प्राप्त कर पाना कितना सुखद है।
(टाटा डॉट कॉम से अनुवाद : मुसाफिर बैठा)
भारत को स्वतंत्र हुए ६० वर्ष हो आए हैं, लेकिन देश का आर्थिक विकास बहुत अधिक नहीं हो पाया है। आर्थिक मॉडल के लेखे क्या अब इस बात की जरूरत आ पड़ी है कि हमारे संविधान को एक नए नजरिए से देखा जाए ताकि समाज में आय की समानता हो सके?
अमर्त्य सेन : मुझे ऐसा लगता है कि भारतीय संविधान कई मायनों में एक अद्भुत संविधान है। भले ही इसमें कुछ जगह आंशिक सुधार की जरूरत है लेकिन मेरा मानना है कि इसकी आधारभूत संरचना एकदम दुरूस्त है। यह संविधान समानता के भाव पर एकाग्र है, विशेषकर नीति निर्देशक तत्वों वाले भाग में। यह संविधान कई स्तरों पर बराबरी का भाव बरतता है। यह आय के मोर्चे पर गैरबराबरी को अच्छा नहीं समझता है, साथ ही, शैक्षणिक अवसरों की असमानता, स्वास्थ सुविधओं की असमानता और जीवन में असमानता के अन्य बिंदुओं पर भी संवेदनशील रूख अपनाता है। मुझे लगता है कि बंटन-विभाजन विषयक मुद्दों (Distributional Issues) पर भी काफी कुछ मशविरा व निर्देश संविधान से ही प्राप्त हो जाते हैं।
केवल आय संबंधी असमानता ही नहीं वरन अन्य असमानताओं से भी हम प्रभावित होते हैं। आय की असमानता अक्सर अन्य क्षेत्रों में व्याप्त असमानता के चलते ही उत्पन्न होती है। उदाहरण के तौर पर, कभी-कभी शैक्षणिक अवसरों की असमानता ही आय संबंधी असमानता की मुख्य वजह होती है।
ऐसे अनेक मुद्दों, जो कि केन्द्रीय महत्व के हैं, लेकिन लगातार उपेक्षित रहे हैं और अब भी उपेक्षित हैं, का हमारे संविधान में खास ख्याल रखा गया है। मैं संविधान पर पुनर्विचार किए जाने की बनिस्बत संविधान को अधिक प्रभावकारी बनाये जाने का पक्षधर हूं। आय की असमानता का संबंध काफी हद तक दूसरों की अपेक्षा कुछ लोगों को अवसर नहीं मिल पाने से है।
मैं तो कतिपतय नीति निदेशक तत्वों का उन्नयन करते हुए एवं लोकनीति को समानता विषयक संवैधानिक सरोकारों की ओर मोड़ते हुए संवैधानिक प्रावधानों का लागू करने के पक्ष में हूं और मुझे लगता है कि इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है। मैं कतई अनुभव नहीं करता कि संविधान को, अभी बदलने की कोई जरूरत है। संवैधानिक गारंटी के तौर पर हमें पंक्षनिरपेक्षता तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों का संरक्षण प्राप्त है जो कि बहुसंख्यक समुदाय की तरफ से असहिष्णुता के खतरे से बचने के लिए खासा महत्व रखता है। हमारा संविधान धार्मिक उल्पसंख्यकों, उनकी संस्कृति एवं सरोकारों की रक्षा का वचन लेता है।
मुझे लगता है कि यह संविधान भारत के लिए एक अच्छा खासा पृष्ठपट करता रहा है क्योंकि यह समानता, स्वतंत्रता एवं अवसर प्रदान करने का हिमायती है। इन सभी क्षेत्रों में हमें भारतीय संविधान के निर्माताओं, खासकर डा. अंबेडकर के प्रति शुक्रगुजार होना चाहिए।
आपका अधिकांश शोधकार्य अर्थशा के मानवीय चेहरे के ईद-गिर्द केंद्रित है। आपका झुकाव इस ओर कैसे हुआ?
अमर्त्य सेन : मुझे लगता है कि मेरे कामों में अर्थशा के मानवीय चेहरे का आना एक जरूरी चीज है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मेरा अधिकांश शोधकार्य इसी के आस पास घूमता है। वस्तुत: कुछ मायनों में हर अर्थशा मानवीय पक्ष से जुड़ा होता है और इस तरह मानव जीवन, मानव-क्षमता, मानव स्वतंत्रता एवं मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में प्रत्यक्ष या परोक्ष मानवीय चेहरे से दो चार हुए बिना अर्थशा का अध्ययन किया जाना असंभव है। मेरा मानना है कि मेरे काम का एक हिस्सा जरूर उन क्षेत्रों पर केंद्रित है पर वह मेरे काम का सर्वांग नहीं है। वह मेरे काम का वह अंश नहीं है जिस पर काम करते हुए मैंने अपने जीवन का अधिकांश भाग बिताया है।
मेरा शोध-अध्ययन काफी कुछ सामाजिक वरण (Social Choice) की धारणा पर केंद्रित है, जिसमें मैंने दैनिक जीवन में उत्पन्न होने वाली अनेक समस्याओं को समझने के लिए एक बड़े परिप्रेक्ष्य ;तिंउमूवताद्ध का उपयोग किया है। ऐसी समस्याओं में निर्धनता का मूल्यांकन, असमानता का आकलन, सापेक्षिक वंचना की प्रकृति का स्पष्टीकरण, वितरण-सामंजित राष्ट्रीय आय के श्रोंतों का विकास करना, रोजगारहीनता से उपजे कष्टकारक दंडों का बयान करना, लोकतंत्र की कार्यस्थिति एवं परिणामों का अन्वेषण करना, व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन के केसों की व्याख्या करना तथा लैंगिक भेदभाव एवं महिलाओं की सापेक्षिक हानियों-कठिनाईयों की खास निशानदेही करना शामिल है।
मुझे लगता है कि अर्थशा में मानवीय मुद्दों के कतिपय पक्षों को प्राय: नजरअंदाज कर दिया जाता है क्योंकि महज अधिकाधिक लाभ पाने की दृष्टि से मानवीय व्यवहार को एक रूढ़ ढ़ग से देखना अपेक्षाकृत आसान काम होता है। ऐसे सपाट विश्लेषणों में आपसे सामाजिक सबंधों के कुछ खास पक्ष अनदेखे रह जाते हैं। हमें सार्वजनिक नीति पर प्रभाव डालने वाले अन्य पक्षों मसलन, मानव व्यवहार एवं इसकी जटिलता, मानव स्वतंत्रता एवं मानवाधिकार को भी मद्देनजर रखना चाहिए।
भारत में जनमत द्वारा सत्ताच्युत की जाने वाली पहली केन्द्रीय सरकार इंदिरा गांधी नीत सरकार थी। ऐसा आपातकाल लागू करने की वजह से हुआ था। राजनैतिक एवं नागरिक स्वतंत्रता के मुद्दे लोगों की खास चिंता का विषय हुआ करते हैं। यह सत्ता परिवर्तन महज निर्धनता के मुद्दे को लेकर नहीं हुआ था बल्कि मानवीय एवं नागरिक अधिकारों तथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह कि मानवाधिकार के उल्लंघन से उपजे जनअसंतोष का नतीजा था यह।
मानव स्वतंत्रता की महत्ता पर बात करते हुए हमें यह भी जरूर पूछना चाहिए कि क्या आर्थिक कल्याण हेतु निर्धारित हमारा मापदंड सम्यक है? कदापि नहींं। वस्तुत: मानव कल्याण महत्वपूर्ण है लेकिन सामान्यतया स्वतंत्रता एवं विशेषतया अपना भला करने तथा अन्य प्रयोजनों के निमित्त भी स्वतंत्रता इतना ही महत्व रखती है।
ऐसा भान होता है कि हाल के वर्षों में आपकी चिंता का एक विषय जन सामान्य का अधिकार रहा है ताकि लोगों के जीवनस्तर में सुधार आ सके। इस आलोक में, मानव व्यवहार के नैतिक पक्षों को आप किस तरह से लेंगे? क्या वह मैकियाविलियन समाज की ओर नहीं ले जाएगा?
अमर्त्य सेन : मेरे जानते, मानवीय स्वतंत्रता का विस्तार तथा मानव जीवन की गुणवत्ता का प्रभाव ऐसा नहीं होता कि मनुष्य स्वार्थी बन जाए। बल्कि वस्तुत: इसका उलट प्रभाव हो सकता है। हमें महज अपने जीवन-स्तर को सुधारने के लिए ही स्वतंत्रता नहीं चाहिए अपितु उन चीजों के लिए भी चाहिए जिनको हम जीवन-मूल्य मानते हैं। बहुत सी ऐसी बातें जिन्हें हम अपना जीवन-मूल्य मानते हैं, दूसरे लोगों से भी जुड़ी होती हैं और इस तरह, यह सोचने का कोई तुक नहीं कि यदि हम अपनी स्वतंत्रता या अपने जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाते हैं तो उसका औरों पर कोई विपरीत या कि अन्यथा प्रभाव भी पड़ेगा और हम दूसरों के बारे में कम सोचने लगेंगे।
वास्तव में, मानव जीवन की गुणवत्ता में सुधार तथा मानवीय स्वतंत्रता के विस्तार का समाज में सवर्था विपरीत व सकारात्मक असर होगा। निर्धनता, निरक्षरता के कारण एवं स्वास्थ जागरूकता के अभाव में लोग अपने घर-परिवार में रुग्नता, दुख-दर्द एवं अन्य परेशानियों से लगातार दो चार होते रहते हैं। अतएव, जीवन को अधिक सुरक्षित, अधिक स्थिर एवं कम खतरनाक बनाने वाली कोई भी युक्ति हमें एक दूसरे की मदद में खड़ा करने की हमारी शक्ति में इजाफा करती है। और बेशक, उसी दिशा में चलने का हमारा ध्यये भी होना चाहिए।
मैकियाविली एक महान राजनैतिक विचारक थे। वह गरीबोंं वंचितों के प्रति काफी सहानुभूति रखते थे। जिस समाज में शक्ति का भारी संकेंद्रण था, उसमें शक्तिहीनों की क्षमता को सुधारने एवं बढ़ाने की उन्हें चिंता थी ताकि उन वंचितों को समाज में शक्तिशाली बनाया जा सके। अगर, 'मैकियाविलियन` शब्द से आप स्वार्थी होने का अर्थ लेते हैं तो मुझे नहीं लगता कि लोगों का जीवन-स्तर सुधारने से यह मतलब निकाला जाना चाहिए कि ऐसा होने से लोग अधिक स्वकेंद्रित व औरों के प्रति कम संवेदनशील हो जाएंगे। इस तर्क के पक्ष में कोई अनुभवजन्य साक्ष्य नहीं मिलता।
स्वास्थ्य एवं शिक्षा उत्पादकता के परस्पर संबंध पर आपके क्या विचार हैं?
अमर्त्य सेन : मुझे ऐसा लगता है कि विचार के लिए ये काफी रूचिकर विषय हंै क्योंकि शैक्षिक अवसर एवं स्वास्थ सुविधाओं की सीमित उपलब्धता भारत के अल्पविकसित रहने की मुख्य वजह रही है। भारत की स्वतंत्रता के अवसर पर पंडित नेहरू ने अपने ख्यात भाषण 'नियति से भेंट` (Tryst with destiny) में एक बात का खाका खींचा था उस पर जोर दिया था, वह यह कि शिक्षा और स्वास्थ रक्षा के अवसर मुहैया कराये जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो सका है। शिक्षा एवं स्वास्थ सुविधा के क्षेत्र में असमानताएं बढ़ी हैं। हालांकि सब कुछ नाकारात्मक ही नहीं रहा है, कुल मिलाकर शैक्षिक अवसरों में वृद्धि हुई है एवं स्वास्थ सुविधाओं में सामान्यतया सुधार हुआ है लेकिन ऊपरी स्तर पर ज्यों-ज्यों अवसरों का विस्तार होता गया है त्यों-त्यों असमानता की दरार भी चौड़ी होती गई है।
आपके पास उच्चतर शिक्षा प्रदान करने वाली आईआईटी एवं अन्य अनेक तकनीकी संस्थान हैं, जिनका प्रदर्शन काफी उम्दा रहा है। भारतीय साफ्टवेयर उद्योग एवं सूचना तकनीक भारत और विदेश में काफी सफल रहे हैं। उसमें शिक्षा की बढ़ती महत्ता का पता चलता है। लेकिन यदि आप केवल उच्चतर स्तर पर ही शिक्षा का ध्यान रखेंगे और आधार स्तर या उसकी अनदेखी करेंगे तो आप उन अवसरों से वंचित हो जाएंगे जिसकी बदौलत कम सुविधा प्राप्त लोगों को अपने जीवन स्तर में सुधार लाना है और अधिक संपूर्णता में सामाजिक जीवन में सहभागिता करनी है अथवा अपनी उत्पादकता के स्तर में इजाफा लाकर अपने आय के स्तर को समृद्ध करना है।
मुझे लगता है कि आजकल स्कूली शिक्षा में विस्तार लाना, हमारे लिए केंद्रीय प्रश्न होना चाहिए। भारतीय स्कूल संख्या और गुणवत्ता, दोनों के लिहाज से बहुत कम हैं, कमजोर हैं, हालांकि ये बातें अलग-अलग प्रदेशों के स्तर पर भिन्नता रखती हैं। उदाहरणस्वरुप, अन्य भारतीय राज्यों की अपेक्षा केरल में शिक्षा की अधिक और बेहतर पहुंच है। उत्तर प्रदेश, बिहार तथा राजस्थान में काफी सीमित शैक्षणिक अवसर उपलब्ध हैं, महिलाओं के लिए तो ऐसे अवसरों की और कमी है। फिर, बेहतर तरीके से संचालित स्कूलों के होने न होने से भी अंतर पैदा होता है। स्कूलों से शिक्षकों के गैरहाजिर रहने के केस में बच्चों की शिक्षा की काफी अनदेखी हो जाती है। स्कूलों का अच्छा प्रबंधन का होना नितांत आवश्यक है। मेरा मानना है कि इसके लिए लोक नीति में बदलाव की जरूरत पड़ेगी, शिक्षा पर और अधिक व्यापक और विस्तृत लोक नीति अपनानी होगी।
मैं कहता रहा हूं कि अनेक वर्षों तक हमारी अर्थव्यवस्था बिना किसी उल्लेखनीय सफलता के चलती रही है। लकिन इसमें नाटकीय बदलाव आ सकता है, बशर्ते कि हम जापान, दक्षिण कोरिया एवं चीन जैसी सफल अर्थव्यवस्थाओं से कुछ सीखने को तैयार हों। जनसामान्य की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने में शिक्षा की काफी सशक्त व अहम भूमिका हो सकती है।
भारत में अल्प उत्पादकता का मुख्य कारण कमजोर स्वास्थ सुविधा, अल्पपोषण एवं निम्न पोषाहार है। जनस्वास्थ में सुधार तथा निरक्षरता एवं निर्धनता निवारण के लिए बहुत कम प्रयास किए गए हैं।
उदारीकृत अर्थव्यवस्था के लाभों को सामाजिक रूप से वंचित तबकों तक पहुंचाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। देश के कुछ हिस्सों में भूमि सुधार, प्राथमिक शिक्षा एवं स्वास्थ संबंधी मुद्दों को कुशलतापूर्वक निपटाया गया है। उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार, केरल एवं हिमाचल प्रदेश में शिक्षा और केरल में लोक स्वास्थ के क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य हुए हैं। लेकिन समय की मांग यह है कि भारत भर में एक साथ हर जगह ऐसे विकासजन्य कार्य संपन्न हों।
अत: अब मैं अपनी मूल धारणा पर लौटता हूं कि कमजोर समाज में भी उसके सबसे अधिक लाभवंचित सदस्यों को पर्याप्त वैभव संपन्नता प्राप्त हो सकती है। जो समाज अपने निर्धन में निर्धन सदस्य का भी ख्याल रखता है, वह शैक्षिक एवं उत्पादक कार्यों के जरिए उनकी जीवन रक्षा कर सकता है, उनकी आयु बढ़ा सकता है, एवं उनके अवसरों को समृद्ध कर सकता है।
शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार एवं निगम क्षेत्र (Corporate sector) की आप क्या भूमिका देखते हैं?
अमर्त्य सेन : स्पष्टत: यहां सार्वजनकि क्षेत्र (Corporate sector) की भूमिका काफी अहम है लेकिन निगम क्षेत्र ;ब्वतचवतंजम ेमबजवतद्ध भी महत्वपूर्ण हैं, इसके अलावा और वह व्यक्तितक (Private corporations) योगदान भी महत्वपूर्ण है, जन स्वास्थ एवं शिक्षा क्षेत्र में अपना योगदान दे सकता है। निजी निगमों ;चतपअंजम बवतचवतंजपवदेद्ध की मदद से इन दोनों क्षेत्रों को विस्तार दिया जा सकता है, खास कर शहरी क्षेत्रों में जन सहयोग से इस व्यवस्था से अधिक कार्यदक्ष नतीजे प्राप्त किए जा सकते हैं। मैंने पूर्व में चर्चा की थी कि किस प्रकार शिक्षकों की अनुपस्थिति के चलते स्कूली बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होती है। सामान्त: स्कूलों का संचालन काफी फूहड़ व बुरे तरीके से किया जाता है। इस नकारात्मक पक्ष को स्कूलों पर अभिभावकीय पहरा बिठा कर काफी हद तक पाटा जा सकता है। और यह एक तरीके से सहकारी (Corporations) कार्रवाई होगी। मैं तो यहां तक कहूंगा कि इसमें लोक क्षेत्र की एक बड़ी भूमिका जरूर है लेकिन समाज के शेष हिस्से का भी इतना ही गुरू उत्तरदायित्व है। यह जवाबदेही जहां एक तरफ व्यक्ति से शुरू होती है वहीं निगम क्षेत्र पर जाकर खत्म होती है।
न्यासों (Trusts) की धारणा पर आप क्या राय रखते हैं?
अमर्त्य सेन : मुझे लगता है कि मानव सहयोग के तौर पर न्यास काफी महत्वपूर्ण भूमिका में है। न्यास से हमें यह लाभ प्राप्त है कि यह एक तरह का लचीलापन लिए होता है जो कि राजनीति-प्रेरित लोकनीति में नहीं होता। इसमें लोकहितकारी हस्तक्षेप के अधिक अवसर उपलब्ध होते हैं। नोबेल पुरस्कार से प्राप्त अपने पैसे के निवेश से मैंने भी एक न्यास खड़ा किया है। इससे मुझे अपने कुछ दीर्घपोषित जुनूनी कार्यों को शीघ्र अंजाम देने का सुअवसर मिला। पुरस्कार की कुछ राशि की सहायता से भारत एवं बांग्लादेश में मैंने जिस 'प्रतीची` (Pratichi) नामक न्यास की स्थापना की है वह साक्षरता, मूलभूत स्वास्थ्य सुविधा एवं लैंगिक समानता के मुद्दों पर कार्य करता है। हां, यह जरूर है कि इन समस्याओं की व्यापकता एवं परिणाम को देखते हुए हमारा यह काम काफी तुच्छ दीखता है। लेकिन शांतिनिकेतन के समीप अवस्थित गांवों में ५० से भी अधिक वर्षों पूर्व जो सांध्य स्कूल चलाये जाते थे, उस तर्ज का पुराना उत्तेजक अनुभव पुन: प्राप्त कर पाना कितना सुखद है।
(टाटा डॉट कॉम से अनुवाद : मुसाफिर बैठा)
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