जनयुद्ध और दलित-प्रश्न-१
सामाजिक सुधार कभी भी मजबूतों की कमजोरियों द्वारा नहीं
बल्कि हमेशा कमजोरों की ताकत द्वारा किये जाते हैं
- मार्क्स
बल्कि हमेशा कमजोरों की ताकत द्वारा किये जाते हैं
- मार्क्स
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। किन्तु आज २१वीं सदी में भी जाति व्यवस्था कायम है जिसमें तथाकथित ऊंची जातियों द्वारा दलितों को अछूत बना दिया गया है। इसलिए, दलितों की स्थिति मनुष्य कौन कहे, जानवरों से भी बदतर है। दलितों पर अत्याचार दक्षिण एशिया की विचित्र परिघटना है। यह पुरातन और घृणित जाति व्यवस्था से रूग्ण हिन्दू समाज की देन है।
ऐतिहासिक रूप से जाति व्यवस्था श्रम विभाजन का उत्पाद है, जिसमें मानसिक श्रम करने वाले ब्राह्मण, युद्ध करनेवाले क्षत्रिय, व्यापार करने वाले वैश्य तथा शारीरिक श्रम करने वाले शूद्र के रूप में वर्गीकृत किये गये। ईसा पूर्व दूसरी सहस्राब्दी के दौरान, ऋगवैदिक काल में, इस तरह के श्रम विभाजन ने न तो कठोर रूप और न ही वर्ग रूप प्राप्त किया था। परिणामत:, हर व्यक्ति को हर समय मनोनुकूल व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता थी। लेकिन वैदिक काल के आने पर, कृषि के विकास ने जड़बद्ध और बंद जाति व्यवस्था को जन्म दिया जिससे लोग अपनी पुश्तैनी जाति को पीढ़ी दर पीढ़ी ग्रहण करने लगे। इससे मानसिक श्रम करने वाले ब्राह्मणों तथा शारीरिक श्रम करने वाले शूद्रों को समाज व्यवस्था में क्रमश: सबसे ऊंचा तथा सबसे नीचा स्थान मिला। समय के साथ शूद्र, जातियों और उप जातियों में बंटते चले गये तथा उनके बीच ऊंच-नीच की व्यवस्था कठोर तथा जड़बद्ध होती गयी। ईसा पूर्व पहली शताब्दी के आस-पास मनु ने वर्णाश्रम व्यवस्था को संहिता में बांधा। आज वही शूद्र दलित कहे जाते हैं।
इस तरह प्राकृतिक अर्थव्यवस्था के अंदर दलित पहले वंचित वर्ग थे जो शारीरिक श्रम करते थे लेकिन जिनको अपने श्रम का फल तथा उत्पादन का साधन रखने का अधिकार नहीं था।
एक गैर सरकारी आंकड़े के अनुसार दलित नेपाल की कुल आबादी के बीस प्रतिशत हैं। अस्सी प्रतिशत दलित गरीबी रेखा के नीचे जीते हैं। ज्यादातर भूमिहीन हैं तथा दूसरों की जमीन पर रहते हैं। अत: हमेशा उखाड़े जाने के भय में वे जीते हैं।
आर्यों के नेपाल प्रवेश से पहले मुख्य रूप से यहां मंगोलियन, पहाड़ी क्षेत्र में, तथा आस्ट्रो-द्रविड़ मैदानी तराई क्षेत्र में निवास करते थे। ११वीं सदी ईस्वी सन में मुस्लिम आक्रमण से बचने के लिए उत्तर भारत के हिन्दू नेपाल चले आये तथा साथ में जाति-व्यवस्था भी लेते आये। नेपाल के गैर-हिन्दू समुदायों में भी जात-पांत फैला तथा दलितों को समाज से बहिष्कृत किया गया। भौगोलिक दृष्टि से नेपाल के दलित पहाड़ी तथा तराई या मधेशी दलित में बंटे हुए हैं। राष्ट्रीयता की दृष्टि से नेपाली दलितों के तीन भाग हैं, पहाड़ी, नेवाड़ी (अर्थात काठमांडू घाटी के दलित) तथा मधेशिया दलित, जिनमें नेवाड़ी तथा मधेशिया दलित उत्पीड़ित राष्ट्रीयता में आते हैं। तीनों में मधेशी दलितों की माली हालत सबसे खराब है। मधेशी दलितों में ७० प्रतिशत आबादी भूमिहीन है, उनके बीच जातिभेद भी बहुत हैं जिसके चलते उनमें एकता की भी उतनी ही कमी है। तराई क्षेत्र में मजबूत सामंतवाद के कारण वे समाज से ज्यादा बहिष्कृत हैं। वे राष्ट्रीयता के आधार भी सताये जाते हैं क्योंकि पुरानी राज व्यवस्था में उनमें से ज्यादातर लोगों को नागरिकता प्राप्त नहीं है। पुरानी राजव्यवस्था सभी मधेशियों को भारतीय समझता है।
यह अजीब लगता है कि २१वीं सदी में भी प्राचीन परंपराओं का हिन्दू राजा राजकीय हिन्दू धर्म को बचाने के लिए मध्ययुगीन अत्याचार को स्वीकृति प्रदान करता है। दलित मुद्दा गैर सरकारी संस्थाओं के लिए डॉलर कमाने का एक जरिया है, संशोधनवादी वामंपथ के लिए दलित भावनाओं को दूहकर वोट बैंक की राजनीति करना है तथा क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के लिए यह व्यवहार में परिणत होने का इंतजार करता हुआ एक सिद्धांत बना रहा है।
एनजीओ और दलितप्रश्न
यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के संदर्भ में जाति प्रथा सामंतवाद का महत्वपूर्ण तत्व है। सामंती तथा साम्राज्यवादी दोनों ताकतें अपने फायदे में जाति व्यवस्था का इस्तेमाल करती हैं। सामंती ताकतें जाति व्यवस्था को धर्मों को आपस में तथा धर्म के भीतर वर्गों को आपस में लड़ाने के लिए इस्तेमाल करती हैं। साम्राज्यवादी ताकतें दलित मुद्दे का इस्तेमाल उत्पीड़ित जनता को विभाजित करने में करती हैं। वे जाति व्यवस्था को अक्षुण्ण रखते हुए इसे पृथक पहचान रूप में रेखांकित करती हैं और आर्थिक उदारीकरण को सभी समस्याओं का हल बताती हैं।
उत्पीड़क शासक वर्ग शोषितों की तुलना में बहुत ज्यादा वर्ग चेतन होते हैं क्योंकि उन्हें एक विशाल आबादी पर शासन करना होता है। ऐसा वे शोषित वर्गों को बांट कर तथा उनमें से कुछ को एनजीओ के माध्यम से रोटी का टुकड़ा फेंककर करते हैं। जो समुदाय जितना ज्यादा गरीब होता है, उनके लिए एनजीओ को उतना ही ज्यादा फंड आवंटित कराया जाता है। इसलिए दलित मुद्दे तथा दलितों के भीतर दलित औरतों के मुद्दे एनजीओ तथा अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ के लिए खूब बिकाऊ होते हैं। इन सभी योजनाओं का उद्देश्य दलितों के वर्गीय चेतना को कुंद करने के लिए क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को उनसे दूर रखना होता है। ऐसा करने के उनके विभिन्न तरीके हैं।
दलितों को ब्राह्मण-विरोधी, मनु-विरोधी तथा ओबीसी-विरोधी के रूप में इतना ज्यादा प्रचारित किया जाता है कि दलित पहचान संकीर्णतावादी चरित्र ग्रहण कर लेता है। ब्राह्मण संस्कृति से लड़ने के नाम पर वह दलित ब्राह्मणवाद व्यवहृत करने लगता है जिसके तहत अपनी पहचान खोने के डर से दलित ी़-पुरूषों को दूसरी जातियों, धर्मों तथा समुदायों में विवाह करने से रोकते हैं। उत्पादन संबंधों एवं दलितों-गैर-दलितों के बीच सांस्कृतिक संबंधों के सामंती चरित्र पर चोट करने की जगह राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ गैर-दलितों के साथ झगड़ों से बचने के नाम पर अलग पानी का नल, मंदिर, समुदायिक भवन आदि बनाकर उनके अलगाव को और ज्यादा बढ़ावा देते हैं। दलितों में एकता मजबूत करने के लिए विभिन्न दलित जातियों का जमात बनाने की जगह वे अलग-अलग दलित जाति का अलग संगठन बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और फिर ज्यादा-से-ज्यादा फंड पाने के लिए उनमें प्रतियोगिता पैदा करते हैं। इसका परिणाम होता है कि अपेक्षाकृत शिक्षित और उन्नत दलित जातियां ज्यादा फंड पाने में सफल होती हैं, जिससे दलितों के बीच विभाजन होता है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान मध्यवर्गीय अवसरवादी दलित नेता भी तैयार किये जाते हैं जिनका इस्तेमाल संसदीय राजनीति के तहत वर्गीय शासन को चलायमान रखने के लिए किया जाता है।
कई राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ हिन्दू फासिस्टों के साथ मिलकर साम्प्रदायिक दंगे भी भड़काते हैं। भारत में गुजरात के गोधरा में २००२ में हिन्दू-मुसलमानों के बीच जो दंगे हुए वह इसका एक उदाहरण है। ऐसा पाया गया कि कई हिन्दू फासिस्ट एनजीओ दलित पहचान के संकट को उनमें मुसलमानों से भय तथा उनके खिलाफ हिंसा करने के लिए प्रेरित करने में इस्तेमाल करते हैं।
आखिर अंत में अंध कम्युनिस्टों, जो वर्गीय शोषण को इतनी प्रमुखता देते हैं कि उन्हें दलित शोषण दिखायी नहीं पड़ता है, की विफालता को भी ये एनजीओ अपने पक्ष में भंजाते हैं। इन गैर सरकारी संगठनों (एनजीओं)े ने उत्तर आधुनिक विचारधारा के जहर का इस्तेमाल कर संभावित कम्युनिस्ट दलितों को अपने में मिला लिया।
इन तमाम विश्लेषणों का यही निष्कर्ष है कि क्रांतिकारी कम्युनिस्ट दलित उत्पीड़न को दक्षिण एशिया क्षेत्र में क्रांतिकारी आंदोलन के रणनीतिक एवं मूलभूत मुद्दे के रूप में अंगीकार करें।
कम्युनिस्ट और दलित प्रश्न
१९४९ में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के समय से दलित प्रश्न ब्राह्मण और क्षत्री ऊंची जातियों के कम्युनिस्ट कैडरों की परीक्षा लेता रहा है कि वे कहां तक सच्चे कम्युनिस्ट बन पाये हैं। इस परीक्षा को उन्होंने दलितों के घरों में प्रवेश कर तथा उनके साथ दारू पीकर उत्तीर्ण करना चाहा। लेकिन उनका यह भोला सांस्कृतिक विद्रोह शायद ही कभी दलितों से विवाह करने या पार्टी में उन्हें नीति निर्धारक पदों पर बैठाने तक पहुंच पाया।
दलित प्रश्न पर नेपाली कम्युनिस्ट आंदोलन की तीन धारायें हैं। पहली, संशोधनवादी, दूसरी, नव-संशोधनवादी तथा तीसरी क्रांतिकारी धारा। संशोधनवादी दलित प्रश्न को विशुद्ध रूप से आर्थिक-सामाजिक सवाल समझते हैं, जिसका समाधान संसदीय कानूनी प्रक्रिया से क्रमिक सुधार द्वारा होना है। वे इसे एक पृथक मुद्दे के रूप में देखना चाहते हैं। संसदीय रास्ते के राही यूनाइटेड मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी (यूएमएल) इस धारा का प्रतिनिधित्व करता है। नव संशोधनवादी, दलित सवाल को वर्गीय सवाल का दर्जा देकर ज्यादा क्रांतिकारी होने की कोशिश करता है किन्तु अभी समय नहीं आया है के नाम पर वर्ग संघर्ष से दूर भागता है। समय के साथ वे एक नये रूप वाले संशोधनवादी बन जाते हैं। दूसरी संसदीय पार्टी यूनिटी सेंटर मसाल इस धारा की है। क्रांतिकारी धारा दलितो के शोषण को जातिगत शोषण के रूप में लेती है जो वर्गीय शोषण की महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है। यह जाति संघर्ष (Caste struggle) को वृहत वर्ग संघर्ष (Caste struggle) के साथ जोड़ता है। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) इसी धारा की पार्टी है। यह न केवल अपने दलित मोर्चा को महत्व देता है बल्कि संघर्ष के विशिष्ट स्वरूप को विकसित करने की अनुमति तथा जनता के नये राज्य में विशेष अधिकार भी देता है। यह दलितों के सैन्यीकरण पर बल देकर उनको जन सेना में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित भी करता है।
क्रांतिकारी कम्युनिस्ट दलित प्रश्न को गंभीरता से क्यों लें, इसके कई कारण हैं। सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि उनके जीवन की वस्तुगत परिस्थितियां उन्हें कम्युनिस्ट सिद्धांत का स्वभाविक मित्र बना देती हंै। विश्व के परिवर्तन का सवाल विशेष रूप से क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के लिए महत्वपूर्ण है। माओवादी पार्टी महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति (GPCR) को बहुत महत्व देता है जिसका नारा 'विद्रोह करना सही है` दलितों को विशेष तौर पर आकर्षित करता है।
दलित समाज का सबसे प्रमुख अंतर्विरोध यह है कि वे समाज के लिए बहुत से उपयोगी कार्य जैसे गलियों, नालियों, पखानों की सफाई, कूड़े-कचड़े, मरे जानवरों को इकट्ठा करके जगह पर पहुंचाना, जूतों-बैगों आदि की मरम्मत करना आदि करते हैं किन्तु उसी समाज से बहिष्कृत होते हैं। इसके चलते दलितों में अपने आप से अलगाव (selfalienation) होता है जो उनके तनाव मुक्ति के लिए नशा करने का, दलित औरतों के वेश्यावृति के धंधे में फंसने का कारण बनता है। उनके समाज का दूसरा अंतर्विरोध यह है कि दलित जातियों में आपस में ऊंच-नीच, छुआछूत, पवित्र-अपवित्र की समस्या बनी रहती है जो उन्हें विभाजित तथा कमजोर बनाता है। इस तीखे अलगाव को पुरानी राजसत्ता के खिलाफ, उनको नास्तिक बनाकर, विद्रोह में बदला जा सकता है, उनमें महान सर्वहारा चेतना भरी जा सकती है तथा नये क्रांतिकारी राज्य के प्रति उनको निष्ठावान बनाया जा सकता है।
दलित आंदोलन, राजनीतिक दृष्टि से, सामंतवाद विरोधी होता है तथा इसलिए नये जनवादी आंदोलन में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका बनती है। दलितों के ऊपर थोपे गये सभी धार्मिक, कर्मकांडों तथा दासता की बेड़ियों को पूंजीवाद खत्म करता है। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में पूंजीवादी क्रांति जितनी ज्यादा पूर्ण होगी, आगामी सामाजिक क्रांति के लिए उतना ही ज्यादा अनुकुल वातवारण तैयार होगा। क्योंकि नवजनवादी क्रांति का मुख्य काम प्रतिक्रियावादी ताकतों के ऊपर तानाशाही लागू करना तथा शोषितजनों के लिए लोकतंत्र की स्थापना करना होगा, इसलिए सभी शोषितजनों में दलित ही क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के सबसे नजदीकी मित्र होंगे। ऐसा इसलिए है कि प्रतिक्रयावादियों के ऊपर जो अभी भी मध्ययुगीन शोषण के तौर-तरीके अपना रखे हैं तानाशाही शासन प्रणाली की सबसे फौरी जरूरत दलितों को है। पुरानी पतनशील संस्कृति उनकी ऐतिहासिक दासता पर टिकी हुई है इससे छुटकारा पाने के लिए सेल्यूलर, लोकतांत्रिक वातावरण तथा आधुनिक दृष्टिकोण की उन्हें जरूरत है। सामंती ताकतों ने उनके काम को कभी कोई सम्मान नहीं दिया है जिसका इतना ज्यादा सामाजिक महत्व तथा आर्थिक मूल्य है।
दलित आंदोलन का मजबूत साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र रहा है जो नव जनवादी आंदोलन को मजबूती प्रदान करेगा। साम्राज्यवाद राष्ट्रीय पूंजीवाद के विकास में रोड़ा है जो न केवल दलितों से उसका मूल पेशा छीन ले रहा है बल्कि अपने हुनर को विकसित करके देश के संगठित उद्योग में शामिल होने से भी रोक रहा है। साम्राज्यवाद उनके प्राकृतिक संसाधनों की भी लूट करता है जिसके माध्यम से उत्पादन करके वे अपनी जीविका चलाते आये हैं।
दलित ऐतिहासिक रूप से मेहनतकश जनता रही है, इसलिए क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को उनमें सर्वहारा दृष्टिकोण भरना चाहिये। नवजनवादी क्रांति सीमित प्राकृतिक अर्थव्यवस्था, जिसमें दलितों का हुनर कैद होकर रहता है, को तोड़ने में मदद देकर उनके शहरीकरण, औद्योगीकरण का रास्ता तैयार कर कालांतर में राजसत्ता का
समाजीकरण करता है। यह समाज में जातिभेद को खत्म करने का आधार तैयार करेगा।
दलितों को यह भी जानना होगा कि तथाकथित सकारात्मक कार्रवाई (Affirmative actions) सकारात्मक विभेद, पक्षपाती कार्रवाई, भेदभाव विरोधी कानून, आरक्षण आदि विशेष प्रावधान, जो दलितों की स्थिति में सुधार लाने के लिए पुराने राज्य ने बनाये हैं, उनको लागू करने के लिए बल प्रयोग के बिना निरर्थक साबित होंगे। गरीब और भूमिहीन दलितों को जानना होगा कि दलितों के लिए पृथक निर्वाचन, पृथक बस्ती, पृथक पहचान या इस शोषणकारी व्यवस्था में दलितों की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति अंतत: अभिजात मानसिकता के दलित पैदा करेंगे जो शीर्ष वर्गीय राज्य सत्ता में समाहित कर लिये जायेंगे। हिन्दू धर्म के खिलाफ विद्रोह में बौद्ध धर्म, ईसाइयत या अन्य किसी धर्म को स्वीकार करने से दलित न केवल अपनी समस्या के समाधान को लंबित रखेंगे बल्कि अपने आप को धार्मिक राजनीति के झमेले में फंसा देंगे, जो कि प्रतिगामी होगा। इसके अलावा कोई ेभी देख सकता है कि हिन्दुओं के अलावे बाकी सभी धर्म-इसलाम, ईसाई, बौद्ध, सिक्ख आदिकम से कम भारतीय संदर्भ में जाति व्यवस्था को ढो रहे हैं।
वर्ग संघर्ष एकीकृत दलित संघर्ष के साथ जुड़ाव वाले वर्ग संघर्ष एवं विद्रोह करने के अधिकार को संस्थाबद्ध करके ही जाति आधारित समाज व्यवस्था एवं दलित-पिछड़ा के जीवन को बदला जा सकता है।
यदि कम्युनिस्ट दलित प्रश्न को एक स्वतंत्रत एकीकृत मुद्दे के रूप में संबोधित नहीं करते हैं तो दलित समुदाय के भीतर विद्यमान अवसरवादी तत्व दलित मुद्दे को पहचान की राजनीति में घटा कर रख देंगे जिससे साम्प्रदायिक, संकीर्णतावादी राजनीति को ही प्रोत्साहन मिलेगा और दलित अंतत: घुटन भरे जाति शोषण के शिकार तथा साम्राज्यवादी-सामंती ताकतों के हाथ का औजार बनकर रह जायेंगे।
(सीपीएन (एम) के मुख पत्र 'द वर्कर` से साभार। अनुवाद-जन विकल्प टीम)
जून ,2007 अंक में प्रकाशित
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