फिल्म
आज जब हम कश्मीर, चेचेन्या, इराक और फलस्तीन में आजादी और राष्ट्रीयता की लड़ाइयों से रू-ब-रू हो रहे हैं, लोकतंत्र, शांति और राष्ट्रवाद के रक्तस्नात नारों और मंत्रोच्चर के स्वर हमारे परिवेश को हिंसक संभावनाओं से भर रहे हैं-हम दो ऐसी फिल्मों को याद करना चाहेंगे, जिनमें हमारा परिचय आजादी की उत्कट आकांक्षा और उसके लिए कोशिशों से होता है।
यों तो हॉलीवुड और; ऐसा कहा जाता है कि बॉलीवुड में भी आजादी को केंद्र में रख कर अनेक फिल्में बनी हैं, मगर ये दोनों फिल्में इन दोनों ही फिल्म उद्योगों से बाहर की हैं, इनमें से एक लीबिया में बनी है और दूसरी ईरान में। ये दोनों देश कमोबेश साम्राज्यवादी देशों के निशाने पर रहे हैं। इन फिल्मों में से एक तो सीधे उन कुर्बानियों का ही सिनेमाई दस्तावेज हैं, जो आजादी के लिए दी गयीं और दूसरी सीधे किसी लड़ाई को अपनी केन्द्रीय विषयवस्तु न बनाते हुए भी मुक्ति की आकांक्षा को पूरी शिद्दत के साथ सामने लाती है।
'लायन ऑफ द डेजर्ट` मुस्तफा अक्काद की चर्चित फिल्म है। एंटोनी क्विन्न के कमाल के अभिनयवाली यह फिल्म लीबियाई जनता के महान संघर्ष पर आधारित है। १९११ में इटली की सेना द्वारा लीबिया पर कब्जा करने के बाद वहां के लोगों ने प्रतिरोध संघर्ष छेड़ दिया। एक साधारण से मदरसा शिक्षक उमर मुख्तार के नेतृत्व में लीबियाई जनता एकजुट हुई और उसने अपनी पुरानी बंदूकों और पुराने तरीकों से इटली की सेना के खिलाफ युद्ध की शुरुआत की। इटली के पास न सिर्फ लीबियाईयों के मुकाबले आधुनिक सैन्य साजो-सामान थे, तोपें थीं बल्कि उनके तरीके भी अधिक क्रूर थे। उन्होंने गांवों को उजाड़ दिया और फसलें जला डालीं। ताकि लड़ाकुओं को मदद और रसद न मिल सके। जो नागरिक आजादी लड़ाई में न जा सके थे, औरतें बच्चे और बीमार, उन्हें यातना शिविरों में रखा गया, जहां वे खुद मर जाते या उन्हें फांसी पर लटका दिया जाता। इसके बावजूद लीबियाई जनता का अपराजेय प्रतिरोध तेज और मजबूत होता गया। उन्होंने अनेक लड़ाइयां जीतीं, अपने बहुत सारे साथियों के मारे जाने के बाद भी वे थके नहीं, हार नहीं मानी और एक से दूसरी जगह अपने ठिकाने बनाते हुए मुसोलिनी के फासिस्ट मंसूबों से लोहा लेते रहे।
प्रतिरोध आंदोलन जब शुरु हुआ, इसके नेता उमर मुख्तार ४९ साल के थे। उन्होंने २० साल से अधिक समय तक प्रतिरोध आंदोलन का नेतृत्व किया। इस दौरान इटली की सेना कभी भी निर्द्वंद्व होकर लीबिया पर काबिज नहीं हो पायी। १९३१ में उमर मुख्तार की गिरफ्तारी और उनको फांसी दिये जाने के बाद भी प्रतिरोध की उस लहर को समाप्त नहीं किया जा सका।
फिल्म इस पूरे घटनाक्रम को उसके सभी आयामों के साथ दर्ज करती है। गांववालों के संगीतमय उत्सव, वहां की लड़कियों का उल्लास, बच्चों की शरारतें और फिर एक दिन सब कुछ का खत्म हो जाना! १९८१ में प्रदर्शित हुई यह फिल्म इटली में बहुत दिनों तक प्रतिबंधित रही।
दूसरी फिल्म है मजीद मजीदी की 'चिल्ड्रेन ऑफ हैवेन`। १९९७ में ईरान में बनी फारसी भाषा की इस फिल्म को १९९८ का ऑस्कर अवार्ड भी मिला था। सरसरी तौर पर यह फिल्म दो बच्चों और उनके जूतों की कहानी लगती है, लेकिन अगर हम इसके बिंबों को पढ़ने की कोशिश करें, तो पाते हैं कि यह फिल्म एक समाज की अपने रूढ़ होते समय से बाहर आने की छटपटाहट से भरी है। फिल्म में ईरानी समाज में तीव्र वर्गीय विभाजन और लगातार बदतर होते राजनीतिक हालात के बारे में पता चलता है।
फिल्म की शुरुआत होती है जूतों की मरम्मत के दृश्य से। अली अपनी छोटी बहन जोहरा के जूते मरम्मत करा रहा है। मगर लौटते समय वह रास्ते में उन्हें खो देता है। जब जोहरा को पता चलता है कि जूते खो गये, उसके सामने सबसे बड़ी समस्या यह खड़ी होती है कि वह अब स्कूल कैसे जायेगी। अली जोहरा को यह बात मां-बाप से बताने को इसलिए मना करता है क्योंकि वह जानता है कि उनके पास पैसे नहीं हैं और वे जूते नहीं खरीद पायेंगे। जूते खो देने के कारण उसे मार खाने का भी डर होता है।
अली जोहरा को इस बात के लिए राजी कर लेता है कि वह अली के जूते पहन कर स्कूल चली जायेगी। वह लौटेगी तो अली स्कूल जाएगा। इसके बाद आप फिल्म के अधिकतर हिस्सों में इन दोनों बच्चों को बस दौड़ते हुए देखते हैं। जोहरा दौड़ते हुए स्कूल से लौटती है ताकि अली को स्कूल जाने में देर न हो। अली भी दौड़ते हुए स्कूल पहुंचता है और देर से पहंुच कर डांट खाता है।
बच्चों की यह दौड़ ईरानी समाज द्वारा आर्थिक शोषण मुक्ति के लिए की जाने वाली दौड़ का रूपक बन जाता है। अली के परिवार की गरीबी के दृश्य उस त्रासदी को और गहरा कर देते हैं, जो फिल्म के माध्यम से बार-बार उभर कर सामने आती हैं। फिल्म के एक दृश्य में अली और उसके पिता बागवानी का कुछ काम करके अतिरिक्त पैसे कमाने के इरादे से निकलते हैं। मगर उन्हें अधिकतर जगहों से फटकार ही मिलती है। अंत में जब उन्हें एक जगह काम मिलता है और वे कुछ पैसे कमा पाते हैंं लेकिन लौटते समय उनका एक्सीडेंट हो जाता है और कमाये हुए पैसे इलाज में लग जाते हैं।
जूतों की समस्या के हल के लिए अली प्रांतीय स्तर की दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेता है, जिसमें तीसरे स्थान पर आने वाले लड़के को एक जोड़ी जूते दिये जाने थे। अली इसी तीसरे स्थान के लिए दौड़ता है और जानबूझ कर अपने आगे दो प्रतिभागियों को निकलने देता है। मगर अंतिम समय में कई लड़कों के आगे आने के कारण वह दूरी बरकरार नहीं रख पाता और गति बढ़ाने के चक्कर में सबसे पहले जीत का निशान पार कर जाता है।
यह जीत अली के लिए बहुत बड़ी विडम्बना है। वह चाहता है कि उसे जूते मिलें और उसे एक कप थमा दिया जाता है, जिसका अली के लिए कोई मतलब नहीं।
थका-हारा अली जब घर लौटता है, जोहरा उसकी राह देख रही होती है। उसे उदास देखते ही वह सब समझ जाती है। फिल्म के अंतिम दृश्य में पानी में डूबा अली का फफोलों वाला पैर दिखता है, जिसे मछलियों ने घेर रखा है। अली ने फट चुका जूता अभी-अभी निकाल फेंका है। ईरान जैसे समाज में अपनी बात कहने के लिए जिस तरह के कौशल और बिंबों के इस्तेमाल की जरूरत है, मजीद मजीदी ने उन्हें गढ़ने में मेहनत की है। देखनेवाले को लगता है कि वह जूतों पर एक बेेहतरीन फिल्म देख रहा है, मगर वास्तव में वे जूते अंतत: ईरानी समाज की आर्थिक-गैरबराबरी से मुक्ति की चाहत और लोकतांत्रिक की आकांक्षाओं के प्रतीक बन कर उभरते हैं।
अगर इन दोनों फिल्मों को मिलाकर देखा जाये तो ये वर्तमान वैश्विक परिदृश्य को मुकम्मल तौर पर अभिव्यक्ति देती नजर आती हैं। 'लायन आफ़ द डेज़र्ट` इराक, फलस्तीन, कश्मीर, चेचेन्या, फिलीपींस, पेरु और बाकी जगहों पर युद्धरत जनता के संघर्षों को स्वर देती है तो दूसरी ओर 'चिल्ड्रेंस हैवन` अमेरिकी साम्राज्य के कर्ताधर्ताओं द्वारा निर्यात की जा रही आजादी और लोकतंत्र की अवधारणओं और स्वरूपों के बरअक्स अपनी तरह की और सही मायनों में सच्ची आजादी और जनवाद का विकल्प सामने लेकर आती है, जहां उधार के जूते पहनने की मजबूरी और जरूरत न हो। यह एक तरह से 'लायन आफ़ द डेर्जट़` का उत्तरार्ध भी है।
हम इन फिल्मों में देखते हैं कि इनकी देशभक्ति की अवधारणा किसी दूसरे देश के खिलाफ नफरत की बुनियाद पर नहीं खड़ी की गई है और न ही इनमें देशभक्ति किसी सनक की स्थानापन्न बनती है।
यह ठीक वह जगह है जब इनके साथ हिन्दी फिल्मों पर भी तुलनात्मक बात की जानी चाहिए। हमारे सामने हिन्दी फिल्मों का ७५ साल पुराना इतिहास है और यह शर्मनाक है कि हम उन हजारों हिन्दी फिल्मों में से उंगलियों पर गिनी जाने लायक महज कुछ 'कला` फिल्में ही बता सकते हैं जो अपने इतिहास और भविष्य को वैज्ञानिक और बौद्धिक तरीके से विषय बनाती हांे। हमारे यहां देशभक्ति की बड़ी भ्रमित करनेवाली अवधारणा प्राय: शुरु से ही रही है।
१९४७ के बाद जो फिल्में देश के लोगों और देशभक्ति को अपना केंद्रीय विषय वस्तु बनाते हुए बनीं, उनमें तो कुछ हद तक एक संतुलन था भी। अभी-अभी देश से गये साम्राज्यवादी शासकों के प्रति गुस्सा और देश में बचे रह गये उनके अवशेषों के प्रति संदेह की मौजूदगी उनमें मिलती है, खासकर प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से जुड़ लेखकों-फिल्मकारों की फिल्मों में। आवारा और श्री ४२० जैसी फिल्में भी सीधे-सीधे देश भक्ति पर न होते हुए आजादी और आम आदमी से जुड़, आधारभूत सवालों को रेखांकित करती हैं। मगर इसी के साथ आदर्शवादी चरित्र और ऐतिहासिक दृष्टि से पूरी तरह गलत तथ्यों के आधार पर नायकों को गढ़ने का सिलसिला भी चला। 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल` जैसे हास्यास्पद और तथ्यहीन निष्कर्ष उसी दौर में थोपे गये। मगर ७० के दशक की शुरुआत से, जब कांग्रेस से मोहभंग शुरु हुआ, आजादी और देशभक्ति की अवधारणाओं में बदलाव दिखने लगा। अंगरेजों की जगह कुछ अजीब सी पोशाकोंवाले खलनायक देश के दुश्मन के रूप में सामने आये जिनके साथ कुछ अंगरेजी लहजे में हिंदी बोलनेवाले विदेशी रहते थे और जो मिलकर देश को तोड़ने और तरस्करी करने का धंधा करते थे। ९० के दशक में यह दौर भी खत्म हुआ और सीधे-सीधे पाकिस्तान हमारे लिए एक दुश्मन के रूप में बिठा दिया गया। देश की सारी समस्याओं, सारी बुराइयों का एकमात्र कारण!
आज इन विषयों पर जो भी फिल्में आ रही हैं उनमें यह साफ दिखता है कि वे बस लोगों में बैठा दी गयी असुरक्षा की भावना को भुनाना और उसे और गहरा कर देना चाहती हैं। देशभक्ति को बिना एक ठोस अवधारणा का रूप दिये, एक सनकीपन की तरह परोसा जा रहा है। कश्मीर ऐसी ही सनक के रूप में हमारी फिल्मों में प्रवेश पाता है। कश्मीर का संकट जितना गहराता गया, जितना बड़ा होता गया, फिल्मकारों के लिए उस पर फिल्म बनाना भी जटिल होता गया है, लेकिन किसी फिल्मकार ने इस विषय पर सरकारी नजरिये से अलग हटकर फीचर फिल्में बनाने की कोशिश नहीं की है।
इसके अलावा हिन्दी फिल्मों का वर्गीय चरित्र भी साफ है। हिन्दी फिल्मों के किसान शोषण और औपनिवेशिक अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए विद्रोह नहीं करते, वे लगान माफ कराने के लिए क्रिकेट खेलने में अपना वक्त जाया करते हैं।
- रेयाज-उल-हक
आज जब हम कश्मीर, चेचेन्या, इराक और फलस्तीन में आजादी और राष्ट्रीयता की लड़ाइयों से रू-ब-रू हो रहे हैं, लोकतंत्र, शांति और राष्ट्रवाद के रक्तस्नात नारों और मंत्रोच्चर के स्वर हमारे परिवेश को हिंसक संभावनाओं से भर रहे हैं-हम दो ऐसी फिल्मों को याद करना चाहेंगे, जिनमें हमारा परिचय आजादी की उत्कट आकांक्षा और उसके लिए कोशिशों से होता है।
यों तो हॉलीवुड और; ऐसा कहा जाता है कि बॉलीवुड में भी आजादी को केंद्र में रख कर अनेक फिल्में बनी हैं, मगर ये दोनों फिल्में इन दोनों ही फिल्म उद्योगों से बाहर की हैं, इनमें से एक लीबिया में बनी है और दूसरी ईरान में। ये दोनों देश कमोबेश साम्राज्यवादी देशों के निशाने पर रहे हैं। इन फिल्मों में से एक तो सीधे उन कुर्बानियों का ही सिनेमाई दस्तावेज हैं, जो आजादी के लिए दी गयीं और दूसरी सीधे किसी लड़ाई को अपनी केन्द्रीय विषयवस्तु न बनाते हुए भी मुक्ति की आकांक्षा को पूरी शिद्दत के साथ सामने लाती है।
'लायन ऑफ द डेजर्ट` मुस्तफा अक्काद की चर्चित फिल्म है। एंटोनी क्विन्न के कमाल के अभिनयवाली यह फिल्म लीबियाई जनता के महान संघर्ष पर आधारित है। १९११ में इटली की सेना द्वारा लीबिया पर कब्जा करने के बाद वहां के लोगों ने प्रतिरोध संघर्ष छेड़ दिया। एक साधारण से मदरसा शिक्षक उमर मुख्तार के नेतृत्व में लीबियाई जनता एकजुट हुई और उसने अपनी पुरानी बंदूकों और पुराने तरीकों से इटली की सेना के खिलाफ युद्ध की शुरुआत की। इटली के पास न सिर्फ लीबियाईयों के मुकाबले आधुनिक सैन्य साजो-सामान थे, तोपें थीं बल्कि उनके तरीके भी अधिक क्रूर थे। उन्होंने गांवों को उजाड़ दिया और फसलें जला डालीं। ताकि लड़ाकुओं को मदद और रसद न मिल सके। जो नागरिक आजादी लड़ाई में न जा सके थे, औरतें बच्चे और बीमार, उन्हें यातना शिविरों में रखा गया, जहां वे खुद मर जाते या उन्हें फांसी पर लटका दिया जाता। इसके बावजूद लीबियाई जनता का अपराजेय प्रतिरोध तेज और मजबूत होता गया। उन्होंने अनेक लड़ाइयां जीतीं, अपने बहुत सारे साथियों के मारे जाने के बाद भी वे थके नहीं, हार नहीं मानी और एक से दूसरी जगह अपने ठिकाने बनाते हुए मुसोलिनी के फासिस्ट मंसूबों से लोहा लेते रहे।
प्रतिरोध आंदोलन जब शुरु हुआ, इसके नेता उमर मुख्तार ४९ साल के थे। उन्होंने २० साल से अधिक समय तक प्रतिरोध आंदोलन का नेतृत्व किया। इस दौरान इटली की सेना कभी भी निर्द्वंद्व होकर लीबिया पर काबिज नहीं हो पायी। १९३१ में उमर मुख्तार की गिरफ्तारी और उनको फांसी दिये जाने के बाद भी प्रतिरोध की उस लहर को समाप्त नहीं किया जा सका।
फिल्म इस पूरे घटनाक्रम को उसके सभी आयामों के साथ दर्ज करती है। गांववालों के संगीतमय उत्सव, वहां की लड़कियों का उल्लास, बच्चों की शरारतें और फिर एक दिन सब कुछ का खत्म हो जाना! १९८१ में प्रदर्शित हुई यह फिल्म इटली में बहुत दिनों तक प्रतिबंधित रही।
दूसरी फिल्म है मजीद मजीदी की 'चिल्ड्रेन ऑफ हैवेन`। १९९७ में ईरान में बनी फारसी भाषा की इस फिल्म को १९९८ का ऑस्कर अवार्ड भी मिला था। सरसरी तौर पर यह फिल्म दो बच्चों और उनके जूतों की कहानी लगती है, लेकिन अगर हम इसके बिंबों को पढ़ने की कोशिश करें, तो पाते हैं कि यह फिल्म एक समाज की अपने रूढ़ होते समय से बाहर आने की छटपटाहट से भरी है। फिल्म में ईरानी समाज में तीव्र वर्गीय विभाजन और लगातार बदतर होते राजनीतिक हालात के बारे में पता चलता है।
फिल्म की शुरुआत होती है जूतों की मरम्मत के दृश्य से। अली अपनी छोटी बहन जोहरा के जूते मरम्मत करा रहा है। मगर लौटते समय वह रास्ते में उन्हें खो देता है। जब जोहरा को पता चलता है कि जूते खो गये, उसके सामने सबसे बड़ी समस्या यह खड़ी होती है कि वह अब स्कूल कैसे जायेगी। अली जोहरा को यह बात मां-बाप से बताने को इसलिए मना करता है क्योंकि वह जानता है कि उनके पास पैसे नहीं हैं और वे जूते नहीं खरीद पायेंगे। जूते खो देने के कारण उसे मार खाने का भी डर होता है।
अली जोहरा को इस बात के लिए राजी कर लेता है कि वह अली के जूते पहन कर स्कूल चली जायेगी। वह लौटेगी तो अली स्कूल जाएगा। इसके बाद आप फिल्म के अधिकतर हिस्सों में इन दोनों बच्चों को बस दौड़ते हुए देखते हैं। जोहरा दौड़ते हुए स्कूल से लौटती है ताकि अली को स्कूल जाने में देर न हो। अली भी दौड़ते हुए स्कूल पहुंचता है और देर से पहंुच कर डांट खाता है।
बच्चों की यह दौड़ ईरानी समाज द्वारा आर्थिक शोषण मुक्ति के लिए की जाने वाली दौड़ का रूपक बन जाता है। अली के परिवार की गरीबी के दृश्य उस त्रासदी को और गहरा कर देते हैं, जो फिल्म के माध्यम से बार-बार उभर कर सामने आती हैं। फिल्म के एक दृश्य में अली और उसके पिता बागवानी का कुछ काम करके अतिरिक्त पैसे कमाने के इरादे से निकलते हैं। मगर उन्हें अधिकतर जगहों से फटकार ही मिलती है। अंत में जब उन्हें एक जगह काम मिलता है और वे कुछ पैसे कमा पाते हैंं लेकिन लौटते समय उनका एक्सीडेंट हो जाता है और कमाये हुए पैसे इलाज में लग जाते हैं।
जूतों की समस्या के हल के लिए अली प्रांतीय स्तर की दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेता है, जिसमें तीसरे स्थान पर आने वाले लड़के को एक जोड़ी जूते दिये जाने थे। अली इसी तीसरे स्थान के लिए दौड़ता है और जानबूझ कर अपने आगे दो प्रतिभागियों को निकलने देता है। मगर अंतिम समय में कई लड़कों के आगे आने के कारण वह दूरी बरकरार नहीं रख पाता और गति बढ़ाने के चक्कर में सबसे पहले जीत का निशान पार कर जाता है।
यह जीत अली के लिए बहुत बड़ी विडम्बना है। वह चाहता है कि उसे जूते मिलें और उसे एक कप थमा दिया जाता है, जिसका अली के लिए कोई मतलब नहीं।
थका-हारा अली जब घर लौटता है, जोहरा उसकी राह देख रही होती है। उसे उदास देखते ही वह सब समझ जाती है। फिल्म के अंतिम दृश्य में पानी में डूबा अली का फफोलों वाला पैर दिखता है, जिसे मछलियों ने घेर रखा है। अली ने फट चुका जूता अभी-अभी निकाल फेंका है। ईरान जैसे समाज में अपनी बात कहने के लिए जिस तरह के कौशल और बिंबों के इस्तेमाल की जरूरत है, मजीद मजीदी ने उन्हें गढ़ने में मेहनत की है। देखनेवाले को लगता है कि वह जूतों पर एक बेेहतरीन फिल्म देख रहा है, मगर वास्तव में वे जूते अंतत: ईरानी समाज की आर्थिक-गैरबराबरी से मुक्ति की चाहत और लोकतांत्रिक की आकांक्षाओं के प्रतीक बन कर उभरते हैं।
अगर इन दोनों फिल्मों को मिलाकर देखा जाये तो ये वर्तमान वैश्विक परिदृश्य को मुकम्मल तौर पर अभिव्यक्ति देती नजर आती हैं। 'लायन आफ़ द डेज़र्ट` इराक, फलस्तीन, कश्मीर, चेचेन्या, फिलीपींस, पेरु और बाकी जगहों पर युद्धरत जनता के संघर्षों को स्वर देती है तो दूसरी ओर 'चिल्ड्रेंस हैवन` अमेरिकी साम्राज्य के कर्ताधर्ताओं द्वारा निर्यात की जा रही आजादी और लोकतंत्र की अवधारणओं और स्वरूपों के बरअक्स अपनी तरह की और सही मायनों में सच्ची आजादी और जनवाद का विकल्प सामने लेकर आती है, जहां उधार के जूते पहनने की मजबूरी और जरूरत न हो। यह एक तरह से 'लायन आफ़ द डेर्जट़` का उत्तरार्ध भी है।
हम इन फिल्मों में देखते हैं कि इनकी देशभक्ति की अवधारणा किसी दूसरे देश के खिलाफ नफरत की बुनियाद पर नहीं खड़ी की गई है और न ही इनमें देशभक्ति किसी सनक की स्थानापन्न बनती है।
यह ठीक वह जगह है जब इनके साथ हिन्दी फिल्मों पर भी तुलनात्मक बात की जानी चाहिए। हमारे सामने हिन्दी फिल्मों का ७५ साल पुराना इतिहास है और यह शर्मनाक है कि हम उन हजारों हिन्दी फिल्मों में से उंगलियों पर गिनी जाने लायक महज कुछ 'कला` फिल्में ही बता सकते हैं जो अपने इतिहास और भविष्य को वैज्ञानिक और बौद्धिक तरीके से विषय बनाती हांे। हमारे यहां देशभक्ति की बड़ी भ्रमित करनेवाली अवधारणा प्राय: शुरु से ही रही है।
१९४७ के बाद जो फिल्में देश के लोगों और देशभक्ति को अपना केंद्रीय विषय वस्तु बनाते हुए बनीं, उनमें तो कुछ हद तक एक संतुलन था भी। अभी-अभी देश से गये साम्राज्यवादी शासकों के प्रति गुस्सा और देश में बचे रह गये उनके अवशेषों के प्रति संदेह की मौजूदगी उनमें मिलती है, खासकर प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से जुड़ लेखकों-फिल्मकारों की फिल्मों में। आवारा और श्री ४२० जैसी फिल्में भी सीधे-सीधे देश भक्ति पर न होते हुए आजादी और आम आदमी से जुड़, आधारभूत सवालों को रेखांकित करती हैं। मगर इसी के साथ आदर्शवादी चरित्र और ऐतिहासिक दृष्टि से पूरी तरह गलत तथ्यों के आधार पर नायकों को गढ़ने का सिलसिला भी चला। 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल` जैसे हास्यास्पद और तथ्यहीन निष्कर्ष उसी दौर में थोपे गये। मगर ७० के दशक की शुरुआत से, जब कांग्रेस से मोहभंग शुरु हुआ, आजादी और देशभक्ति की अवधारणाओं में बदलाव दिखने लगा। अंगरेजों की जगह कुछ अजीब सी पोशाकोंवाले खलनायक देश के दुश्मन के रूप में सामने आये जिनके साथ कुछ अंगरेजी लहजे में हिंदी बोलनेवाले विदेशी रहते थे और जो मिलकर देश को तोड़ने और तरस्करी करने का धंधा करते थे। ९० के दशक में यह दौर भी खत्म हुआ और सीधे-सीधे पाकिस्तान हमारे लिए एक दुश्मन के रूप में बिठा दिया गया। देश की सारी समस्याओं, सारी बुराइयों का एकमात्र कारण!
आज इन विषयों पर जो भी फिल्में आ रही हैं उनमें यह साफ दिखता है कि वे बस लोगों में बैठा दी गयी असुरक्षा की भावना को भुनाना और उसे और गहरा कर देना चाहती हैं। देशभक्ति को बिना एक ठोस अवधारणा का रूप दिये, एक सनकीपन की तरह परोसा जा रहा है। कश्मीर ऐसी ही सनक के रूप में हमारी फिल्मों में प्रवेश पाता है। कश्मीर का संकट जितना गहराता गया, जितना बड़ा होता गया, फिल्मकारों के लिए उस पर फिल्म बनाना भी जटिल होता गया है, लेकिन किसी फिल्मकार ने इस विषय पर सरकारी नजरिये से अलग हटकर फीचर फिल्में बनाने की कोशिश नहीं की है।
इसके अलावा हिन्दी फिल्मों का वर्गीय चरित्र भी साफ है। हिन्दी फिल्मों के किसान शोषण और औपनिवेशिक अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए विद्रोह नहीं करते, वे लगान माफ कराने के लिए क्रिकेट खेलने में अपना वक्त जाया करते हैं।
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