September 18, 2007

माइक थेवर को जानना जरूरी है

व्यक्तित्व

  • रवीश कुमार


माइक तेवर। हजार शोहरतमंद नामों में एक गुमनाम। मगर काम बेहद जरूरी। माइक थेवर वह काम कर रहे हैं जिसकी हिम्मत बड़े-बड़े उद्योगपतियों को नहीं हो सकी। माइक की एक कंपनी है। अमरीका के फिलाडेलफिया शहर में। १६० करोड़ टर्नओवर वाली कंपनी। माइक ने १५ साल की कड़ी मेहनत से तैयार की है। इसकी एक नीति है जो नई बहस और साहस के लिए प्रेरित करती है।

माइक अपनी कंपनी के लिए सौ फीसदी अफरमेटिव एक्शन के तहत लोगों को नौकरी देते हैं। अफरमेटिव एक्शन यानी जब कंपनी सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े तबके को आगे लाने के लिए नौकरियां देती हैं। अमरीका में सारी बड़ी कंपनियां ऐसा करती हैं। वहां के बड़े अखबार वाशिंगटन पोस्ट में भी अफरमेटिव एक्शन लागू है। यानी तथाकथित मेरिट नहीं होने पर भी नौकरी।

माइक अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी के लड़कों को नौकरी देते हैं। हाल ही में उन्होंने २५ लड़कों का चयन किया है। इनमें से कोई भी नौकरी पाने की पात्रता नहीं रखता है। अमरीका न हिन्दुस्तान में। लेकिन माइक इन्हें मुंबई में अमरीकन अंग्रेजी की टे्रनिंग देंगे फिर ले जाएंगे। इससे पहले भी वह १५ लड़कों को नौकरी दे चुके हैं। ये लड़के मुंबई के धारावी के रहने वाले हैं। ज्यादातर के मां बाप बड़ा पाव बेचने और आटो चलाने वाले हैं। वे अब अपने घर हर महीने पच्चीस हजार भेजते हैं। मां बाप की भी जिंदगी बदल रही है।

ये लड़के नौकरी पाने की पात्रता नहीं रखते थे। इनके चयन की एक ही पात्रता देखी गई-सामाजिक और आर्थिक रूप से सताए हुए तबके की पात्रता। माइक ने इन्हें व्हाईट कालर वाला बना दिया। जिसके लिए कई लोग लाखों खर्चते हैं। डिग्री लेते हैं। फिर कहते हैं हमारे पास मेरिट है। माइक सोचते हैं कि यह सब कुछ नहीं होता। काम का प्रशिक्षण देकर काम कराया जा सकता है। और वह शायद दुनिया की अकेेली कंपनी के मालिक हैं जिनकी कंपनी में यह नीति बाइस या सत्ताईस प्रतिशत नहीं बल्कि सौ प्रतिशत लागू है। यानी सारी नौकरियां अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े तबके के कमजोर छात्रों को।

माइक कौन हैं? वह केरल के गरीब ओबीसी परिवार के हैं। कई साल पहले इनका परिवार मुंबई के धारावी में आ कर रहने लगा। स्लम में। माइक ने खुद बड़ा पाव बेचा है। मुंबई के निर्मला निकेतन से बैचलर इन सोशल साइंर्स की डिग्री ली। टाटा इस्‍टद्ययूट ऑफ सोशल साइंर्स से मास्टर डिग्री ली। एक दलित लड़की से शादी की। तमाम विरोध के बाद भी। और स्कॉलरशिप पर अमरीका चले गए। वहां उन्होने स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाली एक कंपनी टेम्प्ट सल्यूशन कायम की। एक कामयाब कंपनी। कामयाबी के बाद माइक को एक बड़ी जिम्मेदारी का अहसास हुआ। पिछड़े और सताए हुए तबके के युवाओं को मौका देने का। जिस समाज से उन्हें मिला वह उसे वापस करना चाहते थे।

इसी जिम्मेवारी को अनुभव करने के कारण उनकी कंपनी की लाजवाब नीति सामने है। वहां किसी को मेरिट के आधार पर नौकरी नहीं मिलती। माइक चुनते हैं। चुनते समय ध्यान रखते हैं कि जिसे मौका मिल रहा है उसमें भी सामाजिक प्रतिबद्धता है या नहीं। यानी वह आगे जाकर बाकी को आगे लाने में मदद करेगा या नहीं। माइक जल्दी ही अपनी कंपनी के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों के ऐसे लड़कों को मौका देने की योजना लागू करने वाले हैं।

यह कहानी इसलिए सुनाई कि कुछ दिन पहले भारत के एक बड़े उद्योगपति प्रधानमंत्री से मिलने गए। वह दो साल से अफरमेटिव एक्शन के नाम पर आनाकानी कर रहे हैं। कहते हैं सरकार की बेकार आईटीआई संस्थानों को दीजिए और हम वहां ट्रेंनिंग देकर देखेंगे कि ये काम करने लायक है या नहीं। क्यों भई बाप की जमीन पर उद्योग खड़े किए हैं क्या? तमाम रियायतें, आयात निर्यात नीति में बदलाव, फ्री की जमीन और आप दुनिया से कंपीट कर सकंे उसके लिए सरकार का समर्थन। कोई उद्योग कह दे कि उनकी कामयाबी में इन हिस्सों का योगदान है या नहीं? मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि जिन गरीब बच्चों को माइक अमरीका ले जा रहे हैं, अपनी कंपनी में नौकरी देने के लिए वे गरीब बच्चे वहां के फुटपाथ या तीसरे दर्जे के होटल में नहीं ठहराये जाते हैं। वे सभी माइक के घर में रहते हैं। इसीलिए कहता हूं माइक थैवर को जानना जरूरी है।

(एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार को गत माह हिन्दी पत्रकारिता के लिए प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका अवार्ड मिला है। जन विकल्प की ओर से बधाई!)

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