September 3, 2007

कंवल भारती

ब्राह्मण -जाल में माया

निस्‍संदेह , उत्तर प्रदेश में मायावती की जीत ने राजनीति के विश्लेषकों को आश्चर्य में डाल दिया है। उत्तर प्रदेश में सोलह साल बाद किसी पार्टी का बहुमत में आना, और वह भी एक दलित नेतृत्व की पार्टी का, सचमुच एक महत्वपूर्ण घटना है। इससे हम समझ सकते हैं कि लोकतंत्र में चीजें बदलती हैं और वर्चस्ववाद अन्तत: टूटता ही है। दलित कवि मलखान सिंह के शब्दों को उधार लेकर कहूं तो अन्धड़ भरे दिनों से जूझते हुए मौसम को जूता दिखा लोगों ने चीख कर कहा था कि धरती बदलती है, बदलते हैं आकाश, हवाओं के रूख, चिड़ियों के पंख। मायावती को गांव की कीच भरी गलियों में मौसम के खिलाफ उठती हुई आवाजें साफ सुनायी दे रही थीं। पर, ये आवाजें बदलाव की थीं-व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन की। इन आवाजों ने मायावती को सत्ता तो सौंप दी-एक इतिहास रच दिया। पर, सवाल यह है कि क्या यह सत्ता मौसम को भी बदलेगी या मौसम के साथ चलेगी?
यही वह मुख्य प्रश्न और प्रस्थान बिन्दु है, जहां से मायावती की राजनीति (दलित राजनीति नहीं) पर विचार किये जाने की जरूरत है। लेकिन, पहले हम यह देख लें कि राजनैतिक, विश्लेषकों ने इस घटना पर क्या टिप्पणी की है? टिप्पणियां बहुत सी हैं और आपस में भिन्नता लिये हुए हैं। किसी ने इसे राजनैतिक क्रांति का नाम दिया है और किसी का मत है कि उत्तर प्रदेश का तमिलनाडूकरण हो गया है। ऐसे चिन्तक भी हैं , जो इस घटना को दलित राजनीति के ब्राह्मणीकरण की दृष्टि से देख रहे हैं और कुछ इस विचार के हैं कि यह सत्ता के लिए गठजोड़ है और यह कोई क्रांति-व्रांति नहीं है।


इन टिप्पणियों में एक बात समान रूप से कही जा रही है कि इस जीत का कारण ब्राह्मणों के वोट हैं, जो इस बार मायावती की पार्टी को मिले हैं। स्वयं मायावती भी इसका श्रेय ब्राह्मणों को ही दे रही हैं। वे पिछले तीन साल से दलित-ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन आयोजित कर रही थीं और ब्राह्मणों के भगवान परशुराम के आगे नतमस्तक हो रही थीं। 'जय भीम` के साथ 'जय परशुराम` भी उनके अभिवादन में शामिल हो गया था और यह नारा आम हो गया था कि 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है।` कहा जा रहा है कि यह भाईचारा कामयाब हुआ और बसपा की जीत ब्राह्मण मतदाताओं के कारण हुई? इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता और जो ऐसा सोच रहा है, वह बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकर है। यदि जातिवाद वोटों की बात करें, तो इस चुनाव में बसपा को ब्राह्मण वोट सिर्फ १० प्रतिशत मिले हैं, जबकि भारतीय जनता पार्टी को ४८ प्रतिशत ब्राह्मण वोट प्राप्त हुए हैं। इस दृष्टि से उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण आज भी भाजपा के साथ हैं। सिर्फ १० प्रतिशत वोटों के आधार पर यह कैसे माना जा सकता है कि बसपा को ब्राह्मण वोटों ने बहुमत दिलाया है? यह १० प्रतिशत ब्राह्मण वोट भी बसपा को इसलिये मिला, क्योंकि वह ब्राह्मण-प्रत्याशियों का अपना खुद का समर्थक वोट था। दरअसल, ब्राह्मण प्रत्याशियों की जीत दलित वोटों के बल पर हुई है, जो मायावती के नाम पर अखण्ड रूप में पड़ता है, भले ही प्रत्याशी कोई भी हो। मायावती भली भांति जानती हैं कि उत्तर प्रदेश में दलित उनके साथ समर्पित भाव से जुड़ा है, उनमें अंधी श्रद्धा रखता है और किसी भी स्थिति में उनके खिलाफ नहीं जाता है। यही दलित जन मायावती की सबसे बड़ी राजनैतिक शक्ति हैं और इसी शक्ति के बल पर वे ब्राह्मणों और अन्य वर्गों के साथ सौदेबाजी करती हैं । अर्थात् वे अपनी दलित शक्ति की पूरी कीमत वसूलती हैं।


लेकिन चुनाव-परिणामों के बाद मायावती ने अपनी इसी दलित शक्ति का यह कह कर अपमान किया है कि उन्हें ब्राह्मणों ने बहुमत दिलाया है और अब वे 'बहुजन` की नहीं, 'सर्वजन` की बात करेंगी। इस के बाद दलित उनके एजेण्डे से रातों-रात गायब हो गया। एक अंग्रजी पत्रिका (फ्रन्टलाईन १ जून, २००७) में उनका साक्षात्कार छपा है। प्रश्नकर्त्ता पत्रकार वेंकटेश रामाकृष्णन के यह पूछने पर कि कांशीराम अपने समय में कृषि, व्यापार और उद्योग, राजनीति और सरकार-इन चार क्षेत्रों में दलित समाज या बहुजन समाज के विकास की बात करते थे, तो प्रश्न पूरा हुए बिना ही मायावती ने यह जवाब दिया- 'अब हम बहुजन समज का एजेन्डा लागू नहीं कर रहे हैं। अब हमारा मुख्य ध्यान सर्वसमाज के कल्याण पर होगा।` इससे सहज ही समझा जा सकता है कि दलित समाज को मायावती कोई श्रेय देना नहीं चाहती हैं। मायावती ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद ही सर्वजन के अपने एजेन्डे को लागू भी कर दिया। उन्होंने लखनऊ में जनपदों के आला अफसरों की बैठक में साफ-साफ दो बातें कहीं। एक यह कि दलित एक्ट का दुरूपयोग न किया जाय, और दूसरी यह कि थानों में ७० प्रतिशत थानेदार सवर्ण और ३० प्रतिशत अवर्ण हों। ये दोनों निर्देश सर्वजन, खास तौर से ब्राह्मणों को ही ध्यान में रखकर दिये गये थे। 'दलित एक्ट का कड़ाई से पालन किया जाय`, यह कहने के बजाय उन्होंने आला अफसरों को यह संकेत दिया कि उसका पालन न किया जाय। इसी तरह पुलिस थानों में भी दलितों की भागीदारी कम कर दी गयी। यानी, यदि किसी थाने में १० थानेदारों का स्टाफ स्वीकृत है, तो वहां दलित थानेदार ३ और सवर्ण ७ रखने के आदेश दिये गये हैं। यह परिवर्तन नहीं है, बल्कि यथास्थिति बनाये रखने की नीति है, जो हमेशा दलित के विरूद्ध और सवर्ण के हित में होती है। दूसरे शब्दों में, मायावती का एजेन्डा अब मौसम के साथ चलने का है, मौसम बदलने का नहीं है।
जो चिन्तक बसपा के उभार को राजनैतिक क्रांति कह रहे हैं, उनका विश्लेषण सिर्फ यहीं तक सीमित है कि भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों को पछाड़ कर बसपा को पूर्ण बहुमत मिलना एक क्रांतिकारी घटना है। उनका यहां तक मानना है कि प्रदेश की जनता ने भाजपा के हिन्दुत्व और कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षतावाद को नकार दिया है। इसमें कुछ चिन्तक यह भी जोड़ रहे हैं कि उत्तर प्रदेश की जनता धर्म और जाति से ऊपर उठ गयी है, जिसने दलित नेतृत्व को स्वीकार कर लिया है।


यदि क्रांति का अर्थ, व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन है, तो यह क्रांति नहीं है। क्योंकि, इससे कोई व्यवस्था बदलने नहीं जा रही है-न जाति प्रथा, न पूंजीवाद और न शोषण पर आधारित आर्थिक उदारवाद; कुछ भी बदलने नहीं जा रहा है। यह सोच भी गलत है कि उत्तर प्रदेश की जनता ने धर्म और जाति से ऊपर उठकर दलित नेतृत्व को स्वीकार किया है। वस्तुस्थिति यह है कि धर्म और जाति के हित में ही प्रदेश की जनता ने मायावती को समर्थन दिया है। बसपा सुप्रीमो मायावती और उनके ब्राह्मण महासचिव सतीशचन्द्र मिश्रा पिछले तीन वर्षों से ब्राह्मण सम्मेलनों में ब्राह्मणों को यही पाठ पढ़ा रहे थे कि ब्राह्मणों का हित बसपा में ही सुरक्षित है, भाजपा में नहीं, जिसके नेताओं के मुलायम सिंह यादव से अन्दर खाने सम्बन्ध हंै। अन्य पिछड़ी जातियों के लोग भी अपने जातीय विकास का उद्देश्य लेकर ही बसपा से जुड़े हैं और दलित मायावती में अपना जातीय स्वाभिमान देखते ही हैं। यदि धर्म और जाति के मोह नहीं होते, तो कोई बताये कि बसपा ने अलग-अलग जातियों के सम्मेलन क्यों आयोजित किये थे? दरअसल, ब्राह्मणों ने दलित-नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया, बल्कि ब्राह्मण नेताओं ने, बसपा में शामिल होकर सत्ता की मलाई खाने का जुगाड़ किया है। वे जानते थे कि समाजवादी पार्टी का राज आने वाला नहीं है और भाजपा सत्ता में आ नहीं सकती- कांग्रेस का तो सवाल ही नहीं, क्योंकि वह सत्ता की दौड़ में ही नहीं थी। ऐसे में, एक बसपा ही थी, जो ब्राह्मण शासक वर्ग को सत्ता में ला सकती थी, क्योंकि उसके साथ दलितों का ठोस वोट जुड़ा था, जो उसे बसपा में जाने पर आसानी से मिल सकता था। इसलिये यह पूर्ण स्वार्थ का मामला है- न ब्राह्मणों को बसपा की जरूरत थी और बसपा को ब्राह्मणों की जरूरत थी।


कुछ विचारकों ने मत व्यक्त किया है कि उत्तर प्रदेश का तमिलनाडूकरण हो गया है। अर्थात्, जिस तरह, तमिलनाडू में दलित-पिछड़ी जातियां एक बड़ी राजनैतिक शक्ति हैं, उसी प्रकार उत्तर प्रदेश में भी दलित-पिछड़ों का उभार एक बड़ी शक्ति बन गया है। इस मत में सच्चाई है। उत्तर प्रदेश में अब ब्राह्मण नेतृत्व के दिन समाप्त हो गये हैं और शायद ही लौट कर आयें। कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, राजद, आदि किसी भी पार्टी में अब ब्राह्मण नेतृत्व प्रभावी नहीं है। भाजपा ने पिछड़ी जाति के कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा के तहत चुनाव लड़ा था। सपा यादव आधारित पार्टी मानी ही जाती है। यहां यह आकलन करना गलत होगा कि यह दलित-पिछड़ा या गैर ब्राह्मणवाद का उभार इसी एक-दो वर्ष की घटना है। इसका उभार अस्सी के दशक में ही शुरू हो गया था, जब कांशीराम ने बामसेफ (दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक समुदाय के कर्मचारियों का संघ) और डी.एस.फोर (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) बनाकर दलित-पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय के दलितों में सामाजिक चेतना पैदा करने का काम किया था। पिछड़ी जातियों के लिये मण्डल आयोग की सिफारिशों के आधार पर २७ प्रतिशत आरक्षण की लड़ाई भी कांशीराम ने लड़ी थी। इसके लिये उन्होंने व्यापक आन्दोलन चलाया था। इसी राजनैतिक दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने (१९९०) मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की थीं। ठीक इसी समय भाजपा और हिन्दू संगठनों ने मन्दिर आन्दोलन खड़ा कर दिया और हिन्दुत्व का उन्माद भड़का कर पिछड़ी जातियों के आरक्षण के खिलाफ छात्रों को उत्तेजित कर दिया। परिणामत: पूरे देश में दलित-सवर्ण-संघर्ष शुरू हो गया। तोड़फोड़ और आगजनी के साथ-साथ अनेक छात्र-छात्राओं ने आरक्षण के विरोध में आत्मदाह के प्रयास किये। उत्तर प्रदेश में दलित-पिछड़ी जातियों के लोग मण्डल के पक्ष में लामबन्द हो गये थे-और इसी के गर्भ से पिछड़ी जातियों की राजनैतिक शक्ति पैदा हुई।


इस राजनैतिक शक्ति को सत्ता का माध्यम बनाने के लिये कांशीराम और मुलायम सिंह यादव एक मंच पर आ गये और दोनों ने मिल कर १९९३ के विधान सभायी चुनावों में पूर्ण बहुमत से शानदार जीत हासिल की। दुर्भाग्य से यह गठबंधन ज्यादा दिनों तक नहीं चला। दोनों शीघ्र ही अलग-अलग हो गये और अनेक प्रमुख पिछड़ी जातियां भले ही अलग हो गयीं, पर उनकी राजनैतिक शक्ति बनी रही और उत्तर प्रदेश के सपा और बसपा की दो ध्रुवीय राजनीति का आधार भी यही शक्ति बन गयी। इसलिये, उत्तर प्रदेश अस्सी के दशक से ही तमिलनाडू के रास्ते पर चल पड़ा था और जो सफलता मायावती को वर्ष २००७ में प्राप्त हुई है, वह १९९३ में ही सपा-बसपा गठबन्धन को प्राप्त हो चुकी थी। ब्राह्मणवाद की प्रतिक्रांति उसके वर्चस्ववाद को भी खत्म कर रही थी। अब उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों को दलित-पिछड़े-नेतृत्व को ही स्वीकार करने के लिये विवश होना पड़ेगा, क्योंकि अब शायद ही उनका राजनैतिक वर्चस्ववाद पुनर्जीवित हो। लेकिन, इसमें संदेह नहीं कि समाजवादी दृष्टिकोण से उत्तर प्रदेश की राजनीति जातिवादी होने के कारण चिन्ताजनक है। पर, इस बिन्दु पर वाम शक्तियों का कार्य भी प्रदेश में घोर निराशा पैदा करता है।


अब कुछ चर्चा मायावती के सर्वजन एजेन्डे पर जिसे उन्होंने प्राथमिकता से लागू करने की घोषणा की है। यहां यह उल्लेखनीय है कि जिस सर्वजन के कल्याण की मायावती बात कर रही है, उनका सिर्फ १० प्रतिशत वोट उनकी पार्टी को मिला है, दलित का २३ प्रतिशत, पिछड़ी जातियों का ५० प्रतिशत और मुस्लिम (दलित मुस्लिम) का १७ प्रतिशत वोट मायावती की पार्टी को मिला है, यह सब मिला कर ९० प्रतिशत होता है ऐसी स्थिति में ९० प्रतिशत जनता को छोड़ कर १० प्रतिशत सवर्णों के कल्याण में ही यदि मायावती को रूचि रहेगी, तो उनके लिये उस समय बहुत ही कठिन स्थिति पैदा हो जायगी, जब दलित वर्गों का पिछड़ापन सवर्णों के आर्थिक आधार से टकरायेगा। दलित वर्गों और सवर्ण जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों में भारी अन्तर है-दोनों के बीच गहरी खाईयां हैं। आंकड़े बताते हैं कि सवर्णों में ६५ प्रतिशत भू-स्वामी हैं, जबकि दलितों में ८ प्रतिशत के पास ही जमीन है। दलित वर्ग में ५५ प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्रों में मजदूर है, ३२ प्रतिशत कृषि मजदूर हैं ३३ प्रतिशत अशिक्षित हैं और १२ प्रतिशत ऐसे लोग हैं, जिन्होंने दसवीं तक ही शिक्षा हासिल की है। इसके विपरीत, सवर्णों में सिर्फ १० प्रतिशत अशिक्षित हैं और दसवीं तक शिक्षा प्राप्त करने वाले लोग ५० प्रतिशत हैं । स्पष्ट है कि असमानता की यह स्थिति बेहद गंभीर है और इसे सर्वजन के एजेन्डे से दूर नहीं किया जा सकता। यदि इस ऐजेन्डे में सवर्ण प्राथमिकता में रहेंगे, तो यह खाई और बढ़ सकती है।


एक पत्रिका ने लिखा है कि 'ब्राह्मणों ने विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि के योग्य नहीं समझा और शिवाजी का राजतिलक नहीं होने दिया था। पर, आज हमने देखा कि हजारों ब्राह्मणों की मौजूदगी में एक दलित, और वह भी एक का राजतिलक किया गया।` लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि ब्राह्मणों ने अपनी धर्म-व्यवस्था से विद्रोह कर दिया है। दरअसल, यह भारत के लोकतंत्र की देन है कि राजा-महाराजा खत्म हो गये और जनता अपनी सरकार स्वयं बनाती है। यह लोकतंत्र की व्यवस्था है कि एक दलित का राजतिलक हुआ, पर धर्म की व्यवस्था में अभी भी निर्णय ब्राह्मणों का चलता है-वरना क्या गुरू वायूर के श्रीकृष्ण मन्दिर में प्रसिद्ध गायक यसुदास के प्रवेश पर रोक लगती?



( जून,2007 अंक में )

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