आर्थिकी
वित्त-संबंधी जिम्मेदारी-बजट व्यवस्था अधिनियम-२००३
ने रोजगार जैसे आवश्यक मामलों में धन खर्च करने में
सरकार के हाथ बांधे हुए हैं, इसे खत्म कर देना
चाहिए। सरकार अधिनियम की आड़ में निजीकरण
को बढ़ा़वा दे रही है और मूलभूत सुविधाओं पर
खर्च में कटौती कर वित्तीय अनुशासन के नाम
पर अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ रही है।
यदि बहुदलीय-संसदीय लोकतंत्र का मतलब जनता को राजनीतिक चयन की अधिकतम स्वतंत्रता है, तो फिर ारत में इसके लिए अनेक छोटी-बड़ी पार्टियां मौजूद हैं; लेकिन आर्थिक मोर्चे पर शायद ही किसी भी पार्टी के पास कोई विकल्प है। वस्तुत: आज राजनीतिक दलों के पास न कोई राजनीतिक एजेन्डा रह गया है, न ही आर्थिक। फिर भी भ्रमित पार्टियां 'आर्थिक वृद्धि`, 'औद्योगिकीकरण` और 'विकास` के नारे लगा रही हैं। बहरहाल, यहां सवाल यह है कि अगर आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने के लिए औद्योगिकीकरण की जरूरत है, तो क्या चालू औद्योगिकीकरण को विकास का पर्याय माना जा सकता है?
आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने के लिए भारत में इस समय जिस तरह का औद्योगिकीकरण हो रहा है, उसकी तीन मुख्य विशे ाताएं नजर आती हैं। पहली, इसके पीछे बहुरा ट्रीय कंपनियां काम कर रही हैं। दूसरी, ये कंपनियां अधिकांशत: निजी क्षेत्र की हैं। तीसरी, केन्द्र व राज्य सरकारें नियामक की बजाय बहुरा ट्रीय कंपनियों की एजेन्ट बन गयी हैं। सभी राजनीतिक दल यथास्थिति से सहमत हैं। इस बात को बार-बार दोहराया जा रहा है कि ऐसे औद्योगिकीकरण के लिए त्याग की जरूरत है। लेकिन इस सच्चाई को सभी छुपाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह त्याग सिर्फ गरीबों को करना है। अमीरों को तो इसकी कोई जरूरत ही नहीं है, उस पर तुर्रा ये कि उन्हें सरकार से सहायता भी दी जा रही है।
उदारीकरण ने आज पारम्परिक राजनैतिक विभिन्नताओं को समाप्त कर दिया है। सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाआंे ने यह बता दिया है कि वामपंथी दल भी विश्वबैंक, आईएमएफ और एडीबी जैसी संस्थाओं का समर्थन करने वाले केन्द्र में बैठे आर्थिक नीति-निर्माताओं से भिन्न नहीं हैं।
उदारीकरण के इस दौर में सभी राजनीतिक दल इस बात पर एकमत हैं कि बहुरा ट्रीय कंपनियों के नेतृत्व और राज्य की एजेन्ट वाली भूमिका वाला उद्योगीकरण ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन दूसरी ओर देश में सब ओर इस तथाकथित विकास के विरूद्ध विद्रोह पनप रहा है। महारा ट्र, पंजाब, आंध्रप्रदेश में किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं, क्योंकि सरकार डब्लूटीओ के झंडे तले एक नए प्रकार की व्यवसायिक कृषि लाद रही है, जिसमें बहुरा ट्रीय कंपनियों का भारी निवेश तो है, लेकिन किसानों के उत्पाद का न तो उचित मूल्य है और न ही कोई सबसिडी। उधर छत्तीसगढ़ में भी सलवा-जुडुम के नेतृत्व में आदिवासियों को उग्रवाद के नाम पर उनके घरों से निकाला जा रहा है। क्योंकि वहां की खनिज संपदा पर बहुरा ट्रीय कंपनियां अपनी गिद्धदृष्टि लगाए हुए हैं। गरीब आदमी देश की अपार प्राकृतिक संपदा का मालिक है, फिर भी उसके इस अधिकार को नकारा जा रहा है।
संवैधानिक तौर पर भूमि राज्य का विषय होने के बावजूद विभिन्न राज्य सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कृपापात्र बनने के लिए भूमि कब्जाने की होड़ में लगी हुई हैं।
जमीनें अलग-अलग तरीकों से कब्जाई जा रही हैं-खनन, उद्योगों, विशाल रियासतों, आईटी पार्कों और विदेशी क्षेत्रों-सेज के नाम पर। विदेशी क्षेत्र का उपबंध-सेज के लिए भूमि के निजी स्वामित्व के अधिकार को जनहित में राज्य के अधिकार में बदल देता है। इसमें भूमि के साथ पानी, खनिज आदि भी शामिल है। एक कृषि प्रधान देश में जहां भूमि ही रोजी-रोटी का मुख्यस्रोत है, जहां किसान के लिए जमीन एक सम्पत्ति नहीं बल्कि रोजी है; वहां आम आदमी से जबरदस्ती संसाधन छीनकर निजी कंपनियों को दिए जा रहे हैं। अंग्रेजों के जमाने के पुराने अधिनियम-भूमि अधिग्रहण कानून में ही १९८४ में कुछ संशोधन करके बहुरा ट्रीय कंपनियों का हित साधने के लिए गरीब से न केवल निवाला छीना जा रहा है; बल्कि उसे घर से ही बेघर किया जा रहा है। प्राय: ऐसा कहा जाता है कि इस आर्थिक प्रक्रिया में लगातार ला प्राप्तकर्ता और खोने वाले होते हैं, जिसे शुम्पीटर ने 'रचनात्मक विनाश` का नाम दिया है। हालांकि वर्तमान संद र् में यह एक भ्रमित करने वाला आधा सच है। यदि ऐसा 'रचनात्मक विनाश` पूंजीवादी विकास की आम प्रक्रिया होती तो शायद निजी बहुरा ट्रीय कंपनियों की तरफ से जनहित के नाम पर राज्य को हस्तक्षेप करने की जरूरत ही न पड़ती। पर यहां तो इस लेन-देन में दो निजी पक्ष- बहुराष्ट्रीय कंपनी और जमीन का मालिक किसान शामिल है। राज्य का कार्य तो इस लेन-देन को ऐच्छिक बनाने के लिए होना चाहिए। क्योंकि इस सौदे में एक पक्ष यानी किसान आर्थिक रूप से कमजोर है। इसका मतलब होगा कि कंपनियां उस मूल्य पर जमीन खरीदें, जिस मूल्य पर किसान स्वेच्छा से उसे बेचने के लिए तैयार हों। उसका निर्णय चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक। आदिवासियों की जमीन के सौदे के लिए तो निर्णय सामूहिक ही होना चाहिए। लेकिन आज किसानों और कंपनियों के बीच खुली प्रतिस्पर्धा के बजाय राज्य सूचना के अधिकार की परवाह किए बिना हिंसा और दमन से जमीनें कब्जा रहे हैं।
सेज की योजना में भी बहुरा ट्रीय कंपनियों का हित-साधन ही है। ले ही नंदीग्राम और सिंगूर में टाटा व फिएट के ज्वांइट वेंचर और सलेम ग्रुप के लिए किया गया भूमि अधिग्रहण कानूनी रूप से सही रहा हो, परन्तु उसे किसानों के नजरिए से देखा जाए, जो उस जमीन से जीविका पाते थे, तो गलत है। नंदीग्राम की घटना के बाद ज्यादातर राजनीतिक दल, जिसमें वामदल भी शमिल हैं, ने सरकार को यह सलाह दी की कि स ी सेज को खत्म न किया जाए बल्कि उनका अधिकतम भूमि का दायरा सीमित कर दिया जाए। हालांकि बहुरा ट्रीय कम्पनियों को किसानों से छीनकर दिए गये संसाधनों में केवल जमीन ही दिखाई देती है, लेकिन समस्याएं तो और भी गहरी हैं। परोक्ष और अपरोक्ष दोनों रूपों से नीतियां गरीबों के खिलाफ बनाई जा रही हैं, योजनाओं में इस बात की सीधे तौर पर देखा जा सकता है। भारत की ६० फीसदी जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। परन्तु पिछली जितनी भी पंचव र्ाीय योजनाएं थीं, उसमें सरकार ने पाँच फीसदी से अधिक कृषि को नहीं दिया। अपरोक्ष रूप फसल की खपत और पैदावार के प्रति सरकार द्वारा तय नीति में देखा जा सकता है। कई बड़ी परियोजनाएं जैसे मॉल्स, भूमिगत मैट्रो सब जनता के खर्च पर ाहरीकरण की अच्छी छवि बनाते हैं। इन सब चीजों को मूलभूत सुविधा मानकर स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि इनसे यात्रा में समय की बचत होती ही है, जीवन स्तर भी बेहतर बनता है, साथ ही निवेश को भी बढ़ावा मिलता है। यह तर्क गलत नहीं तो एकतरफा तो जरूर है। हमें जरूरत तो है, पर शायद ही हम उस ग्रामीण भारत को सुविधाएं और बेहतर बनाने के बारे में सोचते हैं। जहां देश की अधिकांश आबादी रहती है।
महानगरों में हमें मूलभूत सुविधाएं चाहिएं। मैनहटन जैसे शहर हमारा लक्ष्य बना दिए गये हैं। जबकि भारत में २५ से ६० फीसदी जनसंख्या को झोपड़पट्टी में मानवीय जीवन की सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। यह पक्षपात क्यों? इससे किसको लाभ होगा? उस धनाढ्य शहरी वर्ग को, जो कि शहरीकरण की ओर बढ़ रहा है, जहां रोज बिजली-पानी और जगह की हवस बढ़ती जा रही है। इसलिए बिना पुनर्वास के झोपड़पटि्टयां उजाड़ी जा रही हैं। आवागमन के नए साधन जिनके लिए नए फ्लाई ओवर, नए तरह के शॉपिंग व आवासीय काम्पलेक्स को हम बढ़ावा दे रहे हैं, आश्चर्यजनक है! यह सब बहुत ज्यादा बिजली खपत करते हैं, जिसका खामियाजा उन लोगों को भी भुगतना पड़ता है, जो इसका उपयोग नहीं करते। इसलिए किसानों को पानी, बिजली, साफ पीने का पानी और शौचालय आदि गांवों में मयस्सर नहीं है।
यह सोच कि उद्योग कृषि से ज्यादा सक्षम हैं, वास्तव में किसान और गरीब विरोधी हैं। लग ग दो-तिहाई ारत की कामकाजी जनसंख्या कृषि कार्य करती है। हमें खोजना होगा कि क्या दूसरे तरह के विकास करने वाला आर्थिक विकल्प भी संभव हैं? क्या इसके तत्व आज के राजनीतिक-आर्थिक पद्धति में मौजूद हैं? हां, यह तीन बातों पर निर्भर हैं; पहला, 'हमें विदेशी बाजार की बजाए अपने रेलू बाजार पर विश्वास करना होगा। आम आदमी की क्रयशक्ति बढ़ाने के लिए रोजगार के अवसर को बढ़ाना होगा। कुछ सालों में भारत का रिकॉर्ड इस दिशा में कुछ खास अच्छा नहीं रहा है। ऐसा सोचना तो मूर्खता ही होगी कि कंपनियांे से रोजगार पैदा होंगे, क्योंकि इनको मुनाफा चाहिए, जिसके लिए वह कम से कम लागत में काम करना चाहती है, इसमें श्रम की लागत भी शामिल है। अगर हम भूमण्डलीकरण को बिना शर्त स्वीकार करते हैं, तो बजाए घरेलू बाजार के विदेशी बाजार ही मजबूत होगा, मतलब निर्यात बढ़ाने के लिए श्रम की लागत में कमी होगी, ज्यादा निर्यात का मतलब, यहां की जनता की जरूरत के हिसाब से उत्पादन का नहीं होना है। घरेलू बाजार के विकास के लिए जरूरी है, रोजगार के अवसर। अत: हमें भूमण्डलीकरण का चुनाव सोच-समझ से करना होगा।`
दूसरा, 'रोजगार की बढ़ोत्तरी से आर्थिक विकास होना चाहिए न कि आर्थिक विकास के लिए रोजगार ही खत्म कर दिए जाएँ। रोजगार वृद्धि आर्थिक वृद्धि दर में कितना योगदान देती है यह इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी उत्पादकता से श्रम को लगाया जा सकता है।` भारत इस क्षेत्र में बहुत पीछे है, जिसके नतीजे अच्छे नहीं हैं। कारण केन्द्रीकृत नौकरशाही, जो स्थानीय स्तर पर लिए गए निर्णयों को खत्म कर देती है। हमें एक नई शुरूआत करनी होगी, सामाजिक रूढ़िवाद और नवउदारवादी नीतियों के मिले-जुले स्वरूप के साथ। एक ओर तो हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल से बचना है, जिसके लिए हमें ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि को केन्द्रीय बिन्दु बनाना होगा, दूसरी तरफ़ हमें मौजूदा केन्द्रीकृत नौकरशाही को खत्म करना होगा। यह तभी संभव है, जब मौजूदा राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी योजना को पूर्ण रोजगार में तब्दील कर पंचायतों तथा स्थानीय लोगों को अधिक से अधिक शक्तियां दी जाएं ताकि वे अपने स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा कर रोजगार दें। इसके लिए जमीन से संबंधित स्थानीय नियंत्रण पंचायतों को अधिकतम आर्थिक स्वायत्तता देना पहली शर्त है। हालांकि संविधान के अनुच्छेद २४३ के अनुसार ग्राम्य/वार्ड स्तर के स्थानीय निकायों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने और सहायता देने के लिए १९९३ में एक वित्त आयोग की स्थापना की जानी थी, लेकिन न तो केन्द्र और न ही राज्य की सरकारों ने इसे गंभीरता से लिया। इस मामले में केरल अव्वल रहा तो पश्चिम बंगाल सबसे खराब। गौरतलब है कि वामदल ने नरेगा (नेशनल रूरल इम्पलॉयमेंट गारंटी एक्ट) को पास कराने में अहम भूमिका निभाई, परंतु आश्चर्यजनक बात यह है कि मात्र १४ फीसदी धन का जो कि रोजगार के लिए आबंटित हुआ था, पुरूलिया के लिए प्रयोग में लाया गया। दिसम्बर २००६ तक केन्द्र द्वारा आबंटित आधे से ज्यादा धन खर्च ही नहीं किया गया और न ही १६ दिन से ज्यादा का रोजगार दिया गया; जबकि नियम के हिसाब से १०० दिन का होना चाहिए था। अगर सरकार ने थोड़ा भी अपना ध्यान या थोड़ी ही इच्छाशक्ति रोजगार देने के वादे पर लगाई होती तो भूमि अधिग्रहण के बजाए यह सही विकास की दिशा में पहला कदम होता।
अंत में सवाल आता है कि इन सब के लिए धन कहाँ से आएगा? उसका सही उपयोग किस तरह होगा? वित्त-संबंधी जिम्मेदारी-बजट व्यवस्था अधिनियम-२००३ ने रोजगार जैसे आवश्यक मामलों में धन खर्च करने के लिए सरकार के हाथ बांधे हुए हैं, इसे खत्म कर देना चाहिए। आर्थिक मदद के नाम पर सरकार अधिनियम की आड़ में निजीकरण को बढ़ा़वा दे रही है और मूलभूत सुविधाओं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा में खर्च की कटौती कर वित्तीय अनुशासन के नाम पर अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ रही है। इससे तो विश्वबैंक, आईएमएफ और बहुरा ट्रीय कम्पनियों का ही भला हो रहा है। वे तो चाहते ही यही हैं कि राज्य इन्हें बनाए नहीं बल्कि केवल लागू करने की भूमिका करें। वामदलों को इसके विरुद्ध कार्य करना चाहिए और आग्रह करना चाहिए कि यह धन प्राथमिक शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य एवं असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा पर खर्च किया जाना चाहिए। अगर जरूरत पड़े तो कानूनों में बदलाव किया जाना चाहिए। इस नवीन उदारवादी अर्थिक विचारधारा के खिलाफ पहले थोड़ा बहुत हल्ला तो हुआ, परंतु अब सबकी उर्जा इसी बहुरा ट्रीय-औद्योगिकरण पर लग रही है।
स्थानीय संस्थानों की स्वायत्तता बनाए रखने के लिए सरकार द्वारा उनके बजट को अलग से रा ट्रीय बैंको में भी रखा जा सकता है, जिसमें पंचायतों को भी क्रेडिट लाइन दी जाए। इसका यह फ़ायदा होगा कि कोई फ़र्जी संस्थान नहीं चला पाएगा और व्यवस्था द्वारा इन पर निगाह ही रखी जा सकेगी यानी 'नियंत्रण व संतुलन` की व्यवस्था कायम हो सकेगी कि इन्होंने जिन परियोजनाओं के लिए धन लिया था, उन पर कार्य किया कि नहीं; तभी आगे की परियोजनाओं के लिए धन दिया जाए।
इससे भले ही विकास की गति ८ से १० फीसदी न हो, परंतु समाज के गरीब तबके का ला होगा और वह सबल और सक्षम बन सकेगा, जिससे भारत की लोकतंत्र व्यवस्था मजबूत होगी। हम उम्मीद कर सकते हैं कि कंपनीहीन विकास ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देगा, जो कि मुख्य बिन्दु है, जिससे देश आगे बढ़ेगा।
- अमित भादुरी
वित्त-संबंधी जिम्मेदारी-बजट व्यवस्था अधिनियम-२००३
ने रोजगार जैसे आवश्यक मामलों में धन खर्च करने में
सरकार के हाथ बांधे हुए हैं, इसे खत्म कर देना
चाहिए। सरकार अधिनियम की आड़ में निजीकरण
को बढ़ा़वा दे रही है और मूलभूत सुविधाओं पर
खर्च में कटौती कर वित्तीय अनुशासन के नाम
पर अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ रही है।
यदि बहुदलीय-संसदीय लोकतंत्र का मतलब जनता को राजनीतिक चयन की अधिकतम स्वतंत्रता है, तो फिर ारत में इसके लिए अनेक छोटी-बड़ी पार्टियां मौजूद हैं; लेकिन आर्थिक मोर्चे पर शायद ही किसी भी पार्टी के पास कोई विकल्प है। वस्तुत: आज राजनीतिक दलों के पास न कोई राजनीतिक एजेन्डा रह गया है, न ही आर्थिक। फिर भी भ्रमित पार्टियां 'आर्थिक वृद्धि`, 'औद्योगिकीकरण` और 'विकास` के नारे लगा रही हैं। बहरहाल, यहां सवाल यह है कि अगर आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने के लिए औद्योगिकीकरण की जरूरत है, तो क्या चालू औद्योगिकीकरण को विकास का पर्याय माना जा सकता है?
आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने के लिए भारत में इस समय जिस तरह का औद्योगिकीकरण हो रहा है, उसकी तीन मुख्य विशे ाताएं नजर आती हैं। पहली, इसके पीछे बहुरा ट्रीय कंपनियां काम कर रही हैं। दूसरी, ये कंपनियां अधिकांशत: निजी क्षेत्र की हैं। तीसरी, केन्द्र व राज्य सरकारें नियामक की बजाय बहुरा ट्रीय कंपनियों की एजेन्ट बन गयी हैं। सभी राजनीतिक दल यथास्थिति से सहमत हैं। इस बात को बार-बार दोहराया जा रहा है कि ऐसे औद्योगिकीकरण के लिए त्याग की जरूरत है। लेकिन इस सच्चाई को सभी छुपाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह त्याग सिर्फ गरीबों को करना है। अमीरों को तो इसकी कोई जरूरत ही नहीं है, उस पर तुर्रा ये कि उन्हें सरकार से सहायता भी दी जा रही है।
उदारीकरण ने आज पारम्परिक राजनैतिक विभिन्नताओं को समाप्त कर दिया है। सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाआंे ने यह बता दिया है कि वामपंथी दल भी विश्वबैंक, आईएमएफ और एडीबी जैसी संस्थाओं का समर्थन करने वाले केन्द्र में बैठे आर्थिक नीति-निर्माताओं से भिन्न नहीं हैं।
उदारीकरण के इस दौर में सभी राजनीतिक दल इस बात पर एकमत हैं कि बहुरा ट्रीय कंपनियों के नेतृत्व और राज्य की एजेन्ट वाली भूमिका वाला उद्योगीकरण ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन दूसरी ओर देश में सब ओर इस तथाकथित विकास के विरूद्ध विद्रोह पनप रहा है। महारा ट्र, पंजाब, आंध्रप्रदेश में किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं, क्योंकि सरकार डब्लूटीओ के झंडे तले एक नए प्रकार की व्यवसायिक कृषि लाद रही है, जिसमें बहुरा ट्रीय कंपनियों का भारी निवेश तो है, लेकिन किसानों के उत्पाद का न तो उचित मूल्य है और न ही कोई सबसिडी। उधर छत्तीसगढ़ में भी सलवा-जुडुम के नेतृत्व में आदिवासियों को उग्रवाद के नाम पर उनके घरों से निकाला जा रहा है। क्योंकि वहां की खनिज संपदा पर बहुरा ट्रीय कंपनियां अपनी गिद्धदृष्टि लगाए हुए हैं। गरीब आदमी देश की अपार प्राकृतिक संपदा का मालिक है, फिर भी उसके इस अधिकार को नकारा जा रहा है।
संवैधानिक तौर पर भूमि राज्य का विषय होने के बावजूद विभिन्न राज्य सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कृपापात्र बनने के लिए भूमि कब्जाने की होड़ में लगी हुई हैं।
जमीनें अलग-अलग तरीकों से कब्जाई जा रही हैं-खनन, उद्योगों, विशाल रियासतों, आईटी पार्कों और विदेशी क्षेत्रों-सेज के नाम पर। विदेशी क्षेत्र का उपबंध-सेज के लिए भूमि के निजी स्वामित्व के अधिकार को जनहित में राज्य के अधिकार में बदल देता है। इसमें भूमि के साथ पानी, खनिज आदि भी शामिल है। एक कृषि प्रधान देश में जहां भूमि ही रोजी-रोटी का मुख्यस्रोत है, जहां किसान के लिए जमीन एक सम्पत्ति नहीं बल्कि रोजी है; वहां आम आदमी से जबरदस्ती संसाधन छीनकर निजी कंपनियों को दिए जा रहे हैं। अंग्रेजों के जमाने के पुराने अधिनियम-भूमि अधिग्रहण कानून में ही १९८४ में कुछ संशोधन करके बहुरा ट्रीय कंपनियों का हित साधने के लिए गरीब से न केवल निवाला छीना जा रहा है; बल्कि उसे घर से ही बेघर किया जा रहा है। प्राय: ऐसा कहा जाता है कि इस आर्थिक प्रक्रिया में लगातार ला प्राप्तकर्ता और खोने वाले होते हैं, जिसे शुम्पीटर ने 'रचनात्मक विनाश` का नाम दिया है। हालांकि वर्तमान संद र् में यह एक भ्रमित करने वाला आधा सच है। यदि ऐसा 'रचनात्मक विनाश` पूंजीवादी विकास की आम प्रक्रिया होती तो शायद निजी बहुरा ट्रीय कंपनियों की तरफ से जनहित के नाम पर राज्य को हस्तक्षेप करने की जरूरत ही न पड़ती। पर यहां तो इस लेन-देन में दो निजी पक्ष- बहुराष्ट्रीय कंपनी और जमीन का मालिक किसान शामिल है। राज्य का कार्य तो इस लेन-देन को ऐच्छिक बनाने के लिए होना चाहिए। क्योंकि इस सौदे में एक पक्ष यानी किसान आर्थिक रूप से कमजोर है। इसका मतलब होगा कि कंपनियां उस मूल्य पर जमीन खरीदें, जिस मूल्य पर किसान स्वेच्छा से उसे बेचने के लिए तैयार हों। उसका निर्णय चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक। आदिवासियों की जमीन के सौदे के लिए तो निर्णय सामूहिक ही होना चाहिए। लेकिन आज किसानों और कंपनियों के बीच खुली प्रतिस्पर्धा के बजाय राज्य सूचना के अधिकार की परवाह किए बिना हिंसा और दमन से जमीनें कब्जा रहे हैं।
सेज की योजना में भी बहुरा ट्रीय कंपनियों का हित-साधन ही है। ले ही नंदीग्राम और सिंगूर में टाटा व फिएट के ज्वांइट वेंचर और सलेम ग्रुप के लिए किया गया भूमि अधिग्रहण कानूनी रूप से सही रहा हो, परन्तु उसे किसानों के नजरिए से देखा जाए, जो उस जमीन से जीविका पाते थे, तो गलत है। नंदीग्राम की घटना के बाद ज्यादातर राजनीतिक दल, जिसमें वामदल भी शमिल हैं, ने सरकार को यह सलाह दी की कि स ी सेज को खत्म न किया जाए बल्कि उनका अधिकतम भूमि का दायरा सीमित कर दिया जाए। हालांकि बहुरा ट्रीय कम्पनियों को किसानों से छीनकर दिए गये संसाधनों में केवल जमीन ही दिखाई देती है, लेकिन समस्याएं तो और भी गहरी हैं। परोक्ष और अपरोक्ष दोनों रूपों से नीतियां गरीबों के खिलाफ बनाई जा रही हैं, योजनाओं में इस बात की सीधे तौर पर देखा जा सकता है। भारत की ६० फीसदी जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। परन्तु पिछली जितनी भी पंचव र्ाीय योजनाएं थीं, उसमें सरकार ने पाँच फीसदी से अधिक कृषि को नहीं दिया। अपरोक्ष रूप फसल की खपत और पैदावार के प्रति सरकार द्वारा तय नीति में देखा जा सकता है। कई बड़ी परियोजनाएं जैसे मॉल्स, भूमिगत मैट्रो सब जनता के खर्च पर ाहरीकरण की अच्छी छवि बनाते हैं। इन सब चीजों को मूलभूत सुविधा मानकर स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि इनसे यात्रा में समय की बचत होती ही है, जीवन स्तर भी बेहतर बनता है, साथ ही निवेश को भी बढ़ावा मिलता है। यह तर्क गलत नहीं तो एकतरफा तो जरूर है। हमें जरूरत तो है, पर शायद ही हम उस ग्रामीण भारत को सुविधाएं और बेहतर बनाने के बारे में सोचते हैं। जहां देश की अधिकांश आबादी रहती है।
महानगरों में हमें मूलभूत सुविधाएं चाहिएं। मैनहटन जैसे शहर हमारा लक्ष्य बना दिए गये हैं। जबकि भारत में २५ से ६० फीसदी जनसंख्या को झोपड़पट्टी में मानवीय जीवन की सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। यह पक्षपात क्यों? इससे किसको लाभ होगा? उस धनाढ्य शहरी वर्ग को, जो कि शहरीकरण की ओर बढ़ रहा है, जहां रोज बिजली-पानी और जगह की हवस बढ़ती जा रही है। इसलिए बिना पुनर्वास के झोपड़पटि्टयां उजाड़ी जा रही हैं। आवागमन के नए साधन जिनके लिए नए फ्लाई ओवर, नए तरह के शॉपिंग व आवासीय काम्पलेक्स को हम बढ़ावा दे रहे हैं, आश्चर्यजनक है! यह सब बहुत ज्यादा बिजली खपत करते हैं, जिसका खामियाजा उन लोगों को भी भुगतना पड़ता है, जो इसका उपयोग नहीं करते। इसलिए किसानों को पानी, बिजली, साफ पीने का पानी और शौचालय आदि गांवों में मयस्सर नहीं है।
यह सोच कि उद्योग कृषि से ज्यादा सक्षम हैं, वास्तव में किसान और गरीब विरोधी हैं। लग ग दो-तिहाई ारत की कामकाजी जनसंख्या कृषि कार्य करती है। हमें खोजना होगा कि क्या दूसरे तरह के विकास करने वाला आर्थिक विकल्प भी संभव हैं? क्या इसके तत्व आज के राजनीतिक-आर्थिक पद्धति में मौजूद हैं? हां, यह तीन बातों पर निर्भर हैं; पहला, 'हमें विदेशी बाजार की बजाए अपने रेलू बाजार पर विश्वास करना होगा। आम आदमी की क्रयशक्ति बढ़ाने के लिए रोजगार के अवसर को बढ़ाना होगा। कुछ सालों में भारत का रिकॉर्ड इस दिशा में कुछ खास अच्छा नहीं रहा है। ऐसा सोचना तो मूर्खता ही होगी कि कंपनियांे से रोजगार पैदा होंगे, क्योंकि इनको मुनाफा चाहिए, जिसके लिए वह कम से कम लागत में काम करना चाहती है, इसमें श्रम की लागत भी शामिल है। अगर हम भूमण्डलीकरण को बिना शर्त स्वीकार करते हैं, तो बजाए घरेलू बाजार के विदेशी बाजार ही मजबूत होगा, मतलब निर्यात बढ़ाने के लिए श्रम की लागत में कमी होगी, ज्यादा निर्यात का मतलब, यहां की जनता की जरूरत के हिसाब से उत्पादन का नहीं होना है। घरेलू बाजार के विकास के लिए जरूरी है, रोजगार के अवसर। अत: हमें भूमण्डलीकरण का चुनाव सोच-समझ से करना होगा।`
दूसरा, 'रोजगार की बढ़ोत्तरी से आर्थिक विकास होना चाहिए न कि आर्थिक विकास के लिए रोजगार ही खत्म कर दिए जाएँ। रोजगार वृद्धि आर्थिक वृद्धि दर में कितना योगदान देती है यह इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी उत्पादकता से श्रम को लगाया जा सकता है।` भारत इस क्षेत्र में बहुत पीछे है, जिसके नतीजे अच्छे नहीं हैं। कारण केन्द्रीकृत नौकरशाही, जो स्थानीय स्तर पर लिए गए निर्णयों को खत्म कर देती है। हमें एक नई शुरूआत करनी होगी, सामाजिक रूढ़िवाद और नवउदारवादी नीतियों के मिले-जुले स्वरूप के साथ। एक ओर तो हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल से बचना है, जिसके लिए हमें ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि को केन्द्रीय बिन्दु बनाना होगा, दूसरी तरफ़ हमें मौजूदा केन्द्रीकृत नौकरशाही को खत्म करना होगा। यह तभी संभव है, जब मौजूदा राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी योजना को पूर्ण रोजगार में तब्दील कर पंचायतों तथा स्थानीय लोगों को अधिक से अधिक शक्तियां दी जाएं ताकि वे अपने स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा कर रोजगार दें। इसके लिए जमीन से संबंधित स्थानीय नियंत्रण पंचायतों को अधिकतम आर्थिक स्वायत्तता देना पहली शर्त है। हालांकि संविधान के अनुच्छेद २४३ के अनुसार ग्राम्य/वार्ड स्तर के स्थानीय निकायों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने और सहायता देने के लिए १९९३ में एक वित्त आयोग की स्थापना की जानी थी, लेकिन न तो केन्द्र और न ही राज्य की सरकारों ने इसे गंभीरता से लिया। इस मामले में केरल अव्वल रहा तो पश्चिम बंगाल सबसे खराब। गौरतलब है कि वामदल ने नरेगा (नेशनल रूरल इम्पलॉयमेंट गारंटी एक्ट) को पास कराने में अहम भूमिका निभाई, परंतु आश्चर्यजनक बात यह है कि मात्र १४ फीसदी धन का जो कि रोजगार के लिए आबंटित हुआ था, पुरूलिया के लिए प्रयोग में लाया गया। दिसम्बर २००६ तक केन्द्र द्वारा आबंटित आधे से ज्यादा धन खर्च ही नहीं किया गया और न ही १६ दिन से ज्यादा का रोजगार दिया गया; जबकि नियम के हिसाब से १०० दिन का होना चाहिए था। अगर सरकार ने थोड़ा भी अपना ध्यान या थोड़ी ही इच्छाशक्ति रोजगार देने के वादे पर लगाई होती तो भूमि अधिग्रहण के बजाए यह सही विकास की दिशा में पहला कदम होता।
अंत में सवाल आता है कि इन सब के लिए धन कहाँ से आएगा? उसका सही उपयोग किस तरह होगा? वित्त-संबंधी जिम्मेदारी-बजट व्यवस्था अधिनियम-२००३ ने रोजगार जैसे आवश्यक मामलों में धन खर्च करने के लिए सरकार के हाथ बांधे हुए हैं, इसे खत्म कर देना चाहिए। आर्थिक मदद के नाम पर सरकार अधिनियम की आड़ में निजीकरण को बढ़ा़वा दे रही है और मूलभूत सुविधाओं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा में खर्च की कटौती कर वित्तीय अनुशासन के नाम पर अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ रही है। इससे तो विश्वबैंक, आईएमएफ और बहुरा ट्रीय कम्पनियों का ही भला हो रहा है। वे तो चाहते ही यही हैं कि राज्य इन्हें बनाए नहीं बल्कि केवल लागू करने की भूमिका करें। वामदलों को इसके विरुद्ध कार्य करना चाहिए और आग्रह करना चाहिए कि यह धन प्राथमिक शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य एवं असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा पर खर्च किया जाना चाहिए। अगर जरूरत पड़े तो कानूनों में बदलाव किया जाना चाहिए। इस नवीन उदारवादी अर्थिक विचारधारा के खिलाफ पहले थोड़ा बहुत हल्ला तो हुआ, परंतु अब सबकी उर्जा इसी बहुरा ट्रीय-औद्योगिकरण पर लग रही है।
स्थानीय संस्थानों की स्वायत्तता बनाए रखने के लिए सरकार द्वारा उनके बजट को अलग से रा ट्रीय बैंको में भी रखा जा सकता है, जिसमें पंचायतों को भी क्रेडिट लाइन दी जाए। इसका यह फ़ायदा होगा कि कोई फ़र्जी संस्थान नहीं चला पाएगा और व्यवस्था द्वारा इन पर निगाह ही रखी जा सकेगी यानी 'नियंत्रण व संतुलन` की व्यवस्था कायम हो सकेगी कि इन्होंने जिन परियोजनाओं के लिए धन लिया था, उन पर कार्य किया कि नहीं; तभी आगे की परियोजनाओं के लिए धन दिया जाए।
इससे भले ही विकास की गति ८ से १० फीसदी न हो, परंतु समाज के गरीब तबके का ला होगा और वह सबल और सक्षम बन सकेगा, जिससे भारत की लोकतंत्र व्यवस्था मजबूत होगी। हम उम्मीद कर सकते हैं कि कंपनीहीन विकास ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देगा, जो कि मुख्य बिन्दु है, जिससे देश आगे बढ़ेगा।
(पीएनएन)
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