गुटीय संघर्ष और शांति वार्ता
यह संतोषजनक बात है कि नगालैंड में कई दशक पुरानी अलगाववाद की समस्या के समाधान की दिशा में गत २९ मार्च को नई दिल्ली में केन्द्र सरकार और नगा विद्रोही संगठन एन एस सी एन-सू-मुइपा गुट के बीच जो शांति वार्ता आयोजित हुई, उसमें दोनों पक्षों की तरफ से कई बिंदुओं पर सहमति हुई। नगा विद्रोही नेताओं ने भी वार्ता के इस चरण को काफी हद तक सफल बताया। मगर भविष्य में भी इसी तरह सकारात्मक माहौल में वार्ता होती रहे और दोनों पक्षों की तरफ से लचीले रूख का परिचय दिया जाए तो निश्चित रूप से द्विपक्षीय समझौते के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।
लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी पैदा होता है कि क्या इस तरह के समझौते से लंबे समय से चली आ रही नगा राजनीतिक समस्या का शांतिपूर्ण समाधान ढूंढ़ने का रास्ता निकल पाएगा? यह सवाल भी प्रमुख है कि क्या दूसरे नगा संगठन समझौते को स्वीकार कर पाएंगे या एनएससीएन-खापलोग गुट इस समझौते को मानने के लिए तैयार हो पाएगा, चूंकि वह सू-मुइपा गुट के साथ लगातार खूनी संघर्ष करता रहा है।
इन सवालों को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। नगालैंड में सोलह नगा जनजातियां हैं और प्रत्येक की अपनी-अपनी बोली और भिन्न पहचान है। नगालैंड की सरकारी भाषा अंग्रेजी है और संपर्क भाषा नागामिज हैं जिसे असमिया, पंजाबी एवं हिन्दी का मिश्रण कहा जा सकता है। प्रत्येक नगा जनजाति का भिन्न नाम है। प्रत्येक नगा जनजाति अपनी पहचान के प्रति सजग है। वे अपनी संस्कृति और परंपरा के आधार पर जीवन यापन करती हैं। ईसाई मिशनरियों ने इन जनजातियों को एक साझी नगा पहचान के प्रति आकर्षित करने की दिशा में महत्वपूर्ण अभियान चलाया और विभिन्न नगा जनजातियों को आपस में जोड़ने का काम किया। कई तरह के अन्तर्विरोधों से गुजरते हुए भूमिगत नगा विद्रोही नेताओं ने नगा जातीयता की भावना को लोगों में उभारने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और असम के नगा बहुल इलाकों को नगालैंड में मिलाने की मांग शुरू कर दी। इस तरह की राजनीति का सूत्रपात नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) के अध्यक्ष एवं तथाकथित नगालैंड की संघीय सरकार के संस्थापक ए जेड फिजो ने की थी जो लंदन में स्वनिर्वासित जीवन बिता रहे थे। फिजो ने नगालैंड की दूसरी जनजातियों पर लगातार अपना दबदबा बनाए रखा।
शायद यही वजह है कि वर्तमान समय में वृहत नगा समाज अलग-अलग जातीय पहचान की वजह से विभाजित होता नजर आ रहा है। एन एस सी एन-सू-मुइपा और एन एस सीएन-खापलांग के बीच राजनीतिक वर्चस्व के लिए टकराव होता ही रहता है। इसके साथ ही अलग-अलग जनजातीय भूमिगत संगठनों के बीच भी वर्चस्व के लिए खूनी जंग देखी जा सकती है। इससे साफ हो जाता है कि किस तरह विभिन्न नगा जनजातियों के बीच आपसी रंजिश बढ़ती ही जा रही है।
अंगामी जनजाति के होने के नाते फिजो ने कभी भी सेमा जनजाति के नेता होकिशो सेमा के वर्चस्व को स्वीकार नहीं किया था। फिजो ने जहां सेमा का खात्मा करने के लिए अभियन चलाया वहीं राज्य में अराजकता की स्थिति भी तैयार की। वर्ष १९६२ से १९७४ तक नगालैंड के राजनीतिक इतिहास के कालिमायुक्त कालखंड को नगालैंडवासी शायद ही भुला पाएंगे जब फिजो समर्थकों ने राज्य में आतंक का माहौल तैयार करने के साथ-साथ मुख्यमंत्री सेमा सहित सेमा जनजाति के कई नेताओं पर हमले किए।
२२ फरवरी १९६९ को नगालैंड में दूसरा आम चुनाव हुआ था। इस चुनाव में सेमा मुख्यमंत्री बने थे। ७८.७५ प्रतिशत मतदाताओं ने चुनाव में मताधिकार का प्रयोग किया था। तीन साल बाद ९ अगस्त १९७२ को सेमा डिमापुर से कोहिमा वापस लौट रहे थे। सेमा जीप में अपनी सोलह वर्षीय बेटी और अंगरक्षकों के साथ यात्रा कर रहे थे। सेमा की जीप के आगे सुरक्षाकर्मियों की जीप चल रही थी। फिजो के जन्म स्थान खोनोमा से महज ८ कि.मी की दूरी पर एक मोड़ के पास अचानक सड़क के दोनों तरफ से गोलीबारी शुरू हो गई। सेमा की पुत्री की जांघ में गोली लगी। अंगरक्षकों ने भी जवाब में गोलियां चलाई। एक अंगरक्षक, ड्राइवर और एक कांस्टेबल की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई। इसे चमत्कार ही समझा जाएगा कि हमले के दौरान होकिशे सेमा सुरक्षित बच निकले। इससे पहले भी सेमा पर छह बार जानलेवा हमले हो चुके थे। सेमा के पिता अपने समुदाय के मुखिया थे और शांतिपूर्ण नीतियों में विश्वास रखते थे। फिजो समर्थकों ने सेमा के पिता की हत्या कर दी थी।
सेमा पर हमले की घटना के बाद विद्रोहियों ने तत्कालीन शिक्षा मंत्री डॉन बास्को जोशोकी की उस समय हत्या कर दी थी जब वे अपनी पत्नी के साथ चर्च से वापस लौट रहे थे। इस घटना के बाद राज्य सरकार ने संघर्ष विराम की अवधि नहीं बढ़ाने की घोषणा की। नागालैंड के तत्कालीन राज्यपाल बी के नेहरू ने १ सितम्बर १९७२ को गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम, १९६७ के तहत नगा संघीय सरकार, नगा आर्मी और नगा नेशनल काउंसिल पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी। इसके बावजूद स्थितियों में खास बदलाव नहीं आया। लंदन में मौजूद फिजो ने सरकारी प्रतिबंध की निंदा की। विद्रोहियों ने एक शांति समर्थक वृद्ध डाक्टर की हत्या कर दी, जो सेमा जनजाति से ताल्लुक रखते थे। इस घटना के बाद राज्य सरकार ने एस सी जमीर और उनके सहयोगियों की गिरफ्तार कर लिया। जमीर की गिरफ्तारी से क्रुद्ध होकर नगा विद्रोहियों ने सेमा सरकार को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया। विद्रोहियों ने हिंसक गतिविधियां तेज कर दीं। इसी दौरान १६ अगस्त १९७२ को जुनहेबोटो में रिवोल्यूशनरी गवर्नमेंट आफ नगालैंड का नेतृत्व कर रहे स्फेटू सू और जनरल जुहेटू ने १५०० विद्रोहियों के साथ आत्मसमर्पण कर दिया। ज्यादातर विद्रोहियों को सीमा सुरक्षा बल में नियुक्त कर दिया गया। जुहटू बटालियन कमांडर बनाए गए और स्केटू सू बाद में सांसद बने।
इसी बीच राज्य की सरकार भी बदली। तीसरे आम चुनाव में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता में आई और बीजोल ने मुख्यमंत्री का पद संभाला। यह सरकार एक साल भी ठीक से नहीं चल पाई। इसके बाद जे बी जेसाफी मुख्यमंत्री बने, जिन्हें ग्यारह दिनों तक अपने पद पर रहने के बाद हटना पड़ा। हालत बिगड़ती गई और २२ मार्च १९७५ को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। राष्ट्रपति शासन की अवधि २४ नवंबर १९७७ तक बढ़ाई गई।
इस अवधि में तत्कालीन राज्यपाल एलपी सिंह ने फिजो के भाई केवियानी से बातचीत जारी रखी, जिसके परिणाम स्वरूप ११ नवंबर १९७५ को शिलांग समझौता हुआ। यह समझौता नगालैंड में अमन-चैन कायम करने में असफल रहा और फिजो के नेतृत्व वाले एनएनसी के कई विद्रोही नेताओं ने इस समझौते पर अपनी नाराजगी जाहिर की। इन नेताओं का कहना था कि समझौते पर एनएनसी के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर नहीं किया था और समझौता करने से पहले दूसरे विद्रोही नेताओं से विचार-विमर्श नहीं किया गया था। इसके अलावा जब समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे तब इसाक सू और मुइवा चीन की सद्भावना यात्रा पर गए हुए थे।
वर्ष १९७८ में एनएनसी की एक बैठक आयोजित हुई जिसमें फिजो के नेतृत्व और नीतियों को खारिज करने का फैसला किया गया। इसके बाद सू.मुइपा और खापलांग ने बगावत कर दी और एनएनसी से अलग होकर एनएससीएन की स्थापना की। २ फरवरी १९८० को 'पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ नगालैंड` का गठन किया गया। सू को इसका अध्यक्ष, खापलांग को उपाध्यक्ष और मुइवा को महासचिव चुना गया। कुछ समय के बाद ही इनके बीच कड़वाहट पैदा हो गई। इस तरह की अफवाह फैली कि सू और मुइपा मिलकर खापलांग का सफाया करना चाहते हैं। इसके बाद १४० मुरपा समर्थक विद्रोही खापलोग गुट और बर्मी सेना के हमले में मारे गए। मारे गए विद्रोही थांगकुल जनजाति के थे। मुइवा समर्थकों की हत्या के बाद एनएससीएन दो गुटों में विभाजित हो गया। एक गुट का नाम पड़ा एनएससीएन-सू-मुइपा और दूसरे गुट का नाम पड़ एनएससीएन-खापलांग। विभाजन के बाद दोनों गुटों के बची हिंसक झड़पों का सिलसिला जारी रहा।
इस पृष्ठभूमि पर गौर करने से स्पष्ट हो जाता है कि अगर केन्द्र सरकार और एनएससीएन-सू-मुइपा गुट के बीच कोई समझौता हो भी जाएगा तो वह तब तक कारगर साबित नहीं होगा जब तक खापलांग गुट भी उसे मानने के लिए तैयार नहीं हो जाता। इससे पहले भी शिलांग समझौते का यही हश्र हो चुका है। नगालैंड में स्थायी शांति की बहाली के लिए सभी विद्रोही गुटों की सहमति पर आधारित कोई समझौता ही कारगर साबित हो पाएगा।
( जून,2007 अंक में प्रकाशित )
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