September 18, 2007

व्यवस्था बहुत कम शब्दों को जानती है

यादों में बसे लोग

  • राजूरंजन प्रसाद

पटना में साहित्यिक मंडली के नायकों-खलनायकों की जानकारी सहज ही सुलभ होने लगती। कुछ चरित्र तो ऐसे थे जो बातचीत के क्रम में बार-बार आते। नंदकिशोर नवल, अरुण कमल, आलोकधन्वा आदि का नाम मैंने उन्हीं दिनों सुना आलोकधन्वा का नाम वे खास अंदाज और संदर्भ में लेते।




बीएन कॉलेज में इतिहास ऑनर्स का छात्र था जब पहली बार आकाशवाणी, पटना में सुलभ जी से मिला। रेडियो पर लेख पढ़ना चाहता था-'भक्ति आंदोलन का सामंत विरोधी स्वर`। सुलभ जी ने उसे उलट-पलट कर देखा और कहा-राजू जी, व्यवस्था बहुत कम शब्दों को जानती है। उनके इस एक वाक्य ने मुझे काफी प्रभावित किया। फिर और बातें होने लगीं। मेरे प्रिय कवि के बारे में भी पूछा। मैं भूला नहीं हूं कि मैंने आलोकधन्वा का नाम लिया था। आगे उन्होंने एक किताब दी-'धूप की एक विराट नाव` हरेकृष्ण झा की काव्य पुस्तिका, जो मध्य प्रदेश की 'साम्य` पत्रिका की तरफ से मुद्रित हुई थी। मैंने इसे स्वीकार किया और दो-तीन दिनों में समीक्षा जमा कर दी। कविताएं चूंकि राजनीतिक थीं, इसलिए अमूमन मैंने उनका राजनीतिक विश्लेषण ही किया। यह और बात है कि हरेकृष्ण झा ने उसकी तारीफ की तथा देर तक बातचीत की। पता चला, झा जी के नक्सलबाड़ी आंदोलन के साथ कभी गहरे रिश्ते थे।

वे सब प्रतिबद्धता की फसल काट रहे हैं

शायद बीए का ही छात्र था, जब आरक्षण को लेकर देशव्यापी हंगामा हुआ था। पूरे देश के छात्र समर्थन और विरोध में बंटे हुए थे। इस मुद्दे को लेकर मैं भी अपने मित्रों के बीच बहस छेड़ दिया करता था। एक दिन जोर-जोर से कॉलेज कैंपस में बोल ही रहा था कि दो अपरिचित सज्जनों ने मुझसे थोड़ा एकांत में चलने का आग्रह किया। भीड़ से अलग हुआ और एक औपचारिक परिचय के बाद फिर नये सिरे से बातचीत में भिड़ गया। सज्जनों में इरफान और विष्णु राजगढ़िया थे। विष्णु तो देखने में साधारण ही लगते, लेकिन इरफान काफी बौद्धिक छटा बिखेरते थे। उनकी बातचीत का अंदाज काफी गंभीर और बौद्धिकतापूर्ण था, हालांकि उन्होंने सिगरेट भी सुलगायी थी। मुझे भी शरीक किया।

बातचीत के क्रम में पता चला कि वे लोग समकालीन जनमत पत्रिका की तरफ से थे। स्टोरी के लिए मैटर का जुगाड़ बिठाने और कॉलेज में आंदोलन की तासीर जानने आये थे। दोनों ने मुझे रामजी राय और प्रदीप झा से मिलने की सलाह दी। मिला भी। इस परिचय के बाद हमलोगों ने नियमित मिलना-जुलना जारी रखा। विष्णु तो प्राय: कम बोलते थे, लेकिन इरफान मुझे अक्सर इस बात के लिए कांेचते कि 'मैं पार्टी में नहीं हूं, इसलिए प्रतिबद्ध नहीं हूं।` उनका अत्यंत प्रिय सूत्रवाक्य था कि 'जो पार्टी का कैडर नहीं है, उसकी क्रांतिकारिता पर भरोसा नहीं किया जा सकता`। वैसे मैं सीपीआइ माले का सिंपेथाइजर अवश्य था, लेकिन पार्टी का बंधन मानने को मन तैयार न था। प्रेमचंद का यह वाक्य कहीं पढ़ रखा था कि 'मेरी पार्टी अभी बनी नहीं है`। उसी तर्ज पर मैं भविष्य की पार्टी का इंतजार कर रहा था।

कहना होगा कि इस मेलजोल के साथ ही मन में दुराव का भाव भी पैदा हो रहा था। लोगों के रहने के तरीके को लेकर कभी-कभी मैं काफी हैरान और चिंतित हो उठता। इरफान सदैव मोटरसाइकिल से ही चलते और हर आधे घंटे पर विल्स सिगरेट फूंकते। मुझे लगता यह पार्टी के पैसे का दुरुपयोग है। एक दिन थोड़ी खीझ होने पर मैंने कह भी दिया था-'इरफान, अगर प्रतिबद्धता का यही मतलब है तो इस कीमत पर मैं प्रतिबद्ध नहीं हो सकता।` माले के लड़कों में सिगरेट की बड़ी भारी लत थी। अपने 'गॉडफादर` विनोद मिश्र की नकल हो शायद! रंजीत अभिज्ञान भी तब पटने में बहुत सिगरेट पीता था और हमेशा चंदे के नाम पर लोगों से पैसे लेता और भागा फिरता। नये लड़कों में नवीन और अभ्युदय बहुत सिगरेट पीते हैं। संगठन का पीते हैं, यह नहीं कह सकता।
समकालीन जनमत का विष्णु, इरफान और चंद्रभूषणवाला ग्रुप 'श्रेष्ठताबोध` की भावना से भरा हुआ था। एक शाम मैं टहलते हुए महेंद्र सिंह के शास्त्रीनगर वाले फ्लैट पर पहुंचा, जहां वे लोग स्थायी तौर पर रहा करते थे तो पाया कि सभी किसी गंभीर विमर्श में फंसे हैं। मैंने भी कुछ कहने की हिम्मत (जुर्रत!) की तो तीनों मुझे कुछ इस कदर घूरने लगे, मानों आंखों-ही-आंखों में मुझे बता रहे होंऱ्यह आपके बूते की चीज नहीं है। वे लोग 'दि सेकेंड सेक्स` पर बातें कर रहे थे। माले का यह हिरावल दस्ता 'सेक्स` को भरपूर जीता था। पार्टी के अंदर 'सेक्स स्कैंडल` और यौन शोषण की कम किंवदंतियां नहीं हैं।

इसी क्रम में फरवरी, १९९० में मेरी शादी होनी तय हुई। जनमत के इस ग्रुप से मैंने शादी में शरीक होने के लिए आग्रह किया। कार्ड दिया ही था कि इरफान ने कहा, 'चलो एक और जीवन नष्ट हुआ।` खैर, वे लोग वहां पहुंचे। कमलेश शर्मा भी उनलोगों के साथ थे। लड़कीवाले की तरफ से निवेदिता थीं। मेरे बड़े भाई के साले अमरेंद्र कुमार भी थे। अमरेंद्र का मैंने जनमत के लोगों से परिचय कराया। इरफान ने अमरेंद्र से दार्शनिक अंदाज में पूछा-आपको सबसे ज्यादा कौन-सी चीज आतंकित करती है? अमरेंद्र ने बिल्कुल अपने स्वभाव के अनुकूल जवाब दिया-'पेड़ से पत्तों का गिरना।` अमरेंद्र कुमार को आज भी मैं इसी बिंब के साथ याद करता हूं।। यह जवाब इरफान के लायक भी था। सुना है, आजकल वे सब प्रतिबद्धता की फसल काट रहे हैं।

क्रांति ड्रामा करने गयी है

१९८४ में मैट्रिक की परीक्षा पास कर मैं पटना के सैदपुर छात्रावास में अपने बड़े भाई के साथ रहने लगा। कथाकार हंसकुमार पांडेय भी साथ रहा करते थे। पांडेय जी कहानियों में ही नहीं, सामान्य बातचीत में भी कथा बुनते नजर आते। वे दोनों जब आपस की बातचीत शुरू कर देते तो पटने की साहित्यिक मंडली के नायकों-खलनायकों की जानकारी सहज ही सुलभ होने लगती। कुछ चरित्र तो ऐसे थे जो बातचीत के क्रम में बार-बार आते। नंदकिशोर नवल, अरुण कमल, आलोकधन्वा, तरुण कुमार एवं अपूर्वानंद का नाम मैंने उन्हीं दिनों जान-सुन रखा था। आलोकधन्वा का नाम वे खास अंदाज और संदर्भ में लेते।

पांडेय जी ने एक दिन किसी स्टडी सर्किल की एक कथा सुनायी। आलोकधन्वा अपनी या किसी और की कविता का पाठ कर रहे थे। कविता शायद कुछ इस तरह शुरू होती थी-'कुल्हाड़ी फेक के मारो कॉमरेड, कुल्हाड़ी फेंक के मारो।` तभी आलोचकीय बुद्धि से लैस एक वकील उठ खड़ा हुआ और कहने लगा-कॅमरेड, आपने भारी भूल कर दी। 'कुल्हाड़ी फेक के मारो नहीं`, 'कुल्हाड़ी थाम के मारो कॉमरेड, कुल्हाड़ी थाम के मारो।` आलोचना का सार यह था कि कुल्हाड़ी फेंक कर मारने पर हथियार वर्गशत्रु के हाथ लग सकता है जो क्रांति के साथ गद्दारी है। मेरी छोटी बुद्धि तब इसे समझ न पायी थी, लेकिन आलोकधन्वा मेरे लिए एक अद्भुत जिज्ञासा की चीज बन चुके थे, उनकी कविताओं से पहली बार मेरा सीधा परिचय 'हंस` के माध्यम से हुआ। उनकी कविताएं मुझे दूर तक आकर्षित करतीं। मिलने की चाह तेज होती गयी और अंतत: भिखना पहाड़ी स्थित उनके निवास पर पहुंच ही गया। पहली बातचीत कैसे शुरू हुई थी, मुझे आज कुछ भी याद नहीं है- सिर्फ इतना कि लगभग घंटा भर वे बोलते रहे थे। बातचीत के क्रम में उन्होंने घर की दीवार पर सटे पोस्टर 'हैंड्स ऑफ क्यूबा` की भी चर्चा की। आलोक की जब भी याद आती है 'हैंड्स ऑफ क्यूबा` भी मूर्त हो उठता है।

धीरे-धीरे आलोकधन्वा मेरी जरूरत बनने लगे। महीने-दो-महीने पर उनसे अवश्य मिल लेता। उनसे जब भी मिला, बोलता हुआ ही पाया। हालांकि बीच-बीच में कह डालते कि डॉक्टर ने थोड़ा कम बोलने को कहा है, लेकिन इस हिदायत पर अमल मुझ जैसे श्रोता को ही करना पड़ता था। वे एक अतिसंवेदनशील वक्ता थे। श्रोता के मनोभावों का खास ख्याल रखते थे। दूसरों की मौजूदगी में प्राय: ही कहते, 'राजू समाजशास्त्र के विद्वान हैं।` मेरे लिए यह शायद सांत्वना पुरस्कार होता। मेरा भी कद कुछ-कुछ बड़ा हो जाता। अचानक विद्यार्थी से विद्वान हो जाता। इससे ज्यादा किसी को भला क्या चाहिए? बातचीत का विषय काफी विस्तृत और आत्मीय होता। देश-दुनिया की बात करते-करते वे अपने बारे में, स्वास्थ के बारे में और यहां तक कि अपने कमरे के बारे में भी घंटों बोल जाते। यह भी कि उस कमरे को अब छोड़ नहीं सकता, चाहे कितना भी महंगा क्यों न हो। उस फ्लैट का ऐतिहासिक महत्व जो हो चला था। फणीश्वरनाथ रेणु और भगवत रावत सरीखे लोगों की यादें जुड़ी थीं उससे। निजी जिंदगी से जुड़ी कहानियों का अक्सर एक लोक रचते और बताते कि मिर्जापुर में कभी उनकी भी एक छोटी-सी जमींदारी हुआ करती थी। इन कहानियों में उनके पिताजी सदैव दोनाली बंदूक रखते, लेकिन कभी किसी की हत्या नहीं की। मिर्जापुर की जमींदारी की चर्चा उनके वकील भाई भी करते।

जब मैं स्वरूप विद्या निकेतन में हिंदी शिक्षक के रूप में काम कर रहा था तो एक दिन मिर्जापुर से एक सज्जन पधारे। पूछने पर पता चला कि वे पेशे से वकील हैं और उनकी एक जमींदारी भी है। अनायास ही मैंने पूछ डाला कि कहीं आप मेरे शहर के चर्चित कवि आलोकधन्वा के भाई तो नहीं। लगभग चौंकते हुए उन्होंने पूछा-क्यों? मैंने कहा, मिर्जापुर में एक छोटी-सी जमींदारी उनकी भी हुआ करती थी। जब यह बातचीत चल रही थी, मेरे सहकर्मी श्री ओमप्रकाश पांडेय भी वहां मौजूद थे। वह मुझे आश्चर्य और विस्मय से घूरने लगे।

आलोकधन्वा एक स्वास्थ-सजग जनवादी कवि थे। घर से बाहर भी वे हमेशा अपना ही पानी पीते। मैंने पानी की इनकी बोतल तब देखी थी, जब पटना की स्वास्थ-संस्कृति के लिए यह लगभग हास्य-विनोद की चीज थी। अब तो अधिकतर लोग उनके अनुयायी हो चले हैं। जनवाद बढ़ा-फैला सा लगता है। पीने के पानी के बारे में वे मुझसे भी पूछते। जब मैं कहता कि चापाकल का पानी पीता हूं तो अचरज भरी निगाहों से देखते और समान प्रश्न को दुहराते, 'आप हैंडपंप चला लेते हैं?` मैं 'हां` में जवाब देकर मन ही मन मजदूरिनों पर लिखी उनकी कविताओं पर पुनर्विचार की मुद्रा में आ जाता। बातचीत में कभी-कभी वे अधिक समय लगा देते तो बीच में बाथरूम की दरकार हो आती। पूछने पर रेडीमेड जवाब देते-'इस्तेमाल के लायक नहीं है`। यह सच भी हो सकता था लेकिन मुझे लगता कि वे सफाईपसंद आदमी हैं, अतएव परहेज रखते हैं। वैसे वे सफाई का काफी ख्याल रखते थे। जब भी किचेन जाते एप्रन जरूर लटका लेते। वे अपने घर में १९वीं शताब्दी के रूसी उपन्यास के नायकों की तरह रहते।

१९९१ में मैं एमए (इतिहास) में दाखिला ले चुका था। विजय कुमार ठाकुर के संरक्षण में अशोक जी ने 'इतिहास विचार मंच` की स्थापना की, जिसका मुझे संयोजक बनाया गया। इस संस्था का प्रमुख काम अकादमिक महत्व के विषयों में लेक्चर आयोजित करना था। इसी सिलसिले में हमलोग एक दिन आलोकधन्वा से जा मिले और 'प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था` विषय पर अपनी बात रखने के लिए उनसे आग्रह किया। लगभग आधे घंटे तक वे तफसील से बताते रहे कि किन-किन महत्वपूर्ण गोष्ठियों की उन्होंने अध्यक्षता की है। इस बात को भी रेखांकित किया कि कैसे आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा ने उनसे एक बार किसी गोष्ठी की अध्यक्षता करवायी थी, जब वे महज इंटर के छात्र थे। लगभग आधे घंटे की अपनी विरुद्गाथा से निवृत्त हो उन्होंने बदली हुई भंगिमा में कहना शुरू किया 'राजू भाई, अगर कोई जाति-पांति की बात करता हो तो वैसे लोगों पर थूक दीजिए।` मैंने हल्का प्रतिवाद करने की कोशिश की 'आलोक जी, मैं जाति की राजनीति करने की कोई मंशा नहीं रखता। मेरा उद्देश्य तो समस्या का समाजशास्त्रीय अध्ययन भर है।` वे कहां माननेवाले थे। जब वे अपनी रौ में होते तो सामनेवाले की शायद ही सुनते थे। फिर वे अपने मूल कथन को ही दुहराने लगे। मैं तो लिहाजवश चुप ही रहा किंतु अशोक जी ने अपना मुखर मौन तोड़ा। कहने लगे, 'आलोक जी, सच्चाई यह है कि जाति-पांति का नाम लेनेवाले हर आदमी पर अगर इसी तरह थूकते रहे तो आप डिहाइड्रेशन के शिकार हो जायेंगे और दैवयोग से अगर बच भी गये तो अपने ही थूक के अंबार में डूबे जीवन की भीख मांगते नजर आयेंगे। वैसे इसकी कम ही संभावना है कि ऐसा करने को आप बचे भी रहें`। इसके बाद हमदोनों मन ही मन कूढ़ते अशोक जी के लालबाग स्थित डेरे में लौट आये।

आलोकधन्वा एक लंबे समय से एकाकीपन में जीते आ रहे थे। शादी नहीं की थी। इस लायक किसी को समझा नहीं था शायद। या फिर कोई और कारण भी हो सकता है। कभी-कभी वे शारीरिक दुर्बलताओं का भी जिक्र किया करते। किंतु इन दिनों शादी को लेकर कुछ गंभीर होने लगे थे। 'छतों पर लड़कियां` कविता का ठीक यही समय है। एक दिन वे खाने-पीने की दिक्कतों की बात करने लगे। मैंने सलाह दी, 'कोई नौकर क्यों नहीं रख लेते?` वे बोल उठे-'नौकर बहुत महंगा हो गया है। खाता भी बहुत है। उतने खर्च में तो एक बीवी भी रखी जा सकती है।` वे जानते थे कि मेरी शादी हो चुकी है, इसलिए पूछ बैठे-'राजू भाई, आपकी कोई बड़ी साली है?` मैंने मजाक के लहजे में कहा, 'सर, मेरी पत्नी बहनों में सबसे बड़ी है। अफसोस!` 'कोई बात नहीं, इधर-उधर ही देखिए` वे कहने लगे। आगे उन्होंने अंतिम सत्य की तरह जोड़ते हुए कहा, 'आप तो मेरी जाति जानते हैं न राजू भाई? आप भूमिहार हैं न! मैं भी वही हूं!!`

एक दिन अखबार से मालूम हुआ, 'छत की लड़की` उनके आंगन में दाखिल हो चुकी है, अर्थात उन्होंने शादी कर ली है। हमलोगों के लिए यह खबर बहुत रोमांचक थी। मैं तब अशोक जी के साथ सुनील जी के मकान में रहा करता था। मैं, अशोक जी और सैदपुर छात्रावास के दिनों के पुराने परिचित सियाराम शर्मा व्यथित तीनों साथ-साथ आलोकधन्वा को शादी की बधाई देने पहुंचे। तीनों का बारी-बारी से पत्नी से परिचय कराया। अशोक जी के परिचय में उन्होंने ठीक-ठीक कौन-सा वाक्य कहा था, फिलहाल मुझे याद नहीं है। मेरा परिचय देते उन्होंने बताया-'आप राजू भाई हैं, मेरे पुराने प्रेमी और प्रशंसक`। यह भी जोड़ा कि ये मेरे एकांत के दिनों के साथी रहे हैं और समाजशास्त्र के विद्वान हैं। फिर व्यथित जी का परिचय दिया, 'आप हिंदी के विद्वान और साहित्य के गंभीर आलोचक हैं।` तब सियाराम जी की आलोचना पुस्तिका 'कविता का तीसरा संसार` पहल पत्रिका से प्रकाशित होकर आ चुकी थी। इसमें आलोकधन्वा, वीरेन डंगवाल एवं कुमार विकल की कविताओं की समीक्षा थी। हालांकि अपने साथ गोरख पाण्डेय को पाकर आलोकधन्वा सियाराम जी से थोड़ा नाराज भी थे। कवियों की जमात में 'गीतकार` को शामिल करना शायद आलोक को अच्छा न लगा था। खैर, तो अब आलोक अपनी पत्नी का परिचय देनेवाले थे। उन्होंने अभिनय की मुद्रा बनाते कहा, 'आप हैं क्रांति भट्ट। बैट (बिहार आर्ट थिएटर) की प्रख्यात अदाकारा। और फिलहाल ये कंप्यूटर से खेल रही हैं।` हमलोगों को काफी देर की मगजमारी के बाद मुश्किल से मालूम हुआ कि स्थानीय 'आज` अखबार के कंप्यूटर विभाग में नौकरी करती हैं।

शादी के बाद जब कभी आलोकधन्वा से मिलने जाता तो वे काफी व्यस्त हो जाते। खिड़कियों और कमरों के परदे दुरुस्त करते और कहते जाते-'राजू भाई अब मैं पारिवारिक हो गया हूं न!` मेरे मन को थोड़ा विनोद सूझता और मन ही मन बोलता, आलोकधन्वा ने 'पारिवारिक` होने में इतना समय लिया है, पता नहीं 'सामाजिक` बन पायेंगे भी या नहीं। साथ बैठे होने पर पत्नी को अक्सर 'बच्ची` संबोधित करते। बातचीत के क्रम में सहज ही कह जाते 'क्रांति तो मेरी बेटी के समान है, बच्ची है`। पत्नी को बेटी बनना पसंद न था और आलोकधन्वा थे कि उसे बेटी बना कर पिता का असीमित अधिकार हासिल कर लेना चाहते थे। वे क्रांति की सामान्य दिनचर्या की छोटी-से-छोटी चीज में दखल देते और अपनी बात पास करवाना चाहते। मसलन उसे कब दही खाना चाहिए और कब नहीं, इस तक का भी वे 'ख्याल` रखते। क्रांति का नाटकों के लिए घर से बाहर निकलना अब उन्हें अखरता था। एक दिन वे मुझसे कहने लगे-'राजू भाई, क्रांति रघुवीर सहाय की कविताओं का मंचन करने जा रही है। आप तो जानते हैं कि रघुवीर सहाय की कविताओं में अद्भुत नाटकीयता है। उसका निर्वाह क्रांति से संभव न हो सकेगा। इसलिए मैंने तो कह रखा है कि रघुवीर सहाय की कविताओं का मंचन करने जाओगी, तो मेरे सीने से गुजर कर जाना पड़ेगा। मैं हिंदी कविता का अपमान सहन करने के लिए जीवित नहीं रह सकता।` एक बारगी मेरी आंखों के सामने 'कुलीनता की हिंसा` का बिंब जीवित हो उठा। क्रांति तो गयीं, किंतु आलोक जीवित रह गये।

व्यथित जी जब कभी पटना आते और हमलोग मिल-बैठते तो आलोकधन्वा की चर्चा अवश्य होती। आलोक की कविताओं से वे बेहद प्रभावित थे। वे जब बात करने लगते तो निर्दोष बच्चों-सी ललक दिख पड़ती उनमें। मैं कभी कहता कि 'आपने आलोकधन्वा की सिर्फ कविताएं पढ़ी हैं, जीवन नहीं देखा है` तो हल्के-से प्रतिवाद के साथ बच निकलने की कोशिश करते। मुझे लगता वे अपना विश्वास नहीं तोड़ना चाहते और मैं चुप लगा जाता। लेकिन यथार्थ तो परछाइंर् की तरह है। उससे बहुत दिनों तक बचा तो नहीं जा सकता। एक दिन की बात है कि अशोक जी को साथ लेकर व्यथित जी आलोकधन्वा से मिलने चले गये। वहां से लौटे तो बहुत उदास और अशांत थे। पूछने पर बताया कि 'क्रांति के साथ निभ नहीं रही है। वे गुस्से में लगातार चीख के साथ बरतनंे तोड़ी जा रही थीं।` मैं यह सब सुन कर बहुत उदास और दुखी नहीं हुआ। ऐसी स्थिति की आशंका मुझे पहले ही से थी। एकांत के क्षणों में आलोकधन्वा कहने लगे थे, 'राजू भाई, मैंने दरवाजा खुला छोड़ रखा है। क्रांति जिस दरवाजे से होकर आयी है, जा भी सकती है।` मैं सोचता लोग ठीक ही कहते हैं कि कवि 'अव्यावहारिक` जीव होता है। व्यथित जी इस घटना के बाद खासे डरे लग रहे थे। वे भी अपनी शादी को लेकर गंभीर हो रहे थे, वह भी दूसरी के लिए।

इधर कुछ दिनों से आलोकधन्वा मुझसे नाराज थे। व्यथित जी की पुस्तिका 'कविता का तीसरा संसार` की समीक्षा को लेकर। यह जबलपुर से निकलने वाली अनियतकालीन पत्रिका विकल्प में छपी थी। दरअसल मैंने जो लिखा था, उसका सार यह था कि आलोकधन्वा के यहां मुक्तिबोध के उलट कविता और जीवन दो अलग-अलग चीजें हैं। समीक्षा को पढ़ कर अथवा सुन कर आलोकधन्वा ने कुमार मुकुल से कहा था 'राजू बदतमीज और चूतिया है।` मुझे सहज ही विश्वास हो गया, क्योंकि कुमार मुकुल के बारे में मुझसे ठीक-ठीक यही वाक्य कहा था और यह भी कि 'उसने मेरे घर में कागज-कलम पकड़ना सीखा है।` आलोकधन्वा को 'साहित्य के जनतंत्र` में 'असहमति` मुश्किल से बरदाश्त होती थी। समीक्षा की आग मंद भी न पड़ी थी कि व्यथित जी पटना आ धमके। उन्हें उसी विकल्प पत्रिका का नक्सलबाड़ी अंक संपादित करने का दायित्व दिया गया था। वे चाहते थे कि आलोकधन्वा का एक लंबा (ऐतिहासिक) इंटरव्यू हो पत्रिका के लिए। इस उद्देश्य से वे अपने नायक कवि के पास पहुंचे ही थे कि वे बमक उठे। कहने लगे-'शर्मा जी, मुझे समझ में नहीं आता कि राजू जैसा पाजी लड़का आपका मित्र कैसे हो गया।` शर्मा जी के ज्ञान पर चोट थी यह, अतएव प्रतिवाद करने से अपने को रोक न पाये-'क्या मुझमें यह विवेक भी नहीं कि अपने मित्र का चुनाव मैं स्वतंत्र होकर कर सकूं?` आलोकधन्वा को अपना दांव बेअसर होता लगा तो कहने लगे-'जहां से पहल जैसी पत्रिका निकल रही हो वहां से विकल्प निकालने की क्या जरूरत है?` महाकवि का इंटरव्यू करने की शर्मा जी की ख्वाहिश पूरी न हो सकी। व्यथित जी अब भी पटना आते हैं, लेकिन आलोकधन्वा का नाम उन्हें उत्तेजित नहीं कर पाता।

एक दिन मैं स्वरूप विद्या निकेतन स्कूल में अपनी कक्षा से ज्योंही निकला तो पाया कि आलोकधन्वा निदेशक जनार्दन सिंह से बातचीत में उलझे हुए हैं। बहस का विषय था कि बच्चों को पीटा जाये अथवा नहीं। जर्नादन सिंह जहां बच्चों को पीटने के लाभ बता रहे थे वहीं आलोक उसे 'सामंती समाज की देन` बता रहे थे। दरअसल वे अपने वकील भाई के बेटे को छात्रावास में दाखिला दिलाना चाहते थे। जनार्दन सिंह अर्थात बच्चों के स्वघोषित 'चाचाजी` को आलोकधन्वा सामंतों का लठैत घोषित कर चल निकले। मुझे भी साथ ले लिया। रास्ते में नोटों की गड्डी दिखाते हुए कहा-'चलिए राजू भाई, आज पैसों की दिक्कत नहीं है।` बेली रोड स्थित बेलट्रॉन भवन में कोई कार्यशाला चली थी, उसके पैसे थे उनके पास। मैं 'न` नहीं कह पाया और चल दिया। डाकबंगला के पास पहुंच कर एक साफ-सुथरी (महंगी भी) दुकान से ब्रेड तथा नाश्ते का अन्य सामान लिया। अपने घर के पास हरा चना भी खरीदा। हमदोनों घर में दाखिल हुए। मुझे ड्राइंर्ग रूम में बिठा कर आप खुद एप्रन में बंधे किचेन में जा घुसे। हमलोगों ने साथ-साथ नाश्ता लिया। अपनी मशहूर काली चाय भी पिलायी। थोड़ा निश्चिंत होने पर मैंने पूछा 'घर में कहीं` क्रांति नहीं दिख रही हैं?` थोड़ी देर मौन साध कर बोले, 'वह ड्रामा करने गयी है`।

3 comments:

  1. भागना है तो भाग जाते... इरफान और चंद्रभूषण भी भागे लेकिन ऐसे तो नहीं ...सिगरेट और सेक्स का हवाला देकर क्रांति को नकारने का तर्क बहुत पुराना है और ये आप जैसे अवसरवादियों से लेकर बीबीसी तक प्रयोग करता है कि माओं की कितनी बीवियां थी और मार्क्स किस कदर वासना से पीडि़त थे...इन तर्कों से लोग इस कदर उबा गए हैं कि इस तौर तरीके को झूठ भी नहीं कहते.. बस इस पर थूक देते हैं.... कुछ गंभीर काम करिए और क्रांति का कोई मॉडल ही बता दीजिए हम लोग भी साथ हो लेंगे..

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  2. लेखक को ध्यानाकर्षण की बीमारी है. आलोकधन्वा के बारे में एक भी शब्द कहने से पहले उसे अपनी चड्ढी में लगी टट्टी अवशय देखना चाहिये. आकाश में थूकने से थूक मुंह में पद़्अता है.

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