राजनीति का मोहरा बना धर्म
वास्तव में पजाब के भटिंडा जिले के सलबतपुरा गांव में १३ मई, २००७ को डेरा सच्चा सौदा प्रमुख के पास जुटी सभा में सिखों को उकसाने वाला कुछ भी नया नहीं हुआ था। यह मीठे पकवान बांटने की गुरु गुरमीत सिंह की एक पुरानी दिनचर्या थी, और इस पाहुल बांटने के साथ ही डेरा प्रमुख ने प्रभु की प्रार्थना में उन्हें कुछ शब्द-नाम भी बांटे। हां, उस दिन पहले की दिनचर्या से थोड़ा अंतर था। डेरा आयोजकों ने एक लोकप्रिय पंजाबी दैनिक अजीत में एक विज्ञापन दिया था, जिसमें डेरा प्रमुख को एक विशेष पहनावे में समारोह करते हुए दिखाया गया था और कहा जा रहा है कि डेरा प्रमुख दसवें सिख गुरु गोविंद सिंह की तरह बैठ गये और १६९९ में बैसाखी के दिल खालसापंथ का सृजन करते वक्त सिखों को दीक्षित करने की गुरु की शैली की नकल करने लगे। यह भी कहा गया कि सिख गुरु की ही नकल करते हुए डेरा प्रमुख ने गुरु के पंज प्यारों की जगह अपने सात शिष्यों को सात प्यारों के रूप में चुना। अगले दिन, १४ मई, २००७ को शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एसजीपीस), अमृतसर, जो कि एक शीर्ष गुरुद्वारा प्रबंधन संस्था है और जो अभी सत्ताधारी अकाली दल बादल द्वारा नियंत्रित है, के कर्मचारियों को एसजीपीसी के भटिंडा स्थित हाजी रतन गुरुद्वारा में इकट्ठा होने को कहा गया। उनकी इस घोषणा के बाद कि दीक्षा देने के सिख तरीके का उपहास उड़ाने के धर्मविरोधी कार्य लिए वे डेरा प्रमुख का पुतला जलायेंगे, कुछ अन्य अकाली कार्यकर्ता भी उनसे जुड़ गये। किरपान और दूसरे पारंपरिक हथियारों से लैस सिख युवकों और एसजीपीसी कर्मियों का एक अपेक्षाकृत छोटा-सा समूह भटिंडा जिला न्यायलय की ओर चला जहां डेरा के अनुयायी लाठी और लोहे के सरिये लिये हुए बड़ी संख्या में जमा थे। विरोधियों द्वारा डेरा प्रमुख का पुतला जलाये जाने को लेकर डेरा अनुयायी भी उत्तेजित थे, जिन्हें उनमें से कई ईश्वर का अवतार मानते थे। पूर्व सूचनाओं के बावजूद जिला प्रशासन ने दोनों समूहों की झड़प को नहीं रोका। यह उन्माद की शुरुआत थी। लगभग सांप्रदायिक दंगों के तर्ज पर, जिसने पंजाब को निगल लिया और जम्मू कश्मीर, हरियाणा, दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों में दंगाई प्रतिक्रिया भड़का दी।
ऐसा लगा कि शायद भटिंडा जिला प्रशसान सत्ताधारी अकाली नेताओं द्वारा निर्देशित था कि वह धीरे काम करे और झड़पों को होने दे। क्योंकि बिना अकालियों की सहमति से ऐसा कोई भी जमावड़ा न तो उनके द्वारा नियंत्रित गुरुद्वारा में हो सकता था और न एसजीपीसी कर्मी इन झड़पों में नेतृत्वकारी भूमिका में रहते।
समस्या की असली वजह विशुद्ध रूप से राजनीतिक है। अकालियों के पास डेरा सच्चा सौदा के खिलाफ तीखी शिकायतें हैं और दरअसल वे डेरा प्रमुख के साथ निपटने की ताक में थे और सलबतपुरा गांव की घटना ने उनके लिए राह आसान कर दी। केवल दो माह पूर्व हालिया पंजाब विस चुनाव में डेरा सच्चा सौदा खुलेआम अकालियों की पुरानी दुश्मन कांग्रेस के पक्ष में रहा जो उन्हें (अकालियों के लिए) महंगा पड़ा। अकालियों के लिए जाने जानेवाले पंजाब के मालवा प्रदेश में कांग्रेस ने ६५ में से ३७ सीटें जीतीं। क्षेत्र के अनेक अकाली दिग्गजों को चुनाव में धूल चाटनी पड़ी। कांग्रेस मालवा बेल्ट में मुख्यमंत्राी प्रकाश सिंह बादल के अकाली दल की लगभग बराबर पर रही। और बादल केवल सहयोगी भाजपा की मदद से ही सरकार बना सकते थे, जिसने विधानसभा की ११७ में से १९ सीटें जीती थी।
हालांकि सिख धार्मिक प्रबंधकों और डेरा अनुयायियों, जो प्रेमी नाम से जाने जाते हैं के बीच अंदर ही अंदर नफरत व अविश्वास की भावना का लंबा इतिहास है। डेरा, जिसका मुख्यालय हरियाणा के सिरसा में है, कहा जाता है कि लगातार सिख सिद्धांतों और व्यवहारों की नकल करता आ रहा है। इसके अनुयायी गांवों से भी आते हैं जिनमें दलित, सिखों की निचली जातियां, छोटे सिख, किसान शामिल है जो पंजाब, हरियाणा और सटे राजस्थान के जिलों में अकालियों का पारंपरिक गढ़ रहे हैं। दरअसल डेरा प्रमुख गुरमीत सिंह राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले के गुरुसर मोदिया गांव में एक सिख किसान परिवार में जन्मे थे। वे डेरा सच्चा सौदा के तीसरे प्रमुख हैं तथा खुद को सभी प्रमुख धर्मों के प्रति आस्थावान बताते हैं। उन्होंने बाद में १९९० में डेरा प्रमुख बनने के बाद अपने नाम में 'राम रहीम` जोड़ लिया क्योंकि उनके आधे अनुयायी हिंदू (मुख्यत: निचली जातियां) हैं। २.५ करोड़ डेरा अनुयायियों में ७-८ प्रतिशत मुस्लिम और ४० प्रतिशत सिख अधिकतर महजबी सिख कहे जाने वाले खेतिहर मजदूर बताये जाते हैं। वर्तमान डेरा प्रमुख ने अनुयायियों की संख्या कैसे बढ़ायी? वे भक्तगणों को रोज प्रवचन देते हैं जिन की संख्या अब किसी विशेष मौके पर कई लाख हो जाती हैं। डेरा प्रमुख सिख, हिंदू मिथकों, ईसाईयत और इसलाम के आसानी से समझ में आनेवाले धार्मिक सिद्धांतों को उदारता से उधार लेते हैं और तब वे एक धार्मिक कॉकटेल तैयार करते हैं-जिसे वे बाबा गुरमीत राम रहीम सिंह के नाम से आम आदमी की भाषा में एक ऊंचे, सुसज्जित मंच से पेश करते हैं।
एक भव्य दृश्य, जो वहां जमा भक्तजनों को विस्मय, भव्यता और भक्तिभाव से भर देता है, जो वहां अपने मानसिक त्रास और सामाजिक विसंगतियों, जिन्हें वे प्राय: झेल रहे होते हैं, से राहत पाने के लिए जमा होते हैं।
डेरा प्रमुख ईमानदारीपूर्वक धर्मपरिवर्तन के जटिल मुद्दे से बचते रहे हैं। उनके अनुयायियों को अपना धार्मिक आचरण बनाये रखने की छूट होती है। डेरा आयोजकों का दावा है कि डेरा प्रमुख ने एक समाज सुधार आंदोलन शुरु किया है जिसमें वे लोगों को सामाजिक बुराईयों से बचाते हैं-जैसे उन्हें अनेक प्रकार के नशे से छुटकारा दिलाया जाता है। डेरा का १६ राज्यों में ४५ शाखाओं के साथ ४५० छोटी शाखाओं का एक व्यापक सांगठनिक नेटवर्क है। बड़े पैमाने पर शराब मुक्ति को एक तरफ रख भी दें तो डेरा नाममात्र की लागत पर सामूहिक विवाहों का आयोजन भी करता है और अपने अनुयायियों के बीच भाईचारे की भावना को बढ़ावा देता है, जो एक दूसरे को संकट में मदद करते हैं और डेरा प्रबंधक की अनेग औद्योगिक परियोजनाओं व अनेक अन्य कार्यों में मुफ्त सेवाएं प्रदान करते हैं।
अकाली भी डेरा के कारण अपना आधार खो रहे हैं यों कि गुरुद्वारा राजनीतिक भूमिपतियों द्वारा नियंत्रित हो रहे हैं और धनी लोग गरीब लोगों को वहां आत्मिक शांति और आराम के लिए आने से रोकते हैं। दूसरी तरफ डेरा प्रमुख अपने अनुयायियों को इस बात तक ले लिए भी निर्देश देते हैं कि चुनाव में किस प्रत्याशी को वोट दें।
डेरा प्रमुख के बढ़ते प्रभाव को कम करने के क्रम में प्रकाश सिंह बादल ने कहा कि डेरा की ओर से माफी से कम कुछ भी पंजाब में शांति नहीं ला सकता।
और शायद पहली बार बादल नियंत्रित सिख धार्मिक नेता, अकाल तख्त ने २२ मई को पंजाब बंद का आह्उाान किया और राज्य के उप-डेरों को बंद करने का अल्टीमेटम दिया।
जबकि, प्रतिक्रिया में सिख उग्रवाद, जो १९७० के सिख-निरंकारी दुश्मनी की तरह उभर रहा है, सिख धार्मिक नेताओं पर दबाव डाल रहा है कि वे डेरों के खिलाफ सख्त रवैया अपनाएं। दूसरी तरफ डेरा ने दवाब में आकर खेद जताने के बावजूद कड़ा रवैया अपनाया है और उसने डेरों को बंद करने की मांग ठुकरा दी है। पंजाब में इस तरह की उत्तेजना का बढ़ना राज्य सरकार में अकालियों की सहयोगी भाजपा के लिए खतरे की घंटी है। और भाजपा ने खुद को अकालियों की डेरा सच्चा सौदा को सबक सिखाने के फैसले से अलग कर लिया है।
भाजपा और अकालियों की अपनी राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से हालत काबू में आ सकते हैं, लेकिन पंजाब इसी तरह उबलता रह सकता है क्योंकि अतिवादी सिख अकाली दल बादल से अपने झगड़े सलटाने के लिए निकल आये हैं, जिन पर (अकालियों पर) भाजपा से गंठबंधन बना कर सिखों की अलग पहचान को मिटाने का आरोप है।
पंजाबी कथाकार जसपाल सिंह सिद्धू समाचार ऐजेंसी यूएनआई के वरिष्ठ संवाददाता हैं।
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