October 4, 2007

तस्लीमा और उदारवादी मूल्य


  • राम पुनियानी



विगत दिनों तस्लीमा नसरीन पर हैदराबाद में मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुस्लमीन के तीन विधायकों के नेतृत्व में हुए हमले से उन सभी लोगों को गहरा झटका लगा है जो उदारवादी व प्रजातांत्रिक मूल्यों में विश्वास करते हैं। यह भर्त्सनीय घटना ९ अगस्त को उस समय हुई जब तस्लीमा अपनी किताब 'शोध` के तेलुगू संस्करण के जारी होने के मौके पर हैदराबाद आइंर् थीं।

इस घटना पर विभिन्न प्रतिक्रियाएं सामने आइंर् हैं। उर्दू मीडिया के एक हिस्से ने हमले का महिमामंडन किया। मुस्लिम समाज के मध्यमार्गी और उदारवादी हिस्से ने इस हमले की कड़ी निंदा की-जैसा कि विभिन्न राष्ट्रीय दैनिकों को लिखे गए संपादक के नाम पत्रों, प्रमुख मुस्लिम विचारकों के लेखों और मुस्लिम संगठनों द्वारा जारी बयानों से जाहिर होता है। जहां तक हिंदू संगठनों का सवाल है, कोई विशेष प्रतिक्रिया सामने नहीं आई।

भाजपा हमेशा से तस्लीमा का बचाव करती रही है। ऐसी अपेक्षा थी ही कि इस बार भी भाजपा जोरदार ढंग से तस्लीमा के बचाव में सामने आएगी। भाजपा का सिद्धांत बहुत सीधा सा है। अगर कोई इस्लाम या मुसलमानों की निंदा करे तो उसका बचाव करो और जो हिंदू प्रतीकों का इस्तेमाल करे उसे या तो जेल में डाल दो, जैसा कि बड़ौदा के कलाकार चंद्रमोहन के साथ हुआ और या फिर उसे देश से बाहर खदेड़ दो, जैसा कि एम.एफ. हुसेन के साथ किया गया।

कई जाने-माने स्तंभकारों ने यह प्रश्न उठाया है कि धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर कहां हैं और ये तस्लीमा पर हमले की निंदा क्यों नहीं कर रहे हैं? तथ्यात्मक रूप से देखें तो यह बात सही नहीं है। हैदराबाद में ही कई प्रजातांत्रिक संगठनों और व्यक्तियों ने जुलूस निकालकर तस्लीमा पर हमले का विरोध किया। यह बात अलग है कि इस प्रदर्शन को पर्याप्त प्रचार नहीं मिला।

आखिर क्यों लोगों को ऐसा लगता है कि धर्मनिरपेक्षतावादी हिंदुओं के प्रति तो कड़ा रूख अपनाते हैं परंतु मुसलमानों के बारे में नरम रूख अख्तियार करते हैं? यहां प्रश्न यह है कि आखिर हम निंदा को कैसे नाप सकते हैं? विरोध जुलूसों से, बयानों और वक्तव्यों से, लेखों से और संपादक के नाम पत्रों से ही न! सामाजिक कार्यकर्ताओं की हमेशा से यह समस्या रही है कि जहां हिंसा और सनसनीखेज समाचारों को प्रमुखता मिलती है वहीं शांति स्थापित करने के प्रयासों की खबरें तीसरे पन्ने के छोटे से हिस्से में सिमट जाती हैं। अगर कोई उन लेखों, पत्रों और वक्तव्यों की सूची बनाए जो नहीं छपे तो यह साफ हो जाएगा कि चाहे हिंदू सांप्रदायिकता हो या मुस्लिम सांप्रदायिकता, जो सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष हैं वे, दोनों की ही समान रूप से आलोचना करते हैं। परंतु समस्या यह है कि जो मीडिया में दिखता है वही सच लगने लगता है और इस मामले में वे पीछे रह जाते हैं। उनकी गतिविधियों को पर्याप्त प्रचार नहीं मिलता।

हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि पूरे समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है और समाज के सभी हिस्से इससे प्रभावित हैं। इसका एक त्रासद उदाहरण है पश्चिम बंगाल जहां के कामरेडों ने तस्लीमा की एक पुस्तक पर इस आधार पर प्रतिबंध लगा दिया कि उससे बंगालियों की भावनाओं को ठेस पहुंचती है।

असहिष्णुता कई प्रकार की होती है। कई कारणों से उत्पन्न होती है और जिंदा रहती है। जो समुदाय अपने आप को असुरक्षित महसूस करते हैं, उनमें असहिष्णुता अधिक होती है। इस असुरक्षा की भावना से कट्टरवादी मूल्यों को प्रोत्साहन और दक्षिणपंथी राजनीति को बढ़ावा मिलता है। असुरक्षा की यह भावना असली हो सकती है या फिर काल्पनिक भी। दोनों ही मामलों में संकुचित, पुरातनपंथी विचारों को प्रोत्साहन मिलता है। जर्मनी में यहूदियों की असुरक्षा की भावना के समुचित और पर्याप्त आधार थे। हिटलर की सफलता यह थी कि उसने बहुसंख्यकों को यह विश्वास दिला दिया था कि मुट्ठी भर अल्पसंख्यक उनके लिए खतरा हैं। जर्मनी की बहुसंख्यक जनता यहूदियों के काल्पनिक भय से घोर असहिष्णु हो गई।

आज के भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की सबसे बड़ी सफलता यही है कि वह बहुसंख्यक हिंदुओं में यह भ्रम पैदा करने में सफल हो गया है कि मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यक हिंदुओं के लिए खतरा हैं।

कोई भी कत्लेआम अकारण नहीं होता। उसकी जड़ में होती है घृणा की विचारधारा और अल्पसंख्यकों का काल्पनिक भय। नतीजे में आक्रामक असहिष्णुता सामने आती है जैसा कि हमने एम.एफ. हुसेन और चंद्रमोहन के मामलों में हाल में देखा। दीपा मेहता को 'वाटर` बनाने से रोकने की कोशिश हुई, 'महानगर` के कार्यालय पर हमला हुआ और अभी हाल में 'आउटलुक` के मुंबई कार्यालय में गुंडों ने बवाल मचाया।

इस तरह की परिस्थितियों में बहुसंख्यक भी असुरिक्षत महसूस करने लगते हैं और असहिष्णु हो जाते हैं। जहां तक भारतीय मुसलमानों का प्रश्न है, इस असहिष्णुता और असुरक्षा की भावना का एक कारण है यह तथ्य कि दंगों में मरने वालों में अधिकांश मुसलमान होते हैं। मुसलमानों की देश की उन्नति और समृद्धि में उचित हिस्सेदारी नहीं है। बार-बार दंगों के शिकार बनते रहने के कारण उनमें अपने समुदाय के बीच ही रहने की प्रवृत्ति बढ़ गई है और इन सब कारणों से उनके बीच भी असहिष्णुता और असुरक्षा की भावना का प्रसार हो रहा है।

कारण या औचित्य कुछ भी हो, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ किसी भी हमले को उचित नहीं ठहराया जा सकता। परंतु हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि अल्पसंख्यकों के बीच बढ़ती कट्टरवादिता का कारण उनकी असुरक्षा की भावना है। असली समस्या है धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों का कुत्सित खेल। इस खेल में वे अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हैं और फिर अल्पसंख्यक निंदनीय तरीकों से प्रतिकार करते हैं। अब, जबकि तथाकथित उदारवादियों द्वारा धर्मनिरपेक्षतावादियों की गतिविधियों का 'आडिट` किया ही जा रहा है, तो क्या धर्मनिरपेक्षतावादियों को 'संतुलन` बनाने के लिए कुछ करना चाहिए? धर्मनिरपेक्षता के प्रति जो सच्चे मन से प्रतिबद्ध हैं वे यह जानते हैं कि कट्टरवादिता से कट्टरवादिता ही पैदा होती है परंतु वे यह भी जानते हैं कि वह कट्टरवाद जो राजनैतिक हितों को साधने के लिए बहुसंख्यकों में पैदा किया जाता है, वह अल्पसंख्यकों की कट्टरवादिता से कहीं अधिक खतरनाक होता है और उसका मुकाबला अत्यंत गंभीरता से किया जाना चाहिए। यह भी उतना ही सही है कि अल्पसंख्यकों की हिंसात्मक गतिविधियों की भी कड़ाई से आलोचना की जानी चाहिए। अल्पसंख्यकों की जानो-माल की सुरक्षा के प्रबंध किए जाना भी उतना ही आवश्यक है।

सांप्रदायिकता विरोधी कार्यकर्ता राम पुनियानी आईआईटी, मुंबई में प्राध्यापक रहे हैं।

No comments:

Post a Comment