- अनीश अंकुर
जिस वैशाली जिले में यह घटना हुई है वह बिहार के सबसे पिछड़े जिलों में गिना जाता है जिसे भारत सरकार आदर्श जिला बनाने की कवायद में जुटी है। एनजीओ की इस जिले में भरमार है। इस घटना को विकास की इस उत्तर आधुनिक अवधारणा के संदर्भ में भी देखना चाहिए।
संजय कुड़ेरी, बारा कुड़ेरी, अजय कुड़ेरी, गुलटेन कुड़ेरी, सुलटेन कुड़ेरी, श्रीकांत कुड़ेरी, जुगनू, अशोक, नंदकिशोर व मुकेश कुड़ेरी। इन दस लोगों की वैशाली जिले के राजापाकर थाना क्षेत्र के ढेलफोड़वा गांव के पास हत्या कर दी गयी। २०-२५ वर्ष के इन नौजवानों के साथ जो वहशियाना सलूक इनकी हत्या के पहले तथा बाद में किया गया उसके ब्योरों को सामने लाया जाए तो आप विचलित हुए बिना नहीं रह सकते। चोरी का आरोप लगाकर हिंसक उन्मादी भीड़ ने इन महादरिद्र लोगों की पीट-पीट कर जिस दरिंदगी से हत्या की, वह रीढ़ में सनसनी पैदा करने वाला है।
जिस घुमंतू जाति के ये १० युवा थे, वह सामाजिक व्यवस्था में कहीं भी गिनी नहीं जाती। सभ्य समाजों की नजर से अमूमन ओझल यह प्रजाति अंग्रेजों के जमाने में 'क्रिमिनल ट्राइब` (अपराधी जाति) समझी जाती थी। जब भी कहीं कोई घटना होती, दारोगा जी इन्हें को पकड़ कर सजा दे देते। आजादी के साठ वर्ष बाद भी समाज का इनके प्रति पारंपरिक नजरिया नहीं बदला है।
अहले सुबह एक भोज से लौट रहे इनकी टोली की ऑटो वाले से कुछ अनबन हो गई। ऑटो वाले ने चोर-चोर चिल्लाकर हिंसक भीड़ को न्योता दे डाला। भीड़ ने बगैर कुछ सोच इन युवाओं को चोर समझ मार डाला। इस जघन्य घटना के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किंचिंत सक्रियता दिखाई और वीभत्स ढंग से मारे गए लोगों का दाह संस्कार ठीक से करने का आदेश दिया। पुलिस को पीपुल फ्रेंडली बनने की सरकारी नसीहत भी दी गयी। पर पुलिस तंत्र इन नसीहतों पर कहां ध्यान देने वाला था। पुलिस के कर्मचारियों के पास इनके दाह संस्कार के लिए फुर्सत भी कहां थी? उनके लिए तो यह दाह संस्कार के लिए मिलने वाली राशि के गबन का सुनहरा अवसर था। सभी लाशों को बिना जलाए नदी में बहा दिया गया।
इस घटना को लेकर अलग-अलग किस्म के विश्लेषण भी सामने आ रहे हैं। सबसे पॉपुलर किस्म का तर्क यह दिया जा रहा है कि चूंकि पुलिस आजकल निष्क्रिय होकर मूकदर्शक बनी रहती है और न्यायालय की प्रक्रिया इतनी लंबी होती है कि लोगों का धैर्य चूक जाता है अत: कानून हाथ में लेकर खुद न्याय कर डालने की प्रवृत्ति हावी होती जा रही है। बिहार के जटिल यथार्थ के मद्देनजर यह विश्लेषण बेहद सतही है। यदि हम पिछले दिनों की ऐसी ही अन्य घटनाओं को ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट है कि पुलिस कहीं भी निरपेक्ष व निष्क्रिय नहीं रही है। वह मारने वालों के साथ खड़ी रहती है। भागलपुर में चेन छीनने के आरोपी युवक को मोटरसाइकिल से पुलिस द्वारा घसीटने की घटना से सभी वाकिफ हैं। बिहार में हमेशा से ही यह होता आया है। १९७९ के आंखफोड़वा कांड से लेकर २००२ में पटना के आशियाना नगर में तीन निर्दोष छात्रों को अपराधी बताकर इनकाउंटर कर डालने तक की घटना में पुलिस का पक्ष उजागर होता रहा है।
प्रश्न उठता है कि पुलिस आखिर किसके पक्ष में खड़ी है? यदि हाल की सभी घटनाओं पर नजर दौड़ाएं तो मारे गए तमाम लोग गरीब नजर आएंगे, वे सामाजिक सोपानक्रम में भी निचले पायदान पर थे। मारने वाली भीड़ उस इलाके के दबंग व ताकतवर लोगों द्वारा उकसायी जाती है। उसे आसपास के इलाके के नवधनिकों का भी समर्थन हासिल रहता है। इस पूरे मसले को बिहार के सामाजिक समीकरणों मंे दो-तीन वर्षों से आ रहे बदलाव की रोशनी में भी देखना चाहिए। लगभग पूरे राज्य में जद (यू)-भाजपा के सरकार के सत्तासीन होने के बाद से विभिन्न इलाकों का शक्ति संतुलन एक बार फिर परिवर्तित हो रहा है। सामंती ताकतें चाहे वे सवर्ण हों या दबंग ओबीसी, का वर्चस्व बढ़ा है। इसके साथ-साथ एनडीए सरकार में प्रशासन व नौकरशाही को मनमाने ढंग से काम करने के लिए खुला छोड़ दिया गया है। अमूमन स्थानीय स्तर पर इन दोनों का प्रशासन व दबंग समूह से स्वाभाविक गठजोड़ बन जाता है। इस गठजोड़ का परिणाम निचली जाति के गरीबों के लिए लगातार घटते स्पेस के रूप में सामने आ रहा है। पुलिस व प्रशासन पर थोड़ा बहुत लोकतांत्रिक दबाव रहता है, फिर मानवाधिकार वगैरह का भी मामला रहता है। ऐसे में पुलिस व प्रशासन के लिए भी सुविधाजनक है कि जो काम प्रभुत्वशाली तबके के सामंतों के लिए उसे खुद करना पड़ता था, वह काम यदि दबंगों की शह प्राप्त नाम, चेहराविहीन हिंसक उन्मादी भीड़ के लिए छोड़ दिया जाए तो इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता।
बिहार के सामंतों की इस किस्म की पुरानी प्रैक्टिस रही है कि अपने खिलाफ आवाज उठाने वाले लोगों को किसी जुनूनी भीड़ का शिकार बनवा दिया जाए। नक्सल आंदोलन के शुरूआती दौर में भी ऐसी घटनाएं सामने आइंर् थीं। उस समय बिहार में नक्सल आंदोलन के सूत्रधार माने जाने वाले तथा लोकाख्यान में दर्ज हो चुके मास्टर जगदीश कि हत्या भी इसी तरीके से की गई थी।
जिस वैशाली जिले में यह घटना हुई है वह बिहार के सबसे पिछड़े जिलों में गिना जाता है। दुनिया भर में गणतंत्र की पहली प्रयोगशाला माने जाने वाला यह इलाका हिन्दुस्तान के उन १६ चुनिंदा जिलों में शुमार है जिसे भारत सरकार यूनिसेफ के सहयोग से मॉडल जिला बनाने की कवायद में जुटी है। एन.जी.ओ. की इस जिले में भरमार है। स्वास्थ्य, शिक्षा से लेकर 'विहैवियर चेंजिंग` जैसे विषयों को लेकर यहां काम हो रहा है। जल्द ही इस जिले को मॉडल घोषित किया जाना है। एक ओर एन.जी.ओ.मार्का विकास की उत्तरआधुनिक अवधारणा को फलीभूत बनाने की दिशा में होने वाले प्रयत्न, दूसरी ओर राजपाकर में बर्बरता की क्रूर मिसाल, इन दो धु्रवों पर खड़े वैशाली के जटिल व बहुआयामी यथार्थ को समझने के लिए सरलीकृत किस्म के सूत्रीकरण काम नहीं आ सकते। भीड़ की स्वत: स्फूर्तता के पीछे काम करने वाली जो ताकतवर धाराएं हैं, उन्हें इस एनजीओ तंत्र और बदलाव, विकास की उत्तरआधुनिक अवधारणाओं के संदर्भ में भी गंभीरता से पकड़ने की कोशिश होनी चाहिए। राजापाकर से आ रहे भविष्य के संकेतों को समझना अत्यंत जरूरी है तभी लोकतंत्र की इस पहली प्रयोग भूमि में सार्थक लोकतांत्रिक हस्तक्षेप किया जा सकेगा।
रंगकर्मी अनीश अंकुर पटना की सांस्कृतिक संस्था 'अभियान` के कार्यकर्ता हैं।
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