October 4, 2007

खबरों का अकाल


मीडिया



  • स्वतंत्र मिश्र


हिन्दी समाचार माध्यमों के पास खबरों की कमी हो जाना एक ऐसी 'बड़ी खबर` है जो कहीं प्रसारित नहीं होतीयह 'खबर` बताती है कि हिन्दी मीडिया का जन सरोकारों से नाता न्यूनतम है

शायह अच्छा होता, अगर यह दुनिया खबरविहीन हो गई होती!! न कहीं हिंसा होती, न भ्रष्टाचार, न मानवाधिकारों का उल्लंघन। न शोषण होता, न ही शोषण के खिलाफ आवाजें। अगर सचमुच ऐसा होता तो हमारे समाचार माध्यमों का यह मसखरापन स्वभाविक होता, तब हमें यह इतना अश्लील न लगता।

दुर्भाग्यवश यह सभी समस्याएं विकराल रूप से हमारे देश, विशेषकर हिंदी पट्टी में मौजूद हैं। पूरी दुनिया आज धर्म बनाम पूंजी के खूनी संघर्ष में उलझी है। एक ओर अमेरिका के साम्राज्यवादी मंसूबे हैं तो दूसरी ओर तीसरी दुनिया के देशों की त्रासद बदहाली। ऐसे में भारतीय मीडिया, खासकर हिन्दी समाचार माध्यमों के पास खबरों का अकाल हो जाना स्वयं एक ऐसी 'बड़ी खबर` है जो कहीं प्रसारित नहीं होती। यह 'खबर` बताती है कि हिन्दी मीडिया की पूरी वफादारी भूमंडलीकरण की मलाई खा रहे लुम्पेन मध्यवर्ग के प्रति है। जन सरोकारों से उसका नाता न्यूनतम है।

पिछल महीने हिन्दी मीडिया के पास दो-तीन ही 'आइटम` ऐसे थे, जिन्हें 'खबर` कहा जा सकता है। उसके अलावा खबरों के नाम पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जो प्रसारित हो रहा था वह निहायत भौंडा था। कहीं कोई कान से गुब्बारा फुला रहा है तो कोई अपनी ससुराल दुबारा बारात लेकर जा रहा है। भूत-प्रेत और कई तरह के बाबा तो थे ही, वे पहले भी रहते थे लेकिन पिछले दिनों 'खबरों` के अभाव में इन्हें एकदम 'प्राइम` वाली प्रमुखता समाचार चैनलों ने दी। आइए देखें, इन हास्यास्पद चीजों के अलावा जो कुछ 'खबरनुमा` प्रसारित होता दिखा, उनके भी निहितार्थ क्या थे?

रा ट्रपति के चुनाव को लेकर समाचार माध्यमों में जितनी आपाधापी मचती रही, तिकड़म आयोजित हुए, शायद भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा पहले कभी भी नहीं हुआ था। खैर, इस खबर से बाहर आने के लिए लाल मस्जिद और लंदन में बम-विस्फोट की खबरों ने मीडिया को अच्छा मौका प्रदान कर दिया। इन दो खबरों ने समाचार-उद्योग को राहत प्रदान कर दी। ये खबरें क्रय-विक्रय के लिहाज से भी ज्यादा मुनाफा देनेवाली थी क्योंकि इनका संबंध 'मुस्लिम` आतंकवाद की दुनिया से जुड़ रहा था। दरअसल हमारे शिक्षा, मनोरंजन, सुरक्षा और न्याय के सारे परनालों में से दिन-रात मुस्लिम विरोध की बातें बहायी जाती हैं।

लाल मस्जिद, पाकिस्तान से सेना के ऑपरेशन की खबर जियो टीवी के सौजन्य से लाइव प्रसारित की जाती रही। अब लाल मस्जिद पर मुर्शरफ की मानें तो कब्जा हो चुका है। प्रत्यक्ष तौर पर तो ऐसा हुआ भी है। लेकिन पाकिस्तान से आनेवाली रोज की बमबारी में हताहतों की संख्या पर गौर करें तो पता चलता है कि प्रतीक रूप में लाल मस्जिद को सेना ने जरूर जीत लिया है, परंतु धर्मांधता की आग शांत नहीं हुई है। हकीकत तो यह है कि दुनिया के किसी भी मुल्क में कभी भी सेना या हथियार के माध्यम से शांति स्थापित नहीं की जा सकी है। यह बात अलग है कि बम और गोलों के दिल दहलाने वाले धमाकों से भय पैदा करनेवाली शांति तात्कालिक तौर पर पा ली जा सकती है। परंतु यह शांति दरअसल आनेवाले तूफान का आगाज होती है।
लंदन में बमबारी के आरोप में तीन भारतीय मुसलमान पकड़े गये। आश्चर्य की बात यह है कि अखबारों और इलैक्ट्रॉनिक चैनलों पर मुस्लिम नेताओं को अपने को भारतीय सिद्ध करने के लिए बयान जारी करना पड़ा। बयान पर जरा गौर फरमायें-'जो एक भारतीय नहीं हो सकता है, वह एक सच्चा मुसलमान भी नहीं हो सकता है।` मुस्लिम संप्रदाय के अंदर असुरक्षा की भावना घर कर चुकी है, इसका साफ संकेत ऐसे बयानों से मिलता है। आखिर पिछले साल जब नांदेड़, महारा ट्र में बम बनाते हुए दो आरएसएस के कार्यकर्ता मारे गये थे तब हिन्दूवादियों को ऐसे स्पष्टीकरण की आवश्यकता क्यों नहीं पड़ी? जाहिर है कि मीडिया और उसके संचालक भी किसी-न-किसी रूप में साम्प्रदायिक मानसिकता से ग्रस्त हैं। मालूम हो, मरनेवाले दोनों कार्यकर्ताओं के थैले से मुस्लिम प्रतीक वाले समान (बुर्का, दाढ़ी आदि) मिले थे।

सीहोर, मध्यप्रदेश में दो आरएसएस कार्यकर्ताओं के पास हथियार बरामद हुए थे। इस घटना के थोड़े दिनों बाद नरसिंहगढ़ और तलेन (राजगढ़) में अल्पसंख्यकों के घरों पर हमला किया गया था। इसमें दोनों ओर से पांच लोगों की जान गयी थी। यह खबर भी मीडिया के लिए कोई बड़ी खबर नहीं बन पायी। इन खबरों के उलट अगर किसी मुस्लिम संगठन के पास से हथियार बरामद किये जाते हैं तो हिन्दूवादी संगठन और साम्प्रदायिक मीडिया उस संप्रदाय विशेष के भारतीय होने पर ही उंगली उठाना शुरू कर देता है।

भूमंडलीकरण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद से अखबार के दफ्तरों में टेलीवीजन लगने लगा और अब समाचार के दफ्तर कॉरपोरेट हाउस में तब्दील होने लगे। यही कारण है कि समाचार पत्रों का चरित्र भी बदल गया। अब वहां आम जन की खबरों की जगह बड़े-बड़े धनपशुओं की पार्टियों में उफनते शराब और शबाब की खबरें प्रमुखता पाती हैं।
इधर, दिल्ली राज्य में परिवहन की दिक्कतों को लेकर खबरें तेजी से आने लगी हैं।'कातिल ब्लू-लाइन` और 'ब्लू-लाइन की किचकिच` आदि देकर खबरें प्राय: सभी चैनलों पर चलायी जा रही हैं। 'ब्लू-लाइन` पर प्रतिबंध लगाने की खबर बहुरा ट्रीय कंपनी के हित से जुड़ी हुई है। दिल्ली सरकार ब्लू-लाइन बस ऑपरेटरों से बार-बार गुजारिश कर रही है कि वे कॉरपोरेट हाउस का निर्माण कर लें। कॉरपोरेट हाउस तैयार करने के लिए सरकार टाटा, आईएल एंड एफएस की ओर देख रही है। एक कॉरपोरेट हाउस के अन्तर्गत कम-से-कम १०० बसें रखने के प्रावधान पर विचार किया जा रहा है। इसी तरह का प्रस्ताव मुंबई हाई कोर्ट ने कुछ समय पहले 'फ्लीट ओनरशिप` नाम से लाया था। इसके अधीन ५००-१०,०० टैक्सी जिसके पास होगी उसे ही परमिट दिया जाएगा। दरअसल इस व्यवस्था से बहुरा ट्रीय कंपनियां मालामाल होंगी। दिल्ली सरकार इस अभियान के अर्न्तगत डीटीसी का घाटा पूरा करेगी। डीएमआरसी या मेट्रो रेल को इस अभियान का भरपूर फायदा पहुंचेगा। ब्लू-लाइन पर यह इलजाम लगाया जा रहा है कि इसके चालक लापरवाह हैं और आये दिन लोगों को इसकी लापरवाही का अंजाम भुगतना पड़ रहा है दिल्ली सरकार और खासकर मीडिया को क्या यह अचानक खबर लगी कि ब्लू-लाइन इन घटनाओं के लिए जिम्मेवार है? दिल्ली में हर रोज औसतन ४-५ लोग सड़क दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं। दिल्ली सरकार ने बसों में स्पीड गर्वनेंस लगाने का आदेश दिया है। ठीक है, कि यातायात तेज होने के कारण घटनाओं में वृद्धि होती है। फिर ऐसा क्यों है कि दिल्ली में जितने भी फ्लाईओवर का निर्माण हो रहा है, या पिछले कुछ वर्षों में हुआ है, उनमें से एक पर भी पैदल चलने वालों या साइकिल चालकों के लिए लेन की सुविधा नहीं है? दिल्ली सरकार का कहना है कि वे कुछ समय में दिल्ली के रिंग रोड को रेड लाइट से फ्री कर देगी। इसका मतलब यह है कि रिंग रोड पर गाड़ियां बगैर किसी बाधा के चलेंगी। क्या ऐसी हालत में पैदल और साइकिल पर चलने वाले इन अबाध गति या फर्राटे से चलने वाली गाड़ियों के नीचे नहीं आयेंगे? दरअसल यह सारी कवायद बहुरा ट्रीय कंपनियों के सेवार्थ की जा रही है। अभी किसी के पास एक, किसी के पास दो तो किसी के पास पांच बसें हैं। वे अपनी इच्छा के मालिक हैं। परंतु कॉरपोरेट हाउस के निर्माण होने से कुछ कॉरपोरेट हाउस होंगे और सारी बसें उनके अधीन चला करेंगीं। राज्य सरकार के लिए उन्हें अपने मन-मुताबिक हांक पाना आसान हो जाएगा। लेकिन तब किराया में वृद्धि पर नियंत्रण केवल कॉरपोरेट हाउस के हाथों में होगा। वे सुविधा के नाम पर लोगों की जेंबे काटेंगें।

इसके अलावा, खबरों के नाम पर कुछ खबरें स्थायी भाव लिए टेलीवीजन पर इस प्रकार की होती हैं, जिससे लोगों के जायके की पूर्त्ति तो हो सकती है, परंतु उनकी समझ का स्तर कभी भी ऊपर नहीं उठाया जा सकता है। कहीं से बजरंग बली के रोने की खबर आती है तो कहीं से बछड़े के माथे पर ओम उभर आने की। किस सितारे ने कितनी अंगूठी पहनी है और किस नेता ने अंक गणना के आधार पर अपने कार का नम्बर या नौकरों की तैनाती की है आदि। लगभग हरेक समाचार चैनल पर ज्योति पर आधारित कार्यक्रम दिखाये जाते हैं। कुछ चैनलों पर बहादुरी के नाम पर अपनी जीभ में कील घुसेड़ने, सांप से कटवाने या माथे पर हथौड़े से प्रहार करने की खबरें नियमित परोसी जा रही है। विडंबना यह है कि इन तथाकथित खबरों के प्रसारण के बीच देश की मूल समस्याओं से जुड़ी खबरों का हश्र क्या हो रहा है, इसका अंदाजा भी नहीं लग पा रहा है। इन खबरों पर कोई लगाम नहीं होने से विस्थापन, दलित थी उत्पीड़न, बाल शोषण, बेरोजगारी, महंगाई आदि से जुड़ी खबरें परिदृश्य से गायब हो गई हैं। देश में विभिन्न मुद्दों को लेकर जंतर-मंतर पर हरेक महीने ३ हजार से ज्यादा धरने, प्रदर्शन आयोजित होते हैं, उनकी खबर देश क्या दिल्ली को भी नहीं लग पाती है। सेज को लेकर पश्चिम बंगाल में लगातार आंदोलन अपने चरम पर है, रोज वहां विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, कितनी खबरें मीडिया में आ पाती हैं? बिहार में एक तरफ माओवादी हिंसा तो दूसरी तरफ बाढ़ का ऊफान है। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड आदि जगहों पर राज्य द्वारा प्रायोजित उत्पीड़न की घटना में वृद्धि हुई है, कितनी खबरें हमारे खबरिया चैनलों में है? वस्तुत: मीडिया के पास तो खबर हरेक घटना की होती है परंतु सवाल वर्ग-दृटि टकोण या पक्षधरता का है। हमारे मीडिया-उद्योग को संचालित कौन सी पूंजी कर रही है? इस सवाल पर गहराई से सोचने पर मीडिया की समाचार-शून्यता का हिसाब हम बेहतर ढंग से लगा पायेंगे।

No comments:

Post a Comment