- रजनीश उपाध्याय
पिछले १३ सितंबर कैं वैशाली जिले के राजापाकर थाना के ढेलपुरवा गांव में भीड़ ने १० लोगों को चोर बता कर पीट-पीट कर मार डाला। पुलिस की जांच रिपोर्ट में उजागर हुआ है कि वे चोरी के लिए नहीं, बल्कि बिन बुलाये मेहमान बनकर भोज खानेे गये थे। आक्रोशित भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्या की इस वीभत्स घटना के बाद हरकत में आयी सरकार ने जिलों कैं निर्देश जारी किया कि जहां भी ऐसी घटनाएं हों, वहां भीड़ में शामिल लोगों की पहचान कर उनके खिलाफ मुकदमा किया जाये और सामूहिक जुर्माना भी लगे। लेकिन, सरकार के सख्त निर्देश का असर तो नहीं दिखा, उल्टे त्वरित न्याय के नाम पर जान लेने, पिटाई करने की घटनाएं बढ़ गयी हैं। २१ सितंबर कैं पटना सिटी के सुल्तानगंज थाना क्षेत्र में दो बदमाशों की लोगों ने पीट-पीट कर जान ले ली। २२ सितंबर कैं गोपालगंज के कुचायकैंट में ऐसी ही घटना घटी और २५ सितंबर कैं तो हद हो गयी, जब सूबे के विभिन्न जिलों में ऐसी पांच घटनाएं दर्ज हुइंर्। यानी १२ दिनों में ही १८ लोगों की हत्या क्रूर भीड़ ने कर दी। १५ सितंबर कैं सरकारी निर्देश जारी होने के बाद दस दिनों के भीतर आठ लोग मारे गये हैं।
अपराध खत्म करने के नाम पर अपराधियों से निबटने का यह नया ट्रेंड बिहार के गांवों-शहरों में फैल रहा है-आरोप साबित होने के पहले और बचाव का मौका दिये बगैर मौके पर ही कथित 'त्वरित न्याय`! बिहार में पिछले ढाई माह में करीब ४० लोगों की हत्या की जा चुकी है। गौर करने वाली बात यह है कि जो मारे गये, उनमें कैंई गैंगस्टर, अंडर वर्ल्ड का सरगना या शातिर अपराधी नहीं था। कुछ के खिलाफ चोरी, राहजनी जैसे छोटे-मोटे अपराध दर्ज थे। कुछ का तो आपराधिक इतिहास भी नहीं था। जिन अपराधों के आरोप में वे मारे गये, वे भी चोरी, मोटरसाइकिल लूट या राहजनी जैसे छोटे-मोटे अपराध थे।
जब तक छिटपुट रूप से यह सब कुछ होता रहा, लोगों ने इसे अपराध के खिलाफ जनता के साहसिक कदम के रूप में चिन्हित किया। जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा तो सरकार, मीडिया और कैंर्ट सबकी चिंता बढ़ी है।
भोजपुर जिले के बलबतरा में पिछले साल नट जाति के चार लोगों की एक साथ गांव के लोगों ने हत्या कर दी थी। इसी घटना ने बिहार में उभर रहे 'भीड़ के न्याय` के इस नये ट्रेंड की ओर देश भर का ध्यान खींचा। बलबतरा में जो मारे गये, उन पर भैंस की चोरी का आरोप था। नौ सितंबर कैं भागलपुर के नाथनगर में एक महिला का चेन लूटने के आरोपी सलीम की भीड़ ने पिटाई की और दो पुलिसवालों ने उसके पैरों को मोटरसाइकिल के पीछे बांधकर सैकड़ों लोगों व मीडिया के कैमरे के सामने सड़क पर घसीटा। इस पुलिसिया बर्बरता में कथित चोर का पैर टूट गया और वह बुरी तरह घायल हो गया। घटना की खबर प्रसारित होते ही राज्य सरकार ने दोषी पुलिसवालों को बर्खास्त कर दिया। बाबजूद इसके इस घटना से यह तो स्पष्ट हुआ ही कि जिस पुलिस पर कायदा-कानून को अमल में लाने की जिम्मेदारी है, वह उस क्रूर भीड़ से अलग नहीं है।
१३ सितंबर कैं वैशाली जिले के राजापाकर के ढेलपुरवा में एक साथ १० लोगों की हत्या हुई, तो इस पर देश में बहस शुरू हुई है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बिहार सरकार कैं नोटिस जारी किया है और सुप्रीम कैंर्ट कैं भी देरी से न्याय मिलने के बारे में चिंता हुई है। सुप्रीम कैंर्ट ने २५ सितंबर कैं एक पुराने मामले में सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की है कि मुकदमों के निबटारे में बहुत लंबा समय लगने के कारण ही लोग कानून अपने हाथ में लेने लगे हैं और यदि इस दिशा में तत्काल ठोस कदम नहीं उठाये गये, तो स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। सुप्रीम कैंर्ट ने जिस मुकदमे की सुनवाई करते हुए राजापाकर कांड के संदर्भ में यह टिप्पणी की, वह मुकदमा ५० साल पहले मछली मारने के एक विवाद से जुड़ा था। उसके बाद ४ अक्टूबर को दिल्ली में इंटलिजैंस ब्यूरो द्वारा आयोजित सम्मेलन में पुलिस के उच्चाधिकारियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी लोगों द्वारा कानून हाथ में लेने की घटनाओं पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि पुलिस व्यवस्था से असंतोष बढ़ने के कारण ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं। साथ ही उन्होंने पुलिस को स्वयं को 'लोकमित्र` के रूप में पेश करने की आवश्यकता बताई।
पीयूसीएल की रिपोर्ट बताती है कि २००५ में बिहार में प्रतिमाह १४ ऐसे मामले दर्ज किये गये, जिनमें लोगों ने पीट-पीट कर २२ लोगों की हत्या की। २००६ में इसमें थोडी कमी आयी। लेकिन, इस साल ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं।
ऐसी घटनाएं महज आकस्मिक नहीं हैं। इसे सिर्फ अपराध या कानून-व्यवस्था के दायरे में देखना वास्तविकता से मुंह चुराने जैसा होगा। यदि बिहार में अपराध बढे हैं, तो भी यह सिर्फ कानून-व्यवस्था के बिगड़ते जाने का मामला नहीं है। इसका संबंध कहीं-न-कहीं बिहार के सामाजिक-आर्थिक संकट से जुडा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बिहार की एक बड़ी आबादी (करीब ४० फीसदी) गरीबी रेखा से नीचे रहती है। जिस फार्मूले पर यह गरीबी की रेखा मापी गयी है, उस पर भी सवाल उठे हैं। सरकारी दस्तावेज में जिन्हें गरीब माना गया है, असल में वे दरिद्र हैं। बिहार में गरीबों की संख्या तो कम-से-कम सवा करोड़ है। इससे इतर एक और दुनिया है बिहार में। हाल ही में एक अखबार में खबर छपी कि सत्तारूढ़ दल के एक विधायक के नगद एक करोड रुपये एक बैंक से गुम हो गये और बाद में उक्त बैंक ने ७० लाख रुपये उक्त विधायक कैं लौटा दिये। यह बिहार में आर्थिक खाई के चौड़े होते जाने का एक नमूना भर है। पिछले डेढ़ दशक में बिहार बाकी राज्यों के मुकाबले पिछड़ता गया है। सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार बढ़ा है। सरकारी योजनाओं का एक बड़ा हिस्सा समाज के सिर्फ उन तबकों तक पहुंचता है, जिनका सत्ता से वास्ता है। यद्यपि इस असमानता का कोई सीधा संबंध भीड़ द्वारा छोटे अपराधियों की हत्या से स्थापित नहीं किया जा सकता। लेकिन इन स्थितियों में व्यवस्था के खिलाफ उपजा आक्रैंश समाज में कुंठा के रूप में तो मौजूद है ही। इस आक्रोश की कोई दिशा नहीं है, सो यह विभिन्न रूपों में फूट रहा है।
बलबतरा, राजापाकर, नाथनगर या इस जैसी दूसरी घटनाओं के कई संकेत हैंं। एक संकेत यह भी है कि सार्वजनिक सम्पत्ति की लूट स्वीकार्य है और यह लोगों को विरोध के लिए प्रेरित नहीं करता। सरकारी महकमों में योजना राशि में लूट व भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकतांत्रिक या गैर लोकतांत्रिक लड़ाई नहीं दिखती हैै। लेकिन, व्यक्तिगत सम्पत्ति के नुकसान पर गुस्सा जरूर फूट रहा है। अब तक का आकलन यह भी बताता है कि हाल की घटनाओं में जो मारे गये, वे कमजोर जातियों से आते थे। निशाना निहत्थे लोग ही बन रहे हैं। समाज में व्यवस्था और स्टेट के खिलाफ अविश्वास और आक्रैंश में इजाफा हुआ है। लोगों में यह धारणा मजबूत होती जा रही है कि स्टेट फेल हो रहा है और अब उससे किसी बात की उम्मीद करने का कैंई मतलब नहीं है। इस धारणा कैं प्रचारित-प्रसारित करने में खुद स्टेट का भी योगदान कम नहीं है। हाल में बिहार की विभिन्न जगहों पर घटी घटनाएं इसकी भी पुष्टि करती हैं।
अपराध से निबटने की यह नयी प्रवृत्ति अंततोगत्वा दबंगता बनाने और उसे बचाए रखने का जरिया भी है। ऐसी प्रवृत्ति से सिर्फ कानून से नहीं निबटा जा सकता। ऐसे में कार्यभार तो उन्हीं के ऊपर है, जो समाज के बदलाव में यकीन करते हैं।
पत्रकार रजनीश उपाध्याय प्रभात खबर के पटना संस्करण से जुड़े हैं।
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