October 30, 2007

कहां गई रुपाली?


  • गुलरेज़ शहज़ाद



हम सभी जानते हैं कि दस बंजारों के साथ क्या हुआ। लेकिन क्या हमें यह जानने की जरूरत है कि आखिर रुपाली का क्या हुआ? रुपाली अपने परिजनों के लिए ढंग से रो पाई भी या नहीं? शवों को कथित मुखाग्नि देने वाला युवक पकासुर कुरेड़ी कहां गायब हो गया?


जंगल और आबादी की तहजीबों का फर्क नंगा हो चला है। जमात के चेहरे पर क्रूरता का कालिख है। राजापाकर कांड में संवेदना का यह बांझपन भी खुलकर सामने आया। कहते हैं, बंजारों की तहजीब जंगल से संस्कारित है, लेकिन उनके पैरों के चक्कर में पृथ्वी नाचती है। निदा फाज़ली ने कहा था-'जंगल बंजारों के मीत..`। तो क्या कथित सभ्य समाज की आबादी बंजारों के लिए वर्जित है? जब जंगल हमारे लिए वर्जित नहीं, तब बंजारों के लिए हमारी आबादी का साथ वर्जित कैसे?
वैशाली के राजापाकर थाना के ढेलफोरवा चौक पर घूसखोरों, घोटालेबाजों, डकैतों और आदमखोरों के हाथों अपने भविष्य की बागडोर सौंप देने वाले सभ्य समाज के लोगों को शक्ति-प्रदर्शन का बेहतरीन अवसर हाथ लगा। दस को सैकड़ों ने घेरा और वे मार दिए गए। उन पर आरोप था चोरी का। जिसके बदले में उन्हें प्राण-दण्ड दे दिया गया। दरअसल, उन्होंने जंगल और आबादी की तहजीबों को फर्क भूलने की गलती की थी। उन्होंने आबादी को अहम् को भूलने की गलती की थी। अब आप ही कहें, क्या यह कम बड़ा अपराध था?

सैकड़ों की जमात जब उन पर हमलावार हुई होगी, तो क्या उनकी चीखें नहीं निकली होंगी? हो सकता है उनकी चीखों में आवाजें नहीं हों, या सभ्य समाज के 'ललबबुआंे` की चीखों और बंजारों की चीखों में कोई अन्तर रहा हो या, दर्द से उनका छटपटाना भी लोगों को करतब जैसा ही कुछ लगा हो, तभी तो उन्हें गैर जरूरी समझ कर मार दिया गया।

घटना के बाद सराय स्टेशन के निकट लगा बंजारों का तम्बू उखड़ गया। उनका पूरा कुनबा डर की आहट अपने साथ लिए पलायन कर गया। हादसे की जमीन पर अपने परिजनों के शव के लिए ठहर गई एक महिला रुपाली और बारह वर्षीय बालक पकासुर कुरेड़ी। प्रशासन के मुताबिक पकासुर कुरेड़ी के हाथों शवों का दाह संस्कार करवा दिया गया। वहीं दूसरी ओर नदी की इमानदारी कहिए कि उसने लाशों को उगल दिया। नदी की सूखी रेत की तरह प्रशासन का दावा नंगा हो गया। दाह कर्म के लिए उपलब्ध कराई गई राशि जितनी भी हो, लकिन सुशासन के कफन चोर अधिकारियों का कुरूप चेहरा हमारे सामने है।

हम सभी जानते हैं कि दस बंजारों के साथ क्या हुआ। लेकिन क्या हमें यह जानने की जरूरत है कि आखिर रुपाली का क्या हुआ? रुपाली अपने परिजनों के लिए ढंग से रो पाई भी या नहीं? शवों को कथित मुखाग्नि देने वाला पकासुर कुरेड़ी कहां गायब हो गया? वहां उनके जीवन की सुरक्षा की क्या गारंटी है?

यदि आपकी रूचि रुपाली और उसके कुनबे की नियति जानने में है तो एक दैनिक के पटना संस्करण के २०वें पन्ने पर दुबकी यह खबर देखें। यहां उस संवेदनहीनता के संकेत मौजूद हंै, जिसे यह कथित सभ्य समाज ने हाशिए के लोगों के लिए सृजित किया है :-

'अपराध अनुसंधान विभाग के अधिकारियों ने उन्हें (मारे गए लोगों के परिजनों को) छपरा में ढूंढ निकाला है। अभी सोनपुर राजकीय रेल पुलिस थाने के सामने प्लेटफार्म संख्या एक पर यह कुनबा ठहरा है। प्रशासन ने फिलहाल इन महिलाओं को खाने के लिए सौ-सौ रुपए दिए हैं। घटना की पूरी तस्वीर साफ करने और मारे गए बंजारों के आश्रितों के पुनर्वास की सरकारी घोषणा को अमल में लाने के लिए उन्हें प्रशासन ने अपने संरक्षण में ले रखा है। अधिकारी उन्हें वैशाली डीएम से भी मिलवाएंगे।

रुपाली की गोद में उसकी छोटी बच्ची मूली है। पति घटना के कई माह पहले से नेपाल में कहीं काम कर रहा है। देवर जूगनू को भीड़ ने मार डाला। उस कुनवे में एकमात्र रुपाली ही पकासुर कुरेड़ी उर्फ विक्रांत नामक बालक के साथ घटना के दिन सदर अस्पताल में परिजनों के शव देखने पहुंची थी। बाद में शवों के दाह संस्कार का प्रशासनिक ड्रामा हुआ। रुपाली कहती है-लाशों को बिना जलाए नदी में फेंकने के बाद अधिकारियों ने दोनों को भगा दिया था। पकासुर भी गुमसुम बैठा है। उसके पिता सुलेटन और चाचा गुलेटन को भी पगलाई भीड़ ने मार डाला था। महिलाएं कहती हैं, घटना के बाद कुछ शरारती तत्वों ने सराय स्टेशन के पास उनके पड़ाव पर धावा बोल सब कुछ लूट लिया था। डर से दो-चार बचे हुए पुरुष सदस्य कहीं भग खड़े हुए। अब तक उनका पता नहीं कि वे कहां गए। महिलाओं ने इन बच्चों के साथ पश्चिम की ओर रुख किया और छपरा स्टेशन में पड़ाव डाला। वे बताती हैं, सभी बंजारे समस्तीपुर जिले के सरसौना में लंबे समय से एक जमीन पर झोपड़ी बनाकर रहते थे। लगभग २५ वर्ष पूर्व जमीन वाले ने उन्हें उजाड़ दिया। तबसे सभी इधर-उधर जहां थोड़ी ढौर मिली, पड़ाव डालकर गुजरा करते हैंं। कुनबे में कोई भी साक्षर नहीं। बच्चे नहीं जानते कि स्कूल क्या होता है। सरकार की किसी भी योजना का लाभ उन्हें नहीं मिलता। वोटर लिस्ट में भी नाम नहीं।` (दैनिक हिन्दुस्तान, ०१, अक्टूबर, ०७)। इसके बाद ५ अक्टूबर को प्रकाशित एक और समाचार में देखें इस व्यवस्था द्वारा बनाये खौफ का मंजर :-'प्रशासन की अभिरक्षा में रह रहे इस कुनबे की सुरक्षा के लिए दिन में एक और रात के लिए दो लाठीधारी जवानों का कमान पुलिस प्रशासन की ओर से रोज कटता है पर इनके पेट की ज्वाला के लिए कोई व्यवस्था अब तक नहीं की गई है। इस संवाददाता ने सोनपुर रेलवे प्लेटफार्म संख्या-१ का दौरा किया तो कुरेड़ी कुनबे की अभागी महिलाएं रो रहीं थीं। वहां तैनात सिपाही मिलन शाह ने बताया कि ये सभी दो दिन से भूखी हैं। सभी महिलाएं अक्सर रोती रहती हैं। उसने साहब को खबर कर दिया है, अब ब्लॉक से कुछ मिलने वाला है। ..कुरेड़िनों का कहना था कि कोई कुछ करे न करे कम से कम उन्हें कहीं आने-जाने की आजादी तो मिले ताकि वह अपने और बच्चों के पेट की ज्वाला तो शांत कर सकें।`
राजापाकर प्रकरण में प्रशासन वही कर रहा है जो उसका कार्य संस्कार रहा है। जीवन के संघर्ष में लगे आम लोगों का चरित्र ही जब संवेदनशून्यता का शिकार हो, ऐसे में जीवन को हांकने के लिए हाथों में पावर का डंडा लिए हुए पुराने जमाने के राजाओं की नई नाजायज नस्ल से क्या उम्मीद की जा सकती है?

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