याद
( हिन्दी के सुप्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर का पिछले २७ जनवरी २००७ की रात दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। ६ जनवरी १९३२ को उत्तर प्रदेश के कस्बे मैनपुरी में जन्मे और इलाहाबाद में पढ़े-लिखे कमलेश्वर ने पचास के दशक में लिखना शुरू किया और अपने आरंभिक लेखन से ही हिन्दी संसार का ध्यान आकर्षित किया। राजेन्द्र यादव और मोहन राकेश के साथ नयी कहानी का आंदोलन खड़ा करने वाले कमलेश्वर ने १९७० के दशक में 'सारिका` जैसी बहुचर्चित कथा-पत्रिका का संपादन किया और युवा लेखकों के साथ मिलकर एक बार फिर एक नये कथा आंदोलन 'समांतर` को जन्म दिया। उन्होंने कहानियां और उपन्यास तो लिखे ही जमकर पत्रकारिता और फिल्म-टी.वी स्क्रीप्ट लेखन भी किया। वे हमेशा विवादों में रहे। आज जिस दलित साहित्य की हिन्दी में चर्चा है उसका परिचय कमलेश्वर ने ही हिन्दी पाठकों से कराया। १९७५-७६ में सारिका के दो विशेषांक मराठी दलित साहित्य पर प्रकाशित हुए थे। इसके द्वारा ही हिन्दी पाठकों ने मराठी के दलित लेखकों को जाना। अपनी राजनीति को लेकर भी वे खासे चर्चित रहे। पिछले दिनों प्रकाशित उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान` एक बार फिर चर्चित और विवादित रहा। इस पर उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड भी मिला। पद्म भूषण सहित अनेक अलंकरणों से सम्मानित कमलेश्वर पूरी जिन्दगी आम आदमी के लिए अपने लेखन के द्वारा संघर्ष करते रहे। जन विकल्प उनकी स्मृति को श्रद्धांजलि अर्पित करता है। उनके साहित्यकार मित्र राजेन्द्र यादव का एक पुराना आत्मीय लेख (लगभग ३५ वर्ष पूर्व लिखा गया) हम आदर के साथ प्रकाशित कर रहे हैं। -संपादक)
- राजेन्द्र यादव
लेकिन कमलेश्वर शक्ल से शैतान नहीं, तेज और इंटेलिजेण्ट लगता है। हां, यह हो सकता है कि दुष्यन्त ने कमलेश्वर को कैदियोंवाली उस पोशाक में देखकर ऐसा कहा हो, जिसे वह गर्व से नाइट-ड्रेस बताता है, या इलाहाबाद में अश्कजी के यहां उमेश की शादी पर उसे बाकायदा साबुन और ब्रुश लेकर मेरी और राकेश की हजामत बनाते देख लिया हो। लेकिन मूलत: कमलेश्वर शैतान नहीं, दुष्टऱ्यानी मिसचीवियस-अधिक लगाता है। शीन-काफ से दुरूस्त तलफ्फुज, साफ और तराशी हुई संतुलित आवाज, बात को निहायत प्रभावशाली तरीके से कहने की कला, पतले-पतले होंठ, तीखे और फोटोजिनिक नक्श, सांवला रंग और शातिर आंखें.. लगता है जैसे आप सचमुच किसी समझदार आदमी से बातें कर रहे हैं-एक हाथ की उंगलियां खोल-खोलकर, मेज पर हाथ पटक-पटककर वह आपको घंटों किसी ऐसी किताब, फिल्म, घटना, कहानी या चीज़ के बारे में विस्तार और पूर्ण आत्म-विश्वास से बताता रहेगा, जिसे न उसने पढ़ा है, न देखा है..
इसलिए दुष्यन्त की इतनी बात सच है-कमलेश्वर अव्वल नम्बर का 'झूठा` है। मुंह से जब वह 'झूठ` बोलता है, तो एक अच्छी कम्पनी होता है और कलम से बोलता है तो सफल कहानीकार।
हर 'झूठा` और पढ़ा-लिखा आदमी कहानीकार नहीं हो सकता, वरना आज सारे-के-सारे प्रयागवासी कवि, आलोचक, कहानीकार हो गये होते और उनके व्याख्याकारों की कहानी भी आधुनिक संवेदनाओं को वहन कर सकनेवाली विधा लगने लगी होती-लेकिन हर कहानीकार को कहीं-न-कहीं 'झूठ` को साधना जरूर पड़ता है। यह न हो, तो उसकी कला और फोटोग्राफी में फर्क करना मुश्किल पड़ जाये। लेकिन कमलेश्वर ने झूठ को आदत बना लिया है। अपने एक प्रेम-सम्बंध को लेकर, पहले वह झूठ बोला करता था; आज उसे ऐसे किसी बहाने की आवश्यकता नहीं है। जाने उसके कितने भाई और चाचा हैं, जिनके अकसर एक्सीडेंट हो जाते हैं और वह अपने वादे और एपॉइण्टमेंट निभा नहीं पाता। इसके अलावा अपनी तरफ से गढ़-गढ़कर झूठ बोलना, या घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर, नमक-मिर्च लगाकर सुनाना उसकी प्रिय हॉबी है, और उसने हम सब के बारे में कुछ बहुत ही दिलचस्प चुटकुले गढ़ रखे हैं। इन्हें सुना-सुनाकर अकसर महफिलों में वह कहकहे बटोरता है और 'खिंचाई करने` का आनन्द पाता है। दर्जनों चण्डूखाने के किस्से उससे आप सुन लीजिए। इनका उद्देश्य केवल दूसरों की टांग खींचकर मजा लेना है : लेकिन जिन लोगों से उसकी लगती है, उनके किस्सों में जहरीला डंक देना भी वह जानता है।
मेरा व्यक्तिगत परिचय कमलेश्वर से उन दिनों हुआ, जब दुष्यन्त, मार्कण्डेय और कमलेश्वर का त्रिशूल, त्रिवेणी का त्रास बना हुआ था। इन तीनों में सब से छोटे कद के, साफ कुरता-पाजामा पहने, लड़के-से लगनेवाले कमलेश्वर को ही मैंने सब से अधिक जिन्दादिल वार्तालापकर्ता के रूप में पाया। आज-जैसी टेढ़ी और सी.आई.डी. इन्सपेक्टरवाली मक्कार निगाहें तब उसके पास नहीं थीं, और देखने में मासूम लगता था, लेकिन बहुत ही हाजिरजवाब, पुरमजाक, समझदार और तेज वह तब भी था। दिल्ली का एक छोटा-सा किस्सा इस सिलसिले में सुनाये बिना नहीं रहा जा रहा।
एक भूतपूर्व आलोचक और नयी कविता के शास्ता कवि को दिल्ली रेडियो ने कुछ अपेक्षाकृत अधिक नये कवियों के साथ बुक कर लिया था, इसलिए जब प्रोग्राम के बाद वह बाहर निकले, तो निहायत भन्नाये हुए थे-चेहरा उतरा हुआ और पांव लड़खड़ाये हुए..सीधे स्टेशन की सवारी लेकर इलाहाबाद का टिकट लेने को उतारू। रेडियो और गैर-रेडिया के ये लोग दुनिया-भर की टीका-टिप्पणियां करते हुए पार्लियामेंट-स्ट्रीट पर चले आ रहे थे, लेकिन कवि जी एकदम चुप। कमलेश्वर से नहीं रहा गया और निहायत ही संजीदा स्वर में बोला, 'साहब, क्या आप घंटे-भर के लिए मुझे अपना चेहरा उधार दे देंगे?` सब लोग चौंकेऱ्यह क्या मांग है? कवि ने प्रश्न-दृष्टि से देखा, गला सूखा हुआ होगा, इसलिए इशारे से ही पूछा, 'क्यों?` 'बस, सिर्फ घंटे-भर को ही चाहिए। फिर लौटा दूंगा।` अब सबने आग्रह किया, 'क्यों भाई, आखिर मकसद तो बताओ!` तो निहायत मासूम लहजे में जवाब देता है-धीरे से, 'मार खाने को मन करता है!` बात शायद बहुत चुभ जाती, लेकिन कमलेश्वर का अन्दाजेब़यां.. वे कहकहे पड़े कि क्या कहना!
हां, तो मैं कह रहा था कि निहायत यथार्थवादी हाव-भाव, प्रभावशाली मुद्रामूड, साफ-सुथरी जबान, चरम आत्मविश्वास-भरा लहजा और उसे अर्थ देने का अपना व्यक्तित्व-और सारा ठाठ एक मूलत: 'झूठी` बात के लिएऱ्यह कमलेश्वर व्यक्ति नहीं, कथाकार है। काल्पनिक कथ्य, वास्तविक लगनेवाला कथानक और घोर यथार्थवादी परिवेश.. मैं इसे उसकी कला का गुरू मानता हूं और दिल्ली की जिन्दगी पर लिखी कई कहानियों तक में इसके भग्नावशेष हैं..शायद इसे ही रोमांटिक यथार्थवाद कहते होंगे, जो कृश्नचंदर में अपने सारे दोषों और खामियों के साथ मौजूद है। मैं अपने को पाठकों के उस दल में पाता हूं, जो कमलेश्वर की जबान पर मुग्ध हैं, लेकिन इस सत्य का ज्ञान मुझे सब से पहले उसकी 'नीली झील` कहानी पढ़कर हुआ। 'नीली झील` की भाषा, उसका वातावरण, उसकी शैली की सांकेतिकता, और एन्द्रिय बोध के अनेक स्तरों को छू सकने वाली बिंबऱ्योजना सभी ने मुझे इतना आच्छान्न कर लिया कि पहली बार तो मैं चकरा गया। जब दुबारा पढ़ा, तो लगा कि और तो सब ठीक है, लेकिन मूल बात में कुछ गड़बड़ है.. फिर कुछ समय बाद तो अपने-आप साफ हो गया कि एक असंभाव्य कहानी को यथार्थवादी जामा पहना दिया गया है; यानी निहायत सुरूचिपूर्ण, शिक्षित और सुसंस्कृत सौन्दर्यबोध और संवेदनावाले शहरी नवयुवक कवि को महेस पाण्डे का शरीर दे दिया गया है। 'राजा निरबंसिया` में भी यही कमजोरी थी, लेकिन दुहरी कथा का शिल्प उसे संभाल ले गया था। जहां यह कुंजी मेरे हाथ लगी, तो पाया कि 'तीन दिन पहले की रात`, 'डाक बंगला`, 'एक सड़क सत्तावन गलियां`-सभी का रहस्य मेरे सामने खुलता चला जा रहा है..कि क्यों 'नीली झील` में पानी की छोटी-से-छोटी लहरीली सलवट और उस पर तैरता मरा पक्षी, खून की लाल धार और मुलायम घास, सभी-कुछ याद आता है-नहीं याद आते, तो महेस पाण्डे और पारबती.. कि क्यों डाक-बंगला में चीड़-वन का एक-एक पेड़, पहाड़ी पगडण्डी पर दौड़ता घोड़ा, बर्फीली सुनसान घाटी में भटके हुए लोग-सभी याद रहते हैं, नहीं याद रहती, तो खुद वह औरत, जिसके बूते पर डाक बंगले का प्रतीक गढ़ा गया है..'एक सड़क सत्तावन गलियां` का बस का अड्डा (जिसे मैं शानी के कस्तूरीबाले बस के अड्डे से कभी-कभी कनफ्यूज कर जाता हूं), वहां आती बसें, उड़ती हुई धूल, आवाजें लगाते बीड़ी पीते क्लीनर-ड्राइवर, रामलीला.. सभी दृश्य सामने आते हैं..
कभी-कभी मुझे आश्चर्य हुआ करता था कि जिस व्यक्ति की निगाह से वातावरण का महीन-से-महीन डिटेल और नाजुक-से-नाजुक रेशा न छूटे, जो जड़ परिवेश को सजीव मूड दे देने की कला में माहिर हो, उसकी आंख कथानक और व्यक्तियों की मोटी-मोटी असंगतियों पर क्यों नहीं जाती? और क्यों काश्मीर का ऐसा खूबसूरत यथार्थवादी वर्णन देने वाली कलम अगली ही सांस में सुंदरनगर के ठेकेदार का बकवास सुनाने लगती है? मुझे लगता है कि कमलेश्वर का यही कॉन्फ़िडेंस उसे गलतफ़हमी देता रहा है कि सामने वाला उसकी मनगढ़न्त कहानी को सिर्फ इसलिए गले उतारता जायेगा कि उसे बहुत आत्मविश्वास, खूबसूरत जबान और सही हाव-भाव के साथ बात को कहने की कला आती है...
लेकिन इधर मैं देख रहा हूं कि 'कसबे के कहानीकार` का स्टंट सफल कर चुकने के बाद से ही कमलेश्वर अपनी इस कमजोरी से पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि लेखक चाहे जितना झूठ बोले, जिन्दगी में चाहे जितना बहके, उसका दर्द और गलत करने का अहसास सब से ज्यादा उसे ही खाता है। लोग भूल जाते हैं, लेकिन वह खुद नहीं भूल पाता कि वह एक बिखरा और मरोड़ा हुआ व्यक्तित्व लेकर जी रहा है-जीने को मजबूर है। अनुभूति और कचोट की यह तीव्रता ही बताती है कि कहीं वह संवेदनशील और ईमानदार प्राणी है, वरना भटकन और खोयेपन के दर्द को वह 'खोयी हुई दिशाएं`-जैसी जबर्दस्त कहानी में कैसे उतार पाता? जाने-अनजाने गलतियों और झूठों के जितने गहरे तिलिस्मी जाल में कमलेश्वर फंसता जा रहा है, उतनी ही उसके लेखन में गहराई आती चली जाती है, उसकी भीतरी तड़प संवेदना को निखारती जाती है।
मैं जब-जब उसे इस पहलू से देखता हूं, मुझे ईर्ष्या होने लगती है-उसने जिंदगी में शब्दिक अर्थ में पापड़ नहीं बेले, यह सही है; लेकिन वह राकेश ओर मेरी तरह 'हॉटहाउस-ब्रीड` आदमी नहीं है। बाहरी और भीतरी कटुताओं ने उसके लेखन को निश्चित प्रगति और सान दी है, इसे उसकी पहली अच्छी कहानी 'गर्मियों के दिन` से लेकर 'खोयी हुर्ठ दिशाएं` और 'दिल्ली में एक मौत` में देखा जा सकता है। उसने अपनी गललियों से अकसर ही सीखा है।
जिंदगी हो या कला, सेकेण्ड-हैण्ड अनुभवों पर जीना उस समय बहुत भारी पड़ जाता है, जब अपने पास उन्हें पचा सकने लायक शक्ति न हो। दूसरों की तरह कमलेश्वर ने भी लेखक-प्रकाशक बनकर अपना व्यक्तित्व खड़ा करना चाहा था- बिना अपने और अपने साथियों की एकनिष्ठता को तौले हुए। उसी तरह सेकेण्ड-हैण्ड अनुभवों पर लिखने की गलती भी उसने की..
चूंकि 'देवा की मां` या अन्य सारी कहानियां वे हैं, जिन पर अपने समय में काफी पुष्प-वर्षा हुई है, इसलिए मैं जानता हूं कि कमलेश्वर अपने उसी शातिर अन्दाज में कहेगा, 'यहां तो प्यारे, एक कहानी लिखते हैं और साल-भर को निश्चिन्त हो जाते हैं। जब तक उस कहानी का घाव ठण्डा होता है, तब तक अगले साल फिर एक लिख देते हैं। तुम सब साले (यानी मैं और राकेश) इसीलिए तो कुढ़ते हो कि इसकी हर कहानी क्यों झण्डे गाड़ती चलती है..।` मगर इधर उसने रोज-रोज झंडे गाड़ने शुरू कर दिये हैं और इतने गाड़ दिये हैं कि वे गड़े मुरदे होकर रह गये हैं। इसलिए उखाड़-उखाड़ कर एक-एक झंडे को पांच-पांच, छह-छह जगह गाड़ा है। शिकायत के जवाब में अब वह इतना ही कहता है, 'यार, इन सब को संग्रह में थोड़े ही दूंगा! लेकिन बताओ, इतना न लिखूं , तो क्या करू? कैसे रहूं?` इस सब के बावजूद, कमलेश्वर की शायद ही कोई कहानी हो, जिसने कहीं-न-कहीं मुझे अपनी असामर्थ्य का अहसास न करा दिया हो.. कभी प्रारम्भ का वाक्य ही ऐसा होता है कि तबीयत फड़क उठती है और कभी बीच में ऐसा कुछ आ जाता है कि गुस्सा आता रहता हैऱ्यह कमबख्त़ सारे दिन इस या उस तिकड़म में लगा रहता है और यह सब लिख किस समय लेता है? इसका कमरा क्या है, अच्छा-खासा वेटिंग-रूम है। कोई-न-कोई बैठा ही रहता है और हांड़ी-जैसी ऐश-ट्रे में चार-मीनार झाड़ते हुए आप उसे प्रवचन पिला रहे होते हैं। कभी-कभी वेटिंग रूम एक ऐसी धर्मशाला भी बन जाता है, जहां खाना-कपड़ा से लेकर हजामत का सामान, जूता और जेब-खर्च सभी-कुछ बिना 'ऑब्लिेगेशन` मिलता हो और गुसलखाना साफ करने वाला जमादार भी बिना किसी दुविधा-संकोच के सिगरेट या ब्लेड खुद निकाल लेना अपना अधिकार मानता हो। मैं इन मामलों में कुछ फ्यूडल हूं और ये बातें मेरा मूड खराब कर देती हैं; लेकिन खुद तंगी और तकलीफ में रहकर औरों की सुविधा जुटाने में कहीं कमलेश्वर का बड़प्पन तृप्त होता है, और वह धर्मशाला के यात्रियों के बीच निहायत इत्मीनान से औंधा लेटा अपनी बेहद सधी खूबसूरत हैंडराईटिंग में किसी कहानी, रेडियो या टेलिविज़न स्क्रिप्ट को पहली और अन्तिम बार लिख रहा होता है.. उसकी यह शान्ति और एकाग्रता मुझे जलाकर खाक कर देती है..
शान्ति और एकाग्रता.. केवल उस समय, जब कलम हाथ में हो, वरना कमलेश्वर से कभी मिल लीजिए..वह या तो कहीं से भागता-दौड़ता चला आ रहा होगा, या उसे कहीं जाना होगा। इस बीच के समय में बातें करते हुए हमेशा लगेगा कि दिमाग में वस्तुत: कोई दूसरी ही तिकड़म चल रही है.. कि वह मुंह से बातें कर रहा है, लेकिन दिमाग में जल्दी-जल्दी कुछ योजनाएं बना रहा है.. और मेरी 'लेखकीय दृष्टि` बता देती है कि यह प्लानिंग लेखन-प्रक्रिया नहीं है। इस तरह की तिकड़म-भरी प्लानिंग राकेश के दिमाग में भी चलती रहती है, लेकिन कमलेश्वर का चेहरा उस तनाव को जाहिर कर देता है। लगता है, जैसे वह कहीं फौजों को लड़ते छोड़ आया है और जाते ही उसे उनका चार्ज संभाल लेना है.. कोई लड़ाई है, जिसे जाकर फिर से लड़ना है..
और शायद इस तरह लड़ते हुए उसे बहुत दिन हो गये हैं। कभी-कभी आशंका होने लगती है, किसी दिन वह हार तो नहीं जाएगा और उसके मोती-जैसे अक्षर, लहजे का आत्मविश्वास, हाजिर जवाबी, और मजाकिया विट शैली की खूबसूरती और वातावरण को मूड देने की कला-टूटे हुए कवच की तरह दयनीय तो नहीं हो उठेंगे? क्योंकि यह लड़ाई सीधी और सरल नहीं है, यह विचित्र विरोधाभासों की लड़ाई है और यही क्या कम विरोधाभास है कि कमलेश्वर जिन्दगी के छोटे-छोटे झूठों के हथियार से युग के सब से बड़े झूठ के खिलाफ लड़ रहा है?
क्योंकि ऊपर की यह सारी तेजी सचमुच एक हथियार की तेजी है..एक स्वयं-आरोपित व्यक्तित्व..वस्तुत: जो व्यक्ति इस हथियार को लेकर लड़ रहा है, वह बहुत सरल और अज़हद भावुक है..ऐसा भावुक जो सिंसियर होने के सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता।
भावुक लोगों की बहुत किस्में हैं। मैं उनमें दो तरह के भावुकों को जानता हूं । कुछ लोग होते हैं, जिन्हें जरा-जरा-सी बातें छू जाती हैं। वे आपसे उम्मीद किये बैठे हैं कि मिलते ही आप उनसे उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछेंगे, 'हल्लो!` कहकर आप उनके गले से लिपट जाएंगे, लेकिन आप निहायत संयत-भाव से बिना कुछ बोले उनकी तरफ कॉफी सरका देते हैं। लीजिए साहब, उनकी भावनाओं को चोट पहुंच गई और वे अब आंखों में आंसू-भरे आपकी बेमुरव्वती पर खफा हैं। जरा-सी उपेक्षा उनमें आत्महत्या की इच्छा जगा देती है, और जरा-सा प्यार उनकी आंखों में आंसू ले आता है। छोटी-छोटी बातों पर वे ऊपर से रोते, सिर धुनते हैं, खुश होते और नाचते हैं, लेकिन भीतर से निहायत ही व्यावहारिक, स्वार्थद्रष्टा और निर्विकार, कोल्ड-हिसाबी.. उनका हर आंसू और कहकहा प्राणों का उन्मुक्त विसर्जन नहीं, सिर्फ हथियार या ढाल होता है, एक वैल-कैलक्यूलेटेड इन्वेस्टमेंट। इसलिए व्यवहार में ये लोग घोर प्रैक्टिकल और किसी हद तक क्रूर भी होते हैं। कोई बता रहा था कि गोयबेल्स की आज्ञाओं पर जब हजारों बेकसूर यहूदी गैस-चैम्बर्स में घुट-घुटकर दम तोड़ रहे होते थे, उस समय वह खुद बाख का संगीत सुनता हुआ भाव-विभोर हो रहा होता था .. गांधीवाद ने तो इस तरह के भावुकों की पूरी एक फौज ही पैदा कर दी है।
दूसरी तरह के भावुक न बात-बात पर रोते हैं, न गदगदाते हैं। उनकी आंखों में आंसू नहीं आता और भावना की एक नन्हीं-सी गंध चुपचाप जिंदगी की धार को मोड़कर चली जाती है, और पूरे होश में सुने हुए केवल दो-दो छोटे-छोटे वाक्य संघर्ष-रत सिपाही की आत्मा की धरोहर बन जाते हैं।..हो सकता है, यह हद दर्जे की भावुकता हो, लेकिन कमलेश्वर की भावुकता कहीं उस लहनासिंह की वंशधर भी है।..उस दिन वह मेरे लिए सचमुच अभिनन्दनीय हो उठा था, जिस दिन हर प्राप्त सुविधा और साधन की कीमत पर उसने इस भावना को खरीदा था..
पांचेक साल पहले की बात है, मैं कलकत्ता से आगरा जा रहा था। रीढ़ की हड्डी में दर्द था और बैठना मुश्किल था। कमलेश्वर ने हर तरह की सुविधाएं जुटायी थीं कि मैं 'कुलटा` का उत्तरार्ध पूरा कर लूं। होली का भूत बने हुए उसने मुझे कहीं से एक टाइपराइटर लाकर दे दिया था। रोज रात तो देर तक हम लोग गप्पें लड़ाते, योजनाएं बनाते। कमलेश्वर ने नया-नया प्रकाशन शुरू किया था, सो दुनिया-भर का जोश उन दिनों उसके मन में था। कुछ भी सुनने की फुरसत नहीं थी। रात को दो बजे जब वह मुझे छोड़ने स्टेशन आया, तो मैंने सवाल सामने रख दिया। खिड़की पर कुहनी टेके वह खड़ा था-'बेवकूफी ही सही, राजेन्द्र, लेकिन है।..जिंदगी में सभी-कुछ अच्छा करने का ठेका लेकर तो हम आये नहीं थे।..` रास्ते-भर वह मुझे निहत्थे अभिमन्यु की याद दिलाता रहा। शायाद 'अभिमन्यु की आत्महत्या` कहानी की पहली चिनगारी वहीं मिली..
शायद यह वह खुद जानता है कि ऐसी भावात्मक निष्ठा एडोलेसेन्स और बेवकूफी ही है, एक ऐसी कमजोर पतवार, जो जाने किस मंझधार में जाकर टूट जाये। शायद यही भी वह जानता है कि ऐसे ही नाजुक तलुए को बचाने के लिए नुकीले और खुरदरे जूते पहनते होते हैं, ताकि हर व्याधि उसे ही निशाना न बना ले। और तब आदमी हठपूर्वक 'झूठा` और सजग बनता है। भावात्मक निष्ठा सचमुच एक कमजोरी है, यह अहसास उसे उकसाता और ललकारता है कि वह प्रैक्टिकल और प्रेविलेज्ड लोगों को उनके स्तर पर उन्हें मात दे.. यह दूसरी चक्रव्यूही असहायता है.. यह उसका बहुत संवेदनशील होना है, जो उसे एक के बाद दूसरी भूल-भुलैयों में ले जाता है.. मजबूरी यह है कि न तो वह दूसरों की भावनाओं के प्रति क्रूर हो पाता है, न अपने प्रति गैर-ईमानदार.. लेकिन अपने और दूसरों के प्रति संगति नहीं बैठ पाती और निश्चय-अनिश्चय का द्वंद्व उसके जीवन का पर्याय बन जाता है.. उसके लिए निर्णय न ले सकना साहसहीनता नहीं-क्रूर और कैलस न हो पाना है। ईमानदारी से पूछा जाए, तो व्यक्तिगत नैतिकता और परम्परागत नैतिकता के इस द्वंद्व को पार कर लेना किस अकेले आदमी के बस का है? इसके लिए तो शायद पूरी एक संवेदनशील पीढ़ी को निर्णयहीनता की इस घुटन से गुजरना होगा, क्योंकि निर्णय..वरण..चुनाव कर सकने के लिए हममें से कौन स्वतंत्र है? कौन कह सकता है कि उसने किसी-न-किसी भीतरी-बाहरी, दूर और पास की लाचारी में अपना हर निर्णय नहीं लिया है? फिर एक की जगह दूसरे एब्सर्ड को चुनते चले जाने की अपेक्षा, न चुन पाने की इस मजबूरी को स्वीकार कर लेना सचमुच गैर-ईमानदारी ही है क्या? 'कुछ नहीं, कोई नहीं,` से लेकर 'नीली झील` तक कमलेश्वर की अनेक कहानियां भावात्मक निष्ठा, यानी परम्परागत नैतिकता के खिलाफ व्यक्तिगत नैतिकता की प्रतिष्ठा को आकस्मिक रूप से ही रेखांकित नहीं करतीं...बहरहाल, दुष्यन्त की इज्जत की खातिर मैं इतना मान लेता हूं कि कमलेश्वर अपना सच नहीं बोल सकता, मगर अपने युग और अपनी पीढ़ी का सच वह जरूर बोल सकता है, क्योंकि उसके पास जबान है और उसे बात करनी भी आती है..
वरना क्या बात कर नहीं आती।
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