December 10, 2007

बहुजन नजरिये से १८५७ का विद्रोह

  • कंवल भारती

( लेखक ने बहुजन नजरिये से १८५७ के विद्रोह का अध्ययन प्रस्तुत किया है। १८५७ का विद्रोह ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के विरूद्ध द्विज और असराफ हिंदू-मुसलमानों का संघर्ष था। भारत में कंपनी राज की स्थापना इंग्लैंड के निचले तबके के लोगों द्वारा हुई थी। इन लोगों ने भारत के 'बड़े` लोगों का विशेषाधिकार खत्म करना चाहा था। इसीलिए ये 'बड़े` लोग कंपनी राज के विरुद्ध थे। इंग्लैंड के लार्ड और अर्ल-ड्यूक (असराफ तबका) भी भारत में कंपनी राज खत्म करना चाहते थे। १८५७ के बाद भारत में कंपनी राज खत्म हो गया और ब्रिटिश महारानी ने घोषणा की कि वह भारत के अमीर-उमरांवों का सम्मान करेंगी। यह दो देशों के शासक तबकों का एक समझौता था। इंग्लैण्ड के असराफ तबके ने भारत के असराफ तबके से सीमित समझौता कर लिया था। भारत में समाज सुधारों से अंग्रेजों ने अपना हाथ खींच लिया। यह भारत के 'बड़े` लोगों के लिए सामाजिक स्वतंत्रता थी। इसी अर्थ में यह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। -संपादक )



किसी भी राष्ट्रीय विषय पर भारत के लोग समान मत नहीं रखते हैं, क्योंकि वे सामाजिक स्तर पर अलग-अलग वर्गों में विभाजित होते हैं। जिन लोगों का जैसा सामाजिक स्तर होता है, वैसी ही उनकी सोच बनती और विकसित होती है। यही कारण है कि इस देश के शासक वर्ग के लोगों ने, जो सामाजिक स्तर पर विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग था और पूर्ण स्वाधीनता का उपयोग कर रहा था, १८५७ के गदर को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताया है। यह मत भारत के ब्राह्मण वर्ग के विद्वानों का है, और उन लोगों का है जो हिन्दुत्ववादी थे और भारत में सामन्ती शासन चाहते थे। यह वह वर्ग था जो अपनी धर्म-व्यवस्था पर मुग्ध था और उसमें कोई परिवर्तन नहीं चाहता था। मुसलमान शासकों ने अपने आठ सौ साल के साम्राज्य में ब्राह्मणों की धर्म-व्यवस्था को नहीं छुआ और हिन्दुओं को उनकी धर्म-व्यवस्था पर चलने की पूरी आजादी दी। इसलिये मुस्लिम साम्राज्य के खिलाफ एक भी स्वतंत्रता संग्राम भारत में नहीं लड़ा गया।

किसी भी आन्दोलन को नेतृत्व और गतिशीलता देने का काम बुद्धिजीवी वर्ग करता है और दुर्भाग्य से भारत में बुद्धिजीवी वर्ग ब्राह्मण रहा है। बुद्धिजीवी और ब्राह्मण ये दोनों एक-दूसरे के पर्याय माने गये हैं। मुसलमान शासकों ने इसी ब्राह्मण वर्ग को सारी स्वतंत्रता और सुख-सुविधाएं देकर अपना वफादार बनाकर रखा था। लेकिन यही काम भारत में आने के बाद अंग्रेजों ने नहीं किया। उन्होंने उनकी धर्म-व्यवस्था में दखल देना शुरू किया और इसी दखल के परिणामस्वरूप उन्हें ब्राह्मणों के विद्रोह का सामना करना पड़ा। दूसरे शब्दों में अंग्रेजों का समाज-सुधार ऐजेण्डा ही उनके विरूद्ध आंदोलन का कारण बन गया। कम से कम दो बड़े विद्रोह भारत में समाज सुधार के फलस्वरूप ही हुए, जिनमें पहला १८०६ में वेल्लौर का सिपाही विद्रोह और दूसरा १८५७ का सिपाही विद्रोह। अंबेदकर ने लिखा है कि वेल्लौर का विद्रोह एक छोटी चिंगारी की तरह था, पर १८५७ का विद्रोह एक बड़ा अग्निकाण्ड बन गया था। (डा. आंबेदकर रायटिंग एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम १२, पृष्ठ १४०) वेल्लौर का विद्रोह सिर्फ इस आधार पर हुआ था कि मद्रास आर्मी के चीफ कमान्डर जान क्रैडोक ने एक रेगूलेशन जारी करके सिपाहियों के लिये धार्मिक और जातीय पहचान वाली यूनिफार्म समाप्त करके उसकी जगह नयी यूनिफार्म लागू की थी, जिसमें पगड़ी, दाढ़ी और हाथों में अंगूठियां पहनने की मनाही कर दी गयी थी और इन सबके बदले एक नयी टोपी निर्धारित की गयी थी। सिपाहियों ने इसे अपने ईसाईकरण के रूप में देखा। हिन्दुओं ने नयी टोपी को गाय की खाल से बनी टोपी समझा और मुसलमानों ने दाढ़ी हटाने को अपने धर्म में दखल समझा। अत: दोनों धर्मों के सिपाहियों ने धर्म के नाम पर विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को वेल्लौर किले में मौजूद टीपू के परिवार ने मदद की थी।

इस विद्रोह को भी ब्राह्मण लेखकों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम कहा है और यहां तक लिखा है कि इसी विद्रोह ने १८५७ में सिपाही विद्रोह के रूप में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का मार्ग प्रशस्त किया था। (दि हिंदू, सण्डे मैगजीन, ६ अगस्त, २००६ में देखिए ए. रंगराजन का लेख 'व्हेन दि वेल्लौर सिपाय`स रिबेल्ड`)
क्या यह सचमुच स्वतंत्रता संग्राम था? यदि यह वास्तव में ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम था, तो वे सिपाही कम्पनी की सेना में भरती ही क्यों हुए थे? फिर, यह विद्रोह नये यूनिफार्म रेगूलेशन जारी होने के बाद ही क्यों हुआ? इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह विद्रोह ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ नहीं था, बल्कि उसके द्वारा जारी रेगूलेशन के विरोध में था, जिसने सिपाहियों की धार्मिक और जातीय पहचान समाप्त कर दी थी। यदि कम्पनी इस रेगूलेशन को जारी नहीं करती, तो विद्रोह नहीं होता। तब यह स्वतंत्रता संग्राम किस आधार पर था? यदि यह 'कम्पनी सरकार` को हटाने के आधार पर था, तो स्वतंत्रता संग्राम नहीं था। परन्तु यदि यह धार्मिक और जातीय स्वतंत्रता के लिये था, तो यह स्वतंत्रता संग्राम था। तब हम इसे धार्मिक स्वतंत्रता संग्राम कहेंगे, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम नही।

१८५७ के विद्रोह का श्रेय सिपाही मंगल पाण्डे को दिया जाता है। वह एक रूढ़िवादी और अस्पृश्यता मानने वाला ब्राह्मण था। मेरठ की उसी बैरक में, जिसमें मंगल पाण्डे था, मातादीन सफाई का काम करता था। घटना है कि एक दिन झाड़ू लगाते समय पाण्डे का लोटा मातादीन से छू गया। अस्पृश्यता-धर्म को मानने वाले मंगल पाण्डे से लोटे का छूना सहन नहीं हुआ और उसने मातादीन को गालियां देकर अपमानित किया। इस पर मातादीन ने फटकारते हुए कहा कि लोटा छूने से तुम धर्मभ्रष्ट हो जाते हो, पर जब उन कारतूसों को दांतों से पकड़कर खोलते हो, तो भ्रष्ट नहीं होते, जिनके मुंह पर गाय और सुअर की चर्बी लगी होती है। मंगल पाण्डे ने जब यह सुना तो उसे लगा कि सभी हिन्दू सिपाहियों का धर्म-भ्रष्ट हो गया है। यही घटना सिपाही विद्रोह का कारण बनी। क्या सचमुच सिपाही विद्रोह का यही एक कारण था? यह गले नहीं उतरता, क्योंकि कारतूसों में चर्बी रहती थी, यह सभी सिपाही जानते थे, भले ही वह किसी भी पशु की हो। यदि मंगल पाण्डे मांसाहारी नहीं था, तो उसके लिये किसी भी पशु की चर्बी वर्जित थी। फिर गाय की चर्बी को लेकर ही विद्रोह क्यों? दूसरे, यह भी गौरतलब है कि बगावत के समय भी सिपाहियों ने कारतूसों का उपयोग किया था, तब वे उन्हें किस तरह खोलते थे? सम्भवत: मामला चर्बी का नहीं था, कुछ और भी था।

गाय और सुअर ये दो पशु हिंदू और मुसलमानों के धर्म से जुड़े हैं। हिंदू गाय को माता कहते हैं, जो उनके धर्म में एक पूजनीय पवित्र पशु है, जबकि मुसलमानों के लिये सुअर एक गंदा पशु है और इस्लाम में उसका छूना और मांस खाना हराम माना गया हैं। हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाने के काम में साम्प्रदायिक शक्तियां प्राय: इन्हीं दो पशुओं का उपयोग करती आयी हैं। १८५७ में भी ब्राह्मण शक्तियों ने यही किया। उन्होंने कारतूसों में गाय की चर्बी को अपनी धर्म-व्यवस्था की लड़ाई के लिये एक कारगर हथियार के रूप में देखा। इस धर्मऱ्युद्ध में मुसलमान भी ब्राह्मणों के साथ आ जायंे, इसलिये गाय के साथ सुअर को भी एक साथ जोड़ा गया।
यहां भी वही सवाल विचारणीय है, जो वेल्लौर विद्रोह में था। जिन ब्राह्मणों ने इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा, जैसा कि सावरकर और हरदयाल आदि ने कहा था, वे इस बात पर विचार नहीं करते कि यदि कारतूसों में गाय या सुअर की चर्बी न लगायी होती, या इसका भान ही न हुआ होता, क्या तब भी कोई विद्रोह होता? यदि चर्बी ही मुख्य कारण था, तो जाहिर है कि कोई विद्रोह नहीं होता। फिर, उसे स्वतंत्रता संग्राम किस आधार पर कहा जा सकता है? दरअसल यह विद्रोह भी समाज सुधार कार्यक्रम का प्रतिफल था। यह अपनी धर्म-व्यवस्था को बचाने का संग्राम था। यह हिंदुओं की धार्मिक स्वतंत्रता का मामला था, भारत की स्वतंत्रता से इसका कोई संबंध नहीं था। इस विद्रोह को भारत का स्वतंत्रता संग्राम का रूप देने की कोशिश रूढ़िवादी ब्राह्मणों और कुछ देशी राजाओं और नवाबों ने की थी, जिनकी रियासतें अंग्रेजी राज में खतरे में थीं।

सिपाही-विद्रोह के मूल कारण पर आते हैं। यह विद्रोह बंगाली आर्मी ने किया था। यह सिर्फ नाम की बंगाली आर्मी थी, इसमें बंगाल का कोई भी सिपाही नहीं था। यह आर्मी मुख्य रूप से अवध और दोआबा क्षेत्र के उच्च जातीय लोगों को लेकर बनी थी। इसमें अधिकांश ब्राह्मण सैनिक थे, जो अपना सबसे ज्यादा समय नहाने और पूजापाठ में लगाते थे। इसलिये, यह आर्मी ब्राह्मण साजिश का आसानी से शिकार हो गयी।

अवध प्रांत और बनारस के ब्राह्मण, अंग्रेजी सरकार के सामाजिक सुधार कानूनों से क्षुब्ध थे। वे चाहते थे कि मुगलों की तरह अंग्रेज भी उनकी धर्म-व्यवस्था में दखल न दें, पर अंग्रेजों ने कई मामलों में दखल देना जरूरी समझा।

इस संबंध में आंबेदकर ने कुछ सुधारों का उल्लेख किया है, जिनका संक्षिप्त वर्णन करना जरूरी है। (रायटिंग एण्ड स्पीचेस, वा.-१२, पृष्ठ-११६-१३७) वे लिखते हैं, सारी सामाजिक बुराइयां धर्म पर आधारित हैं। एक हिंदू, चाहे ी़ हो या पुरूष, वह जो भी काम करता है, धर्म के अनुसार करता है। वह खाता धर्म के अनुसार है, पीता धर्म के अनुसार है, नहाता धर्म के अनुसार है, पहनता धर्म के अनुसार है, उसका जन्म धर्म के अनुसार होता है, विवाह धर्म के अनुसार होता है और दाह संस्कार भी धर्म के अनुसार होता है। उसके सारे क्रिया-कलाप धर्म के अनुसार होते हैं। इसलिये धर्म निरपेक्ष दृष्टिकोण से जो बुराइयां पापपूर्ण दिखायी देती हैं, वे उसके लिये पापपूर्ण नहीं होतीं, क्योंकि उसका धर्म उन्हें पुण्य मानता है। इसलिये पाप के दोषी हिंदू का उत्तर यह होता है- 'यदि मैं पाप कर रहा हूं तो धर्म के अनुसार कर रहा हूं।` (वही, पृष्ठ.-११५)

समाज हमेशा रूढ़िवादी होता है। वह तभी बदलता है, जब उसे बदलने के लिये दबाव डाला जाता है। ऐसे दबाव जब भी डाले जाते हैंं, पुरातन और नवीन के बीच हमेशा संघर्ष होता है। इसलिये कानून की सहायता के बिना किसी बुराई को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता, खास तौर से धर्म पर आधारित बुराई को तो बिल्कुल भी नहीं।
अंग्रेजों ने छ: सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिये कानून बनाने की जरूरत समझी इनमें पांच कानून विद्रोह के पहले बने और छठा कानून विद्रोह के बाद १८६० में बना, जो उत्पीड़न और बलात्कार को रोकने के लिये एक्ट ग्स्ट (पैनल कोड) सेक्शन ३७५ था। विद्रोह के पहले के पांच कानून ये थे-

१. बंगाल रेगूलेशन ग्ग्प् (१७९५), जो बनारस प्रांत में, ब्राह्मणों के 'कुर्रा` की प्रथा को रोकने के लिये था, जिसमें वे अपनी स्त्रियों की हत्या कर देते थे। इसी कानून के तहत ब्राह्मण को हत्या करने पर मृत्यु दण्ड के दायरे में लाया गया, जिससे वह अभी तक बाहर था।

२. १८०२ का रेगूलेशन टप् जो मासूम बच्चों की धर्म के नाम पर बलि देने की प्रथा को रोकने के लिये था।
३. १८२९ का रेगूलेशन ग्टप्प्, जो सती प्रथा को रोकने के लिये था, जिसमें हिंदू अपनी विधवा य़िों को जिंदा जला देते थे।
४. जाति-निर्योग्यता निवारण अधिनियम ग्ग्प् (१८५०) यह सेक्शन-९, रेगूलेशन एक्‍ट (१८३२) का विस्तार था। यह दलित हित में था।
५. हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम ग्ट (१८५६) जो हिंदू विधवा के पुनर्विवाह को न्यायिक मान्यता प्रदान करने के लिये था।

ब्रिटिश सरकार के इस सुधार कार्यक्रम से यह स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है कि ये कानून ब्राह्मणों की धर्म-व्यवस्था में हस्तक्षेप थे। जिस ब्राह्मण को किसी की भी हत्या करने पर मृत्युदण्ड नहीं दिया जा सकता था, उसे अन्य हत्याभियुक्तों के समान ही दण्ड के दायरे में लाने का कानून ब्राह्मणें के लिये, खास तौर से बनारस प्रान्त के ब्राह्मणों के लिये, जो अपनी 'कुर्रा` प्रथा के तहत किसी भी ी़ अथवा लड़की की हत्या करने में कोई संकोच नहीं करते थे, विद्रोह की चिंगारी बनने के लिये काफी था।

१८५७ में बंगाल आर्मी के विद्रोह के मूल में समाज सुधार की यही चिंगारी थी। दूसरी चिंगारी लार्ड डलहौजी की विलय नीति थी। इस नीति के तहत सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बघाट, उदयपुर, झांसी और नागपुर की रियासतें विलय कर ली गयी थीं। अन्य रियासतों के अस्तित्व भी संकट में थे। मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर तक भयभीत थे और यह नहीं समझ पा रहे थे कि वह अंग्रेजों का विरोध करें या समर्थन।

झांसी को लेते हैं, जिसकी भूमिका इस विद्रोह में सबसे ज्यादा विख्यात है। झांसी पेशवा आश्रित राज्य था। झांसी के राजा गंगाधर एक विलासी और अत्याचारी शासक थे। उनका कोई पुत्र नहीं था। इसलिये उन्होंने अपने भतीजे के पुत्र को गोद ले लिया था, जिसको वे अपने बाद राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। उनके पूर्वज सदैव कम्पनी सरकार के वफादार रहे। पर कम्पनी सरकार ने नहीं माना और रानी को ५ हजार रूपये मासिक की पेंशन देकर झांसी को अपने राज्य में मिला लिया। रानी ने पेंशन लेने से इनकार कर दिया और कहा कि 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।` रानी ने झांसी को बचाने के लिए अंग्रेजों से युद्ध किया।ये सभी राजा अपनी रियासतों में अपनी सत्ता चाहते थे। इसलिये ब्राह्मणों के साथ इन राजाओं ने विद्रोह में साथ दिया।

यहां इस प्रश्न पर विचार करने की जरूरत है कि क्या यह स्वतंत्रता संग्राम था? यदि यह स्वतंत्रता संग्राम था, तो क्या सैकड़ों रियासतों में विभाजित भारत में एक अखण्ड स्वराज की अवधारणा तब तक विकसित हो गयी थी? स्पष्ट उत्तर है, नहीं। स्वराज की हिंदू अवधारणा भी ठीक से १९०० के बाद बनी थी। १९३० तक यानी गोल मेज सम्मेलन के समय तक पूर्ण स्वतंत्रता की परिकल्पना तक अस्तित्व में नहीं थी। गांधी और कांग्रेस के नेता डोमिनियन स्टेटस की मांग कर रहे थे। ये तो अंबेदकर थे, जिन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता की वकालत की थी। जब बीसवीं शताब्दी में यह स्थिति थी तो, उन्नीसवीं शताब्दी में १८५७ के विद्रोह को प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कहने का क्या अर्थ है? यह उन मूर्खों का आलाप था, जो सिर्फ हिंदुओं की स्वतंत्रता चाहते थे, और इस बात से उन्हें कोई मतलब नहीं था कि यदि १८५७ का विद्रोह (दुर्भाग्य से) सफल हो जाता, तो अलग-अलग रियासतों की स्वतंत्र सत्ताएं उन्हीं व्यवस्थाओं को जीवित रखतीं, जिनमें अछूतों को समस्त मानवाधिकारों से वंचित रखा जाता, विधवा को जिंदा जलाया जाता, मासूम बच्चों की बलि दी जाती, अरयाश सामन्त चाहे जिस लड़की का अपहरण कराते और बलात्कार करते और ब्राह्मण की हर हिंसा और बर्बरता क्षमा योग्य होती। न पूरे देश में कानून एक होता और न कानून की नजर में सब समान होते।

इस विद्रोह को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहने वाले और अखण्ड हिंदू भारत का स्वप्न देखने वाले ब्राह्मण लेखकों ने यह देखने के लिये अपनी आंखों का मोतियाबिन्द साफ नहीं किया कि रियासतों को विलय करके भारत को अविभाज्य राज्य बनाने का क्रान्तिकारी कार्य तो अंग्रेज कर रहे थे।

कहावत है कि बारह साल बाद घूरे के भी दिन फिर जाते हैं। फिर ये तो इस देश के लाखों दबे-कुचले, दलित, पिछड़े, गरीब, आदिवासी, मेहनतकश लोग थे। उनकी हजारों सालों की बिगड़ी नियति को क्यों नहीं बदलना था? ब्राह्मण और राजा-महाराजा भले ही चाहते थे कि अंग्रेज के विरूद्ध विद्रोह सफल हो, अंगे्रज विदा हों और उनकी सामन्ती धर्म-व्यवस्था बहाल हो, पर पीड़ित बहुजनों के हित में नियति को यह स्वीकार नहीं था। विद्रोह देशव्यापी नहीं हो सका। दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, बनारस, झांसी, ग्वालियर और बिहार के कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रहा और शीघ्र ही इसको कुचल दिया गया। बम्बई और मद्रास की सेनाओं ने इस विद्रोह में भाग नहीं लिया, वरन् उसे दबाने में भूमिका निभायी। यहां यह जानकारी देना जरूरी है कि बम्बई और मद्रास की सेनाओं का गठन अछूत जातियों के लोगों से किया गया था। उनमें अधिकांश महार (बंबई) और परिया (मद्रास) जाति के लोग थे। यही कारण था कि उन्होंने ब्राह्मणों के इस विद्रोह में भाग नहीं लिया। मई १८५७ में शुरू हुआ विद्रोह आखिर १८५७ तक पूरी तरह शांत हो गया था। हां, अंग्रेजों ने इससे कुछ सीख जरुर ली।

लेकिन एक अन्य विषय पर चर्चा किये बगैर यह लेख अपूर्ण होगा। वह विषय है, विद्रोह के दमन के बाद दलितों और समाज सुधार कार्यक्रम के प्रति अंग्रेजी सरकार ने अपनी नीतियों में क्या परिवर्तन किये थे? इस विषय पर मुझे डा. आंबेदकर के हवाले से विचार करना होगा। उन्होंने अपने शोध लेख 'दि अनटचेबुल्स एण्ड दि पेक्स ब्रिटानिका` में इस विषय में कुछ नये तथ्य प्रस्तुत किये हैं जो आज के दलित लेखकों को भी अंग्रेज सरकार के प्रति अपनी स्थापनाओं पर फिर से विचार करने के लिए बाध्य कर सकते हैं। भारत को जीतने के लिये ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पहली लड़ाई १७५७ में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेना से प्लासी में लड़ी और उसकी जीत हुई। बंगाल पर कब्जा करने के बाद कम्पनी ने दूसरी लड़ाई १८१८ में महाराष्ट्र के कोरेगांव में लड़ी। यही वह लड़ाई थी जिसने मराठा साम्राज्य को ध्वस्त किया और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना की। भारत को जिन लोगों की मदद से जीता गया, वे भारतीय थे। वे कौन भारतीय थे, जो विदेशियों की सेना में शामिल हुए? आंबेदकर लिखते हैं कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना में भर्ती होने वाले लोग भारत के अछूत थे। जिन्होंने प्लासी की लड़ाई में भाग लिया, वे दुसाध थे और जिन्होंने कोरेगांव की लड़ाई लड़ी थी, वे महार थे- और दोनों ही अछूत जातियां हैं। इस प्रकार, पहली और दूसरी दोनों लड़ाईयों में अंग्रेजो की तरफ से लड़ने वाले लोग अछूत जातियों के थे। इस तथ्य को मारक्वेस ने पील कमीशन को भेजी गयी अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया था। १८५७ के विद्रोह को कुचलने में भी बम्बई और मद्रास की जिस सेना ने मदद की थी, उनमें भी, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, महार और परिया अछूत जातियों के लोग ही अधिसंख्य थे। इस प्रकार, अछूत जातियों ने न केवल भारत में अंग्रेजी राज कायम करने में मदद की, बल्कि उसे सुरक्षित भी बनाए रखा।

पर, ब्रिटिश सरकार ने अछूतों की इन सेवाओं के बदले उनके साथ क्या व्यवहार किया? आंबेदकर लिखते हैं कि सरकार ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। १८९० में उसने भारतीय सेना में अछूतों की भर्ती पर रोक लगा दी। उसने नये सिद्धांत के तहत सेना में भर्ती के लिये लड़ाकू और गैर-लड़ाकू दो श्रेणियां बनायीं और अछूतों को 'गैर-लड़ाकू` श्रेणी में रखकर उनकी सेना में भर्ती बंद कर दी। क्या वे लोग, जो भारत को जीतने और विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों की तरफ से बहादुरी से लड़े, गैर-लड़ाकू श्रेणी में रखे जा सकते हैं? हरगिज नहीं। उनको सेना में सिर्फ इस कारण से नहीं लिया गया, क्योंकि वे अछूत थे। यहां यह सवाल किया जा सकता है कि फिर १८९० से पहले तक ये अछूत ब्रिटिश सेना में क्यों लिये जाते रहे? इसका कारण था, सेना के गठन का नया सिद्धांत, जो १८९० में बनाया गया था। पहले सिद्धांत के तहत सेना में सर्वश्रेष्ठ लोगों को लिया जाता था, उसमें जाति और धर्म की कोई समस्या नहीं थी। पर, नए सिद्धांत में सेना में भर्ती के लिये आदमी की जाति ही उसकी शारीरिक और बौद्धिक योग्यता का मुख्य आधार बन गयी थी। अब एक दल या कम्पनी का गठन पूरी तरह एक ही वर्ग से किया जाने लगा। इस आधार पर सिख, डोगरा, गोरखा और राजपूत रेजिमेंटें बनायी गयीं। नये सिद्धांत में ये लड़ाकू श्रेणी में थे। आंबेदकर यहां सवाल करते हैं कि जब वर्गीय आधार पर सिखों, डोगरों, गोरखों और राजपूतों की रेजिमेंट हो सकती है, तो अछूत रेजिमेंट क्यों नहीं हो सकती थी? दूसरा सवाल उन्होंने यह उठाया कि यदि लड़ाकू वर्ग से भर्ती का सिद्धांत सही है तो जब तक यह साबित न हो जाय कि अछूत लड़ाकू वर्ग नहीं है, इस सिद्धांत के आधार पर अछूतों की भर्ती को कैसे रोका जा सकता है? वास्तविकता यह थी कि पुराने सिद्धांत के तहत सेना में सवर्ण हिन्दुओं की भर्ती बहुत कम होती थी, इसलिये अछूतों को भर्ती किया जाता था। किंतु, विद्रोह के बाद, जब नया सिद्धांत बना तो, जैसा कि आंबेदकर लिखते हैं, भारतीय शासकों की जाति ;त्ंबमद्ध निस्तेज हो गयी, तो हिंदुओं ने ब्रिटिश सेना में घुसना शुरू किया- उस ब्रिटिश सेना में, जो पहले से ही अछूतों से भरी हुई थी, तब दो वर्गों-सवर्णों और अछूतों के सापेक्ष स्तर ;च्वेपजपवदद्ध में समायोजन करने की समस्या पैदा हुई और अंग्रेजों ने, जो न्याय और सुविधा के बीच संघर्ष के मामले में हमेशा सुविधा को प्राथमिकता देते हैं, समस्या का समाधान अछूतों को अकृतज्ञ रूप से बाहर निकालने का फैसला लेकर किया। इस निर्णय ने अछूतों के जीवन को तबाह कर दिया। सेना में नौकरी अछूतों के सामाजिक स्तर में बदलाव का प्रतीक थी। वह उनमें स्वाभिमान का भाव पैदा करती थी। पर, अब अंग्रेजों ने उन्हें ऊपर से उठाकर नीचे फेंक दिया था।

अंबेदकर इसी लेख में आगे लिखते हैं कि १८५७ के सिपाही विद्रोह ने अंग्रेजों को हर प्रकार के समाज सुधार के भी विरूद्ध कर दिया था। अंग्रेज आगे कोई खतरा लेना नहीं चाहते थे, क्योंकि उनके दृष्टिकोण से यह खतरा बहुत बड़ा था। विद्रोह ने उन्हें इतना आतंकित कर दिया था कि उन्हें लगने लगा था कि वे समाज सुधार के कारण भारत को खो देंगे। इसलिए भारत पर अपने कब्जे के हित में उन्होंने समाज सुधार की किसी भी योजना को हाथ में लेने से इनकार कर दिया था। अत: कहना न होगा कि इस विद्रोह में ब्राह्मणवाद ने आंशिक रूप से अपना दबाव जरूर बना दिया था।



दलित लेखक कंवल भारती की पुस्तकें 'मनुस्मृति : प्रतिक्रांति का धर्मशास्त्र`, 'कांशी राम के दो चेहरे` व 'दलित विमर्श की भूमिका` चर्चित रही हैं। समसामयिक विषयों पर निरंतर लेखन।

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