December 11, 2007

विश्व : सद्दाम के बाद

समकाल

  • जुबैर अहमद भागलपुरी


इराक में एक शिया-प्रधान सरकार बन जाने से अमेरिका को अब यह चिंता विचलित कर रही है कि कहीं इराक और इरान की सरकारों में एकता न स्थापित हो जाए क्योंकि इरान भी एक शिया-प्रधान देश है।


वर्ष २००७ की पहली जनवरी; जब भारत समेत विश्व के हर हिस्से में लोग नववर्ष के आगमन के अवसर पर जश्न मना रहे थे, विशेष रूप से भारतवासियों के लिए सद्दाम हुसैन की फांसी का हृदयविदारक समाचार लेकर आई। भारत के सदा हितैषी रहे सद्दाम को फांसी देने के पीछे उद्देश्य जो भी रहा हो, आनेवाले दिनों में इस फांसी का परिणाम कूटनीतिक एवं राजनैतिक दृष्टिकोण से अमेरिका के लिए लाभदायक साबित नहीं होने वाला है।
आनन-फानन में मृत्युदंड का निर्णय, उसके तुरंत बाद सद्दाम को फांसी देने के पीछे अमेरिका की मंशा शायद दुनिया को यह संदेश देना हो कि जो भी अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरूद्ध सर उठाने की जुर्रत करेगा, उसका सर कुचल दिया जाएगा। एक दूसरा उद्देश्य यह भी हो सकता है कि सद्दाम को फांसी देकर जार्ज बुश वाहवाही लूटना चाहते हों; अपनी लोकप्रियता के घटते ग्राफ को सुधारना चाह रहे हों। अमेरिका ने इराक पर हमले से पूर्व यह तर्क दिया था कि वह इराक में मौजूद विनाशकारी हथियार से विश्व को मुक्त कराने के लिए उस पर आक्रमण कर रहा है लेकिन जब कोई घातक और विनाशकारी हथियार नहीं निकला, इराक मलबे का ढ़ेर बन चुका और अमेरिका की पोल खुल गई, तो वह कह रहा है कि इराक और मध्य-पूर्व एशिया में लोकतंत्र बहाली के लिए वह युद्ध कर रहा है।
सद्दाम को फांसी देकर अमेरिका ने वैसे तो अपने कई नापाक मंसूबों को अंजाम तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त कर ली परन्तु उसे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसके दुष्परिणाम केवल इराक तक ही सीमित नहीं रहेंगे बल्कि इसका खामयाजा आने वाले दिनों में अमेरिका और उसके सहयोगियों को भी भुगतना पड़ेगा।

इसके प्रभाव इराक और उसकी जनता के लिए भी भविष्य में दूरगामी और घातक सिद्ध होंगे। हमें मालूम है कि अमेरिका शिया-सुन्नी साम्प्रदायिक वैमनस्य को हवा देने की शुरू से ही कोशिश करता रहा है। दोनों सम्प्रदायों के बीच कई खूनरेज संघर्ष कराने में वह कामयाब भी रहा है। कभी तो शिया के पवित्र स्थलों पर आतंकवादियों के भेस में अमेरिकी फौज के जवानों ने बमबारी कर सैकड़ों निर्दोषों की हत्या की, कभी सुन्नी बहुल इलाके में यही वाक़िया दोहराकर यह भ्रम फैेलाया कि शिया, सुन्नियों को तबाह करना चाहते हंै। यह सिलसिला सद्दाम की फांसी के बाद रूकने वाला नहीं। इराक और मध्य-पूर्व मामलों के लगभग सारे विशेषज्ञों का मानना है कि फांसी के बाद वहां हिंसा बढ़ेगी। भारत के सामरिक मामलों के विशेषज्ञ के.सुब्रमण्यम ने स्पष्ट कहा है कि सद्दाम की फांसी के बाद क्षेत्र में शिया-सुन्नी के बीच तनाव में और वृद्धि होगी। इस बात का समर्थन सेवानिवृत्त राजनयिक जी.पार्थसारथी ने भी की है। उन्होंने कहा है कि अमेरिका सहित विदेशी बलों की मौजूदगी में फांसी दिए जाने से स्थिति और जटिल हो सकती है।

इस साम्प्रदायिक तनाव के हद से ज्य़ादा बढ़ने का सीधा अर्थ यह है कि भविष्य में कभी भी इराक की एकता भंग हो सकती है और शिया-सुन्नी और कुर्द तीन टुकड़ों में यह देश विभाजित हो सकता है। तानाशाह होने के बावजूद, सद्दाम की एक उपलब्धि यह थी कि उसने पूरे इराक को आंतरिक अशांति के बीच भी एक सूत्र में बांधे रखा। दुजैल की घटना, जिसमें सैंकड़ों लोग हताहत हुए थे और जो सद्दाम की फांसी का मुख्य कारण बनी, भी आंतरिक अशांति की ही मिसाल थी। सद्दाम के अलावा कोई दूसरा शासक भी होता तो वह दुजैल वालों के विरूद्ध सख्त़ कदम जरूर उठाता। केवल अमेरिका को सद्दाम की फांसी के लिए दोष नहीं दिया जा सकता। इसमें प्रतिशोध की भावना से प्रेरित शिया-प्रधान नूरी अल मालिकी सरकार की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ठीक ईदुज्ज़ुहा के दिन, जो मुस्लिम जगत में 'कुर्बानी` के प्रतीक के रूप में जाना जाता है, सद्दाम को फांसी देने में अमेरिका का नहीं, मलिकी सरकार का हाथ था; इस बात से सुन्नियों में भी शियों के विरूद्ध प्रतिशोध की भावना का उत्पन्न होना स्वभाविक है। ऐसे में अगर इराक कई टुकड़ों में विभाजित हो जाए तो आश्चर्य की कोई बात नहीं।

न केवल राजनैतिक और सामाजिक, बल्कि इस फांसी का परोक्ष रूप से असर इराक की आर्थिक स्थिति पर भी पड़ेगा। इराक की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से तेल-निर्यात पर ही आधारित है और अब इस व्यवस्था पर अमेरिका का प्रभुत्व स्थापित होना लगभग तय है। अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों ने तो स्पष्ट कर दिया है कि अमेरिका के इराक पर आक्रमण का एक मुख्य कारण वहां के तेल-भंडार पर नियंत्रण करना था। यदि इसे मान लिया जाए तो फिर यह तथ्य भी स्वीकार करना होगा कि अमेरिका इराक के संसाधनों को इराक की उन्नति की बजाए अपने हित में ही उपयोग करेगा और इराक की आर्थिक स्थिति, जो पहले से ही बदतर है, और दयनीय हो जाएगी इसके अतिरिक्त यहां की अर्थव्यवस्था की तबाही के अन्य कारण भी हैं।

एक तो लगातार आठ वर्षों तक इरान से युद्ध इस देश की अर्थव्यवस्था का मेरू-दंड तोड़ ही चुका था, उसके बाद सीनियर बुश द्वारा नब्बे दशक में इराक पर बमबारी ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। वर्तमान में सीनियर बुश द्वारा इराक पर पुन: आक्रमण से वहां की भयावह स्थिति का अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। ज़ख्म पर नमक छिड़कने का काम वहां छिड़े गृहऱ्युद्ध ने पूरा कर दिया है। ऐसा अनुमान सहज ही लागया जा सकता है कि यह गृहऱ्युद्ध वर्षों तक जारी रहेगा। इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि इराक की अर्थव्यवस्था फांसी के बाद और चरमरा जाएगी।

ऐसा नहीं है कि सद्दाम की फांसी और उसके शासन के अंत का कुप्रभाव केवल इराक तक सीमित रहेगा, इसकी लपटें मध्य-पूर्व के देशों समेत अमेरिका तक पहुंचेगी। यह सही है कि इस अंतर्राष्ट्रीय एवं ऐतिहासिक घटना से अरब देश अधिक प्रभावित होंगे, परंतु इसके दूरगामी प्रभाव से अमेरिका भी अनछुआ नहीं रहेगा। नूरी अल मलिकी की सरकार पर शियाने एवं कुर्दों का प्रभाव है। इराक में एक शिया-प्रधान सरकार बन जाने से अमेरिका को अब यह चिंता विचलित कर रही है कि कहीं इराक और इरान की सरकारों में एकता न स्थापित हो जाए क्योंकि इरान भी एक शिया-प्रधान देश है। यदि ऐसा हो गया, जिसकी संभावना इराकी शासन-व्यवस्था में शियों के आ जाने से प्रबल हो गई है, तो मध्य-पूर्व एशिया में अमेरिकी कूटनीति को गहरा आघात लगना अवश्यंभावी है। अस्सी के दशक में ईरान-इराक के बीच आठ वर्षों तक युद्ध कराने में भी अमेरिका का हाथ था। तब सद्दाम हुसैन अमेरिका की आंख का तारा हुआ करते थे परन्तु इराक में शिया-प्रधान शासन आ जाने से मध्य-पूर्व एशिया का राजनैतिक समीकरण ही बदल जाएगा जिसका अरब देशों के प्रति अमेरिका की जोड़-तोड़ राजनीति पर प्रभाव पड़ेगा।

दूसरी बात यह कि अभी मध्य-पूर्व के अनेक देशों में अमेरिका-समर्थक सरकारें हैं लेकिन वहां की जनता में उसके प्रति भारी विरोध व्याप्त है। अतएव मध्य-पूर्व की उलझी गांठें और अब सद्दाम की फांसी उसके लिए नई मुसीबतें पैदा कर सकती है।

अमेरिका पर इस फांसी का एक अन्य कुप्रभाव यह पड़ने वाला है कि अलकायदा नेताओं को बड़ी खेप में नए रंगरूट बहाल करने का अवसर मिल जाएगा। मुस्लिम-जगत में अमेरिका के प्रति घृणा एवं जनआक्रोश पहले से ही व्याप्त है। उधर अलकायदा वाले प्रारंभ से यह कहते आए हंै कि अमेरिका मुसलमानों को बर्बाद करना चाहता है, अतएव मुस्लिम नवयुवकों को 'जेहाद` के लिए आगे आना चाहिए। अब वह अपनी बात को और अधिक पुख्ता ढंग से प्रचारित करेगा और ऐसी संभावना है कि बड़ी संख्या में नौजवानों को अलकायदा में सम्मिलित कर अपने संगठन को मजबूत करेगा और अमेरिकी हित के विरूद्ध उनका इस्तेमाल करेगा।

इस प्रकार स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि सद्दाम की फांसी का अपरोक्ष रूप से अलकायदा फायदा उठाएगा। विदित है कि आज सुन्नियों की ओर से जो लोग लड़ रहे हैं, उनमें अधिकतर अलकायदा के लोग ही हैं। अब वे नए तेवर और नए जोश के साथ युद्ध में कूदेंगे और आक्रमण प्रतिआक्रमण का दौर जोर पकड़ेगा। यही नहीं फांसी के कुछ दिनों बाद ही अमेरिका ने एक तनावग्रस्त अफ्रीकी देश 'सोमालिया` पर अलकायदा को मारने के नाम पर हमला कर दिया। इस घटना का भी अलकायदा को ही फायदा मिलने वाला है।

भारत के लिए चिंता की बात यह है कि भारत का एक हितैषी खो गया। अब इराक में नई सरकार के आ जाने से भारत को नए सिरे से मलिकी सरकार से राजनैतिक संबंध स्थापित करना होगा। भारत का भी राजनैतिक और आर्थिक हित इराक में शांति-व्यवस्था कायम होने में ही निहित है। मध्य-पूर्व एशिया के बड़ी तेजी से बदल रहे परिवेश में भारत को अत्यंत ही सावधानी से अपनी ज़िम्मेदारी निभाने करने की जरूरत है।


  • २८ अप्रैल १९३७ : राजधानी बगदाद से १५० किलोमीटर उत्तर में तिकरित के गांव एल आवजा में जन्म।
  • अक्टूबर १९५६ : देश के ब्रिटेनपरस्त शासकों के खिलाफ विद्रोह में शामिल। अखिल अरब धर्मनिरपेक्ष दल बाथ पार्टी में सक्रिय।
  • अक्टूबर १९५९ : देश में राजशाही के खात्मे के एक साल बाद प्रधानमंत्री अब्देल करीम कासेम की हत्या का प्रयास। विदेश भागे।
  • फरवरी १९६३ : बाथ पार्टी के सैनिक तख्तापलट द्वारा सत्ता हथियाने के बाद वापस बगदाद लौटे। लेकिन नौ महीने बाद ही बाथ पार्टी के हाथ से सत्ता छिनी। श्री हुसैन को जेल में डाल दिया गया। जेल में ही पार्टी के उपमहासचिव चुने गए।
  • जुलाई १९६८ : राष्ट्रपति अब्दुल रहमान आरिफ का तख्तापलट कर बाथ पार्टी को सत्ता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • १६ जुलाई १९७९ : राष्ट्रपति अहमद हसन अल बकर के रिवोल्यूशनरी कमांड काउंसिल (आरसीसी) अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद देश के राष्ट्रपति बने।
  • २२ सितम्बर १९८० : सीमा संघर्ष के बाद ईरान के खिलाफ युद्ध छेड़ा जो आठ वर्षों तक चला।
  • १६ मार्च १९८८ : इराकी सेना ने कुर्दों के शहर हलाबजा पर रासायनिक हथियारों से हमला किया जिसमें पांच हजार लोग मारे गए।
  • २ अगस्त १९९० : कुवैत पर हमला। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने इराक पर प्रतिबंध लगाए।
  • १७ जनवरी १९९१ : अमेरिका नीत गठबंधन सेनाओं ने इराक पर हवाई हमले किए और कुवैत को मुक्त कराया। फरवरी अंत में इराकी फौजों के कुवैत से चले जाने के बाद खाड़ी युद्ध समाप्त।
  • १५ अक्टूबर १९९५ : राष्ट्रपति पद के लिए हुए जनमत संग्रह में सद्दाम हुसैन निर्विरोध चुने गए।
  • १५ अक्टूबर २००२ : आधिकारिक चुनाव परिणामों के अनुसार अगले कार्यकाल के लिए निर्विरोध राष्ट्रपति चुने गए। उनके पक्ष में शत प्रतिशत मतदान।
  • ७ दिसम्बर २००२ : कुवैत पर हमले के लिए माफी मांगी लेकिन कुवैती सरकार को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया। कुवैत ने माफीनामे को खारिज किया।
  • फरवरी २००३ : दस वर्षों के अंतराल के बाद दिए गए साक्षात्कार में इराक के पास प्रतिबंधित हथियार होने और अंतराष्ट्रीय आतंकवादी संगठन अलकायदा से संबंधों से इंकार किया।
  • २० मार्च २००३ : अमेरिका ने इराक के खिलाफ युद्ध छेड़ा।
  • ९ अप्रैल २००३ : अमेरिकी सेनाओं ने बगदाद में प्रवेश कर श्री हुसैन के तीन दशक पुराने शासन को समाप्त किया।
  • जुलाई २००३ : अमेरिकी सेना ने मोसुल में श्री हुसैन के दोनों बेटों उदय और कुशै के मारे जाने की पुष्टि की।
  • १४ दिसम्बर २००३ : अमेरिकी सेना ने हुसैन को गिरफ्तार करने की घोषणा की।
  • ५ नवम्बर २००६ : बगदाद की एक अदालत ने दुजैल में शियाओं के नरसंहार के मामले में दोषी करार दिया और सजाए मौत सुनाई।
  • ३० दिसम्बर २००६ : श्री हुसैन को फांसी पर लटका दिया गया।

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