December 14, 2007

गणतन्त्र के अंकुर के बीच मधेशियों का विरोध



  • पंकज पराशर


नेपाल के मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों को नेपाल के कथित मूल निवासी मैदानी इलाकों में रहने वालों को तकरीबन उसी अर्थ में मधेशी कहते हैं, जिस अर्थ में भारत के कुछ संपन्न राज्यों के लोग 'बिहारी` कहकर बिहार के लोगों की अस्मिता का उपहास करते रहे हैं। मधेशी समुदाय के लोगों से दोयम दर्जे का व्यवहार राजतंत्र के समय से ही चला आ रहा है।




भारत का अत्यंत निकटतम पड़ोसी नेपाल पूर्ण गणतांत्रिक देश बनने की प्रक्रिया के दरम्यान ही भयंकर जातीय संघर्ष और हिंसा के कारण संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। भारतीय राज्य बिहार के उत्तर-पूर्वी जिलों के लोगों का नेपाल के तराई अर्थात् मैदानी इलाके के लोगों से कई स्तरों पर बेहद घनिष्ठ संबंध है जिसके कारण इन लपटों की आंच बिहार के इन इलाकों में भी महसूस की जा रही है। पिछले कई हफ्तों से नेपाल में जारी इस जातीय हिंसा में मधेशी समुदाय के तकरीबन दो दर्जन से ज्यादा लोग मारे गए हैं और सैकड़ों लोग घायल हुए हैं। खबरों के मुताबिक नेपाल के गठबंधन सरकार के कृषि मंत्री महंत ठाकुर के नतृत्व में कोईराला सरकार ने तीन सदस्यों वाले एक दल का गठन किया है जिसे मधेशी समुदाय से बातचीत करके समस्या का हल ढूढ़ने की जिम्मेदारी सौंपी गइ है। पर्यटन मंत्री प्रदीप ज्ञानवली के मुताबिक यह दल मधेशी समुदाय के लोगों की शिकायतें सुनेगा और इस मसले के हल के लिए इस साल चुनी जाने वाली संविधान सभा में मधेशी समुदाय को ज्यादा प्रतिनिधित्व दिया जाएगा। यहां यह याद रहे कि अभी हाल ही हमें नेपाल में हुई क्रांति और सत्ता परिवर्तन के बाद नेपाल नरेश की सत्ता और अस्तित्व को अर्थहीन बना देनेवाले जो क्रांतिकारी संविधान संसद के पटल पर विचारार्थ रखा गया उसमें भी इतनी विसंगतियां हैं कि सालों से नेपाल में रहने और सरकार को ज्ञापन-दर-ज्ञापन सौंपने के बावजूद मधेशी समुदाय की मांगों को एकदम ताक पर रख दिया गया। दक्षिणी नेपाल में रहने वाले लोगों की मांग है कि उन्हें संसद में उचित प्रतिनिधित्व और अधिक स्वायत्तता दी जाए। उनकी यह भी मांग है कि मैदानी इलाकों के प्रमुख सरकारी पदों पर तैनात पहाड़ी लोगों को जल्दी वहां से हटाया जाए। यह समस्या असल में शुरु तब हुई जब माओवादियों ने मधेशी समुदाय के लोगों को सरकार में शामिल होने का न्योता दिया था और उसके बाद विरोधियों का खतरा काफी हद तक कम हो गया था। लेकिन प्रगतिशील माओवादियों के प्रस्ताव में भी भेदभावपूर्ण वही तौर-तरीका देखकर मधेशी समुदाय के लोग बेहद गुस्सा हुए और नतीजा यह हुआ कि सालों से उपेक्षित इस समुदाय के गुस्से का लावा नेपाल की सड़कों पर फूट पड़ा। मधेशियों की मांग अनसुनी किये जाने और सरकारी दमन को देखते हुए कोईराला सरकार के एक मंत्री हृदयेश त्रिपाठी ने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया है। जातीय हिंसा की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए वाणिज्य और आपूर्ति मंत्री त्रिपाठी ने कहा कि मेरे त्याग-पत्र को सरकार की दमनात्मक कार्रवाईयों के विरोध से जोड़कर देखा जाना चाहिए। गौरतलब है कि उन्होंने अपना त्याग-पत्र ऐसे मौके पर दिया है जब नेपाल के आठों प्रमुख दलों की इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करने के लिए काठमांडू में बैठक होनेवाली थी। 'मधेशी पीपुल्स राइट फोरम` के अध्यक्ष उपेन्द्र यादव ने विरोध-प्रदर्शन कर रहे मधेशियों के खिलाफ पुलिसिया दमन को रोकने की मांग की थी जिसे सरकार ने अनसुना कर दिया और इसके उलट पुलिस के साथ-साथ हथियारबंद सैन्य बलों की भी तैनाती की जाने लगी है। कई हफ्त़ों से जारी जातीय हिंसा की वजह से दक्षिणी नेपाल में १३ से ज्यादा मधेशी समुदाय के लोगों की मौत हुई है। करोड़ों रुपये की संपत्ति तहत-नहस हुई है और आलम यह है कि पुलिसिया प्रतिबंधों को धत्ता बताते हुए नेपालगंल, बीरगंज, सरलाही, सिरहा, विराट नगर और जनकपुर धाम में मधेशी समुदाय के लोग कफ्र्यू तोड़कर नये संविधान के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। सुनसरी, लहान और विराट नगर में मधेशी समुदाय के आंदोलन में तकरीबन ५० से ज्यादा लोग घायल हो गए। इसकी अगली कड़ी में शिवरात्रि के अवसर पर काठमांडू में भीड़ ने नेपाल नरेश ज्ञानेन्द्र के वाहन पर पत्थर बरसाए। अप्रैल २००६ में हुए राजा विरोधी आंदोलन के बाद नेपाल नरेश ज्ञानेन्द्र के खिलाफ जन भावनाएं और उग्र हो गइंर् हैं। हालांकि नेपाली संसद राजशाही के भविष्य की भूमिका के बारे में जल्दी ही फैसला करने वाली है लेकिन फैसला क्या आएगा इसका कमोबेश अंदाजा राजनीतिक प्रेक्षकों को है। क्योंकि राजशाही के कट्टर विरोधी रहे माओवादी संसद का एक हिस्सा बन गए हैं और जल्द ही साझा सरकार में हिस्सेदार बनने वाले हैं। ताजा घटनाक्रम में मधेशियों ने बेमियादी हड़ताल शुरू कर दी है। हड़ताल के पहले दिन ही मधेशी जनअधिकार फोरम के समर्थकों ने नवलपरासी के समीप दो बसों को आग के हवाले कर दिया तथा सरकारी कार्यालयों में ताला जड़ दिया।


दक्षिणी नेपाल में मधेशी समुदाय के लोगों की अच्छी-खासी आबादी है और इस इलाके के ज्यादातर लोग भारतीय मूल के हैं। ज्ञात हो कि नेपाल के मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों को नेपाल के कथित मूल निवासी मधेशी कहते हैं-तकरीबन उसी अर्थ में जिस अर्थ में भारत के दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और अन्य राज्यों के लोग 'बिहारी` कहकर बिहार के लोगों की अस्मिता का उपहास करते रहे हैं। मधेशी समुदाय के लोगों से दोयम दर्जे का व्यवहार हालांकि राजतंत्र के समय से ही होता चला आ रहा है लेकिन दु:खद यह है कि माओवादियों की अगुवाई में हुई नेपाली क्रांति के बाद नये बने संविधान में भी मधेशी समुदाय के लोगों के साथ उसी रवैये को एक बार फिर दोहराया गया है। नये संविधान के मुताबिक भी मधेशी समुदाय के अधिकांश लोगों को नेपाली नागरिकता देने से मना कर दिया गया है जबकि वे लोग दशकों से नेपाल में रह रहे हैं। सरकारी संस्थाओं में भागीदारी के मामले में मधेशी समुदाय की भागीदारी को अत्यंत न्यूनतम कर देने की वही विद्वेषपूर्ण नीति एक बार फिर दोहराई गई है।
पिछले तीन-चार महीनों से आंदोलनरत मधेशी समुदाय के लोगों की मांग है कि उन्हें संसद और सरकारी नौकरियों में आबादी के अनुपात में उचित प्रतिनिधित्व दिया जाए। नेपाल की कुल आबादी २ करोड़ ७० लाख है जिसमें मधेशी समुदाय के लोगों की आबादी ३३ से ४५ प्रतिशत तक है। इसके अनुपात में मधेशी समुदाय के लोगों की संख्या सरकार और सरकारी नौकरियों में बहुत कम है। यहां तक कि नेपाली सेना में भी तराई के लोगों की संख्या बेहद कम है और चयन की प्रक्रिया के दौरान मधेशी समुदाय के लोगों से भेदभाव किया जाता हैऱ्यह आरोप अरसे से वहां मधेशी समुदाय के लोग शाही सेना के उच्चाधिकारियों पर लगाते रहे हैं। गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला ने दक्षिणी नेपाल में जारी मधेशियों के विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए कहा है कि इस साल चुनी जानेवाली संविधान सभा में मधेशी समुदाय के लोगों को ज्यादा प्रतिनिधित्व दिया जाएगा। कोईराला के बयान के बाद माओवादी नेता प्रचंड ने भी कहा है कि मधेशी समुदाय के विरोध प्रदर्शनों का वे समर्थन नहीं करते लेकिन यह मानते हैं कि मधेशियों की मांगें जायज हैं और इस पर विचार किया जाना चाहिए। ज्ञात हो कि अभी हाल ही में एक साक्षात्कार में माओवादी नेता प्रचंड ने भारत में सक्रिय नक्सलियों
और माओवादियों की गतिविधियों पर तीखी टिप्पणी की थी और यह भी कहा था कि नेपाल पूर्ण गणतांत्रिक देश बनने के बाद भारत और चीन दोनों से बराबर की दूरी बनाकर रखेगा। प्रचंड के इस बयान के बाद नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के पहली पंक्ति के सबसे वरिष्ठ नेता और विदेश विभाग के प्रमुख सी.पी गुजरैल ने कहा है कि नेपाल में आम चुनावों के बाद अगर सरकार माओवादियों की बनती है तो नई विदेश नीति के तहत नेपाल भारत और चीन से बराबर की दूरी बनाकर चलेगा। माओवादी नेता प्रचंड के बयान के तुरंत बाद आए सी.पी गुजरैल के बयान का निहितार्थ कई कोणों से निकाल रहे अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विश्लेषकों की एक मुद्दे पर आम राय दिखती है कि भारत को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि चार-पांच साल पहले जिस नेपाल में भारत विरोधी प्रदर्शन और हिंसात्मक कार्रवाइयां हुई थीं, उसी नेपाल का वर्तमान नेतृत्व भारत के साथ अपने आगामी रिश्ते को भी बिल्कुल नये परिवेश में नये ढ़ग से परिभाषित कर रहा है।


सच का दूसरा भयावह पहलू यह है कि एक ओर कोईराला और प्रचंड यह बयान जारी करते हैं कि मधेशियों की मांगों पर विचार किया जाना चाहिए, वहीं दूसरी और खबरें यह भी आ रही हैं कि तमाम घोषणाओं के बावजूद अभी काफी मात्रा में हथियार माओवादियों के पास मौजूद हैं। जबकि कहा यह जा रहा था कि माओवादियों के हथियार बक्से में बंद किये जा रहे हैं-तो यह है माओवादी नेता प्रचंड का सच! दूसरी ओर कोईराला की घोषणा का सच यह है कि नेपाली सेना के पोखरा स्थित मुख्यालय के प्रमुख सहायक रथी बहादुर शमशेर राणा ने मधेशी समुदाय के विरोध-प्रदर्शनों को कुचलने के लिए कड़ी सैनिक कार्रवाइयों से भी नहीं हिचकने की बात कही है। शायद इसी को ध्यान में रखकर नेपाल के दक्षिणी इलाकों में बड़े पैमाने पर सैन्य बलों की तैनाती की जा रही है। इस अंतर्विरोधी बयानों के बीच जहां एक तरफ मधेशी समुदाय के लोगों से बातचीत की पेशकश की जा रही है वहीं दूसरी ओर उनकी जायज मांगों के लिए विरोध प्रदर्शनों को कुचलने के लिए हथियारबंद सैन्य बलों की तैनाती की जा रही है। ऐसे माहौल में भयंकर जातीय हिंसा के बीच नेपाल का संविधान और भावी लोकतांत्रिक स्वरूप कैसा होगा यह पूर्ण गणतांत्रिक देश बनाने की 'प्रचंडी` घोषणाओं के बीच भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है।


पंकज पराशर युवा कवि व पत्रकार हैं।

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