December 14, 2007

पार्टनर आपकी पक्षधरता क्या है?

समकाल



  • प्रमोद रंजन

शर्तिया तौर पर फिल्म ट्रैफिक सिग्नल देखते हुए आपको हैरानी होगी कि इसे 'किन्नर` शब्द को लेकर प्रतिबंधित करने के पक्षधर हिन्दी के वे लेखक, कवि हैं जो वंचितों के प्रति अपनी पक्षधरता साबित करने के लिए उठक-बैठक करते रहते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की कसमें खाते जिनकी जुबानें नहीं थकतीं।



मधुर भंडारकर की फिल्म 'टै्रफिक सिग्नल` पर हिमाचल प्रदेश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है। यह फिल्म मुंबई के एक ट्रैफिक सिग्नल के सहारे रोजी-रोटी कमाने वालों के बारे में है, जिनके जीवन संघर्ष सभ्य समाज की नजर तक नहीं जाती। शर्तिया तौर पर फिल्म देखते हुए आपको हैरानी होगी कि इसे प्रतिबंधित करने के पक्षधर हिन्दी के वे लेखक, कवि हैं जो वंचितों के प्रति अपनी पक्षधरता साबित करने के लिए उठक-बैठक करते रहते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की कसमें खाते जिनकी जुबानें नहीं थकतीं।


सिनेमा के व्यवसायिक पर्दे पर ऐसी फिल्म कई वर्षों बाद आई है जिसमें चिपचिपाती गंदगी से भरे पिचके गालों पर लगातार फोकस रखने का जोखिम लिया गया है। वहां छोटे-छोटे शॉटस में सैकड़ों बेनाम जिन्दगियां कोलाज की तरह उभरती हैं , जिनके लिए मुंबई का एक ट्रैफिक सिग्नल ही सब कुछ है। सिग्नल के लाल होते ही उनका रोजगार चल पड़ता है। कोई अखबार बेचता है तो कोई कपड़े। कोई पागल बनकर भीख मांगता है तो कोई बाप मर जाने का झूठा बहाना कर पैसे मांगता है। रात में इसी सिग्नल के आसपास सेक्स वर्करों को भी काम मिलता है। इस कोलाज में किन्नर भी हैं जो सिग्नल पर रूकी गाड़ियों में बैठे लोगों से भीख मांग कर पेट पालते हैं।


हिमाचल प्रदेश के लेखकों के एक गुट का कहना है कि हिमाचल प्रदेश में किन्नौर नामक एक जनजातीय जिला है। सो वहां के नागरिक 'किन्नर` कहे जाएंगे। हिजड़ों को 'किन्नर` कहे जाने से उस स्वर्गतुल्य जिले के सभ्य जनों का अपमान होता है। उनके इस शगूफे के वोट में तब्दील होने की संभावनाओं को देखते हुए हिमाचल की कांग्रेस सरकार ने 'ट्रैफिक सिग्नल` को दो महीने के लिए प्रतिबंधित कर दिया है। जबकि वास्तविकता है कि उस जिले के लोगों को 'किन्नौरी` अथवा 'किन्नौरा` कहा जाता रहा है। स्थानीय स्तर पर उन्हें सवर्ण जाति सूचक उपाधि 'नेगी` से भी संबोधित किया जाता है। बल्कि यही नाम अधिक प्रचलित है।


जिला किन्नौर कोई समानता का स्वर्ग नहीं है। यह इन्हीं विशेषाधिकार प्राप्त नेगी लोगों का स्वर्ग है, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था द्वारा प्रदत्त अधिकारों के बूते वहां प्रकृति द्वारा मुक्तहस्त होकर लुटाए गए वरदानों पर अपना आधिपत्‍य कायम रखा है। उस जनजातीय इलाके की समृद्वि के पीछे दलितों के अनवरत शोषण की कहानियां रही हैं। छुआछूत वहां अब भी मुखर रूप से कायम है। यहां तक कि उस इलाके के कुछ त्योहारों में दलितों की प्रतीकात्मक रूप से बलि भी दी जाती है (कैसी विडंबना है कि इस प्रतिबंध के सूत्रधार लेखक ने इसी विषय पर एक उपन्सास भी लिखा है)। 'किन्नर` शब्‍द के हिजड़ों के लिए प्रयुक्त होने से कथित रूप से अपमानित वे 'नेगी` ही हो रहे हैं। वहां के दलितों की तो अपनी कोई पहचान ही विकसित नहीं हो पाई है। उस दुर्गम इलाके में मैदानी लोगों का आना-जाना बढ़ा तो उन्होंने भ्रमवश वहां के दलितों को भी 'नेगी` संबोधित करना शुरू कर दिया। अब दलित स्वयं भी 'नेगी` सरनेम रखने लगे हैं। नई हवा के चपेट में आए दलितों की इस प्रवृति से भी वहां के असली 'नेगी` अपमानित महसूस करते हैं।


अब जरा इस तथ्य पर गौर करें कि भारत में उभयलिंगी लोगों की तादाद लगभग ५ लाख है जबकि जिला किन्नौर की आबादी ८० हजार से भी कम है। प्रकृति का क्रूरतम मजाक झेंल हे इन ५ लाख लोगों के लिए इन संवेदनशील लेखक, कवियों को अपमानजनक ध्वनि वाला 'हिजड़ा` शब्द उचित लगता है। उनके लिए कतिपय सम्मानजनक 'किन्नर` संज्ञा उन्हें नागवार गुजर रही है।


वास्तविकता यह भी है कि किन्नौर के सवर्णों अथवा दलितों ने कभी भी स्वयं को 'किन्नर` नहीं कहा। दूसरों ने भी हमेशा उन्हें 'किन्नौरी`, 'किन्नौरा` अथवा 'नेगी` नाम से ही पुकारा है। यह शगूफा पहलेपहल लगभग ५ वर्ष पूर्व हिमाचल के एक लेखक ने भारतीय जनता पार्टी के एक विधायक के साथ मिलकर छोड़ा था। आत्म-चर्चा लोभ से शुरू की गई इस कवायद ने इन वर्षों में मीडिया के सहयोग से किन्नौर वासियों में एक कृत्रिम अपमान बोध पैदा करने में आंशिक सफलता भी हासिल कर ली है। मूल प्रकृति में यह विवाद 'वाटर`, 'परजानिया` आदि से अलग नहीं है। यह हिमाचली बिग्रेड इन दिनों किन्नौरियों को 'किन्नर` साबित करने के लिए पुराणों को खंगाल रही है। नंगी सच्चाईयों को मिथ्या साबित करने वाले इन ग्रंथों की व्याख्याओं के भाषाई खेल में उलझने का अर्थ 'पहले मुर्गी या पहले अण्डा` जैसी पहेलियों को सुलझाने से आधिक क कुछ नहीं होता। यहां सिर्फ इतना बता देना पर्याप्त होगा कि पुराणों में किन्नरों को घोड़े जैसे लम्बे चेहरे और आदमी जैसे शरीर -सौष्‍ठव वाला बताया गया है,जो नाच-बजा कर राजा को प्रसन्न करते हैं। महाभारत में भी किन्नरों को अंत:पुर में भृत्यों के रूप में नियुक्त किए जाने का विवरण आता है। आप स्वयं तय करें कि यह साक्ष्य भी किस दुर्भाग्यशाली जाति की ओर संकेत करते हैं? किन्नौर जिले के वासी तो कोमल, गौरवर्ण और सुदर्शन चेहरे वाले होते हैं।


राहुल सांस्कृत्यायन ने भी एकाध जगह भाषा लोभ में पड़कर किन्नौरवासियों के लिए 'किन्नर` शब्द का इस्तेमाल किया है। फिल्म का विरोध कर रहे लेखक, कविगण अपने पक्ष में उन्हें भी उद्धृत कर रहे हैं। राहुल जी के विचारों में आस्था रखने वालों को इन उद्धरणों को पढ़ते हुए इन लेखकों के इतर अर्थों पर भी गौर करना चाहिए। उन्होंने उनके नाम से 'राहुल` गायब कर दिया है। इस विवाद के प्रवक्ताओं द्वारा समाचार पत्रों में उन्हें 'महापंडित सांस्कृत्यायन` के नाम से उद्धृत किया जा रहा है। वर्णव्यवस्थाविरोधी मार्क्सवादी राहुल सांस्कृत्यायन का यह नामाकरण इन लेखकों के अचेतन उद्देश्यों का तो पता देता ही है। पता नहीं कैसे अब तक उनके हाथ नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता 'बादल को घिरते देखा है` नहीं लगी है। इस कविता में उन्होंने भी हिमालय के शिखरों पर बसे 'किन्नर-किन्नरियों` का उल्लेख किया है। कविता के नाद को ध्यान में रखते हुए वह लिखते है 'मदिरारुण आंखों वाले उन/उन्मद किन्नर-किन्नरियों की मृदुल मनोरम अंगुलियों को वंशी पर फिरते देखा है..` । यह बस नजर नही पड़ने का मामला है अन्यथा वे भी 'पंडित` नागार्जुन हो गए होते!


'ट्रैफिक सिग्नल` पर प्रतिबंध का जश्न मानने वाली चौकड़ी के अधिकांश सदस्य अपनी जातिगत और राजनीतिक पक्षध्‍रताओं को स्वीकारने में शायद ना-नुकुर की गुंजाईश निकाल लें क्योंकि इसके सूत्रधार लेखक जन्मना दलित हैं। लेकिन सवाल लेखकीय पक्षधरता का भी है। वह इस पूरे प्रकरण में प्रकृति की भी भीषणतम दुर्धटना का शिकार होकर हाशिए पर पड़े भीख मांगने को विवश हिजड़ों के पक्ष में रही है या प्रभु वर्गों के पक्ष में? कृष्‍णमोहन झा की 'हिजड़े` कविता के पंक्तियां याद आती हैं :"उनकी गालियों और तालियों से भी उड़ते हैं खून के छींटे/और यह जो गाते-बजाते ऊध्‍म मचाते/हर चौक-चौराहे पर/वे उठा देते हैं अपने कपड़े ऊपर/दरअसल उनकी अभद्रता नहीं/उस ईश्वर से प्रतिशो लेने का उनका एक तरीका है/जिसने उन्हें बनया है/या फिर नहीं बनाया.."


फिल्म के अंत में गंदी बस्ती का अन्नदाता ट्रैफिक सिग्नल तोड़ दिया जाता है। मधुर भंडारकर ने इस दृश्य को इतनी रचनात्मकता से फिल्माया है कि लगता है महानगरपालिका का क्रेन किसी निर्जीव सिग्नल को नहीं, बल्कि उस गंदी बस्ती के किसी महान बुर्जुग की लाश को खींच ले रहा हो। पक्षधरता की तो बात छोड़िए, क्या इस फिल्म अथवा उपरोक्त कविता जैसी संवेदनशीलता भी इन लेखकों में है, जो स्वयं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्षधर कहते नहीं अघाते? एक ओर वे हाशिए पर फेंक दिए गए लोगों के पक्ष में जाने वाली फिल्म का विरोध कर रहे हैं तो दूसरी ओर प्रकृति के क्रूरतम अभिशाप के साथ-साथ समाज का वहिष्‍कार भी झेल रहे उभयलिंगियों का अपमान करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे। इतना ही नहीं आपको यह जानना भी बेहद रोचक लगेगा कि उन्होंने जिस 'किन्नर` शब्द के कारण 'ट्रैफिक सिग्नल` को प्रतिबंधित करवाया है, उसका उच्चारण तक फिल्म में नहीं हुआ है। इस शब्द का प्रयोग मधुर भंडारकर ने महज एक इंटरव्यू में किया था। लेकिन वे रट लगाए हैं कि फिल्म से 'किन्नर` शब्द को हटाए बिना इसे चलने नहीं देंगे। चूंकि यह रट विद्वान लेखकों की है इसलिए यह उजबक-प्रश्न व्यर्थ है कि उन्होंने फिल्म देखी है अथवा नहीं। बेहतर होगा कि हम सिर्फ उनके बारीक निहितार्थों पर ध्यान केंद्रित रखें।

1 comment:

  1. प्रमोद जी मुझे आज पता चला कि आपका उच्च कोटि का ब्लॉग भी है. मैंने आज इस ब्लॉग को दो घंटे तक पढ़ा और बहुत सी जानकारी हासिल की.

    अनिल कुमार JNU

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