December 17, 2007

गुलामगिरि

धरोहर


( भारतीय नवजागरण के अग्रदूत महात्मा जोतिबा फुले (१८२७-१८९०) का महत्व उनकी मृत्यु के सौ वर्ष बाद स्वीकार किया गया। दलित-पिछड़े तबके के लोगों में जब वास्तविक शिक्षा का संचार हुआ तब जाकर लोगों ने अपने वास्तविक नायक को पहचाना। डॉ आंबेडकर ने बुद्ध और कबीर के साथ फुले को अपना गुरू स्वीकार किया था। हिन्दी क्षेत्र में फुले-आंबेडकरवाद का प्रचार अब जाकर होने लगा है। 'गुलामगिरी` फुले की प्रसिद्ध पुस्तक है और प्रस्तुत लेख उसकी भूमिका है। ११ अप्रैल फुले का जन्म दिवस है।-संपादक)

  • जोतीराव फुले





सैकडों साल से आज तक शूद्रादि-अतिशूद्र (अछूत) समाज, जब से इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण का शिकार है। ये लोग हर तरह की यातनाओं में और कठनाइयों में अपने दिन गुजार रहे हैं। इसलिए इन लोगों को इन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और गम्भीरता से सोचना चाहिए। अब इसके आगे ये लोग अपने आपको ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों की जुल्म ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं। यही आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल है। यही इस ग्रन्थ का उद्देश्य है। यह कहा जाता है कि, इस देश में ब्राह्मण-पुराहितों की सत्ता कायम होने को लगभग तीन हजार साल से भी ज्यादा समय बीत गया होगा। वे लोग परदेश से यहां आये। उन्होंने इस देश के मूल निवासियों और इन सभी को अपना गुलाम (दास, दस्यु) बनाया, और उन्होंने इनके साथ बड़ी अमानवीयता का रवैया अपनाया था। आगे सैकड़ों साल बीत जाने के बाद इन लोगों को बीते काल की घटनाओं की विस्मृतियां हुइंर् देखकर कि हमने परदेश से आकर यहां के मूल निवासियों को घर-बार, जमीन-जायदाद से खदेड़कर इन्हें अपने गुलाम बनाकर रखा, इस बात के प्रमाणों को ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों ने तहस-नहस कर दिया, दफनाकर नष्ट कर दिया।


उन ब्राह्मणों ने अपना प्रभाव, अपना वर्चस्व इन लोगों के दिलों-दिमाग पर रहे जिससे केवल अपना स्वार्थ फलता-फूलता रहे, इसलिए उन्होंने कई तरह के हथकण्डे अपनाये और वे सभी इसमें कामयाब भी रहे-चूंकि उस समय ये लोग सत्ता की दृष्टि से पहले ही पराधीन हुए ही थे और बाद में ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों ने उन्हें ज्ञानहीन-बुद्धिहीन बना दिया था जिसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों के दांव-पेंच, उनकी जालसाजी इनमें से किसी के भी ध्यान में नहीं आ सकी। ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों ने इन पर अपना वर्चस्व कायम कर इन्हें हमेशा-हमेशा के लिए अपने गुलाम बनाकर रखने के लिए केवल अपने निजी हितों को ही मद्देनजर रख कर एक से अधिक बनावटी ग्रंथों की रचना करके कामयाबी हासल की। उन नकली ग्रन्थों में उन्होंने यह दिखाने की पूरी कोशिश की कि हमें जो विशेष अधिकार प्राप्त हैं, वे सब हमें ईश्वर द्वारा प्राप्त हैं। इस तरह झूठा प्रचार इस समय के अनपढ़ लोगों में किया गया और उस समय के शूद्रादि-अतिशूद्रों में मानसिक गुलामी के बीज बोये गये। उन ग्रन्थों में यह भी लिखा गया कि शूद्रों को ब्रह्मा ने पैदा करने का उद्देश्य बस इतना ही था कि इन्होंने-हमेशा हमेशा के लिए ब्राह्मण पुरोहितों की सेवा करने में ही लगे रहना चाहिए और ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों की मर्जी के खिलाफ कुछ भी नहीं करना चाहिए। मतलब, ये ईश्वर को प्राप्त होंगे और इनका जीवन सार्थक होगा।
लेकिन अब इन ग्रन्थों के बारे में किसी ने कुछ मामूली सोचा भी होता कि यह बात कहां तक सही है? क्या वे सचमुच ईश्वर द्वारा प्राप्त हैं? तो उन्हें इसकी सच्चाई तुरन्त समझ में आ जाएगी। लेकिन इस प्रकार के ग्रंथों से सर्वशक्तिमान सृष्टि का निर्माता जो परमेश्वर है, उसकी सामंतवादी दृष्टि को बड़ा गौणत्व प्राप्त हो गया है। इस तरह के हमारे जो ब्राह्मणपण्डा-पुरोहित वर्ग के भाई हैं, जिन्हें भाई कहने में भी शर्म आती है, क्योंकि उन्होंने किसी समय शूद्रादि-अतिशूद्रों को पूरी तरह से तबाह कर दिया था और वही लोग अभी धर्म के नाम पर, धर्म की मदद से इनको चूस रहे हैं। एक भाई द्वारा दूसरे भाई पर जुल्म करना यह भाई का धर्म नहीं है। फिर भी हमें हम सभी के उत्पन्नकर्ता के रिश्ते से उन्हें भाई कहना पड़ रहा है, तो वे भी खुले रूप से यह कहना छोड़ेंगे नहीं, फिर भी उन्होंने केवल अपने स्वार्थ को ही ध्यान न रखते हुए सिर्फ न्यायबुद्धि से ही सोचना चाहिए। यदि ऐसा ही है तो उन ग्रंथों को देखकर पढ़कर हमारे बुद्धिमान अंग्रेज, फ्रेंच, जर्मन, अमरीकी और अन्य बुद्धिमान लोग अपना यह मत दिये बिना नहीं रहेंगे कि उन ग्रंथों को ब्राह्मणों ने केवल मतलब के लिए लिख रखा है। उन ग्रंथों में हर तरह से ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों का महत्त्व बताया गया है। ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों का शूद्रादि-अतिशूद्रों के दिलो-दिमाग पर हमेशा-हमेशा के लिए वर्चस्व बना रहे, इसलिए उन्हें ईश्वर से भी श्रेष्ठ समझा गया है, ऊपर जिनका नाम निर्देश किया गया है, उनमें अंग्रेज लोगों ने इतिहासादि ग्रंथों में कई जगह यह लिख रखा है कि ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए अन्य लोगों को मतलब शूद्रादि-अतिशूद्रों को अपना गुलाम बना लिया है। उन ग्रन्थों द्वारा ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों ने ईश्वर के वैभव को कितनी नीच स्थिति में ला रखा है, यह सही में बड़ा सोचनीय सवाल है। जिस ईश्वर ने शूद्रादि-अतिशूद्रों को और अन्य लोगों को अपने द्वारा निर्मित इस सृष्टि की सभी वस्तुओं को समान रूप से उपभोग लेने की पूरी आजादी दी है, उस ईश्वर के नाम पर ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों ने एकदम झूठ-मूठ ग्रन्थों की रचना करके उन ग्रन्थों में सभी के मानव हक को नकारते हुए स्वयं मालिक हो गये।
इस बात पर हमारे कुछ ब्राह्मण भाई इस तरह का संदेह उठा सकते हैं कि यदि ये तमाम ग्रन्थ झूठ-मूठ के हैं, तो उन ग्रन्थों पर शूद्रादि-अतिशूद्रों के पूर्वजों ने क्यों आस्था रखी थी? और आज भी इनमें बहुत सारे लोग क्यों आस्था रखे हुए हैं? इसका जवाब यह है कि आज के इस प्रगत काल में कोई किसी पर जुल्म नहीं कर सकता, मतलब, अपनी बात को लाद नहीं सकता। आज सभी को अपने मन की बात, अपने अनुभव की बात स्पष्ट रूप से लिखने की या बोलने की इजाज़त है। किसी बुजुर्ग आदमी की ओर किसी धूर्त आदमी ने किसी बड़े-व्यक्ति के नाम से झूठा पत्र भी लिखकर लाया, फिर भी कुछ समय के लिए ही क्यों न हो, उस पर भरोसा करना ही पड़ता है। बाद में समय के अनुसार वह भी झूठा साबित हो ही जाता है। यदि यही है, तो शूद्रादि-अतिशूद्र किसी समय ब्राह्मण पुरोहितों के जुल्म और ज्यादतियों के शिकार होने की वजह से और इन्हें उन्होंने पूरी तरह से अनपढ़-गंवार बनाकर रखने की वजह से उनका पतन हुआ। ब्राह्मणों ने अपने (जाति) स्वार्थ के लिए समर्थ (रामदास) के नाम पर झूठे-पाखण्डी ग्रन्थों की रचना करके शूद्रादि-अतिशूद्रों को गुमराह किया और आज भी इनमें से कई लोगों को ब्राह्मण-पुरोहित लोग गुमराह कर रहे हैं, यह स्पष्ट रूप से उक्त कथन की पुष्टि करता है।


ब्राह्मणपण्डा-पुरोहित लोग अपना पेट पालने के लिए अपने पाखण्डी ग्रन्थों द्वारा जगह-जगह बार-बार अज्ञानी शूद्रों को उपदेश देते रहे हैं जिसकी वजह से इनके दिलो-दिमाग में ब्राह्मणें के प्रति पूज्यबुद्धि उत्पन्न होती रही। इन लोगों को उन्होंने (ब्राह्मणों ने) इनके मन में ईश्वर के प्रति जो भावना है, वही भावना अपने को (ब्राह्मणों को) समर्पित करने के लिए मजबूर किया। यह कोई साधारण या मामूली अन्याय नहीं है। इसके लिए उन्हें ईश्वर के पास जवाब देना होगा। ब्राह्मणों के उपदेशों का प्रभाव अधिकांश अज्ञानी शूद्र लोगों के दिलो-दिमाग पर इस तरह से पकड़ जमाये हुए है कि ये अमरीका के (काले) गुलामों की तरह जिन दुष्ट लोगों ने हमें गुलाम बना कर रखा है, उनसे लड़कर मुक्त (आजाद) होने की बजाय जो हमें आजादी दे रहे हैं उन लोगों के विरुद्ध बेफिजूल कमर कसकर लड़ने के लिए तैयार हुए हैं। यह भी एक बड़े आश्चर्य की बात है कि हम लोगों पर जो भी कोई उपकार करते होंगे, उनको कहना कि हमपर उपकार मत करो, फिलहाल हम जिस स्थिति में हैं वही स्थिति ठीक है। यह कह कर हम शान्त नहीं होते बल्कि उनसे झगड़ने के लिए भी तैयार रहते हैं। यह गलत है। वास्तव में हमको गुलामी से मुक्त रहने वाले जो लोग हैं, उनका हमको आजाद कराने से कुछ हित होता है, ऐसा भी नहीं है बल्कि उनको अपने ही लोगों में से सैकड़ों लोगों को बलि चढ़ाना पड़ता हैं। उन्हें बड़ी-बड़ी जोखिमें उठाकर अपनी जान पर खतरा झेलना पड़ता है।
अब उनका इस तरह से दूसरों के हितों का रक्षण करने के लिए अगुवाई करने का उद्देश्य क्या हेाना चाहिए। यदि इस सम्बन्ध में हम ने गहराई से सोचा, तो हमारी समझ में आएगा कि हर मनुष्य को आजाद होना चाहिए, यही उसकी बुनियादी जरूरत है। जब व्यक्ति आजाद होता है, तब उसे अपने मन के भावों और विचारों को स्पष्ट रूप से दूसरों के सामने प्रकट करने का मौका मिलता है, लेकिन जब उसे आजादी नहीं होती, तब वही महत्त्वपूर्ण विचार, जनहित का होने के बावजूद दूसरों के सामने प्रकट नहीं कर सकता, और समय गुजर जाने के बाद वे सभी विचार लुप्त हो जाते हैं। उसी प्रकार मनुष्य आजाद होने से वह अपने सभी मानवीय अधिकार प्राप्त कर लेता है और असीम आनन्द का अनुभव करता है। सभी मनुष्यों को मनुष्य होने के जो सामान्य अधिकार इस सृष्टि के नियंत्रक और सर्वसाक्षी परमेश्वर द्वारा दिये गये हैं उन तमाम मानव अधिकारों को ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितवर्ग ने दबोचकर रखा है। अब ऐसे लोगों से अपने मानव अधिकार छीनकर लेने में कोई कसर बाकी नहीं रखनी चाहिए। उनके हक उन्हें मिल जाने से उन अंग्रेजों को खुशी होती है। सभी को आजादी देकर उन्हें जुल्मी लोगों के जुल्म से मुक्त कर के सुखी बनाना यही उनका इस तरह से खतरा मोल लेने का उद्देश्य है। वाह! यह कितना बड़ा जनहित का कार्य है।
यही उनका इतना अच्छा उद्देश्य होने की वजह से ईश्वर उन्हें, वे जहां गये, वहां से ज्यादा कामयाबी देता रहा है, और अब इससे आगे भी उन्हें इस तरह के अच्छे कामों में उनके प्रयास सफल होते रहें, उन्हें कामयाबी ही मिलती रहे, इसलिए हम भगवान से प्रार्थना करते हैं।


दक्षिण अमरीका और अफ्रिका जैसे पृथ्वी के इन दो बड़े हिस्सों में सैकड़ों साल से अन्य देशों से लोगों को पकड़-पकड़कर यहां उन्हें गुलाम बनाया जाता था। यह दासों को खरीदने बेचने की प्रथा यूरोप के और तमाम प्रगत कहलानेवाले राष्ट्रों के लिए बड़ी लज्जा की बात थी। उस कलंक को दूर करने के लिए अंग्रेज, अमरीकी आदि उदार लोगों ने बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़कर अपने नुकसान की बात तो दरकिनार, उन्होंने अपने जान की भी परवाह नहीं की और गुलामों की मुक्ति के लिए लड़ते रहे। यह गुलामी की प्रथा कई सालों से चली आ रही थी। इस अमानवीय गुलामी प्रथा को समूल नष्ट कर देने के लिए और असंख्य गुलामों को उनके परमप्रिय माता-पिता से भाई-बहानों से, बीवी-बच्चों से, दोस्त-मित्रों से जुदा कर देने की वजह से जो यातनाएं सहनी पड़ीं उससे उन्हें मुक्त करने के लिए उन्होंने संघर्ष किया। उन्होंने जो गुलाम एक-दूसरे से जुदा कर दिये गये थे, उन्हें एक-दूसरे के साथ मिला दिया। वाह! अमरीकी आदि सदाचारी लोगों ने कितना अच्छा काम किया है। यदि आज उन्हें उन गरीब अनाथ गुलामों कील बदतर स्थित देखकर दया न आई होती तो वे गरीब बेचारे अपने प्रियजनों को मिलने की इच्छा मन के मन में ही रखकर मर गये होते।


दूसरी बात, उन गुलामों को पकड़कर लाने वाले दुष्ट लोग उन्हें क्या अच्छी तरह रखते भी थे या नहीं?. नहीं. उन गुलामों पर वे लोग जिस प्रकार से जुल्म करते थे, उन जुल्मों की कहानी सुनते ही पत्थरदिल आदमी की आंखें भी रोने लगेंगी। वे लोग उन्हें कभी-कभी लहलहाती धूप में हल को जोतकर उनसे अपनी जमीन जोत-बो लेते थे और यदि उन्होंने कुछ थोड़ी-सी आनाकानी भी की, तो उनके बदन पर बैलों की तरह छाटे के घांव उतार देते थे। इतना होने पर भी क्या वे उनके खानपान की अच्छी व्यवस्था करते होंगे? इस बारे में तो कहना ही क्या! उन्हें केवल एक समय का खाना मिलता था, दूसरे समय कुछ भी नहीं। उन्हें जो भी खाना मिलता था, वह भी बहुत ही थोड़ा-सा-इसकी वजह से उन्हें हमेशा आधे भूखे पेट रहना पड़ता था, लेकिन उनसे छाती चूर-चूर होकर मुंह से खून फेंकने तक दिन भर काम करवाया जाता था और रात को उन्हें जानवरों के कोठे में या इस तरह की गन्दी जगहों में सोने के लिए छोड़ दिया जाता था, जहां थककर आने के बाद वे गरीब बेचारे उस पथरीली जमीन पर मुर्दों की तरह सो जाते थे। लेकिन आंखों में पर्याप्त नींद कहां से होगी? बेचारों को आखिर नींद आएगी भी कहां से? इसमें पहली बात तो यह थी कि पता नहीं, मालिक को किस समय उनकी गरज पड़ जाए और उसका बुलावा आ जाए, इस बात का उनको जबर्दस्त डर लगा रहता था। दूसरी बात यह थी कि पेट में पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं होने की वजह से जी घबराता था और जान लड़खड़ाने लगती थी। तीसरी बात यह थी कि दिन भर बदन पर छांटे के वार बरसते रहने से सारा बदल लहूलुहान हो जाता था और उसकी यातनाएं इतनी जबर्दस्त होती थी कि पानी में मछली की तरह रात भर तड़पते हुए इस करवट से उस करवट पर होना पड़ता था। चौथी बात यह थी कि अपने वाले लोग अपने पास न होने की वजह से उस बात का दर्द तो और भी भयंकर था। इस तरह की बातें मन में आने से यातनाओं का ढेर खड़े हो जाते थे और आंखें रोने लगती थीं। वे बेचारे भगवान से दुआ मांगते थे कि हे भगवान! अब तो भी तुझको हमारी कुछ दया आने दे। तू हम पर रहम कर। अब हम इन यातनाओं को बर्दाश्त करने के भी काबिल नहीं रहे हैं। अब हमारी जान भी निकल जाए, तो अच्छा ही होगा। इस तरह की यातनाएं सहते-सहते, इस तरह से सोचते-सोचते ही सारी रात गुजर जाती थी। उन लोगों को जिस-जिस प्रकार की पीड़ाओं को, यातनाओं को सहना पड़ा, उनको यदि एक-एक करके कहा जाए तो भाषा और साहित्य के शोक रस के शब्द भी फीके पड़ जाएंगे, इसमें कोई सन्देह नहींं। तात्पर्य, अमरीकी लोगों ने आज सैकड़ों साल से चली आ रही इस गुलामी की अमानवीय परम्परा को समाप्त करके गरीब अनाथ लोगों को उन चंद लोगों के जुल्म से मुक्त करके उन्हें पूरी तरह से सुख की जिन्दगी बख्श़ी है। इन बातों की शूद्रादि-अतिशूद्रों को अन्य लोगों की तुलना में बहुत ही ज्यादा खुशी होगी क्योंकि गुलामी की अवस्था में गुलाम लोगों को, गुलाम जातियों को कितनी यातनाएं बर्दास्त करनी पड़ती हैं, इसका स्वयं अनुभव किय बिना अंदाजा करना नामुमकिन है। जो सहता है वही जानता है।


अब उन गुलामों में और इन गुलामों में फर्क इतना ही होगा कि पहले प्रकार के गुलामों को ब्राह्मण-पुरोहितों ने अपने बर्बर हमलों से पराजित कर के गुलाम बनाया था और दूसर प्रकार के गुलामों को दुष्ट लोगों ने एकाएक जुल्म करके गुलाम बनाया था। शेष बातों में इनकी और उनकी स्थिति समान है। इनकी स्थिति में और उन गुलामों की स्थिति में बहुत फर्क नहीं है। उन्होंने जिस-जिस प्रकार की मुसीबतों को बर्दाश्त किया है, वे सभी मुसीबतें शूद्रादि-अतिशूद्र होने से ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों से ही है। यदि यह कहा जाए कि उन लोगों से भी ज्यादा की ज्यादतियां इन शूद्रादि-अतिशूद्रों को बर्दाश्त करनी पड़ी , तो इसमें किसी तरह का संदेह नहीं होना चाहिए। उन लोगों को जो जुल्म सहना पड़ा, उसकी एक-एक दास्तान सुनते ही किसी भी पत्थरदिल आदमी को ही नहीं बल्कि साक्षात् पत्थर भी पिघलकर उसमें से आंसुओं की बाढ़ निकल पड़ेगी। और उस बाढ़ से धरती पर इतना बहाव होगा कि जिनके पूर्वजों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों को गुलाम बनाया, उनके वंशज आज के जो ब्राह्मण-पुरोहित भाई हैं, उनमें से जो अपने पूर्वजों की तरह पत्थरदिल नहीं हैं बल्कि जो अपने अन्दर के मनुष्यत्व को जागृत रखकर सोचते हैं, उन लोगों को यह जरूर महसूस होगा कि यह एक जलप्रलय ही है। हमारी दयालु अंग्र्रेज सरकार को शूद्रादि-अतिशूद्रों ने ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों से किस-किस प्रकार का जुल्म सहा है और आज भी सह रहे हैं, इसके बारे में कुछ भी मालूमात नहीं है। वे लोग यदि इस सम्बन्ध में पूछताछ करके कुछ जानकारी हासिल करने की कोशिश करेंगे, तो उन्हें यह समझ में आ जाएगा कि, हमने हिन्दुस्तान का जो-जो भी इतिहास लिखा है, उसमें एक बहुत बड़े, बहुत भयंकर और बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्से को नज़रअंदाज किया है। उन लोगों को एक बार भी शूद्रादि-अतिशूद्रों के दुख-दर्दों की जानकारी मिल जाए, तो उन लोगों को सच्चाई समझ में आ जाएगी और बड़ी पीड़ा होगी। वे लोग अपने (धर्म) ग्रंथों में, जहां भयंकर बुरी अवस्था में पहुंचाये गये और चंद लोगों द्वारा सताए हुए, जिनकी पीड़ाओं की सीमा ही नहीं है, ऐसे लोगों की दुरावस्था को उपमा देने हो, तो शूद्रादि-अतिशूद्रों की स्थिति की ही उपमा उचित होगी, ऐसा मुझे लगता है। उससे कवि को बहुत विषाद होगा। कुछ अच्छा भी लग जाएगा कि आज तक कविताओं में उसको शाकरस की पूरी तस्वीर श्रोताओं के मन में स्थापित करने के लिए कल्पना की ऊंची उड़ानें भरनी पड़ती थीं, लेकिन जब उन्हें इस तरह की काल्पनिक दिमागी कसरत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि अब उन्हें स्वयंभोगियों का जिन्दा इतिहास मिल गया है। यदि यही है, तो आज के शूद्रादि-अतिशूद्रों के दिल और दिमाग अपने पूर्वजों की दास्तानें सुनकर पीड़ित होते होंगे, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि हम जिनके वंश में पैदा हुए हैं, जिनसे हमारा खून का रिश्ता है, उनकी पीड़ा से हमें पीड़ित होना स्वाभाविक है। किसी समय ब्राह्मणों की राजसत्ता में हमारे पूर्वजों पर जो भी कुछ ज्यादतियां हुइंर् उनकी याद आते ही हमारा मन घबराकर थरथराने लगता है। मन में इस तरह के विचार आने शुरू हो जाते हैं कि यदि जिन घटनाओं की याद भी हमें इतनी पीड़ादायी है, तो जिन्होंने उन अत्याचारों को सहा है, उनके मन की उस समय की स्थिति किस प्रकार की रही होगी, यह तो वे ही जान सकते हैं। इसकी अच्छी मिसाल हमारे ब्राह्मण भाइयों के (धर्म) शास्‍त्रों में ही मिलती है। वह यह कि इस देश के मूल निवासी क्षत्रिय लोगों के साथ ब्राह्मण-पुरोहितवर्ग के मुखिया परशुराम जैसे व्यक्ति ने कितनी क्रूरता बरती, यही इस ग्रंथ में बताने का प्रयास किया गया है। फिर भी, उसकी क्रूरता के बारे में इतना समझ में आया है कि उस परशुराम के कई क्षत्रियों को मौत के घाट उतार दिया था। और उस (ब्राह्मण) परशुराम ने क्षत्रियों की अनाथ हुई नारियों से उनके छोटे-छोटे चार-चार, पांच-पांच माह के निर्दोष मासूम बच्चों को उनसे जबर्दस्ती छीनकर अपने मन में किसी प्रकार की हिचकिचाहट न रखते हुए बड़ा क्रूरता से उनको मौत के हवाले कर दिया था। यह उस ब्राह्मण परशुराम का कितना जघन्य अपराध था। वह इतना ही करके चुप नहीं रहा, उसने अपने पति की मौत से व्यथित कई नारियों को, जो अपने पेट के गर्भ की रक्षा करने के लिए बड़े दुखित मन से जंगलों-पहाड़ों में भागे जा रही थीं, उनका कातिल शिकारी की तरह पीछा करके, उन्हें पकड़ कर लाया और प्रसूति के पश्चात जब उसे यह पता चला कि पुत्र की प्राप्ति हुई है, तो वह चण्ड होकर आता और प्रसूतिशुदा नारियों को जान से कत्ल कर देता था। इस तरह की कथा ब्राह्मण गं्रथों में मिलती है और जब ब्राह्मण लोग उनके विरोधी दल के थे, तब उनसे उस सयम की सही स्थिति समझ में आएगी, यह तो हमने सपने में भी नहीं सोचना चाहिए। हमें लगता है कि ब्राह्मणों ने उस घटना का बहुत बड़ा हिस्सा चुराया होगा क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने मुंह से अपनी गलतियों को कहने की हिम्मत नहीं करता। उन्होंने उस घटना को अपने ग्रंथ में लिख रखा है, यही बहुत बड़े आश्चर्य की बात है, हमारे सामने यह सवाल आता है कि (ब्राह्मण) परशुराम ने इक्कीस बार क्षत्रियों को पराजित करके उनका सर्वनाश किया और उनकी अभागी नारियों के अबोध, मासूम बच्चों को भी कत्ल कर दिया, इसमें उनसे बड़ा पुरुषार्थ किया और उसकी यह बहादुरी बाद में आने वाली पीढ़ियों को भी मालूम हो, इसलिए ब्राह्मण ग्रंथकारों ने इस घटना को अपने शास्‍त्रों में लिख रखा है। लोगों में एक कहावत प्रचलित है कि हथेली से सूरज को नही ढ़ंका जा सकता। उसी प्रकार यह हकीकत जबकि उनको शर्मिंदा करने वाली थी, फिर भी उसकी इतनी प्रसिद्धि हुई थी कि उनसे उस घटना पर जितना परदा डालना सम्भव हो, उतनी कोशिश उन्होंने की और जब कोई इलाज ही नहीं बचा, तब उन्होंने उस घटना को लिखकर रख दिया। हां ब्राह्मणों ने इस घटना की जितनी हकीकत लिखकर रख दी, उसी के बारे में यदि कुछ सोच-विचार किया जाए तो मन को बड़ी पीड़ा होती है क्योंकि परशुराम ने जब उन क्षत्रिय गर्भधारिणी नारियों का पीछा किया, तब उन गर्भिणियों को कितनी यातनाएं सहनी पड़ी होगी! पहली बात तो यह कि नारियों को दौड़-भाग करने की आदत बहुत कम होती है। उसमें भी कई नारियां मोटी और कुलीन होने की वजह से जिनको अपने घर की देहलीज पर चढ़ना भी मालूम नहीं था, घर के अन्दर उन्हें जो कुछ भी लगता था, वह सब नौकर लोग लाकर देते थे। मतलब, जिन्होंने बड़ी सफलता से उनकी छत्रछाया में अपने जीवन का पालन-पोषण किया था, उनपर अब अपने पेट के गर्भ के बोझ को लेकर सूरज की चिलचिलाती धूप में टेढ़े-मेढ़े रास्तों से भागने की मुसीबत आई। इसका मतलब है कि वे भयंकर आपत्ति के शिकार थे। उनको दौड़-भाग करने की आदत बिल्कुल ही नहीं होने की वजह से पांव को पांव टकराते थे और कभी धड़ल्ले से चट्टान पर, तो कभी पहाड़ की खाइयों में गिरती होगी। उससे कुछ नारियों के माथे पर, कुछ नारियों की कुहनी को, कुछ नारियों के घुटनों को और कुछ नारियों के पांव को ठेस-खरौंच लगकर खून की धाराएं बहती होंगी और परशुराम पीछे-पीछे दौड़कर आ रहा है, यह सुनकर और भी भागने-दौड़ने लगती होंगी। रास्ते से भागते-दोड़ते समय उनके नाजुक पांवों में कांटे, कंकड़ चुभते होंगे। कंटीले पेड़-पौधों से उनके बदल के कपड़े भी फट गये होंगे और उन्हे कांटे भी चुभते होंगे। उसकी वजह से उनके नाजुक बदन से लहू भी बहता होगा। चिलचिलाती धूप में भागते-भागते उनके पांव में छाले भी पड़ गये होंगे और कमल के डंठल के समान नाजूक नीलवर्ण कांति मुरझा गई होगी। उनके मूंह से फेन बहता होगा। उनकी आंखों में आंसू भर आये होंगे। उनके मूंह को एक-एक दिन, दो-दो दिन पानी भी नहीं छुआ होगा। इसलिए बेहद थकान से पेट का गर्भ पेट में ही शोर मचाता होगा। उसको ऐसा लगता होगा कि यदि अब धरती फट जाए तो कितना अच्छा होगा। मतलब, उसमें हम अपने आपको झोंक देते और इस चण्ड से मुक्त हो जाते। ऐसी स्थिति में उन्होंने आंखें फाड़-फाड़ कर भगवान की प्रार्थना निश्चित रूप से की होगी कि भगवान! तूने हम पर यह क्या स्थिति ढाई है? हम स्वयं बलहीन हैं, इसलिए हमको अबला कहा जाता है। हमें हमारे पतियों का जो कुछ बल प्राप्त था, वह भी इस चण्ड ने छीन लिया है। यह सब मालूम होने पर भी तू बुझदिल होकर कायर की तरह हमारा कितना इम्तिहान ले रहा है। जिसने हमारे शौहर को जान से मार डाला और हम अबलाओं पर हथियार उठाये हुए है और इसी में जो अपना पुरुषार्थ समझता है, ऐसे चण्ड के अपराधों को देखकर तू समर्थ होने पर भी मुंह में उंगली दबाये पत्थर जैसा बहरा-अंधा क्यों बन बैठा है? इस तरह वह नारियां बेसहारा होकर किसी के सहारे की तलाशवाला मुंह किये ईश्वर की याचना कर रही थीं, उसी समय चण्ड परशुराम वहां पहुंचकर उसने उन अबलाओं को नहीं भगाया होगा? फिर तो उनकी यातनाओं की कोई सीमा ही नहीं रही होगी, उनमें से कुछ नारियों ने बेहिसाब चिल्ला-चिल्लाकर, चीख-चीखकर अपनी जान नहीं गवाई होगी? और शेष नारियों ने बड़ी विनम्रता से उस चण्ड परशुराम से दया की भीख नहीं मांगी होगी कि हे परशुराम, हम आपसे इतनी ही दया की भीख मांगना चाहते हैं कि, हमारे गर्भ से पैदा होने वाले अनाथ बच्चों की जान बख्शों, हम सभी आपके सामने इसी के लिए अपना आंचल पसार रहे हैं। आप हम पर इतनी ही दया करो। अगर आप चाहते हों, तो हमारी जान भी ले सकते हो लेकिन हमारे इन मासूम बच्चों की जान न लो। आपने हमारे शौहर को बड़ी बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया है। इसलिए हमें बेसमय वैधव्य प्राप्त हुआ है और अब हम सभी प्रकार के सुखों से कोसों दूर हो गये। अब हमें आगे बाल-बच्चे होने की भी कोई उम्मीद नहीं रही। अब हमारा सारा ध्यान इन बच्चों की ओर लगा हुआ है। अब हमें इतनी ही सुख चाहिए। हमारे सुख की आशास्वरूप हमारे वे जो मासूम बच्चे हैं, उनको भी जान से मारकर हमें आप क्यों तड़पते देखना चाहते हो? हम आपसे इतनी ही भीख मांगना चाहते हैं। वैसे तो हम आपके धर्म की ही सन्तान हैं। किसी भी तरह से क्यों न हो, आप हमपर रहम कीजिए। इतने करुणापूर्ण, भावपूर्ण शब्दों से उस चण्ड परशुराम का दिल कुछ न कुछ तो पिघल जाना चाहिए था, लेकिन आखिर पत्थर पत्थर ही साबित हुआ। वह उन्हें प्रसूत हुए देखकर उनसे उनके नवजात शिशु छीनने लगा। तब उन्होंने उन नवजात शिशुओं की रक्षा के लिए उन पर औंधी गिर पड़ी होंगी और गदरन उठाकर कह रही होंगी की हे परशुराम, आपको यदि इन नवजात शिशुओं की जान ही लेनी है, तो सबसे पहले यही बेहतर होगा कि हमारे सिर कटवा लो, फिर हमारे पश्चात आप जो करना चाहो सो कर लो, किन्तु हमारी आंखों के सामने हमारे इन नन्हे-मुन्हे बच्चों की जान न लो। लेकिन कहते हैं न कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है। उसने हमारी कुछ न सुनी। यह कितनी नीचता। उन नारियों की गोद में खेल रहे उन नवजात शिशुओं को जबर्दस्ती छीन लिया गया होगा, तब उन्हें जो यातनाएं हुई होंगी, जो मानसिक पीड़ाएं हुई होंगी, उस स्थिति को शब्दों में व्यक्त करने के लिए हमारे हाथ की कलम भी थरथराने लगते है। खैर, उस जल्लाद ने उन नवजात शिशुओं की जान उनके माताओं की आंखों के सामने ली होगी। उस समय कुछ माताओं ने अपनी छाती को पीटना, बालों को नोचना और जमीन को कुरेदना शुरू कर दिया होगा। उन्होंने अपने ही हाथ से अपने मुंह में मट्टी के ढेले ठूस-ठूसकर अपनी जान भी गंवा दी होगी। कुछ माताएं पुत्रशोक में बेहोश होकर गिर पड़ी होंगी। उनके होश-हवास भूल गये होंगे। कुछ माताएं पुत्रशोक के मारे पागल सी हो गई होंगी। हाय मेरा बच्चा, हाय मेरा बच्चा, करते करते दर-दर, गांव-गांव, जंगल-जंगल भटकती रही होंगी । लेकिन इस तरह की सारी हकीकत हमें ब्राह्मण-पुराहितों से मिल सकेगी, यह उम्मीद लगाये रहना फिजूल की बातें हैं।


इस तरह ब्राह्मण-पुरोहितों के पूर्वज अधिकारी परशुराम ने सैकड़ों क्षत्रियों को जान से मारकर उनके बीवी-बच्चो के भयंकर बुरे हाल किये और उसी को आज के ब्राह्मणों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों का सर्वशक्तिमान परमेश्वर, सारी सृष्टि का निर्माता कहने के लिए कहा है, यह कितने बड़े आश्चर्य की बात है। परशुराम के पश्चात् ब्राह्मणों ने इन्हें कम परेशान नहीं किया होगा। उन्होंने अपनी ओर से जितना सताया जा सकता है, उतना सताने में कोई कसर बाकी छोड़ी नहीं होगी। उन्होंने घृणा से इन लोगों में से अधिकांश लोगों के भयंकर बुरे हाल किये। उन्होंने इनमें के कुछ लोगों को इमारतों-भवनों की नींव में जिन्दा गाड़ देने में कोई आनाकानी नहीं की, इस बारे में इस ग्रंथ में लिखा गया है।
उन्होंने इन लोगों को इतनी नीच समझा था कि इसी समय कोई शूद्र नदी के किनारे अपने कपड़े धो रहा हो और इत्तेफाक से वहां यदि कोई ब्राह्मण आ जाए, तो उस शूद्र को अपने सभी कपड़े समेटकर बहुत दूर, जहां से ब्राह्मण के तन पर पानी का एक मामूली कतरा भी उड़ने की कोई सम्भावना न हो, ऐसे पानी के बहाव की नीचे की जगह पर जाकर अपने कपड़े धोना पड़ता था। यदि वहां से ब्राह्मण के तन पर पानी की बूंद का एक कतरा भी छू गया या उसको इस तरह का सन्देह भी हुआ, तो ब्राह्मणपण्डा आग के शोले की तरह लाल हो जाता था और उस समय उसके हाथ में जो भी मिल जाए या अपने ही पास के बर्तन को उठाकर व आव देखन ताव देख उस शूद्र के माथे को निशाना बनाकर बड़े जोर से फेंककर मारता था। उससे उस शूद्र का माथा खून से भर जाता था। बेहोशी में जमीन पर गिर पड़ता था। फिर कुछ देर बाद जब होश आता था, तब अपने खून से भीगे हुए अपने कपड़ों को हाथ में लेकर बिना किसी शिकायत के मुंह लटकाये अपने घर चला जाता था। यदि सरकार में शिकायत करे, तो चारो तरफ ब्राह्मणशाही का जाल फैला हुआ है, बल्कि शिकायत करने का खतरा यह रहता था कि खुद को ही सजा भोगने का मौका न आ जाए। अफसोस! अफसोस! हे भगवान, यह कितना बड़ा अन्याय है।


खैर! एक दर्दभरी कहानी है इसलिए कहना पड़ रहा है किन्तु इस तरह की और इससे भी भयंकर घटनाएं घटती थीं, जिसकी दर्द शूद्रादि-अतिशूद्रों को बिना शिकायत के सहना पड़ता था। ब्राह्मणवादी राज्यों में शूद्रादि-अतिशूद्रों को व्यापार-वाणिज्य के लिए या अन्य किसी काम के लिए घूमना हो तो बड़ी कठिनाइयों का मुकाबला करना पड़ता था, बड़ी कठिनाईयां बर्दाश्त करनी पड़ती थीं। इनके सामने मुसीबतों का तांता लग जाता था। उसमें भी एकदम सुबह के समय तो बहुत भारी दिक्कतें खड़ी हो जाती थीं। चूंकि उस समय सभी चीजों की छाया काफी लम्बी होती है, यदि ऐसे समय शायद कोई शूद्र रास्ते से जा रहा हो और सामने से किसी ब्राह्मण की सवारी आ रही है, यह देखकर उस ब्राह्मण पर अपनी छाया न पड़े डर से कंपित होकर उसको पल दो पल अपना समय फिजूल बरबाद करके रास्ते की एक ओर होकर वही बैठ जाना पड़ता था। फिर उस ब्राह्मण के चले जाने के बाद उसको अपने काम के लिए निकलना पड़ता था। मान लीजिए कभी-कभार बगैर ख्याल के उसकी छाया उस ब्राह्मण पर पड़ी तो ब्राह्मण तुरन्त क्रोधित होकर चण्ड बन जाता था और उस शूद्रा को मरते दम तक मारता-पीटता था और उसी वक्त नदी पर जाकर स्नान कर लेता था।


शूद्रा में से कई लोगों की (जातियों को) रास्ते पर थूंकने की भी मनाही थी। इसलिए उन शूद्रों को ब्राह्मणों की बस्तियों से गुजरना पड़ा तो अपने साथ थूंकने के लिए मिट्टी के किसी एक बरतन को रखना पड़ता था। समझ लो, उसकी थूंक जमीन पर पड़ गई और उसको ब्राह्मणपण्डे ने देख लिया, तो उस शूद्र के दिन भर गये। अब उसकी खैर नहीं। इस तरह ये लोग (शूद्रादि-अतिशूद्र जातियां) अनगिनत मुसीबातें को सहते-सहते मटियामेट हो गये। लेकिन अब हमें वे लोग इस नरक से भी बदतर जीवन से कब मुक्त होते हैं, इसी का इंतजार है। जैसे किसी व्यक्ति ने बहुत दिनों तक जेल के अन्दर अपनी जिन्दगी गुजार दी हो, वह कैदी अपने साथी मित्रों से, बीवी-बच्चों से, भाई-बहनों से मिलने के लिए या स्वतंत्र रूप से आजाद पंछी की तरह घूमने के लिए बड़ी उत्सुकता से जेल से मुक्त होने के दिन का इंतजार करता है। उसी तरह का इंतजार, बेसबरी इन लोगों को भी होना स्वाभाविक ही है। ऐसे समय बड़ी खुशकिस्मती कहिए, ईश्वर को उनकी दया आई। इस देश में अंग्रेजों की सत्ता कायम हुई। और उनके द्वारा ये लोग ब्राह्मणशाही की शारीरिक गुलामी से मुक्त हुए। इसीलिए ये लोग अंग्रेजी सत्ता का शुक्रिया अदा करते हैं। ये लोग अंग्रजों के इन उपकारों को कभी भूलेंगे नहीं। उन्होंने इन्हें आज सैकड़ों साल से चली आ रही ब्राह्मणशाही की गुलामी की फौलादी जंजीरों को तोड़कर के मुक्ति की राह दिखाई है। उन्होंने इनके बीवी-बच्चों को सुख के दिन दिखाये हैं। यदि वे वहां न आते, तो ब्राह्मणों ने, ब्राह्मण-शाही ने उन्हें कभी सम्मान और स्वतंत्रता की जिन्दगी न गुजारने दी होती। इस बात पर कोई शायद इस तरह का संदेह उठा सकता है कि आज ब्राह्मणों की तुलना में शूद्रादि-अतिशूद्रों की संख्या करीबन दस गुना ज्यादा है। फिर भी ब्राह्मणों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों को कैसे क्या मटियामेट कर दिया, कैसे क्या गुलाम बना लिया? इसका जवाब यह है कि एक बुद्धिमान, चतुर आदमी दस अज्ञानी लोगों के दिलो-दिमाग को अपने पास गिरवी रख सकता है, उन पर अपना स्वामित्व लाद सकता है और दूसरी भी बात यह है कि वे दस अनपढ़ लोग यदि एक ही मत के होते, तो उन्होंने उस बुद्धिमान, चतुर आदमी की दाल न गलने दी होती, एक न चलने दी होती किन्तु वे दस लोग दस अलग-अलग मतों के होने की वजह से ब्राह्मणो-पुरोहितों जैसे धूर्त-पाखंडी लोगों को उन दस भिन्न-भिन्न मतवादी लोगों को अपने जाल में फंसाने में कुछ भी कठिनाई न होती। उसी तरह शूद्रादि-अतिशूद्र की विचार प्रणाली, मत-मान्यताएं एक दूसरे से मेलमिलाप न करे, इसलिए प्राचीन काल में ब्राह्मणो-पुरोहितों ने एक बहुत बड़ी धूर्ततापूर्ण और दमाशीभरी विचारधारा खोज निकाली। उन शूद्रादि-अतिशूद्रों के समाज की संख्या जैसे-जैसे बढ़ने लगी, वैसे-वैसे ब्राह्मणों में डर की भावना उत्पन्न होने लगी। इसीलिए उन्होंने शूद्रादि-अतिशूद्रों में आपस में घृणा और नफरत की भावना बढ़ती रहें, इसकी योजना तैयार की। उन्होंने समाज में प्रेम के बजाय ज़हर के बीज बोय। इसमें उनकी चाल यह थी कि यदि शूद्रादि-अतिशूद्रों (समाज) आपस में लड़ते-झगड़ते रहेंगे तब कहीं यहां अपने टिके रहने की बुनियाद मजबूत रहेगी और हमेशा हमेशा के लिए वे लोग वंशपरम्परा से अपनी और अपने वंशजों की गुलामी में रहकर हम लोगों को बगैर मेहनत के उनके पसीने से प्राप्त कमाई पर बगैर किसी रोक-टोक के गुलछर्रे उड़ाने का मौका मिलेगा। अपनी इस चाल, विचारधारा को कामयाबी देने के लिए जातिभेद की फौलादी जहरीली दीवारें खड़ी करके उन्होंनें इसके समर्थन में अपने जाति स्वार्थसिद्धि के कई ग्रंथ लिख डाले। उन्होंने इन गंथों के माध्यम से अपनी बातों को अज्ञानी लोगों के दिलो-दिमाग पर पत्थर की लकीर की तरह लिख दिया। उनमें से कुछ लोग जो ब्राह्मणों के साथ बड़ी कड़ाई और जिद से लड़े, उनको और उनकी जो बाद की सन्तान होगी, उनको उन्हीं लोगों ने मतलब फिलहाल जिनको माली, कुणवी, (कुर्मी आदि) कहा जाता है, उन्होंने छूना नहीं चाहिए। इस तरह की जहरीली बातें ब्राह्मणपण्डा-पुराहितों ने उनके दिलो-दिमाग में भर दी। जब यह हुआ, तब इसका परिणाम यह हुआ कि उनका आपसी मेल-मिलाप बन्द हो गया और वे लोग अनाज के एक-एक दाने के लिए मोहताज हो गये। इसलिए इन लोगो को जीने के लिए मरे हुए जानवरों का मांस मजबूर होकर खाना पड़ा। उनके इस आचार-व्यवहार को देखकर आज के शूद्र जो बहुत ही अहंकार से अपने आपको माली, कुणबी, सुनार, दरजी, लुहार, बढ़ई, (तेली, कुर्मी) आदि बड़ी-बड़ी संज्ञाएं लगाते हैं, क्योंकि वे लोग केवल इन प्रकार का व्यवसाय करते हैं। कहने का मतलब यही है कि वे ही लोग अपने पूर्वज एक ही घराने के होते हुए भी, आपस में लड़ते-झगड़ते हैं और एक-दूसरे को नीच समझते हैं। इन सब लोगों के पूर्वज स्वदेश के लिए ब्राह्मणों से बड़ी जिद से, बड़ी निर्भयता से लड़ते रहे, इसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणों ने इन सबको समाज के निचले स्तर पर लाकर रख दिया और दर-दर के भिखारी बना दिया। लेकिन अफसोस यह है कि इसका रहस्य किसी के ध्यान में नहीं आ रहा है। इसलिए ये लोग ब्राह्मणपण्डा-पुराहितों के बहकावे में आकर आपस में नफरत करना सीख गये। अफसोस! अफसोस! ये लोग भगवान की निकाह में कितने अपराधी हैं। इन सबका आपस में इतना बड़ा नजदीकी सम्बंध होने पर भी किसी त्योहार को ये उनके दरवाजे पर दूर से ही पका-पकाया भोजन मांगने के लिए आते हैं, तो वे लोग इनको नफरत की निगाह से देखते हैं और कभी-कभी तो हाथ में डण्डा लेकर इन्हें मारने के लिए भी दौड़ते हैं। खैर! इस तरह जिन-जिन लोगों ने ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों से जिस-जिस तरह से संघर्ष किया उनसे उन्होंने उसके अनुसार उनको जातियों में बांट कर एक तरह से सजा सुना दी या जातियों को दिखावटी आधार देकर सभी को पूरी तरह से गुलाम बना लिया। ब्राह्मणपण्डा-पुरोहित सब में सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिकार सम्पन्न हो गये। है न मजे की बात! जब से ब्राह्मणों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों में जातिभेद की भावना को पैदा किया, बढ़ावा दिया, तब से उन के दिलो-दिमाग आपस में उलझ गये और नफरत से अलग-अलग हो गये। ब्राह्मण-पुरोहित अपने षडयंत्र में कामयाब हुए। उनको अपना मनचाहा व्यवहार करने की पूरी स्वतंत्रता मिल गई। इस बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है कि 'दोनों का झगड़ा और तीसरे का लाभ।` मतलब यह कि ब्राह्मणपण्डा-पुरोहितों ने शूद्रादि में आपस में नफरत के बीज जहर की तरह बो दिये और खुद उन सभी की मेहनत पर एशोआराम भोग रहे हैं।


संक्षेप में, ऊपर कहा ही गया है कि इस देश में अंग्रेज सरकार आने की वजह से शूद्रादि-अतिशूद्रों की जिन्दगी में एक नई रोशनी आई। ये लोग ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त हुए, यह कहने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं है। फिर भी हमको यह कहने में बड़ा दर्द होता है कि अभी भी हमारी इस सरकार ने शूद्रादि-अतिशूद्रों को शिक्षित बनाने की दिशा में गैर-जिम्मेदारीपूर्ण रवैया अख्तियार करने की वजह से ये लोग अनपढ़ के अनपढ़ ही रहे। ये लोग शिक्षित पढ़-लिखे बन जाने की वजह से ब्राह्मणों के नकली-पाखंडी (धर्म) ग्रंथों के शा-़पुराणों के अन्ध भक्त बनकर मन से, दिलो-दिमाग से गुलाम ही रहे। इसलिए उन्हें सरकार के पास जाकर कुछ फरियाद करके अंग्रेज सरकार और अन्य सभी जाति के लोगों के पारिवारिक और सरकारी कामों में कितनी लूट-खसोट करके खाते हैं, गुलछर्रे उड़ाते हैं, इस बात की ओर हमारी अंग्रेज सरकार का अभी तक कोई ध्यान ही नहीं गया है। इसलिए हम चाहते हैं कि अंग्रेज सरकार ने सभी जनों के प्रति समानता का भाव रखना चाहिए और उन तमाम बातों की ओर ध्यान देना चाहिए कि जिससे शूद्राति-अतिशूद्र समाज के लोग ब्राह्मणों की मानसिक गुलामी से मुक्त हो सकें। अपनी इस सरकार से हमारी यही प्रार्थना है।


इस किताब को लिखते समय मेरे मित्र विनायकराव बापूजी भण्डारकर और सा. राजन्ना लिंगू इन्होंने मुझे जो उत्साह दिया, उसके लिए मैं उनको बहुत धन्यवाद देता हूं।

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