December 17, 2007

क्रिकेट-कथा वाया मीडिया

इंटरनेट से


  • उमाशंकर सिंह


वीरू का बल्ला आज हेडलाइन्स तय कर रहा है। मीडिया आज ऐसी विचार-शून्यता की हालत में पहुंच गया है कि उसे कुछ सूझ नहीं रहा।



अहा इंडिया` रातों रात 'हाय हाय इंडिया` में बदल गया। बिना किसी भूमिका के अपनी बात कहूं तो मुझे यह हार भारतीय क्रिकेट टीम की उतनी नहीं लगती, जितनी कि न्यूज चैनलों की। मेरे ऐसा कहने से हो सकता है कि अपनी ही जमात (मीडिया) के लोग मुझे भला बुरा कहें॥ लेकिन मेरे पास मुकम्मल तर्क हैं। क्रिकेट जिस तरह से न्यूज चैनलों की स्थाई खुराक बन चुका है, वह किसी से छिपा नहीं है। खेल तो पहले भी होता था, होता रहेगा। पहले वह खिलाड़ियों को पहचान देता था। लेकिन अब न्यूज चैनल्स के एडिटर्स भी उसके सहारे अपनी पहचान बनाने में जुटे दिखते हैं। इससे दर्शकों के बीच तो उनकी पहचान क्या बनेगी, लेकिन.. मैनेजमेंट के सामने.. कि देखिए हमने आपको इतनी टीआरपी दिलाई। बेशक मैनेजमेंट इसे किसी और रूप में चाहता हो, लेकिन फिलहाल यह सूट कर रहा है। अच्छी टीआरपी, पर नाहक खुश हुआ जा सकता है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इससे उन्हें वह जॉब सटिस्फैक्शन भी मिलता होगा। जैसा पहले अपनी एक अच्छी रिपोर्ट के बाद वे महसूस करते होंगे। संबंधित विभाग या इलाके में अगर किसी खबर का पॉजेटिव असर हो जाए, तो यह एक पत्रकार के लिए चरम संतुष्टि की स्थिति होती है। लेकिन संतुष्टि की इस स्थिति को टीआरपी के खेल ने लील लिया है।


टीआरपी तय करने वाले भी अपना सच छिपाते नहीं। कहते हैं कि मीटर उन्हीं के घरों में लगाये जाते हैं, जिनकी आमदनी हर साल लाखों में हो। यानी उच्च मध्यवर्गीय परिवारों में, जिनके पास खरीदने की ताकत है। खरीदने की ताकत रखने वाले वही दो-तीन हजार परिवार आपको नचा रहे हैं। वॉच डॉग के तौर पर आपसे कई चीजें तय करने की उम्मीद की जाती है। लेकिन चीजें आपको तय करने लगी हैं। आपकी ताकत कहां हैं?


हमारे वरिष्ठ सहकर्मी सत्येन्द्र रंजन जी ने मुझे बताया कि क्रिकेट के एक तथाकथित दीवाने की खबर ने चैनलों में खास जगह बनायी। वह किडनी बेच कर भारत का मैच देखने जाना चाहता है। दीवानेपन में कोई ऐसा करने की सोच सकता है, इसमें शक नहीं। लेकिन उस इंसान को उसकी बेवकूफी बताने और उसके जरिये ऐसे तमाम दीवानों को समझाने की बजाय चैनलवालों ने उसे महिमामंडित करने में गुरेज नहीं किया। आपका कैमरा उसको और उकसा रहा है। यह गैरकानूनी भी है। हार के बाद उससे पूछना चाहिए कि क्या वह अब भी ऐसा करना चाहता है? ऐसा न हो कि वह किडनी बेच कर उधर जाए और भारतीय टीम कप क्या बिना ग्लास के वापस आ जाए। तब आप शायद बहती धारा के साथ चल पड़ने की सुविधा का इस्तेमाल करते नजर आएं।


क्रिकेट और उससे जुड़ी खबरें ऐसे ही बन रहीं हैं। भारत की बांग्लादेश के हाथों हार के बाद सभी सहवाग के पीछे पड़े हैं। पहले भी पड़े थे। लेकिन टीम से नहीं निकलवा पाये। नजफगढ़ के नवाब खराब फॉर्म के बावजूद टीम में टिके रहे। वजह चाहे जो भी हो। दसियों न्यूज चैनल ने इस पर बीसियों तरह से विश्लेषण किया। आंकड़े पेश किये, लेकिन वर्ल्डकप की टीम में उसे जाने से नहीं रोक पाये। अब शायद सहवाग का करियर अपनी ही मौत मर जाए॥ तो इन चैनलों को लगेगा कि ये उनके एसएमएस पोल का इंपैक्ट है। वीरू का बल्ला आज हेडलाइन्स तय कर रहा है। मीडिया आज ऐसी विचार-शून्यता की हालत में पहुंच गया है कि उसे कुछ सूझ नहीं रहा।


ठीक है कि क्रिकेट को लेकर देश में दीवानगी है। जीतने पर खुशी और हारने पर दुख होता है। कुछ मैच ऐसे होते हैं, जिन्हें लोग छोटे-मोटे काम को ताक पर रख कर देखते हैं। क्रिकेट के दीवानों को सब कुछ क्रिकेट ही लगता है। लेकिन न्यूज चैनल वाले भी अपना सब कुछ क्रिकेट को ही मान लें॥ घंटों-घंटों की फ्री एयर टाइम दें.. पहले चढ़ाने के लिए, फिर गलियाने के लिए.. ये बात मुझे परेशान करती है। अरे वे इतने ही खराब हैं तो उनको अपनी हालत पर छोड़ दो। यारों! कुछ लाकर दें, तब बताओ ना। क्यों मरे जा रहे हो। उन्हीं के सहारे अपनी दाल-रोटी का जुगाड़ कर रहे हो तो बात अलग है। लेकिन आप पहले भी तो अच्छा खाना खाते थे। लोग आपसे प्रभावित होते थे। गलत लोग डरते थे। राजनेता इज्जत करते थे। अब यह सारा लिहाज खत्म नहीं, तो कम तो हो ही गया है। जनता आपको क्रिकेट के कहानीकार के रूप में लेने लगी है। इस भेड़चाल में भी आपके पास नया बताने को कभी कभार ही कुछ होता है। बाकी टाइम तो बोतल भी नयी नहीं होती। पुरानी और वो भी खाली।(मोहल्ला.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)


उमाशंकर सिंह एनडीटीवी के पत्रकार हैं।

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