December 14, 2007

संविधान पर न्यायपालिका के हमले के खिलाफ



  • शरद यादव


नौवीं अनुसूची प्रथम संविधान संशोधन के द्वारा लाई गई और जिन्होंने इस प्रथम संविधान को लाया वे और कोई नहीं बल्कि संविधान निर्माता ही थे। अपने ताजे फैसले के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने, छप्पन साल पहले के एक संवैधानिक प्रावधान, जिसे हमारे संविधान निर्माताओं ने बनाया था, की लगभग हत्या कर डाली है। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि इस अनुसूची में १९९३ का तमिलनाडु आरक्षण कानून शामिल है।




सर्वोच्‍च न्यायालय द्वारा संविधान की नौंवी अनुसूची में रखे गये किसी कानून की समीक्षा करने के अधिकार से खुद को लैस करने के बाद भारतीय संविधान की नौवीं अनुसूची की जो आलोचनायें हो रही हैं, वे बताती हैं कि आलोचक या तो इस अनुसूची के बारे में जानते नहीं हैं या फिर हमारे संविधान के प्रति उनमें कोई सम्मान नहीं है। नौवीं अनुसूची प्रथम संविधान संशोधन के द्वारा लाई गई और जिन्होंने इस प्रथम संविधान को लाया वे और कोई नहीं बल्कि संविधान निर्माता ही थे।

१९५१ में जब पहला संविधान संशोधन किया गया तो लोकसभा और राज्यसभा अस्तित्व में आया भी नहीं था तथा संविधान सभा ही संसद के रूप में काम कर रही थी। तीन-चार साल आजाद रहने का अनुभव हासिल करने के बाद यह संशोधन किया गया। इन तीन-चार वर्षों में हमारे संविधान निर्माताओं को पता चल चुका था कि निहित स्वार्थ विधायिका द्वारा बनाये गये कानून में तोड़-फोड़ करने के लिए न्यायपालिका तथा न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग कर रहे थे। इसी तरह के दुरूपयोग से कुछ कानूनों को बचाने के उद्देश्य से नौवीं अनुसूची की रचना की गयी, जिसका उद्देश्य कुछ कानूनों को न्यायिक समीक्षा के परे ले जाना था। इसका अर्थ यह भी था कि इन कानूनों के तहत की गयी कार्रवाईयों को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। किन्तु सर्वोच्च न्यायालय के ११ जनवरी, ०७ के जजमेंट ने नौवीं अनुसूची के प्रावधानों द्वारा रक्षित कानूनों को न्यायिक समीक्षा की परिधि में ला दिया है। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा बनाये गये एक संवैधानिक प्रावधान को निरस्त कर दिया है। यह एक ऐसा नीतिगत सवाल है जिस पर सर्वोच्च न्यायालय कोई फैसला देने के लिए शक्तिसंपन्न नहीं है। सरकार चलाने की जिम्मेवारी कार्यपालिका की है। सरकार चलाना न्यायपालिका का काम नहीं है।

कानून बनाने तथा संविधान संशोधित करने की शक्तियां संसद में निहित हंै। अपने ताजे फैसले के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने, छप्पन साल पहले के एक संवैधानिक प्रावधान, जिसे हमारे संविधान निर्माताओं ने बनाया था, की लगभग हत्या कर डाली है। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि इस अनुसूची में १९९३ का तमिलनाडु आरक्षण कानून शामिल है। अपने देश के लोकतांत्रिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए बनाये गये इस संवैधानिक प्रावधान की अवहेलना करने की किसी कोशिश का कोई लोकतांत्रिक व्यक्ति समर्थन नहीं कर सकता।

नौवीं अनुसूची के अधीन रखे गये कानूनों में सबसे ज्यादा भूमि तथा भूमि सुधार से संबंध रखते हैं। नौवीं अनुसूची के अंतर्गत २८४ कानून हैं जिनमें एक आरक्षण तथा एक बीमा से संबंधित है। लगभग एक दर्जन कानूनों का संबंध उद्योग, वाणिज्य तथा व्यापार से है। एक मोटरगाड़ी अधिनियम से भी संबंधित है। इन अपवादों को छोड़कर बाकी सभी कानून भूमि तथा भूमि सुधार से संबंधित हैं। आजादी मिलने के बाद भूमि सुधार कार्यक्रमों की शुरूआत की गयी लेकिन जमींदारों ने भूमि सुधार कार्यक्रमों को बाधित करने के लिए केस-मुकदमा तथा कानूनी प्रक्रियाओं का दुरूपयोग किया।

यह उस समय की बात है जब भारत ने तुरंत आजादी पायी थी। लेकिन क्या तब से आज तक स्थिति बदली है? हमारे संविधान निर्माताओं ने नौवीं अनुसूची को इसलिए बनाया क्योंकि उनका विश्वास था कि अदालतें गरीबों के लिए नहीं हैं। उनका मानना था कि अदालतें अमीरों के लिए होती हंै जो न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग कर गरीबों को उनके वाजिब अधिकारों से वंचित करते हैं। जो गरीब आदमी एक शाम का खाना नहीं जुटा पाता है वह मुकदमा का खर्च कैसे उठा सकता है? स्थिति आज भी जस की तस है। क्रूर तथ्य यह कहते हैं कि छप्पन वर्षों में स्थिति और भी बिगड़ी है।

निठारी इसका ज्वलंत प्रमाण है। दर्जनों बच्चे गायब हुए। उनके माता-पिताओं को पुलिस से कोई मदद नहीं मिली। उनके केस पर सही कार्रवाई नहीं हुई। कुछ तो अपनी शिकायत तक नहीं दर्ज कर पाये। मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि उन बच्चों में से किसी के पिता पुलिस पर दबाव बनाने के लिए कोर्ट नहीं जा सके। केवल मध्यम वर्ग से आने वाली पायल नाम की बच्ची के पिता अदालत जा पाए। निठारी के गरीब राष्ट्रीय महिला आयेाग गये, प्रधानमंत्री का दरवाजा खटखटाया, स्थानीय सांसदों से मिले और उनमें से कुछ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से मिले। वे अखबरावालों से मिले। लेकिन उनमें से कोई अदालत नहीं गया क्योंकि वे जानते थे कि अदालत उनके लिए नहीं है।

तो सरकार क्या करे यदि अदालतें गरीबों के लिए नहीं हंै तथा समाज का समृद्धशाली तबका गरीबों को महंगे तथा समयखपाऊ न्यायिक प्रक्रिया का इस्तेमाल करने से रोकने की कोशिश करता है? एक लोकतांत्रिक देश की कोई सरकार अमीरों द्वारा गरीबों पर न्यायिक हमलों को होता देखकर चुप नहीं बैठ सकती है।

संविधान की नवीं अनुसूची के अंतर्गत गरीबों को न्यायपालिका तथा न्यायिक प्रक्रिया के दुरूपयोग के खिलाफ संवैधानिक सुरक्षा मिली हुई थी। चौधरी चरण सिंह राष्ट्रीय नेता के रूप में इसलिए उभर पाये क्योंकि भूमि सुधार कानूनों को वे अनुसूची के अधीन रक्षित हाने के कारण लागू करवा पाये। नौवीं अनुसूची के रक्षा कवच के बिना वाम मोर्चा भी भूमि सुधार कानूनों को लागू नहीं करवा सकती थी।

बिहार में हमारी सरकार वाम मोर्चे के नक्शे कदम पर चलने की कोशिश कर रही थी किन्तु इस निर्णय ने बिहार के लिए वाम मोर्चा का अनुसरण करना असंभव बना दिया है।

मैं कानूनी या संवैधानिक विशेषज्ञ होने का दावा नहीं कर सकता। लेकिन अनुभव से कह सकता हूं कि केवल जनता संविधान और उसके मूलभूत ढांचे की रक्षा की गारंटी कर सकती है। नौवीं अनुसूची द्वारा रक्षित भूमि सुधार कानूनों ने सामंती ढांचे को कमजोर किया जिसके चलते वोट पर सामंती ताकतों का वर्चस्व खत्म हो गया। नौवीं अनुसूची ने जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत बनाया। चुनाव के माध्यम से प्रतिबिंबित जनमत ही संविधान के सुरक्षा की गारंटी हो सकती है।

उन लोगों से मेरा सवाल है जो विश्वास करते हैं कि केवल न्यायपालिका ही संविधान की रक्षा कर सकती है; न्यायपालिका क्या कर रही थी जब १९७५ में भारतीय संविधान का गला घोंटा गया था? जब लाखों लोग 'मीसा` में जेल भेजे गये थे? मैं जानना चाहूंगा कि तथाकथित विशेषज्ञों में, जो सर्वोच्च न्यायालय की प्रशंसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वह नौवीं अनुसूची को खत्म करने की कोशिश कर रहा है, कितने ऐसे लोग थे जो उस समय जेल गये जब इंदिरा गांधी ने संविधान को निरर्थक बना दिया था?

मैं खुद भी जेल में था तथा मैं जानता हूं कि किसी को कहीं से कानूनी या न्यायिक राहत नहीं मिली। न्यायपालिका ने संविधान को बहाल नहीं किया। मतदान करने वालें भारत के नागरिकों की इच्छा की विजय हुई। इंदिरा गांधी ने चुनाव की घोषणा किसी न्यायपालिका के निर्देश पर नहीं की थी। लोकतांत्रिक दबाव में उन्हें ऐसा करना पड़ा।
मैं तमाम लोकतांत्रिक ताकतों का आह्वान करता हूं कि वे मूलभूत ढांचे की रक्षा करने के नाम पर संविधान के खिलाफ न्यायपालिका के हमले के विरूद्ध उठ खड़े हों। (अनुवाद : अशोक यादव)


शरद यादव जनता दल (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष व राज्यसभा के सदस्य हैं।

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