December 11, 2007

...और एक स्कूल का अंत हो गया



  • राजू रंजन प्रसाद


इतिहासकार विजय कुमार ठाकुर पुस्तकों की दुनिया तक सीमित रहने वाले लेखक नहीं थे वरन् विभिन्न मोर्चों एवं संगठनों के माध्यम से सक्रिय भागीदारी भी निभाते थे। छात्रों को संगठित कर उन्होंने 'इतिहास विचार मंच` की स्थापना की थी। इस मंच से प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था एवं सबाल्टर्न स्टडीज जैसे अकादमिक महत्व के विषयों पर व्याख्यान आयोजित हुए थे।



विजय कुमार ठाकुर के असामयिक निधन से बिहार के इतिहास-जगत् को जो क्षति पहुंची है उसकी भरपाई दूर-दूर तक असंभव प्रतीत होती है। खासकर पटना विश्वविद्यालय का इतिहास विभाग तो उनके बगैर वर्षों तक बेजान ही रहेगा। ऐसा लगता है मानो इतिहास विभाग से इतिहास निकाल लिया गया और विभाग शेष रह गया। वे एक प्रतिबद्ध शिक्षक, प्रतिबद्ध इतिहासकार और छात्रों के सच्चे मार्गदर्शक थे। इन सब के ऊपर वे एक बेहतर मनुष्य थे। उनके जाने से एक साथ इतने सारे पदों की रिक्ति हो गई। भविष्य का कोई अकेला आदमी इन तमाम रिक्तियों को भर सकेगा, संदेह है।

ठाकुर जी को इतिहास विरासत में प्राप्त हुआ था। सन् ५२ में इनका जन्म उपेन्द्र ठाकुर के घर हुआ जो स्वयं प्राचीन इतिहास, संस्कृत और पालि के विद्वान थे। रामकृष्ण मिशन, देवघर से मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद सायंस कॉलेज, पटना में उन्होंने दाखिला लिया। इतिहास को शायद यह मंजूर न था, फलत: बी.ए. में वे बी.एन. कॉलेज आ गये, जहां इतिहास को उन्होंने अपना विषय बनाया। इतिहास विभाग से उन्होंने ७२-७४ सत्र में एम.ए. किया और मार्च १९७५ में उसी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए। इसी दौरान राधाकृष्ण चौधरी के निर्देशन में भागलपुर विश्वविद्यालय से 'अर्बनाइजेशन इन एंशिएंट इंडिया` विषय पर अपना शोधकार्य पूरा किया। इनके शोध निर्देशक बिहार में मार्क्सवादी इतिहास लेखन की पहली पीढ़ी के इतिहासकार थे।

प्रो. ठाकुर के लेखन की शुरुआत सन् ८१ में उनकी पुस्तक 'अर्बनाइजेशन इन एंशिएंट इंडिया` के प्रकाशन से मानी जा सकती है। इस पुस्तक के बाद उन्होंने भारतीय इतिहास लेखन के सबसे विवादास्पद विषय अर्थात 'सामंतवाद` को चुना और उससे जुड़ी विभिन्न धाराओं की पड़ताल प्रस्तुत करते हुए सन् ८९ में 'हिस्ट्रीयॉग्राफी ऑफ इंडियन फ्यूडलिज्म` नामक पुस्तक प्रकाशित की। सन् ९३ में सोशल डायमेंशंस ऑफ टेक्नॉलॉजी : आयरन इन अर्ली इंडिया` प्रकाश में आई। २००३ में पीपुल्स हिस्ट्री श्रृंखला के तहत इरफान हबीब के साथ 'दि वेदिक एज` पुस्तक लिखी जो वेदकालीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति को समझने के लिए एक जरूरी किताब साबित हुई। विगत वर्ष यानी सन् २००६ में 'सोशल बैकग्राउंड ऑफ बुद्धिज्म` छपकर आई जिसमें बौद्ध-धर्म से संबंधित अद्यतन जानकारियों एवं अवधारणाओं को उद्घाटित करने की कोशिश थी। आपने कुछ महत्वपूर्ण किताबों का संपादन भी किया है जिनमें 'टाउंस इन प्री माडर्न इंडिया`, 'पीजेंट्स इन इंडियन हिस्ट्री-खंड-१`, 'सायंस, टेक्नॉलॉजी एंड मेडिसीन इन इंडियन हिस्ट्री` आदि प्रमुख हैं। 'पीजेंट्स इन इंडियन हिस्ट्री` का दूसरा एवं तीसरा खंड प्रेस में है। इनके अलावे सैकड़ों शोध आलेख विभिन्न पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में प्रकाशित हैं।

विजय कुमार ठाकुर महज पुस्तकों की दुनिया तक अपने को सीमित छोड़ देने वाले लेखक न थे वरन् विभिन्न मोर्चों एवं संगठनों के माध्यम से सक्रिय भागीदारी भी निभाते थे। सन् ९१ में जब मैं पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग का छात्र था, उन्होंने अपने संरक्षण में विभाग के अन्य छात्रों को संगठित कर 'इतिहास विचार मंच` की स्थापना की थी। इस मंच की स्थापना में मेरे सहपाठी श्री अशोक कुमार का भी अपूर्व योगदान था। इस मंच से 'प्राचीन भारत में जाति-व्यवस्था एवं 'सबाल्टर्न स्टडीज` जैसे अकादमिक महत्व के विषयों पर व्याख्यान आयोजित हुए थे।

देश में इतिहास की सबसे बड़ी संस्था 'इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस` में बिहार की भागीदारी को निर्णायक बनाने में ठाकुर जी का योगदान प्रशंसनीय रहा। यह उनके निजी प्रयास व नेतृत्व-कौशल का नतीजा था कि बिहार से सैकड़ों इतिहासकार (विशेषकर युवा) हिस्ट्री कांग्रेस में अपनी उपस्थिति दर्ज कर पाते थे। ठाकुर जी १९७५ से इसके सक्रिय सदस्य थे। वे कार्यकारिणी सदस्य भी थे। सन् ९२-९५ के बीच वे संयुक्त सचिव रहे। सन् १९९७ में, अर्थात् बंगलोर अधिवेशन (५८वें) में प्रभागाध्यक्ष (सेक्शनल प्रेसीडेंट) रह चुके थे। सन् २००४ में वे आगामी तीन वर्षों के लिए जेनरल सेक्रेटरी चुने गये किंतु खराब स्वास्थ के कारण नवम्बर,२००५ में उन्होंने इस्तीफा दे डाला। इसके अतिरिक्त वे आंध्र इतिहास परिषद् तथा बंग इतिहास परिषद् के भी प्रभागाध्यक्ष रह चुके थे। ओरिएंटल कांफ्रेंस,२००६ (श्रीनगर) में भी वे प्राचीन भारत के प्रभागाध्यक्ष हुए। इधर वे प्राध्यापक से उपकुलपति हो गये थे।

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