December 11, 2007

भूंडलीकरण को स्वीकार करना ही होगा


प्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चंद्र से भूमंडलीकरण,१८५७ और भगत सिंह पर रोहित प्रकाश की बातचीत


भूमंडलीकरण अब शुरू नहीं हुआ है। यह पूंजीवाद का हिस्सा है। अगर आप मार्क्स को पढ़ें तो पता चलेगा कि वह इसकी तरफ ध्यान दिलाने वाले पहले व्यक्ति थे।उन्होंने १८४८ में कम्युनिस्ट घोषणापत्र में लिखा है कि पूंजीवाद एक विश्व-व्यवस्था है। तो भूमंडलीकरण क्या है? यह भी विश्वव्यवस्था है। भूमंडलीकरण का मतलब और कुछ नहीं बल्कि यह है कि आप भी विश्व की आर्थिक व्यवस्था का हिस्सा बन रहे हैं। उसने कहा कि यह बाहर के लोगों को सिर्फ दो विकल्प देता है। या तो आप इसमें शामिल हो जाइये या फिर इसके द्वारा पराजित।



रोहित प्रकाश : भूमंडलीकरण पूरी दुनिया में व्यापक चर्चा का विषय बना हुआ है, अलग-अलग अनुशासन के लोगों ने इसे परिभाषित किया है और इसके प्रभावों की व्याख्या की है, भूमंडलीकरण के बारे में आपके क्या विचार हैं?

विपिन चन्द्र : मेरे हिसाब से भूमंडलीकरण की आलोचना का आधार इसमंे निहित खामियां होनी चाहिए। यह कहना कि भूमंडलीकरण की प्रक्रिया रूकनी चाहिए, बिल्कुल बेवकूफाना बात है, क्योंकि भूमंडलीकरण अब शुरू नहीं हुआ है। यह पूंजीवाद का हिस्सा है। अगर आप मार्क्स को पढ़ें तो पता चलेगा कि वह इसकी तरफ ध्यान दिलाने वाले पहले व्यक्ति थे। उन्होंने १८४८ में कम्युनिस्ट घोषणापत्र में लिखा है कि पूंजीवाद एक विश्व-व्यवस्था है। तो भूमंडलीकरण क्या है? यह भी विश्वव्यवस्था हैै। भूमंडलीकरण का मतलब और कुछ नहीं बल्कि यह है कि आप भी विश्व की आर्थिक व्यवस्था का हिस्सा बन रहे हैं। उसने कहा कि यह बाहर के लोगों को सिर्फ दो विकल्प देता है। या तो आप इसमें शामिल हो जाइये या फिर इसके द्वारा पराजित। तीसरा कोई समाधान नहीं है। चीन एकमात्र देश है जिसने १९वीं सदी में भूमंडलीकरण का विरोध किया था। उन्होंने कहा कि हम पूंजीवादी व्यवस्था का हिस्सा नहीं बनेंगे। १८४० और १८६० में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। उन्हें अपमानजनक स्थितियों को स्वीकार करना पड़ा। लेकिन उन्होंने फिर कहा कि हम इससे अलग ही रहेंगे। उसके बाद माओ तथा अन्य लोगों के अनुसार चीन एक अर्ध औपनिवेशिक देश बन गया। भारत की तुलना में अधिक पिछड़ा। दूसरी तरफ जापान की हार थी। लेकिन उन्होंने कहा हम इसलिए हारे हैं क्योंकि हम इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं। उन्होंने उन स्थितियों को स्वीकार किया जो उनपर लादी गई थी। कोई आर्थिक या शारीरिक अपराध होता है तो उसकी जो कोर्ट होती थी उसमें अध्यक्षीय जज विदेशी होता था। अगर विदेशी जज न हुआ तो पार्षद या राजदूत या कोई और लेकिन कोई विदेशी दूतावास से जरूर होगा।

जापान ने मान लिया और फिर अपने लोगों को अमेरिका, इंग्लैंड और फ्रांस भेजा। उन्हें कहा कि अध्ययन करके आओ उनके कानूनों को। यह नहीं कहा कि हमारे पारंपरिक कानून हैं। हम तुम्हारे कानून को नहीं मानेंगे, तुम हमें उपनिवेश बना रहे हो। फिर उद्योगों की तरफ ध्यान दिया। उन्होंने कहा कि हमने अपनी न्यायिक व्यवस्था बदल ली है। हमारे जज तुम्हारे यहां से पढ़े हुए हैं। तुम किस आधार पर हम पर अधिकार जताते हो। हम जापानी कानून नहीं इस्तेमाल कर रहे हैं। हम आधुनिक कानूनों का इस्तेमाल कर रहे हैंं। हम आधुनिक प्रशिक्षित जजों का इस्तेमाल कर रहे हैं। जो तुम्हारे यहां प्रशिक्षित हुए हैं और अर्थव्यवस्था के बारे में उन्होंने कहा कि हम भी मजबूत हो गये हैं। अब शर्तों को हमारे ऊपर से हटाओ। बल्कि यह भी देखो कि हम तुम्हारी तरह साम्राज्यवादी भी हैं। उन्होंने चीन की तरफ कूच किया।

तो जापान एकमात्र एशियाई देश है जो स्वतंत्र बना रहा। चीन की तो बुरी स्थिति हो गई और भारत के पास तो विकल्प ही नही था। हम पराजित होकर विश्व-व्यवस्था का हिस्सा बने। क्योंकि हमारे यहां टीपू सुल्तान को छोड़कर १८वीं सदी में किसी ने समझा ही नहीं कि यह क्या हो रहा है। दुनिया के बारे में उसने भी थोड़ा-बहुत ही समझने की कोशिश की। तो मैं समझता हूं कि भूमंडलीकरण का विरोध नहीं करना चाहिए बल्कि गलत तरीके के भूमंडलीकरण का विरोध करना चाहिए। हमें कहना चाहिए कि भूमंडलीकरण को हम अपनी शर्तों पर चाहते हैं।


रोहित प्रकाश : तीसरी दुनिया के देशों के लिए या भारत जैसे देश के लिए क्या यह संभव है कि भूमंडलीकरण को अपनी शर्तों पर स्वीकार करे?

विपिन चंद्र : तीसरी दुनिया को पृथक योग नहीं बनाया जा सकता। आपको भूमंडलीकरण को स्वीकार करना ही होगा। आप पहले से ही भूमंडलीकरण का हिस्सा हैं, उपनिवेशवाद ने आपको इसका हिस्सा बनाया है। आप उत्तरी कोरिया की तरह पृथक होने की बात नहीं कर सकते। चीन क्या कर रहा है? चीन का बहुत बेहतर ढंग से भूमंडलीकरण हो रहा है। यह चीन की आर्थिक समृद्धि के रूप में आ रहा है। भूमंडलीकरण का विरोध करना महा बेवकूफी है। हमें उनकी शर्तों पर होने वाले भूमंडलीकरण का विरोध करना चाहिए। इसे अपने हित में इस्तेमाल करना चाहिए।

रोहित प्रकाश : आपने अपने एक पूर्व के साक्षात्कार में केंद्र और परिधि के देशों की चर्चा करते हुए कहा था कि भारत केंद्र का देश बनने की दिशा में बढ़ता हुआ देश है। अगर यह आर्थिक समृद्धि व्यापक और बहुसंख्यक भारतीय जनता के हित में नहीं है और साम्राज्यवादी नीतियों का अनुसरण करके ही इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, तो यह किस तरह उचित है?

विपिन चंद्र : यह दूसरी चीज है। जैसे जापान ने खुद का भूमंडलीकरण किया और विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का हिस्सा बना। लेकिन जापानी जनता को इससे कतई फायदा नहीं पहुंचा। जापान के टेक्स्टाईल मिलों में न्यूनतम मजदूरी की दर मुंबई के मजदूरों से भी कम थी, जबकि जापान बड़े पैमाने पर टेक्सटाईल का उत्पादन और निर्यात कर रहा था। जापान ने जनहित के आधार पर अपना भूमंडलीकरण नहीं किया। इसलिए जापान की समाजवादी और कम्युनिस्ट धारा ने १९२०-३० में इस शोषण का विरोध किया। उन्होंने कहा कि जापानी जनता को फायदा मिलना चाहिए। उन्होंने भूमंडलीकरण का विरोध नहीं किया क्योंकि वे मार्क्सवादी थे। उन्होंने यह नहीं कहा कि विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का हिस्सा मत बनो। उन्होंने कहा कि विकास करो लेकिन विकास जनता के हित में होना चाहिए।

रोहित प्रकाश : अगर भारत में भूमंडलीकरण जनहित के आधार पर नहीं हो रहा है बल्कि इसका चरित्र जनविरोधी है तो हम क्यों इसे स्वीकार करें?

विपिन चंद्र : इस बारे में हमारे अर्थाशायिओं और राजनीतिज्ञों से चर्चा करनी चाहिए। मैं तो यह कह रहा हूं कि भूमंडलीकरण का विरोध करने की जगह हमें इसकी नीतियों में बदलाव करने के प्रयास करने चाहिए। हमें भूमंडलीकरण विरोधी नहीं होना चाहिए बल्कि गलत तरह के भूमंडलीकरण का विरोध करना चाहिए। हम एक उपनिवेश के तौर पर वैश्विक अर्थव्यवस्था का हिस्सा थे। चीन एक अर्ध उपनिवेश के तौर पर इसका हिस्सा बना। जापान एक स्वतंत्र देश के तौर पर शामिल हुआ। जनता के साथ क्या हुआ चाहे ये पूंजीवाद था या कुछ और। सोवियत क्रांति हुई और रूस एक समाजवादी देश बना। लेनिन ने काफी कुछ किया इसका हिस्सा बनने के लिए। हर तरह की छूट दी जो वे चाहते थे सिर्फ विश्व व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिए। ये तो स्तालिन ने बाद में कहा कि हम समाजवादी विश्व की पृथक अर्थव्यवस्था हैं । १९२३-२४ के लेनिन के लेखन का अध्ययन करना चाहिए।


रोहित प्रकाश : यह एक कार्यनीतिक कदम था..

विपिन चंद्र : कार्यनीतिक और रणनीतिक क्या होता है, यह लेनिन बखूबी जानते थे। आप विश्व अर्थव्यवस्था से बाहर नहीं रह सकते। कोई रास्ता नहीं है। आप अपने आंतरिक व्यवस्था के संदर्भ में इस पर चर्चा कर सकते हैं कि कौन सी शर्तों पर आप तैयार होंगे। लेकिन शर्तें ठेके जैसे नहीं हांेगी (हंसते हुए)। आप अमेरिका को यह नहीं कह सकते कि यह हमारी शर्त है तब तो हम भूमंडलीकरण में हिस्सा लेंगे वरना नहीं। हमें अपने यहां के भूमंडलीकरण की नीति के बारे में निर्णय लेना चाहिए। यह एक प्रक्रिया है। करना तो है ही, सवाल यह है कि प्रक्रिया क्या होगी।
रोहित प्रकाश : आपने उस साक्षात्कार में यह भी कहा है कि भूमंडलीकरण और उपनिवेशीकरण अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं। क्या भूमंडलीकरण के द्वारा दूसरे किस्म का प्रभुत्व बड़े और विकसित देश स्थापित नहीं कर रहे हैं?
विपिन चंद्र : दोनों बिल्कुल अलग प्रक्रियाएं हैं। यह भूमंडलीकरण नहीं है। विदेशी पूंजी का कुछ उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कुछ खास उद्देश्यों के लिए। दूसरी तरफ बहुराष्ट्रीय कंपनियां अन्य उद्देश्यों के लिए भी हो सकती हैं। इनके प्रभावों पर चर्चा होनी चाहिए। वैश्विक अर्थव्यवस्था का हिस्सा हम कैसे बनने जा रहे हैं, आंतरिक स्थितियों में क्या परिवर्तन होने जा रहे है-इन सब पर चर्चा होनी चाहिए।


रोहित प्रकाश : क्या परिधि से केंद्र बनने की प्रक्रिया बाह्य या आंतरिक शोषण पर आधरित है? दूसरे देशों को अधीनस्थ करना भी इसमें शामिल है?

विपिन चंद्र : यह विश्वव्यवस्था है; मैं इससे सहमत नहीं हूं कि केंद्र होगा, परिधि होगी। यदि, हम केंद्र की ओर बढ़ते हैं तो इससे मेरा अर्थ यह है कि हम विकास की ओर बढ़ते हैं, लेकिन आपको इसके लिए किसी और स्वतंत्र अर्थव्यवस्था को अधीनस्थ करने की जरूरत नहीं है। बल्कि मैं पूर्णत: इस सिद्धांत से सहमत नहीं हूं कि एक केंद्र और दूसरी परिधि होगी। ऐसे में यदि एक देश केंद्र में जायेगा तो किसी अन्य देश को परिधि पर जाना होगा तो मैं यह सवाल करता हूं कि चीन और भारत यदि केंद्र के देश हो जायेंगे तो परिधि पर कौन देश होंगे। परिधि बहुत छोटी हो जायेगी (हंसते हुए), अगर अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी आदि देशों को भी ले लें तो परिधि बहुत छोटी होगी। इसलिए मैं इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता कि केंद्र और परिधि में हमेशा संतुलन रहेगा। केंद्र में दो देश नये आयेंगे तो केंद्र के दो पुराने देश परिधि पर पहुंच जायेंगे, मैं इसे स्वीकार नहीं करता। मेरा अर्थ यह था जो बहुत आसान और सीधा है कि हमें विकास के लिए प्रयास करने चाहिए। हमें आधुनिक अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए प्रयास करने चाहिए। आंतरिक तौर पर जो होता है वह हमारी सामाजिक व्यवस्था है, कैसे वह व्यवस्था बचे हुए वैश्विक समूह के साथ जूझती है, ये देखना चाहिए। देखिये, कई बार लोग भूमंडलीकरण का उपयोग एक किस्म के कूट शब्द के रूप में साम्राज्यवाद की जगह करते हैं, यह सही इस्तेमाल नहीं है। हम एक उपनिवेश या नवउपनिवेश या अर्थ-उपनिवेश नहीं बनने जा रहे। लेकिन वे इस मुद्दे से इस तरह इसलिए जूझते हैं क्योंकि वे चर्चा से बचते हैं। यदि हम ऑटोमोबाईल उद्योग का विकास कर रहे हैं तो क्या हम उपनिवेश बन रहे हैं? अगर हम मोटरगाड़ियों या पुर्जों का निर्यात कर रहे हैं तो कैसे हम उपनिवेश बन जायेंगे। अगर जनहित में नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि आप उपनिवेश बन जाने या किसी के द्वारा अधीनस्थ होने को मजबूर हैं, और आप स्वतंत्र नहीं रह सकते। अमेरिका की अर्थनीति जनहित में नहीं है तो क्या यह उपनिवेश है? आप बिना अधीनस्थ हुए या बिना किसी को अधीनस्थ किये पूंजीवाद का विकास कर सकते हैं। लेकिन पूंजीवादी विकास का मतलब असमान विकास होता है। यह लोगों को गरीब-अमीर और मध्यवर्ग में बांटता है। यह भूमंडलीकरण का हिस्सा नहीं है, बल्कि पूंजीवादी विकास का हिस्सा है, इसलिए मैं कह रहा हूं कि पूंजीवाद का विरोध करना चाहिए, भूमंडलीकरण का नहीं। उदाहरण के लिए चीन ने हमसे अधिक करोड़पतियों को पैदा किया है। हमारी तुलना में उनके उच्च-मध्यम वर्ग की संख्या दुगुनी है। चीनी यात्री, जो विदेशों का भ्रमण कर रहे हैं, भारतीय यात्रियों से दस गुणा ज्यादा हैं । फिर भी चीन में बड़े पैमाने पर असमानता है। लेकिन चीन एक उपनिवेश नहीं है, न ही अर्थ-उपनिवेश। सी.पी.आई, सी.पी.एम, नक्सलवादी या अन्य वामपंथी कोई यह नहीं कहते हैं कि चीन एक उपनिवेश है। चीन ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका और स्वीडन की तुलना में ज्यादा असमानता पर आधारित समाज है। आंतरिक तौर पर क्या होता है यह एक दूसरा प्रश्न है। चीन भूमंडलीकृत दुनिया का हिस्सा है, और कतई उपनिवेश नहीं है। हमें यह चर्चा करनी चाहिए कि क्या हम पूंजीवाद चाहते हैं? क्या हम इस तरह का पूंजीवाद चाहते हैं? लेकिन, आप भूमंडलीकरण के विरोध के नाम पर पूंजीवाद का विरोध नहीं कर सकते। पूंजीवाद का विरोध करना चाहिए, मुझे भी यह असमानता पसंद नहीं है, मैं भी इसका विरोध करना चाहूंगा जो कुछ भी हो इसमें बुरा है।


रोहित प्रकाश : इन दिनों यू.पी.ए. के शासन में भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की प्रक्रियाएं जारी हैं। कम्युनिस्ट पार्टियां इसे समर्थन दे रही हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों की राजनीतिक कार्यनीतिक लाइन से आप सहमत हैं?

विपिन चंद्र : मैं समझता हूं कि सांप्रदायिकता हमारे लिए एक बड़ा खतरा बन गई थी और उस सरकार को हटाकर नया शासन लाना जरूरी था।

रोहित प्रकाश : वर्ष २००७ भगत सिंह का जन्म शताब्दी वर्ष है। आप भगत सिंह पर काम कर रहे हैं। उनके बारे में आपकी क्या राय है?

विपिन चंद्र : मैं भगत सिंह को हिन्दुस्तान के सर्वश्रेष्ठ क्रियाशील और मार्क्सवादी विचारकों में से एक मानता हूं। वे प्रत्येक समस्या के साथ जूझते थे। उनमें एक विकासक्रम था। प्रत्येक ६ महीने मंे वे एक नये रूप में, नये विचारों के साथ सामने आते थे, वे भारतीय यथार्थ का अध्ययन करने में सक्षम थे। मैं उन्हें सर्वश्रेष्ठ विचारक एक विकासशील विचारक के अर्थ में कहता हूं। मैं नहीं समझता कि वह पूर्णत: विकसित विचारक थे और मैं यह भी नहीं कहूंगा कि जो उन्होंने कहा वह सब ठीक है, क्योंकि वह मात्र २३ वर्ष के युवा थे। वह विकास कर रहे थे, अगर आप लेनिन के १८९१-९२ के लेखन को पढें तो आज उस क्रियाशीलता को देख सकते हैं, मगर यह नहीं कह सकते कि वह महान मार्क्सवादी होगा ही। वैसे ही माओ के शुरूआती लेखन में भी देख सकते हैं । लेकिन यह कहना मुश्किल है कि १९२० के आसपास का माओ एक महान विचारक था। आप उनके अध्ययन के क्रम में यह कह सकते हैं कि यह आदमी है जो चीन का महान नेता बनने में सक्षम है। वैसे ही युवा ट्राटस्की में विकसित होने की तमाम संभावनाएं मौजूद थीं। इसलिए खासतौर पर भगत सिंह जिस तरह उपलब्धियां हासिल कर रहे थे और हर मुद्दे को समझने का प्रयत्न किया, यह नहीं कहा कि मार्क्स ने कहा है तो मान लो, मैं उनका सम्मान करता हूं, और समझता हूं कि उनकी मृत्यु आधुनिक भारत की बहुत बड़ी त्रासदी है।

रोहित प्रकाश : गांधी और भगत सिंह के अंतर्विरोध के बारे में आप क्या समझते हैं?

विपिन चंद्र : उन दोनों में बहुत अंतर था। गांधी ने वर्गीय दृष्टिकोण से चीजों को नहीं देखा जबकि भगत सिंह के पास वर्गीय दृष्टिकोण था। दूसरी तरफ भगत सिंह ने वर्गीय क्रांति को प्रधानता दी। मगर गांधी को लगा कि हमारा समाज दूसरों से अलग है इसलिए रास्ता भी अलग ही होगा। पहले बिंदु पर मैं भगत सिंह से सहमत हूं और दूसरे पर गांधी से। गांधी के विचार इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट हैं। आप स्थितियों के बीच का संघर्ष ( War of position) नहीं चला सकते, ऐसा सिर्फ लोकतंत्र में संभव है। ग्राम्शी ने जो अध्ययन किया वह हमने भी किया है कि क्यों किसी लोकतांत्रिक समाज में मार्क्सवादी क्रांति नहीं हुई। उन्होंने अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि लोकतंत्र में वार ऑफ पोजिशन जरूरी है न कि वार ऑफ मुवमेंट। रूसी क्रांति सिर्फ रूस में ही हो सकती थी, चीन की क्रांति सिर्फ चीन में, भारत पूर्णत: एक अलग देश है।

खासतौर पर अब यह एक लोकतांत्रिक समाज है एवं चीन की हम कभी पड़ताल नहीं करते कि भारत में क्रांति का चरित्र क्या होगा। हम इस सवाल को पूछते भी नहीं। १९६४ तक सी.पी.आई. और उसके बाद सी.पी.एम सश संघर्ष का पक्ष नहीं लेती, लेकिन वे कोई अन्य रास्ता भी नहीं चुनते कि कैसे और किस तरह बढ़ा जाये। यूरोप के सभी देशों में आंदोलन विफल रहा। हमें इससे सबक सीखना चाहिए कि उन्होंने रूसी क्रांति को दोहराने की कोशिश की। मैं नेपाल के बारे में ज्यादा नहीं जानता, लेकिन क्या माओ की चीनी क्रांति को कहीं और दोहरया जा सकता है। चेग्वारा ने भी सोचा था कि क्यूबा को बोलिविया और निकारागुआ में दोहराया जा सकता है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, अब वे देश दूसरी तरफ मुड़ रहे हैं।

रोहित प्रकाश : नेपाल से कोई आशा बनती है?

विपिन चंद्र : शासन को उखाड़ फेंका गया यह तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन मैं इन लोगों को बहुत बेहतर ढंग से नहीं जानता।

रोहित प्रकाश : आपने १९९० में एक लेख लिखा था 'आरक्षण और आर्थिक विकास` जो 'एशेज ऑन कन्टेमप्रोरी इंडिया` शीर्षक किताब में संकलित है। उसमें आपने लिखा था कि 'आरक्षणवादी और आरक्षणविरोधी दोनों यह भूल रहे हैं कि वर्तमान परिवेश में आरक्षण से भारतीय अर्थव्यवस्था को दीर्घकालीन और दूरगामी नुकसान होगा`। आज लगभग १५ सालों बाद फिर से आरक्षण पर विवाद हो रहा है। मंडल दो के नाम से। इस पर बहुत बहसें भी हो रही हैं और पक्ष एवं विरोध में आंदोलन भी हो रहे हैं। आपके उस वक्त के दृष्टिकोण में कोई परिवर्तन आया है?
विपिन चंद्र : मैंने उस वक्त विरोध किया था और आज भी विरोध करता हूं। मैं आरक्षण के समर्थन में नहीं हूं। मेरे ख्याल से यह आर्थिक विकास के लिए ठीक नहीं है। लेकिन यदि आरक्षण होता है तो क्रीमीलेयर को उससे बाहर नहीं रखा जाये। इस बार भी मेरा तर्क विकास से संबंधित है। अगर आप क्रीमीलेयर को बाहर रखते हैं तो किसे नियुक्त करेंगे, अशिक्षितों को या अर्धशिक्षितों को। यह और नुकसानदायक है। अगर आरक्षण हो तो उसमें क्रीमीलेयर को शामिल किया जाये। वे आरक्षण के द्वारा योग्यता प्रदर्शित कर सकते हैं और विकास में मदद भी कर सकते हैं। बहस बड़ी लंबी हो जायेगी।

रोहित प्रकाश : उस समय कम्यूनिस्ट पार्टियां आरक्षण का विरोध कर रहीं थी और आज समर्थन कर रही हैं..

विपिन चंद्र : हो सकता है वे सही हों। उन्होंने पुर्नविचार किया है लेकिन मैंने कोई पुर्नविचार नहीं किया है। मैं जाति को स्वीकार नहीं करता हूं। मैं समझता हूं कि यह हमारे समाज की सबसे बड़ी कमजोरी है। हमें जाति व्यवस्था का विरोध करना चाहिए और इसका संरक्षण करने की बजाय उखाड़ फेंकना चाहिए।

रोहित प्रकाश : ऐसा किस माध्यम से हो सकेगा?

विपिन चंद्रा : माध्यम बहुत आसान है। हमने बहुत सारी समाजिक कुरीतियों का सफलतापूर्वक विरोध किया है और इसका भी विरोध करना चाहिए। हमें लोगों को शिक्षित करना चाहिए और बताना चाहिए कि वे जाति छोड़ दें। गांधी के पास बहुत आसान समाधान था। नाम के आगे जाति सूचक शब्द मत लगाइये, ताकि किसी को आपकी जाति पता न चले।

रोहित प्रकाश : जो लगाना चाहते है, वे किसी भी तरह लगा लेते हैं।

विपिन चंद्र : मैंने छोड़ दिया है। क्या है मेरी जाति आप अंदाजा लगाईये। जब मैंने विरोध किया तो दक्षिण में कुछ लोगों ने कहा कि मैं ब्राह्मण हूं इसलिए डिफेंड कर रहा हूं। मैं ब्राह्मण तो हूं नहीं। मेरी जाति का आप अंदाजा नहीं लगा सकते।

रोहित प्रकाश : जाति के बारे में वर्गीय दृष्टि से सोचना आपको सही लगता है?

विपिन चंद्र : देखिये, मार्क्सवादी यह समझने में विफल रहे कि जाति वर्ग नहीं है। लेकिन दोनों में संबंध है। जाति को प्रमुखता देकर वह वर्ग की उपेक्षा कर रहे हैं, पहले जाति की उपेक्षा कर रहे थे। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। बुद्धिजीवी और कार्यकर्ताओं के आगे कई सामाजिक मुद्दे हैं जिससे उन्हें जूझना चाहिए। मैं कोई गुरू नहीं हूं। मेरे पास समाधान नहीं है। मेरे पास यही जवाब है। जिसमें मुझे विश्वास है कि आपको जाति को उखाड़ फेंकना है और इस व्यवस्था को भी। अगर यह व्यवस्था बनी रहती है तो आरक्षण कोई मदद करने नहीं जा रहा।

रोहित प्रकाश : १८५७ के विद्रोह के डेढ़ सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं। इसे इतिहासकारों और विचारकों ने विभिन्न रूपों में परिभाषित करने की कोशिश की है। आज डेढ़ सौ वर्षों बाद आप इसकी महत्ता को किस रूप में देखते हैं?

विपिन चंद्र : मेरे हिसाब से १८५७ की सार्थकता इसमें निहित प्रेरणा है कि हमारे देशवासियों ने हमेशा अपने इस देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी है। १८५७ के पहले भी जब-जब अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान के किसी हिस्से पर कब्जा किया तो वहां जबर्दस्त विद्रोह हुए। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि उन्होंने हिन्दुस्तान को एक बार में या एक समय में नहीं जीता था। सबसे पहले उन्होंने बंगाल लिया फिर दक्षिण भारत और उसके बाद पश्चिम भारत, सबसे अंत में उन्होंने मध्य भारत पर अधिकार प्राप्त किया। ऐसे आहिस्ता-आहिस्ता करके उन्होंने जहां-जहां कब्जा किया, कुछ सालों के अंदर ही वहां विद्रोह पनप उठे। इन विद्रोहों में किसान शामिल थे, जमींदार थे, कई जागीरें थी जिन्हें बेदखल कर दिया गया था, वह भी थे। जैसे बंगाल में १७५६ के बाद अंग्रेजी राज बढ़ा तो १७७० से संन्यासी विद्रोह हुए जो अगले २५ सालों तक चलते रहे। जिसका जिक्र वंकिम ने अपने उपन्यास में किया है। उस उपन्यास के पहले संस्करण में संन्यासी विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ ही थे। वैसे ही जब आगरा जीता गया तो वहां भी बगावत हुई, तमिलनाडु में, केरला में, सारे हिन्दुस्तान में। चूंकि उत्तरी भारत जो अवध है। नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस जिसे हम यू.पी. कहते हैं और बिहार के कुछ हिस्से १८२० के बाद कब्जे में आये और खासकर कब्जा जब खुले रूप में प्रकट हो गया तो भयंकर विद्रोह हुए, क्योंकि कई रजवाड़े जो थे वह अंग्रेजों के कब्जे में थे और नाम के लिए हिन्दुस्तानी बने रहते थे। तो सबसे बड़ी रिवोल्ट मानी जाती है १८५७ की।


मैं समझता हूं कि इसकी जो सबसे बड़ी महत्ता है वह इस बात में है कि इस बगावत या विद्रोह के सफल नहीं होने के बावजूद भी हमने लड़ाई लड़ी और कभी भी विदेशी शासन को हमारी जनता ने इसलिए स्वीकार नहीं किया कि हम हार गये हैं। जबकि जबरदस्त दमन हुआ था और १८५७ से हिन्दुस्तानियों ने यह भी सीखा कि अंग्रेजों को इस ढंग़ से नहीं हराया जा सकता, नये ढ़ंग से सोचना होगा। क्योंकि अंग्रेजी शासन बाकी विदेशी शासनों की तरह नहीं था। यह मूलत: आर्थिक आधिपत्य था, उद्देश्य भी आर्थिक ही थे, राजनीतिक नहीं, तो फिर नये ढंग़ से आजादी की लड़ाई लड़ी गई और १९४७ में हम सफल हुए। दूसरी मुख्य बात यह भी कि यह हमारी आखिरी लड़ाई थी, पुराने ढंग़ की। बल्कि सौ सालों से जो लड़ाई थी उसकी चरम स्थिति थी, आखिरी कड़ी थी उस तरह के बगावत या विद्रोह की। इसके बाद जनता और इंटेलिजेंसिया ने मिलकर नये ढ़ंग से सोचना शुरू किया और पिछली लड़ाइयों से प्रेरणा लेकर १९१८ के बाद हमारी लड़ाई अहिंसक ढंग़ से गांधीजी के नेतृत्व में लड़ी गई। प्रेरणा यह नहीं थी हम बंदूक से लड़ें बल्कि यह थी कि हम लड़ें और गांव-गांव में जनता ने उन पुरानी लड़ाइयों से प्रेरणा ली। इसका सबसे बड़ा सबूत फोक सांग्स है। यह दुर्भाग्य है कि वे गीत ज्यादातर नहीं छप सके क्योंकि अंग्रेजों के खिल़ाफ़ बात करना जेल जाने के बराबर था। सुभद्रा कुमारी चौहान का गीत हिन्दुस्तान का और खासतौर पर उत्तरी भारत का हर बच्चा जानता था, हालांकि वह कहीं छपी नहीं थी, तो खूब लड़ी मर्दानी रानी झांसी, तात्या टोपे, हजरत महल, कुंवर सिंह ये सब नाम हम जब बच्चे थे तो जानते थे, तात्या टोपे पर कई किताबें भूमिगत रूप से छपती और बिकती थीं, फोक सांग्स पर तो प्रतिबंध लग ही नहीं सकता था, अब हम कोशिश कर रहे हैं उन फोक सांग्स की स्मृति की। जो सत्याग्रही लड़ते थे वो इन गीतों को भी गाते थे, इसमें कोई विरोध नहीं था कि वह सश संघर्ष था और यह अहिंसक। सवाल यह था कि लड़ाई है और अंग्रेजों के खिल़ाफ है, अंग्रेजों के अधिपत्य के खिल़ाफ है।

रोहित प्रकाश : कुछ इतिहासकार और विचारक यह मानते हैं कि १८५७ का विद्रोह उच्च जाति के हिन्दुओं का विद्रोह था। आप इससे कितना सहमत हैं?

विपिन चंद्र : यह गलत बात है। बात सिर्फ इतनी है कि अंग्रेजों की नीति के हिसाब से सिपाही ज्यादातर उच्च जाति के होते थे और १८५७ की बगावत सर्वप्रथम उन्होंने ही शुरू की। लेकिन वे अपने लिए तो नहीं लड़े। ४ लाख के करीब अंग्रेजी फौज में हिन्दुस्तानी थे। बंगाल आर्मी में आधे हिन्दुस्तानी बागी बने। (बंगाल आर्मी सिर्फ बंगालियों की नहीं थी, ज्यादातर अवध और यू.पी. के लोग थे, कुछ बिहारी भी थे)। तो उस वक्त ज्यादातर ब्राह्मण नियुक्त होते थे या दूसरी उच्च जाति के। लेकिन सवाल यह नहीं है कि यह लड़ाई उच्च जाति की थी। वे किसलिए लड़े? कोई उच्चजाति की मांग नहीं थी। रानी झांसी हो या तात्या टोपे, हजरत महल थी, मौलवी फैजाबाद के लड़े थे, कुंवर सिंह थेऱ्ये तो नेताओं के नाम हैं। आम जनता में तो किसान-मजदूर थे। छोटे कारीगर थे-सब लड़े थे, वे तो ज्यादातर पिछड़ी जाति के होते थे, मुसलमान-हिन्दू सब थे। हो सकता है कि पिछड़ी जाति के लोग कम हों उच्चजाति के ज्यादा हांे। मैंने तो कोई विश्लेषण नहीं पढ़ा है। लेकिन वे सब हिन्दुस्तान की आजादी के लिए लड़े। उन्होंने अपनी कोई मांग नहीं रखी। सिर्फ इसलिए कि महात्मा गांधी उच्चजाति के थे उनकी लड़ाई उच्चजाति की लड़ाई हो गई। कोई पिछड़ी जाति का व्यक्ति अंग्रेजों के हक में लड़ता है तो वह पिछड़ी जाति का नेता बन गया। गांधी, नेहरु, लोकमान्य तिलक उच्चजाति के लोग थे? उनकी मांग क्या थी? दादाभाई नौरोजी तो न उच्चजाति के थे न पिछड़ी जाति के। सबसे पहले आलोचक थे उपनिवेशवाद के। जब उनसे कहा गया कि इन्कम टैक्स देने वालों की संख्या चार गुणा बढ़ गई है, तुम क्यों कहते हो कि हिन्दुस्तान गरीब है। उन्होंने कहा कि मैं अमीरों की बात नहीं करता, गरीबों की बात करता हूं, उनका क्या हाल हुआ है? और दुनिया में उपनिवेशवाद की सबसे पहली आलोचना दादाभाई नौरोजी ने की। तो हम कहें कि वह पारसी था इसलिए हिन्दू-मुसलमान या पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं करता था। पिछड़ी या अगड़ी जाति का मुद्दा तब आता है जब हम मांगों को देखें। सिपाहियों ने जो बगावत की तो उन्होंने एक भी उच्च जाति की मांग नहीं रखी। मेरठ के सिपाहियों ने जब लड़ाई की शुरुआत की तो थोड़े ही दिनों के अंदर पश्चिमी उत्तर प्रदेश का और बाद में अवध का खड़ा हो गया लड़ने के लिए। तो कोई मांग उन्होंने नहीं रखी अगड़ी या पिछड़ी जाति की।

रोहित प्रकाश : १८५७ पर कई किस्म के अध्ययन प्रकाशित हुए हैं। नये अध्ययन भी हो रहे हैं। रामविलास शर्मा की किताब '१८५७ की राज्यक्रांति` में इसकी विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। अभी विलियम डालरिम्पल की किताब 'द लास्ट मुगल` काफी चर्चा में है। आप उससे परिचित ही होंगे। क्या इन अध्ययनों के आलोक में विभिन्न दृष्टिकोणों से १८५७ के विद्रोह को देखने की जरूरत आप महसूस करते हैं?


विपिन चंद्र : मेरी रूचि उस कालखंड में नहीं है। मैं गांधीजी के ऊपर काम कर रहा हूं। अभी भगत सिंह के ऊपर भी काम कर रहा हूं। नेशनल अर्काइव में सैकड़ों बंडल पड़े हैं । १८५७ के ऊपर। वैसे ही स्टेट अर्काइव में भी काफी सामग्री है। १८५७ के बारे में, फिर लोक-स्मृतियां हैं , गीत हैं। इन सबके अध्ययन की जरूरत है। इतिहास में ऐसी कोई घटना नहीं होती जिसे नये और आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखने की जरूरत नहीं होती। ऐसा पहले भी होता रहा है। १८५७ के बाद जो किताबें लिखीं अंग्रेजों ने ही लिखीं और उनमें इसे Sepoy Mutiny कहा गया और इस बात पर जोर दिया गया कि बागियों ने क्या-क्या गलत काम किये। हालांकि ठोस शोध के ऊपर आधारित उस वक्त की किताबें हैं । जैसे विलियम के. की जो अंग्रेजों के दृष्टिकोण से ही लिखी गयी। लेकिन सामग्री और सूचना उसमें इतनी है कि उसी को नये दृष्टिकोण और एप्रोच से देखा जा सकता है। उसके बाद १८५७ पर शोध तो नहीं हुआ क्योंकि इसकी इजाजत ही नहीं थी। स्वतंत्रता के बाद काफी शोध हुए। एस.बी.चौधरी ने काम किया है। दो वॉल्यूम में उनकी किताब है। पहला, Civil rebelion up to 56 और दूसरा, Civil rebelion up to ५७-५८. उन्होंने सबसे पहले बताया कि इस तरह के विद्रोह पहले भी हुए थे लेकिन सीमित क्षेत्रों में ही थे, बड़े क्षेत्र को इसने अपने घेरे में नहीं लिया। १८५७ की प्रेरणा भी वहीं से मिली।

मुझे नहीं मालूम कि रामविलास शर्मा ने ऑरिजन सोर्सेज कितनी देखी थी और मैंने उनकी किताब पढ़ी भी नहीं है। इसके ऊपर आशु मुखर्जी की थीसीस है। कुछ अप्रकाशित पीएचडी थीसीस भी हैं। रूहेलखंड में जो मध्यप्रदेश और बिहार की भूमिका पर लिखे गये हैं एरिक स्ट्रोक्स ने इस पर काम किया है। नये शोध हमारे इतिहास के छात्रों को आकर्षित नहीं कर रहे हैं। शायद इसलिए क्योंकि बंडल खोलकर काम करना पड़ेगा।

रोहित प्रकाश : हिंदी वाले इसमें काफी रूचि ले रहे हैं।

विपिन चंद्र : अच्छा है। लेकिन वे डोक्यूमेन्ट नहीं पढ़ते। रामविलास शर्मा जी का तो मैं प्रशंसक रहा हूं। मैंने उनकी किताब 'भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद` पढ़ी है लेकिन वह पूर्णत: गलत सूचनाओं पर आधारित है। क्योंकि सेकेंडरी किताबों को आधार बनाकर लिखना ठीक नहीं। टेक्स्ट-बुक लो तो ठीक है, उसमें बड़ा रिस्ट्रेन करना पड़ता है। मुझे नहीं पता कि हिंदी वाले शोध कितना कर रहे हैं। जब तक आप नेशनल अर्काइव और स्टेट अर्काइव के मेटेरियल को न पढ़े आप बेहतर इतिहास नहीं लिख सकते।

रोहित प्रकाश : आपने १८५७ के प्रमुख नेताओं की चर्चा की। रानी झांसी, कुंवर सिंह, तात्या टोपे, हजरत महल आदि। आप इनकी भूमिका और योगदान को किस रूप में देखते हैं? क्या विद्रोह इनके नेतृत्व में कुशलतापूव्रक चलाया जा सका?

विपिन चंद्र : देखिये, दिलचस्प चीज यह है कि उच्च वर्ग के जो पुराने शासक थे, बड़े जमींदार और बड़े शासक उनका भी नुकसान हुआ। किसान उठ खड़े हुए क्योंकि ईस्ट इंडिया कम्पनी ने रेवेन्यू बढ़ा दिया और कड़ाई से वसूली करने लगे। पुराने जमाने में यह था कि फसल खराब हो जाये तो माफी मिल जाती थी। अंग्रेज आधुनिक तरीके से काम कर रहे थे। वे कहते थे कि हमारा बजट वार्षिक है। हम अगर माफी देंगे तो हमारे वार्षिक बजट में नुकसान हो सकता है। हम सिपाहियों को तनख्व़ाह देते वक्त यह तो नहीं कर सकते कि ज्यादा वसूली हो तो ज्यादा लो और कम हो तो कम लो। इसके कारण किसान कष्ट झेल रहे थे और नाराज थे। हस्तशिल्पी इसलिए खड़े हुए क्योंकि हिन्दुस्तान उत्पादन-संकट झेल रहा था। अंग्रेजों ने अपने देश और उपनिवेशों में यहां के उत्पादक को प्रतिबंधित कर दिया और अपना माल मुफ्त भेजना शुरू कर दिया। जमींदार और शासक इसलिए खड़े हुए कि उनकी सत्ता जा रही थी। क्योंकि अंग्रेज न सिर्फ लैंड-रेवेन्यू बढ़ा रहा था बल्कि अवध के बड़े जमींदारों को भी हटाने की कोशिश कर रहा था। शासकों को हटाकर अपना सीधा प्रशासन थोपने की कोशिश कर रहा था। १८३० से लेकर १८५५-५६ डल्हौजी तक यह नीति अपनाई गई कि देशी रियासतों को खत्म करके उन्हें कम्पनी शासन के अधीन कर लिया जाये तो फिर जमींदारों ने भी विद्रोह में हिस्सा लिया। नाना साहेब ने इसलिए हिस्सा लिया क्योंकि उनकी पेंशन रूक गई थी। रानी झांसी इसलिए लड़ी कि जो बेटा उसने गोद लिया था उसे अंग्रेज उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार नहीं कर रहे थे, बल्कि उसने कहा कि तुम मेरे बेटे को मान लो मैं हिस्सा नहीं लूंगी। हजरत महल ने इसलिए हिस्सा लिया कि नवाबी खत्म हो गई। लेकिन दिलचस्प चीज यह है कि जब इन्होंने हिस्सा लिया तो बहुत बहादुरी से लड़े, पीछे मुड़कर नहीं देखा। रानी झांसी लड़ी तो जान दी, तात्या टोपे, नाना साहेब के आदमी थे, कुंवर सिंह थे-सब एक बार लड़े तो आखिरी दम तक लड़ते रहे। बहादुरशाह तक ने बहादुरी दिखाई जबकि राजनीति में उसकी कोई भूमिका नहीं थी।

बाद में अंग्रेजों ने इस बारे में अध्ययन और शोध किया। एक अमेरिकन स्कॉलर है टॉम्स मेडकॉफ उसकी भी एक किताब है। शायद इंडिया आफटर रिवोल्‍ट शीर्षक से। अंग्रेजों ने अपनी नीति में तीन बदलाव किये। जमींदारों से जमींदारी छीनना बंद कर दिया और जिनका लिया था उन्हें भी वापस कर दिया। जैसे कि अवध में उन्होंने यह किया कि जो लड़े थे, उन्हें तो मारा और उनसे जमींदारी ले ली, लेकिन उनके भाई-भतीजा या जो भी रिश्तेदार थे, जो लड़े नहीं थे या साथ दिया था, साथ न भी दिया तो कम से कम लड़े नहीं थे, उन्हें जमींदारी सौंप दी। अपने पास नहीं रखी, न जब्त किया। पहले तो बिना लड़े ही जब्त कर रहे थे। इसी प्रकार स्‍टेटस में इस नीति को उलट दिया। उन्होंने शासकों को नियंत्रण में रखने की नीति अपनाई। एक तिहाई हिन्दुस्तान स्‍टेटस में विभाजित था। उन्होंने देखा कि राजा-महाराजा भी लड़े हैं तो उन्होंने उन्हें खरीदना शुरू कर दिया। इनकी स्‍टेटस वापस कर दो और नई ैजंजमे किसी भी सूरत में मत लो। वे ही नेतृत्व दे सकते थे और यह सच्चाई थी कि हमारे ट्रेडिशनल सोसायटी में नेतृत्व था तो जमींदार के हाथ में होता था या राजा के। जो नई लड़ाई लड़ी गई तो इंटेलीजेंसिया सामने आया। तो उन्होंने कहा कि जमींदारी को हाथ में रखो, राजा को साथ रखो, यह नहीं कहा कि यह लड़े थे इसलिए इनको मारो। तीसरा यह था कि हिन्दू-मुस्लिम एकता थी, इसका कोई प्रचार नहीं किया जाता था जैसे आज लोग करते हंै, उस समय सांप्रदायिकता नहीं थी। हिन्दुस्तान में ऐसी कोई लड़ाई नहीं लड़ी गई जिसमें एक तरफ हिन्दू हों और दूसरी तरफ मुसलमान। औरंगजेब लड़ता था शिवाजी से तो उसकी फौज में राजपूत ज्यादा होते थे। जयसिंह मुख्य कमांडर था। औरंगजेब के बाद दूसरे नंबर की हैसियत रखता था। दूसरी तरफ शिवाजी की सेना में तोप का इंचार्ज मुसलमान था। १८वीं सदी की हमारी सबसे बड़ी लड़ाई अब्दाली के खिल़ाफ़ थी। अब्दाली के साथ अवध के नवाब थे। उसने जो फौज भेजी वह नागा सिपाहियों की थी। जो बिना कवच के, नंगे बहादुरी के साथ लड़ते थे। मराठा लड़ते थे, तो उनके साथी जाट भी थे और इमादुर मुल्क वजीर भी था। मुगलों का पूरब कोर्ट भी उनके साथ था। हिन्दू-मुस्लिम की कोई लड़ाई नहीं थी। मध्यकालीन पीरियड पर लिखी गयी किताबों में यह बताया गया कि हम विधर्मियों या दूसरे धर्म के लोगों के ख्ा़िलाफ़ बहुत बहादुरी से लड़े तो उन किताबों को आधार बनाकर अंग्रेजों ने लिखा कि वे लड़ाईयां हिन्दू-मुस्लिम के बीच थी। हम यह देखते हैं कि औरंगजेब की तरफ से राजपूत लड़ रहे हैं और उसके दुश्मन दक्कन के मुसलमान हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता जान-बूझकर थोपी नहीं गई थी। यह हिन्दुस्तान की संस्कृति और राजनीति का हिस्सा था। लेकिन अंग्रेजों ने देखा कि इसमें बड़ा खतरा पैदा हुआ। इसकी उन्हें कभी उम्मीद नहीं थी। तब उन्होंने बांटो और राज करो की नीति जोर-शोर से शुरू की। १८५८ के बाद उन्होंने कहना शुरू किया कि हम हिन्दुओं के पक्षधर हैं और दुबारा बगावत हुई और बहादुरशाह हजरत महल जैसे शासक जीते तो मुसलमानों का शासन होगा। उन्होंने हिन्दुओं को डराया जैसे कभी औरंगजेब ने किया था। १८७८ के बाद उन्होंने जब नये आंदोलन देखे जो इंटेलिजेंसिया के हाथ में थी जो पारसी थे, हिन्दू थे, मुसलमान कम थे तो फिर उन्होंने कहा कि वोट हुआ तो मुसलमान मारे जायेंगे, बल्कि १९३० के बाद उन्होंने यहां तक कहना शुरू किया कि आंदोलन उच्च जाति के लोगों के हाथ में है और अगर यह जीत गये तो ब्राह्मणों का राज होगा, उच्चजाति का राज होगा। हम दलितों के पक्षधर हैं इसलिए हमारा राज यहां रहना चाहिए। १८५८ से १८७८ के बीच यह कहा कि हम हिन्दुओं को बचा रहे हैं मुस्लिम डोमिनेशन से और १८७८ के बाद यह कहना शुरू किया कि हम मुसलमानों को बचा रहे हैं हिन्दू डोमिनेशन से।

रोहित प्रकाश : आप इससे कितना सहमत हैं कि १८५७ के विद्रोह में पुनरूत्थानवादी ताकतें सक्रिय हो उठीं और बंगाल और मराठी क्षेत्रों में हो रहे पुनर्जागरण का विस्तार हिन्दी प्रदेशों में नहीं हो सका या बाधित हुआ?

विपिन चंद्र : बिल्कुल गलत है। आप देखेंगे कि पुनर्जागरण की ताकतें १९२० और १९४०-४२ के बीच सबसे ज्यादा मजबूत कहां थी? हिंदी पट्टी में आप उस पीरियड के साप्ताहिक देखिये, आप हैरान होंगे कि १९२०-३२ के जर्नल में यह छपता था कि नौजवान मुवमेंट रोमानिया में क्या है, किसान आंदोलन हंगरी में कैसा चल रहा है। हिन्दी पत्रकारिता जो पैदा हुई १८७०-८० के बाद वह पुनर्जागरण में बंगाल और महाराष्ट्र से पीछे नहीं था, यह कहना कि पुनरूत्थानवादी ताकतें इससे बढ़ी, यह बिल्कुल गलत बात है। बल्कि दूसरा पहलू अलग है। जिसे लोग कहते हैं कि उस वक्त के इंटेलिजेंसिया ने १८५७ का समर्थन नहीं किया। उनका विचार था कि इससे पुनरूत्थानवादी ताकतें बढ़ेंगी, अगर १८५७ वाले जीत गये और पुनर्जागरण बाधित होगा। १८५५-५६ का जो नया इंटेलिजोंसिया था। वह समझता था कि अंग्रेजों के रहने से पुनर्जागरण की शक्तियां मजबूत होंगी। वे रूसो, बाल्तेयर, जॉन स्टुअर्ट मिल को पढ़ते थे। उनका ख्याल था कि अंग्रेजों की वजह से नई अर्थव्यवस्था आयेगी और नये विचार आयेंगे और विद्रोह सफल हो गया तो उल्टा होगा। वह यह भूल गये कि उपनिवेशवाद पुनर्जागरण की ताकतों के हक में नहीं है। वह न आर्थिक विकास करेगा न ही आधुनिक विचारों का प्रसार करेगा। १८५८ के बाद अंग्रेजों ने यह कहना शुरू किया कि हिन्दुस्तान में आधुनिक उद्योग लग ही नहीं सकते। इसके पहले कहा करते थे कि हम हिन्दुस्तान में डेमोक्रेसी लायेंगे, फ्री-प्रेस लायेंगे जिससे हमारा इंटेलिजेंसिया प्रभावित हुआ था। लेकिन फिर इंटेलिजेंसिया ने भी आलोचनात्मक अध्ययन करना शुरू किया। दादाभाई नौरोजी १८६०-६२ तक समझते थे कि अंग्रेज उन्नत हैं और ईस्ट इंडिया कम्पनी के उपनिवेश के रूप में आधुनिक अर्थव्यवस्था और विचारों से हम भी लाभान्वित होंगे। लेकिन १८७० के बाद उन्होंने उल्टा लिखना शुरू किया। इस बीच यह भी हमारे इंटेलिजेंसिया ने महसूस किया कि उपनिवेशवाद सामंती शक्तियों को मजबूत कर रहा है। देसी रियासत खत्म हो रहे थे और भारत राजनीतिक और प्रशासनिक तौर पर एक देश बनता जा रहा था। अंग्रेज फिर राजाओं के शासन को वापस ला रहे थे, एक तिहाई हिन्दुस्तान स्थायी तौर पर ैजंजमे में बंट गया। उन्हें समय नहीं लगा समझने में कि हिन्दुस्तान का एकीकरण कम हो रहा है बल्कि हिन्दू-मुस्लिम टकराव बढ़े, भाषायी और जातीय टकराव भी बढ़े, इसलिए जो नया इंटेलिजेंसिया था उसने उपनिवेशवाद का विरोध करना शुरू किया खासतौर पर आर्थिक मामलों में। उनका पहले ख्याल था कि इंग्लैंड अकेला आधुनिक देश है जहां आधुनिक उद्योग हंै, उस समय न अमेरिका में था न फ्रांस में। तो उन्होंने सोचा कि इनके सन्निध्य में आ गये हैं तो नम्बर दो हम हो जायेंगे। वे नई मशीनरी लायेंगे, उद्योग लायेंगे और अंग्रेज कहते भी थे, विलियम बेंटिक से लेकर डल्हौजी तक यही कहते थेऱ्यह करेंगे, वह करेंगे। लेकिन उन्होंने देखा कि अंग्रेज पुराने उद्योगों को भी खत्म कर रहे हैं और नये उद्योग पनपने नहीं दे रहे हैं। इसलिए हमारा आधुनिक इंटेलिजेंसिया पुनर्जागरण के हक में नही था। अंग्रेजों ने सामंती शक्तियों, मौलवियों, पंडितों को प्रोत्साहित करना शुरू किया। अवार्ड देने की स्कीम चलाई, रायबहादुर, राय साहब बांटने लगे, पंडितों के लिए भी रखा और मौलवियों के लिए भी। फिर उन्होंने आधिकारिक रूप से कहना शुरू किया कि हिन्दुस्तान का इतिहास ऐसा है वह डेमोक्रेटिक हो ही नहीं सकता, हमेशा उन्हें शासन चाहिए, Despot चाहिए । लेकिन वह उदार होना चाहिए। हम उदार हैं हम अशोक हैं, अकबर हैं, हम औरंगजेब नहीं हैं। यह लोकतंत्र के खिलाफ था, आधुनिक शिक्षा न फैले और बहाना यह बनाया कि प्राईमरी शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देने के उद्देश्य से ऐसा किया जा रहा है। लेकिन वह भी नहीं हो सका। दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं था। राष्ट्रवादियों ने कितनी बार कहा कि यदि आप प्राइमरी शिक्षा फैलाना चाहते हैं तो जितनी संख्या में स्कूल शिक्षक आपको चाहिए वे कहां से आयेंगे। हाइयर एडुकेशन और प्राइमरी एडुकेशन में कोई अंतर्विरोध नहीं है, दोनों फैलने चाहिए। प्राइमरी शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। गोखले ने १९१२ में बिल रखा। वे विश्वविद्यालय के हक में थे। अब भी कई लोग कहते हैं कि विश्वविद्यालयी शिक्षा में रुपये ज्यादा लगते हैं। सच तो यह है कि प्राईमरी शिक्षा के प्रसार के चक्कर में उच्च शिक्षा की उपेक्षा के कारण विश्वविद्यालय बर्बाद हो रहे हैं। कोई आदमी नहीं मिल रहा है विज्ञान-टेक्नालॉजी, इंजिनियरिंग-मेडिसीन में। सच तो यह भी है कि उस पीरियड में इंटेलिजेंसिया ने अपनी गलती को बहुत जल्दी महसूस किया कि ईस्ट इंडिया कम्पनी हमारी मदद के लिए आई है। असली पुनर्जागरण १८५८ के बाद आया जब ये मध्यवर्ग और निम्न-मध्य वर्ग तक पहुंचा। उसके बाद सैंकड़ों लोगों ने बी.ए. पास किया। नौकरियां छोड़कर हिंदी पत्रकारिता शुरू की। उर्दू पत्रकारिता में गये। कुछ लोगों ने राजनीति में भाग लिया। उस समय पत्रकारिता बहुत उन्नत क्षेत्र नहीं था। घोष ब्रदर्स ने साढ़े तीन रूपये में भूखों मर के अपनी पत्रिका शुरू की। यह कौन कहता है कि पुनर्रूत्थानवादी ताकतें बढ़ीं? कहां बढ़ीं? सब जगह पुनर्जागरण की ताकतें मजबूत हुइंर्। महराष्ट्र में भी, पंजाब में भी। दयाल सिंह ने 'ट्रिब्यून` शुरू किया। कॉलेज खोले। १८५७ में सामंती ताकतें नेतृत्व में थी। लेकिन वे लड़े इसलिए कि उनकी स्टेट जा रही थी। राज जा रहा था। सिपाही और किसान इसलिए लड़ा कि भू राजस्व बढ़ा दिया गया था। हस्तशिल्पी लड़े क्योंकि हस्तकला उद्योग चौपट हो रहा था। इस आंदोलन में कई किस्म की ताकतें इकट्ठे मिलकर लड़ी। इस आंदोलन ने चेतना का विस्तार किया और सबने महसूस किया कि यह रास्ता अब नहीं चलेगा। क्योंकि अंग्रेजों ने जमींदारों और राजाओं को खरीद लिया था। उन्हें ऐश करते रहने की छूट दी और जमींदारों से जमींदारी न छीनने का वादा किया। पहले जो छीनी गयी थी उसे भी वापस कर दिया गया। इसलिए जो नये आंदोलन हुए वह इंटेलिजेंसिया के नेतृत्व में लड़े गये।

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