- अन्यान्य
- फ़ज़ल इमाम मल्लिक
पत्रकारिता में बहा भाषा के नाम पर इन दिनों जिस तरह का प्रयोग हो रहा है वह बेतरह डराने लगा है। चैनलों की आई बाढ़ के बाद तो खुला खेल फरूखाबादी चल रहा है। भाषा की विरासत को आगे लेकर जाने वाले ही आज भाषा को चौपट करने में लगे हैं। चिंता तब और बढ़ जाती है जब दैनिक हिन्दुस्तान जैसे समाचार पत्र की मुख्य संपादक मृणाल पांडे भाषा के नाम पर उसी प्रयोग को अपने लेखन में बार-बार दोहराती हैं। शब्दों का प्रयोग करते हुए हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हम उसका कहां और किन संदर्भों में प्रयोग कर रहे हैं। हिंदी में उर्दू शब्दों के इस्तेमाल का चलन इन दिनों बढ़ा है। अखब़ारों ने पहले उर्दू भाषा के आम प्रचलित शब्दों को अपनाया और फिर चैनलों ने इसे आगे बढ़ाया। भाषा के नाम पर की जाने वाली राजनीति और उर्दू-हिंदी के झगड़ों के बीच इस तरह का प्रयोग न सिर्फ हमारी साझी संस्कृति के लिए अच्छी बात थी बल्कि हिंदी भाषा के लिए भी यह एक जरूरी पहल थी क्योंकि इससे हिंदी और अधिक समृद्ध तो होती ही, भाषाई सांप्रदायिकता पर भी अंकुश लगता। ऐसा हुआ भी। हिंदी-उर्दू के नाम पर भाषाई विदेश फैलाने वालों को भी उर्दू को अंतत: अपनाना पड़ा। हिंदी के साहित्यकारों ने भी धीरे-धीरे इस सच को स्वीकारा और हिंदी के साथ उर्दू का इस्तेमाल कर अपनी भाषा को मांझा। लेकिन उर्दू शब्दों के इस्तेमाल से एक अलग तरह का खत़रा भी सामने आया। उर्दू शब्दों का इस्तेमाल करते वक्त़ हिंदी पत्रकारिता के महारथी भी यह भूल गए कि उन शब्दों का सही और सटीक अर्थ क्या होता है और उसे कहां और कब और किन संदर्भों में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उर्दू के शब्दों का प्रयोग करते समय अपनी सुविधा का ध्यान रखते हुए हर किसी ने अपने तरीके से उन शब्दों के अर्थ गढ़े और फिर उसका इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जाने लगा। जिससे न सिऱ्फ भाषा पर सवाल खड़े हुए बल्कि जिस तरह उन शब्दों का इस्तेमाल हुआ उसने उनके अर्थ तक बदल गए। चिंता इसलिए भी होती है कि उर्दू शब्दों का इस्तेमाल करते हुए नई पीढ़ी के पत्रकारों से तो चूक होती ही है, दिग्गज और वरि ठ पत्रकार भी ऐसा ही कर रहे हैं। हिंदी पत्रकारिता में इन दिनों 'खिलाफ़त` और 'खुलासा` का इस्तोमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है। लेकिन इन शब्दों का जिस संदर्भ में इस्तेमाल किया जा रहा है वह सही नहीं है। चैनलों में 'सनसनीखेज़ खुलासा` की तो मानो होड़ सी लगी रहती है। समाचार बुलेटिनों में ऐंकरों और रिपोर्टरों को 'खुलासा` का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हुए सुना/देखा जा सकता है। अखब़ार भी इस होड़ में पीछे नहीं हैं। किसने कब, कहां और कैसे 'खुलासा` का मतलब 'जानकारी`, 'रहस्योद्घाटन` 'मामले को सुलझाना` समझा और उसे बाजार में चलाया, कह नहीं सकता, लेकिन अब इसका इस्तेमाल बेझिझक किया जा रहा है। लेकिन ऐसा करते हुए हमारे महान पत्रकार, ऐंकर, चैनलों के प्रोड्यूसर, रिपोर्टर ने कभी यह जानने की ज़हमत नहीं उठाई कि आखिरकार 'खुलासा` का मतलब होता क्या है? खुलासा को सनसनीखेज बना कर लोगों के सामने परोसने वालों ने उर्दू का शब्दकोश उलट लिया होता तो उन्हें पता चल गया होता कि खुलासा कभी 'सनसनीखेज नहीं हो सकता क्योंकि 'खुलासा` का अर्थ होता है-सार, संक्षेप, निचोड़, सारांश, नतीजा। चैनलों के 'खुलासा` से इन अर्थों का ताल्लुक दूर-दूर तक नहीं है, क्योंकि संक्षेप तो सनसनीखेज हो नहीं सकता और न ही निचोड़ या सारांश सनसनी पैदा करता है। 'खुलासा` यह कि हिंदी पत्रकारिता में 'खुलासा` का इस्तेमाल जो लोग कर रहे हैं और तुर्रम खान बने ऐंठ-अकड़ रहे हैं, उन्हें शब्दों के इस्तेमाल से पहले शब्दों का सही अर्थ जानना बेहद जरूरी है।
वरि ठ साहित्यकार मृणाल पांडे का ज़िक्र यहां करता चलूं । दरअसल यह पूरा आलोख उनके ही लिखे एक आलेख को पढ़ने के बाद लिखने का विचार मन में उठा। स्वतंत्रता दिवस पर उन्होंने अपने कॉलम में 'खिल़ाफ़त` शब्द का इस्तेमाल किया था। दैनिक 'हिन्दुस्तान` में उसी दिन पहले पेज पर उन्होंने अपने संपादकीय में भी 'खिल़ाफ़त` शब्द का इस्तेमाल किया था। लेकिन दोनों जगहों पर खिल़ाफ़त का इस्तेमाल उन्होंने विरोध के लिए किया था। जबकि खिल़ाफ़त का विरोध से नज़दीक का रिश्ता भी नहीं है। उर्दू में विरूद्ध के लिए खिलाफ का इस्तेमाल करते हैं। अब तो हिंदी में भी खिलाफ़ का इस्तेमाल किया जाने लगा है। खिलाफ़ के लिए मुखा़लिफ़ का इस्तेमाल भी होता है। और इसी मुखा़लिफ़ से विरोध के लिए मुखल़िफत बना है लेकिन हिंदी में अपनी आसानी के लिए खिल़ाफ़ से खिल़ाफ़त बना कर उसे विरोध के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। जबकि उर्दू में खिल़ाफ़त का अर्थ विरोध नहीं होता है। उर्दू में खिलाफत का मतलब नुमाइंदगी, प्रतिनिधित्व होता है और यह शब्द खल़िफ़ा से निकला है। खल़िफ़ा का मतलब नुमाइंदा, नाइब, किसी की अनुपस्थिति में उसके स्थान पर काम करने वाला होता है। पैगंबर हज़रत मोहम्मद के इंतक़ाल के बाद उनके जानशीं को खल़िफ़ा कहा गया और उनके दौर या कार्यकाल को खिल़ाफ़त के नाम से पुकारा गया। आजाद़ी की लड़ाई के दौरान मौलाना मोहम्मद अली जौहर के खिल़ाफ़त आंदोलन से हो सकता है लोगों को यह भ्रम होता हो कि वह 'विरोध यानी खिल़ाफ़त` के लिए आंदोलन किया गया हो पर सच तो यह है कि वह आंदोलन प्रतिनिधित्व के लिए किया गया था। खिल़ाफ़त की ऐसी-तैसी करने वाले उर्दू शब्दकोष उलट लेते तो बहुत कुछ स्प ट हो जाता लेकिन पत्रकारिता में 'खिल़ाफ़त के खल़िफ़ाओं` ने तो यह तय कर रखा है कि वे जो बोल रहे हैं, सही है। इसलिए कौन ाब्दको ा का सहारा ले। 'अता` और 'अदा` का मामला भी कम दिलचस्प नहीं है। हिंदी पत्रकारिता में आज भी ऐसे कई लोग हैं जो 'अता` और 'अदा` का मतलब नहीं जानते हैं। इसलिए आज भी 'नमाज़ अता की` का इस्तेमाल किया जा रहा है। जबकि सही वाक्य होगा-नमाज़ 'अदा` की। अदा फ़ारसी और अरबी दोनों ही भाषा में इस्तेमाल होता है। फ़ारसी में इस शब्द का मतलब हावभाव, नाज़, अंदाज़, तरज, प्रणाली होता है जबकि अरबी में अदा का मतलब चुकता करना, बेबाक़ करना, देना, चुकाना होता है। जबकि अता का अर्थ दान, पुरस्कार होता है। तुर्की भाषा में अता का अर्थ पिता, जनक, बाप से है। नमाज़ के साथ अता का इस्तेमाल करने वालों को अब शायद यह समझ आ जाए कि खुदा को कोई भी व्यक्ति दान या बिखशश नहीं दे सकता। 'अता` से 'जागीर अता की` 'ज़मीन अता की` जैसे वाक्य तो ठीक हैं पर नमाज़ तो 'अदा` ही की जाती है। जो शब्दकोष देखने की ज़हमत नहीं उठाना चाहते वे 'अदा` और 'अता` के पचडे में क्यों पड़ते हैं, समझ से परे है। वे सीधे-सीधे क्यों नहीं लिखते 'मुसलमानों ने ईद की` जुमा की नमाज़ पढ़ी`। सारा झंझट खत़्म।
उर्दू शब्दों के सही उच्चारण को लेकर भी अक्सर सवाल उठते हैं। हिंदी में उर्दू शब्दों का प्रयोग तो होता है लेकिन नुक्तों का इस्तेमाल नहीं किए जाने की वजह से बड़ी परेशानी खड़ी हो जाती है। हिंदी में उर्दू शब्दों के लिए नुक्तों का इस्तेमाल नहीं होता है तो 'गजल` 'गजल` हो जाती है। यह कुछ-कुछ गज़क जैसा सुनने में लगता है। ऐसे में तो 'गजल` को तो 'गजल` ही लिखा जाना चाहिए और बोला जाना भी चाहिए। पर यह एक गजल ही क्यों उर्दू में सैंकड़ो ऐसे शब्द हैं जिनमें नुक्त़ा नहीं लगे तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है। हिंदी के एक वरिष्ठ कथाकार की कहानी है 'जंग`। इसी नाम से उनका संग्रह भी प्रकाशित हुआ है। कहानी पढ़ने से पहले जो बात दिमाग में कौंधती है, उसमें 'जंग` के आसपास ही सब कुछ घुमड़ता है। जंगऱ्यानी लड़ाई, युद्ध। पर कहानी पढ़ने के बाद यह बात सामने आती है कि कथाकार ने कहानी का शारीरिक 'जंग` नहीं 'ज़ंग` दिया है। जंग़ का मतलब मोरचा, गंदगी से है। लेकिन यहां इस 'जंग` का इस्तेमाल बिना नुक्ते़ के हुआ है इसलिए कहानी का पूरा अर्थ ही बदल जाता है। इस तरह की परेशानी सिर्फ 'जंग` और 'जंग़` के साथ ही नहीं है। 'ज़ीना` और 'जीना` 'ज़लील` और 'जलील` 'ज़र` और 'जर` 'ज़द` व 'जद` 'जम` व 'ज़म` 'जमाना` व 'ज़माना`, 'नुक्ता` व 'नुक्ता 'जलाल` व 'ज़लाल` के इस्तेमाल में भी इस तरह की सावधानी बरतनी पड़ेगी क्योंकि यहां नुक्ते़ के हेरफेर से खुदा के जुदा हो जाने का खत़रा नहीं है बल्कि अर्थ का अनर्थ हो जाने का खत़रा है। मिसाल मे तौर पर ज़लील व जलील को ही लें। 'ज़लील` का मतलब होता है भ्र ट, नीच, कमीना जबकि जलील प्रतिष्ठित व महान के लिए इस्तेमाल होता है। कभी-कभी 'जलील मियां` को ज्यादा इज्जत देने के लिए चैनल वाले उसे 'ज़लील` बना डालते हैं। उसी तरह ऊपरी मंज़िल पर जाने के लिए 'जीऩा` बना होता है लेकिन 'जीना` कहते ही अर्थ बदल जाता है। फिर आज साहित्य और पत्रकारिता में जिस तरह की राजनीति हो रही है उसमें एक खे़मे की 'ज़द` पर दूसरा खेम़ा रहता है लेकिन अगर यह 'ज़द` 'जद` में बदल जाता है तो सारा मामला ही उलट जाता है यानी जो लोग 'ज़द` से निशाने पर थे 'जद` लिखते, बोलते ही मतलब दादा, नाना, पितामह, मातामह में बदल जाता है। ऐसे में कम से कम मुझे तो यह तर्क वाजिब नहीं लगता कि हिंदी में जो शब्द जिस तरह चलन में आ गया, उसे उसी तरह रहने दिया जाए। फिर नुक्ते के हेरफेर से जो अर्थ का अनर्थ हो जाता है उसके बारे में क्या और कौन सा तर्क दिया जाएगा? यह सही है कि हिंदी में बिंदी या नुक्तों का इस्तेमाल हम नहीं करते लेकिन उर्दू शब्दों के सही अर्थ के लिए क्या ऐसा करना ज़रूरी नहीं है? और अगर ज़रूरी नहीं हैं तो फिर उर्दू के इन शब्दों का इस्तेमाल क्यों और किसलिए किया जाए? थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन चैनलों पर तो समाचार पढ़ा जाता है और जब वे सही और ठीक- ठीक उच्चारण नहीं करते हैं तो मेरे जैसे सुनने वालों को बहुत बुरा लगता है।
पत्रकार व युवा लेखक फ़ज़ल इमाम मल्लिक 'जनसत्ता` से जुड़े हैं।
बहुत बढियां लेख .शुक्रिया !
ReplyDeleteनयी बातें पता चली - धन्यवाद।
ReplyDeleteलिखते रहिए।
ReplyDeleteइस पीढ़ी को आप जैसे जानकारों की सख़्त जरूरत है। शायद ग़लत बोलने लिखने वाले कुछ समझ पाएं।
ऐसा ही ग़लत प्रयोग रूसवाई का भी होता है। हिन्दी शब्द रूसने का अर्थ है रूठना, जबकि उर्दू शब्द रूसवाई का अर्थ है बदनामी ।
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