December 17, 2007

उत्तर प्रदेश का कुरूक्षेत्र



  • विद्याभूषण रावत


उत्तर प्रदेश में जातीय धु्रवीकरण इतना अधिक है कि यदि किसी पार्टी को बहुमत मिल गया तो यह चमत्कार ही होगा। अभी सिर्फ इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि बसपा सबसे बड़े दल के रूप में पुन: सत्ता में आएगी। बहरहाल, इन अनुमानों की सच्चाई तो मई मध्य में ही सामने आएगी जब चुनाव परिणाम घोषित होंगे।



दिल्‍ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है और इस चुनाव का हल्ला इतना अधिक है कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि केन्द्र की वर्तमान सरकार का भविष्य बहुत कुछ इन चुनावों के परिणामों से तय हो जायेगा।
राजनैतिक अनिश्चितता के चलते उत्तर प्रदेश में प्रशासन नामक कोई चीज नजर नहीं आती, निठारी काण्ड हो या कविता चौधरी हत्या काण्ड, गोरखपुर के दंगे हों या शस्‍त्रों का लाइसेंसीकरण। उत्तर प्रदेश में प्रशासन समाजवादी पार्टी का 'काडर` माना जाने लगा था। मुलायम सिंह यादव, एक के बाद एक घोषणाएं कर रहे हैं, उन्होंने कन्या विद्याधन योजना के तहत करोड़ों रुपये बांटे, निठारी में जब लोग गुस्से में थे तो उन्होंने प्रभावित परिवारों को नोएडा मंे एक-एक प्लॉट और सरकारी नौकरी का वादा किया। दादरी में बिजली संयत्र के नाम पर उन्होंने जमीन औने-पौन दाम पर अपने शुभ चिंतक अनिल अम्बानी को बेच दी और जब स्थानीय किसानों ने विरोध किया तो बदले में उन्हें लाठियां और गोलियां मिलीं।

आज उत्तर प्रदेश की राजनीति मुलायम सिंह के पक्ष और विरोध में बंट चुकी है। सारे विपक्षी दल इस बात पर सहमत हैं कि मुलायम का जाना आवश्यक है। लेकिन व्यवहारिक धरातल पर यह सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या नतीजे होंगे उत्तर प्रदेश के चुनावों के। क्या मुलायम को घेरने की लामबन्दी सफल होगी?

जिस तरह से प्रशासनिक मशीनरी का समाजवादी पार्टी इस्तेमाल कर रही थी वह चुनाव आयोग की नजर में था इसलिए उत्तर प्रदेश के पुलिस प्रमुख, मुख्य सचिव और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों को हटा दिया गया। उधर सुप्रीम कोर्ट में आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में भी मुलायम घिरते नजर आ रहे हैं। आज उनकी स्थिति बिहार में लालू राज के विरूद्ध उपजे जनाक्रोश की तरह है।

अभी तक उत्तर प्रदेश में मामला पेचीदा दिखता है और मुस्लिम वोट बड़ी भूमिका अदा करने वाले हंै। समाजवादी पार्टी उनकी पहली पंसद थी। परन्तु इस वक्त मुस्लिम समुदाय में मन्थन चल रहा है। कांग्रेस और ब.स.पा. भी उनकी लिस्ट में शामिल है। जनमोर्चा गठबंधन में भी मुस्लिम वोट हैं।

उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी ताकत बहुजन समाज पार्टी के बनने की सम्भावना है। पार्टी ने इस बार करीब ३०-४० प्रतिशत सीटें ब्राह्मणों व अन्य सवर्ण हिन्दुओं को दी हैं । मुस्लिमों व पिछड़ी जाति के लोगों को भी बड़ी संख्या में टिकट दिया गया है। लग रहा है कि सवर्णों का वोट उसे मिलेगा। फलस्वरूप भारतीय जनता पार्टी की मुश्किलें बढ़ गई हैं। उसने हिन्दुत्व के कार्ड को आक्रमक रूप से खेलने का फैसला कर लिया है। भाजपा ने कल्याण सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का निर्णय किया है जिनकी लोध विरादरी का मध्य यू.पी. में काफी दबाव है।

भाजपा जनता दल (यू) और अपना दल के साथ गठबन्धन करके चुनाव मैदान में उतर रही है। जनता दल (यू) हालांकि उत्तर प्रदेश में नाम मात्र का दल है परन्तु बिहार की जीत ने नीतीश कुमार की छवि को कुर्मियों में बढ़ाया है और उसी के सहारे पार्टी यू.पी. की कुर्मी बेल्ट में 'क्रान्ति` लाना चाहती है। कुर्मी वोटों के लिए एक ओर कुर्मी नेता सोनेलाल पटेल का 'अपना दल` भी जोर लगा रहा है। यह गठबन्धन बुन्देलखण्ड और पूर्वांचल में काम कर सकता है लेकिन मुसीबत यह है कि बुन्देलखण्ड में कुर्मी वोटों पर दस्यु सम्राट दबुआ की पकड़ है और उनका 'फतवा` जिधर होगा कुर्मी वोट उधर ही शिफ्ट करेगा।

कांशीराम की प्रेरणा से राजभर समाज को इकट्ठा कर उनकी राजनैतिक भागीदारी को बढ़ाने के प्रयास में लगे ओम प्रकाश राजभर की जेबी पार्टी 'भारत समाज पार्टी` पूर्वाचल में समीकरण बिगाड़ेगी।

उत्तर प्रदेश की अहमियत को देखते हुए ही कांग्रेस ने अपने स्टार प्रचारक राहुल गांधी के कई रोड शो आयोजित किये हैं । पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनके कोई शो 'हिट` भी हुए हैं। राहुल ने बावरी मस्जिद के ध्वंस के लिए नरसिम्हा राव को दोषी ठहराया और उस वक्त कांग्रेस ब.स.पा गठबंधन को 'कांग्रेस को बेचना` करार दिया, मतलब साफ है कि कांग्रेस की संस्कृति अभी भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाई है कि देश गठबन्धन की राजनीति से चलेगा। राहुल यह भी भूल गये कि उत्तर प्रदेश में 'राम राज्य` का वादा उनके स्वर्गीय पिता राजीव गांधी ने अयोध्या से किया था। यह भी जानना जरूरी है कि मुसलमानों की कांग्रेस से दूरी मात्र बाबरी ध्वंस से ही नहीं है अपितु पार्टी द्वारा अपनाये जा रहे 'साफ्ट हिन्दुत्व` ने भी कांग्रेस से दूर रखा है। बहरहाल कांग्रेस की वी.पी.सिंह, राजबब्र के जनमोर्चा-गठबन्धन के साथ ताल-मेल नहीं हो पाया है। असल में वी.पी.सिंह की राजनैतिक शख्शियत लोगों को उनकी ओर खींचती हैं, वह एक ऐसे नेता हैं जिन्होने पिछले कुछ वर्षों में जनता के विभिन्न मुद्दों को उठाकर राजनीति की है। दादरी में किसानों पर पुलिस की गोली का मामला हो या विस्थापान का सवाल, झुग्गी-झोपड़ियों का प्रश्न हो या गन्ना किसानों का न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रश्न। वी.पी.सिंह सक्रिय रहे परन्तु उनकी बोयी फसल को काटने के लिए न कोई काडर है और न ही कोई राजनीति। वी.पी.सिंह का खराब स्वास्थ भी आड़े आ रहा है। वैसे जन मोर्चा के साथ सी.पी.आई राष्ट्रीय जनता दल, लोक जनशक्ति पार्टी, इण्डियन जस्टिस पार्टी और अन्य छोटे दल हैं जो बहुत प्रभावकारी नहीं है परन्तु परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी ताकत अजीत सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोक दल ने किसी भी पार्टी से समझौता न करने का फैसला किया है। छोटे चौधरी उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बनने का सपना बहुत वर्षों से संजोये हैं परन्तु वह पूरा नहीं हो पाने के बाद वह अब हरित प्रदेश की खोज कर रहे हैं परन्तु राजनीति के शातिर खिलाड़ी होने के नाते अजीत सिंह मोल-भाव की राजनीति का 'महत्व` समझते हैं और उत्तर प्रदेश की आने वाली सरकार में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी।

दलित कांशीराम को श्रद्धांजलि के तौर पर वोट करेंगे। हालांकि पार्टी के अन्दर ब्राह्मणों को बहुत अधिक महत्व दिये जाने से काडर में निराशा भी है। जहां चर्मकार इसे मजबूरी मानते हैं अन्य जातियां (पासी), खटीक इसे ब.स.पा. की अवसरवादिता मानती हैं। लेकिन इतना साफ है कि चुनावी तैयारी के लिहाज से बहुजन समाज पार्टी सबसे आगे है।

'समाजवादी` अमिताभ बच्चन भी 'पार्टी` के प्रचार में लगे है और उत्तर प्रदेश में पुन: 'जन्म` लेना चाहते हैं, ऐसा लगता नहीं कि राजनैतिक रूप से परिपक्व इस प्रदेश में ऐसे सुपर स्टार प्रचार से कोई प्रभाव पड़ने वाला है। यही बात कांग्रेस को भी समझ में आनी चाहिए कि राहुल और प्रियंका के रोड शो 'वोट` में आसानी से तब्दील होने वाले नहीं।

कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में अनिश्चितता का दौर जारी रहेगा। गठबन्धन के माहिर खिलाड़ी ही सरकार बना पाएंगे। जातीय धु्रवीकरण इतना अधिक है कि यदि किसी पार्टी को बहुमत मिल गया तो यह चमत्कार ही होगा। अभी सिर्फ इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि बसपा सबसे बड़े दल के रूप में पुन: सामने आएगी। बहरहाल, इन अनुमानों की सच्चाई तो मई मध्य में ही सामने आएगी जब चुनाव परिणाम घोषित होंगे।


फिल्मकार व मानवाधिकार कार्यकर्त्ता विद्याभूषण रावत ने विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं।

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