December 10, 2007

एक नायक का पतन

देशकाल



  • अभय मोर्य

एक समय विद्रोही नायक जैसा दिखने वाला व्यक्ति पतन के ऐसे गर्त में गिर सकता है! देश को आज यह सवाल पूछने का अधिकार है कि आखिर बीते दिनों के उस 'डायनामाइट` नायक का यह हश्र क्यों हुआ?



1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद जॉर्ज फर्नान्डिज का सितारा बुलंदी पर था। उनका नाम सुनकर ही लोग, विशेषकर युवक, रोमांचित हो जाते थे। मोरारजी देसाई की सरकार में मंत्री बनने के बाद जब जॉर्ज साहब दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय में एक सभा को संबोधित करने आए तो सारी फिज़ा 'कॉमरेड जॉर्ज, लाल सलाम! कॉमरेड जॉर्ज, जिंदाबाद!` जैसे नारों से थर्रा उठी थी। विद्यार्थी और युवा अध्यापक, जिनमें आज की जानी-मानी हस्ती डॉ. चन्दन मित्रा भी शामिल थे, बढ़-चढ़कर नारे लगा रहे थे। युवा मन जॉर्ज फर्नान्डिज, जिन्हें तब 'डायनामाइट` कहते हुए एक विशेष गौरव की अनुभूति होती थी, की पोस्टरों पर छपी उन तस्वीरों से गद्गद थे जिनमें वे जेल की सलाखों के पीछे हथकड़ियों में जकड़े हुए अपने लिए वोट मांगते थे। बहुत सारे उदारवादी एवं प्रगतिशील बुद्धिजीवी इसलिए भी जॉर्ज साहब के कायल थे कि उन्होंने भारतीय दक्षिणपंथ के दिग्गज एस. के. पाटिल जैसों को चुनावों में धूल चटाई थी। जॉर्ज साहब की लोकप्रियता उस समय आसमान छूने लगी जब उन्होंने अमरीका के सर्वशक्तिमान कोका-कोला को भारतीय धरती से बाहर निकाल कर उसकी जगह स्वदेशी पेयजल '७७` को लांच किया।

युवकों को यह बात भी पसंद थी कि दकियानूसी और झक्की मोरारजी देसाई की सरकार गिराने में भी जॉर्ज साहब की काफी अहम भूमिका थी। प्रो. मधु दंडवते और जॉर्ज फर्नान्डिज जैसे नेताओं ने जनसंघ से आए जनता पार्टी के उन सदस्यों के विरूद्ध ठीक ही मुहिम छेड़ी थी कि वे जनता पार्टी के सदस्य होते हुए अभी भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सक्रिय सदस्य बने हुए थे। सरकार गिरने से पहले जॉर्ज साहब ने लोकसभा में सरकार के बचाव में एक धुंआधार भाषण दिया। पर, जैसा कि जॉर्ज साहब के साथ अक्सर होता है, उसके तुरंत बाद ही उन्होंने सरकार के विरूद्ध वोट भी डाला।

जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद जॉर्ज साहब एक बहुत लंबे अर्से तक राजनीतिक वनवास में छटपटाते रहे। अचंभे की कोई बात नहीं थी कि इसी राजनीतिक वीरानगी के दौर में जॉर्ज साहब में राजनीतिक सनक पनपने लगी होगी। वे बहुत लंबे समय तक राजनीतिक गतिविधियां चलाने के लिए आवश्यक साधनों से भी महरूम रहे। पर देशवासी उस समय स्तब्ध रह गए जब जॉर्ज साहब देश के एक और चोटी के नेता के साथ दूरदर्शन पर प्रकट हुए और टेलिकॉम स्कैम के खलनायक सुखराम के बचाव में खुलकर आए। जाहिर है जॉर्ज के चाहने वालों को अपने नायक की इस करतूत से गहरा धक्का लगा होगा। इसी समय बहुत सारे लोगों ने शायद पहली बार सोचा होगा कि जॉर्ज ने अपने बीते दिनों के आदर्शवाद को त्यागकर मौकापरस्ती की राजनीतिक दलदल की ओर बढ़ने का फैसला कर लिया था।

अवसरवाद की ओर पहला कदम उठ चुका था। अब जॉर्ज साहब, जैसा कि वे अकसर करते रहे हैं, अपनी नई राह पर तेजी से डग भरने लगे थे और शीघ्र ही वे देश की सांप्रदायिक शक्तियों की गोद में जा बैठे। इनाम में उन्हें मिला अत्याधिक महत्वपूर्ण रक्षा मंत्रालय, जिसमें लक्ष्मी भी थी और अर्जुन के धनुर्बाण का रोमांच भी। जॉर्ज साहब के चाहने वाले किंकर्तव्यविमूढ़ थे क्योंकि वे आर.एस.एस के चहेते बन चुके थे। अचंभे की कोई बात नहीं थी कि जब संघ परिवार के सदस्यों ने ऑस्ट्रेलियाई पादरी ग्राह्म स्टेन को उसके बेटों के साथ जीप में जिन्दा जला दिया तो जॉर्ज साहब के मुखारवंृद से ही संघ परिवार को क्लीन-चिट दिलवाई गई। गुजरात में जब मोदी बिग्रेड के सदस्यों ने ईसाई समुदाय के गिरजाघरों को जलाया और गिराया तब भी जॉर्ज साहब को ही मोदी ब्रिगेड के पाक-साफ होने का सर्टिफिकेट देना पड़ा। गोधराकांड के बाद परिवार के उन्मादी तत्वों द्वारा मुसलमानों का जो नरसंहार किया गया, उस समय भी जॉर्ज साहब को 'चित भी मेरी पट्ट भी मेरी` का ड्रामा करना पड़ा। परिणामस्वरूप उन्हें भयानक शब्दजाल रचते हुए भी अंततोगत्वा संघ परिवार के सामने घुटने टेकने पड़े।

रक्षा मंत्री के रूप में तो जॉर्ज साहब परले दर्जे के नटवरलाल बनते दिखे। उन्होंने नौसेना अध्यक्ष एडमिरल भागवत की इसलिए आनन-फानन में छुट्टी कर दी कि वे जॉर्ज साहब की चिलम भरने के लिए तैयार न थे। जाहिर था कि उन्हें स्वतंत्र विचार रखने वाले व्यक्ति की जरूरत नहीं थी। उन्हें महत्वपूर्ण रक्षा-सौदों को अनन-फानन में पक्का करवाना था, जिसके लिए भागवत का नहीं, बल्कि सुशील कुमार की आवश्यकता थी।

सारा देश यह जानकर किंकर्त्तव्यविमूढ़ था कि एक डेढ़ साल से पाकिस्तानी सैनिक कारगिल में घुसपैठ कर भारतीय क्षेत्र में काफी अंदर तक बंकर बना चुके थे और देश के रक्षामंत्री को इसकी खबर तक नहीं थी। देश के सिपाहियों ने महान बलिदान देकर दुश्मन के सैनिकों को कारगिल से खदेड़ा, पर रक्षा मंत्रालय ने उस समय भी सैनिकों के खून के ऊपर सौदेबाजी करने से परहेज न किया। उसने ढ़ाई हजार रूपये में मिलने वाले एक ताबूत की कीमत ढाई लाख रूपये दिखाकर बड़ी संख्या में ताबूत अमरीका से मंगवाए। इसी समय सामरिक स्थिति का फायदा उठाकर और भी बहुत सारा सामान आनन-फानन में मुंहमांगे दाम देकर खरीदा गया। रक्षामंत्री के रूप में जॉर्ज फर्नान्डिज इन सौदों में हुए घपलों की जिम्मेदारी से भला कैसे बच सकते हैं? जॉर्ज साहब का अधोगमन उस समय विद्रुप बन गया जब उन्होंने एक अनाम से व्यक्ति श्री आर.के. जैन को समता पार्टी का राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष बनाया। जाहिर है कि सवाल उठेंगे कि ऐसे व्यक्ति को, जिसने न कभी किसी भी राजनीतिक आंदोलन में हिस्सा लिया, न ही उसने किसी दल की सदस्यता ग्रहण की थी, क्यों राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष बनाया गया? क्या इसी कारण उसे इतने ऊंचे पद पर बिठाया गया कि उसने जॉर्ज साहब के सामने शेखी बघारी थी कि वह येन केन प्रकारेण धन जुटाने में सक्षम हैं । सवाल यह भी उठता है कि कोषाध्यक्ष के रूप में काम करते हुए जैन को हथियारों के व्यापारियों और आर्थिक अपराधियों से क्यों मिलने-जुलने दिया गया? क्यों उन्हें बार-बार मास्को और अन्य शहरों के दौरे पर भेजा गया? क्या जॉर्ज साहब यह कहकर पल्ला झाड़ सकते हैं कि उनके सरकारी आवास से चल रही नाना प्रकार की गतिविधियों का उन्हें पता नहीं था?

सवाल यह भी उठता है कि जॉर्ज साहब ने श्रीमती जया जेतली को समता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष क्यों बनाया था? देश की प्रबुद्ध जनता को तो इस बात का कतई इलम न था कि श्रीमती जया जेतली की कभी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि थी। कम से कम प्रचार माध्यमों से तो प्रबुद्ध पाठक या श्रोता को जया जेतली के राजनीतिक काम के बारे में कभी कोई सूचना नहीं मिली थी। फिर जॉर्ज साहब लालू प्रसाद यादव की क्यों आलोचना करते हैं कि उन्होंने अपनी पत्नी श्रीमती राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया? जॉर्ज साहब द्वारा जया जेतली को समता पार्टी्र का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाना लालू जी की कारस्तानी से भला कैसे अलग था?

जॉर्ज साहब की 'जनतांत्रिकता` उस समय चरम सीमा पर पहुंचती दिखी जब 'तहलका` के पत्रकारों को उनकी सरकार ने सरकारी तंत्र की मदद से बेतहाशा रौंदना शुरू किया। जॉर्ज और जया की शह पर ही सरकार ने तहलका डॉट कॉम को तहस-नहस कर दिया। उसके पत्रकारों पर झूठे आरोप मढ़कर उन्हें जेलों में ठूंस दिया गया। क्या कसूर था उनका? बस यही न कि उन्होंने बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री बंगारू लक्ष्मण को कैमरे पर घूस लेते दिखाया था या जया जेतली को हथियारों के व्यापारियों से गुफ्तगू करते हुए पेश किया था। बस इतना-सा दोष और इतनी बड़ी सजा! क्या यह वही जॉर्ज साहब थे जो खुद हथकड़ियों में बंधकर कभी जेलों की सलाखों के पीछे रहे थे? विश्वास नहीं हो रहा था।

अब जया जेतली और जॉर्ज साहब बार-बार उछाल रहे हैं कि जस्टिस फूकन ने उन्हें बराक मिसाइलों के सौदे के संबंध में क्लीन-चिट दे दी है। पर सवाल यह उठता है कि जस्टिस फूकन को जांच अधिकरी क्यों और कैसे बनाया गया था? क्या यह सच नहीं है कि जस्टिस वैंकटस्वामी जस्टिस फूकन से पहले जांच कर रहे थे और वे जॉर्ज और जया के लिए कठिनाइयां पैदा करते दिख रहे थे? जाहिर था कि उनकी रिपोर्ट जॉर्ज और जया के लिए 'घातक` सिद्ध हो सकती थी। इसलिए पहले तो एक षडयंत्र के तहत जस्टिस वैंकटस्वामी को ऐसी सुविधाएं प्रदान की गइंर् जो उन्हें मिलनी नहीं चाहिए थीं। फिर योजनाबद्ध तरीके से इस सूचना को लीक कर दिया गया ताकि जस्टिस वैंकटस्वामी के सामने त्यागपत्र देने के सिवाय और कोई चारा न बचे और उनके स्थान पर फूकन साहब जैसे लचकदार व्यक्ति को जांच अधिकारी बनाया जा सके? यह प्रश्न भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि जॉर्ज साहब ने संयुक्त संसदीय समिति की जांच को टालने के लिए आनन-फानन में एक जज द्वारा जांच करवाने का फैसला वाजपेयी सरकार से करवाया क्योंकि संयुक्त संसदीय समिति में विपक्ष के सदस्य जॉर्ज साहब को रास नहीं आ सकते थे। अंत में यह बात भी रेखांकित की जानी चाहिए कि यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि बराक मिसाइल को खरीदने के लिए किसने सिफारिश की थी। सवाल तो यह है कि क्या इन सौदों को करते वक्त घूस दी या ली गई थी या नहीं? श्री आर. के. जैन को बराक मिसाइल के सौद के बारे में सारी जानकारी किसने दी? और क्यों दी? आखिरकार वे सारी जानकारियां मात्र रक्षा मंत्रालय के पास थी! जॉर्ज साहब इस सौदे में हुई धांधली के दोष से कैसे मुक्त हो सकते हैं? यह अति महत्वपूर्ण सवाल इस रूप में भी उठता है कि क्या बाराक मिसाइल के सौदे में कमीशन दूसरे देशों के राजधानियों में 'इन्वोयिस` के माध्यम से दिया गया है या नहीं? अगर ऐसा हुआ है तो क्या इसकी जिम्मेदारी जॉर्ज साहब पर आनी चाहिए या नहीं? और सवाल तो यह भी है कि कोकाकोला को धूल चटानेवाले जॉर्ज साहब उस समय साल भर से भी ज्यादा क्यों चुप रहे जब अमेरिकी पुलिस ने हवाई अड्डे पर भारत के रक्षामंत्री के कपड़े उतरवा दिए? क्यों छिपाई राष्ट्रीय अपमान की यह घिनौनी करतूत देशवासियों से जॉर्ज साहब ने?

प्रश्न बहुत सारे हैं। इनसे किसी पार्टी विशेष की नेता को भद्दी-भद्दी गालियां देकर नहीं बचा जा सकता। देश को आज यह सवाल पूछने का अधिकार है कि आखिर बीते दिनों के उस 'डायनामाइट` नायक का यह हश्र क्यों हुआ?




साहित्य में अध्ययन तथा शोध कार्य के लिए अलेक्सांद्र पुश्किन मेडल से सम्मानित अभय मोर्य ने विभिन्न विषयों पर ४० से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। संप्रति : दिल्ली विश्विद्यालय में रूसी साहित्य के प्राध्यापक।

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