December 10, 2007

आलोचनात्मक हस्तक्षेप की आवश्यकता

विकल्‍प की तलाश में


  • राजकुमार राकेश

खुद को हताशाओं के समंदर में डूबो देने की बजाए जीवन को सक्रियता और उसके प्रयोगात्मक फॉर्मों को अपनाने के लिए आगे अनवरत अल्पसंख्यक होते फार्म लेखकों को सीधे आलोचनात्मक हस्तक्षेप की तरफ खींच रहे हैं। अरुंधति की सामाजिक व लेखकीय सक्रियता एक उदाहरण है। यह किसी भी कविताई या औपन्यासिक फार्म से कमतर नहीं आंकी जा सकती।


वर्षों से मैं जार्ज आर्वेल के 'एनीमल फार्म` की तरह का कोई उपन्यास लिख डालने की कोशिश में हूं जिसने अपने समकालीन वक्त में इस उपग्रह पर उभरती किसी अराजक व्यवस्था और उससे जन्मने वाली तानाशाहिक सभ्यता विशेष के विरोध में यह विडम्बनामूलक नारा दिया था- 'सब पशु समान हैं किंतु कुछ पशु दूसरों से ज्य़ादा समान हैं।` लेकिन इस कोशिश में मैं सफल तो क्या होता, उस संभावित उपन्यास के लिखे जा सकने वाला पहला शब्द भी मेरे लिए सम्भव नहीं हो सका, जबकि इस उपग्रह की सीमित धरती पर एक अन्तराष्ट्रीय गुंडई-दादागिरी की काली छाया तले बन चुकी अमानवीय व्यवस्था में पिसते भारतीय समाज में इस नारे के समानधर्मा नारों की एक पूरी फेरहिस्त मेरे दिमाग में हर समय कोई बड़ा विस्फोट कर डालने में अनवरत जुटी हुई है। पिछले दो वर्षों से घोर मानसिक अवसाद और एक ऐसे तथाकथित अपराध के आतंक की घुटन में जीते हुए, जिसे कभी कर सकने की सोच पाना भी मेरे जैसे व्यक्ति के लिए असम्भव और मानसिक तौर पर स्व-अक्षम्य रहा है, उस स्थिति में ऐसा पहला नारा जो मैं शब्दों में उतार सकता हूं वह 'अन्याय ही न्याय` है। यह हमारी न्याय व्यवस्था पर नहीं बल्कि इस समाज की पूरी व्यवस्था पर की गई आतंकित व्यक्ति की टिप्पणी भर नहीं है। बल्कि एक उस व्यक्ति की टिप्पणी है जो अपने आज तक के पूरे जीवन में यह एक सपना देखता रहा है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति समानधर्मिता के आधार वाले समतामूलक और समानतापरक जीवन जीने योग्य खुद को न केवल पा सके, बल्कि सचमुच में इस स्वप्न को अपने जीवनऱ्यथार्थ में तब्दील होता अनुभव करे।
एक भयानक व समूचे अंधकार से परिपूर्ण इस अन्यायी व्यवस्था के आतंक तले मकौड़ों की तरह जीते करोड़ों-करोड़ लोगों की शारीरिक एवं मानसिक तकलीफों को पूरी तरह महसूस करते हुए अगर हम किसी सार्थक विकल्प की तलाश और उसे पा सकने की आशाओं से सराबोर हैं, तो इसे व्यर्थ का आशावाद मानकर खारिज करना उचित नहीं होगा। एक अनवरत व मौन प्रक्रिया उस दिशा में चल रही है, यह मान लेना अधिक महत्त्वपूर्ण है। हालांकि आज सतह पर जो यथार्थ तैरता दिख रहा है वह सचमुच यही है कि आज की खबरों में अन्याय से पीड़ित लोगों का पक्ष लेने वाली तीस्ता सीतलवाड़ नहीं होगी, बल्कि वे ही खूंखार, खूनी और आतंकित कर डालने वाले चेहरे होंगे जो सत्ता के घोड़ों पर सवार, समाज के हर चेहरे, आदर्श और भविष्य के हर उजाले को कुरूप कर डालने में जुटे हैं। उनके के लिए 'सत्ता ही शक्ति` है, भले ही वह कितना ही अल्पजीवी, अमानवीय और खूंखार क्यों न रहती आई हो। शायद भूमंडलीकृत समय के चौधरी इस भ्रम में हैं कि उनकी इस तथाकथित लोकतांत्रिक सत्ता जिसे वे हारे हुए राष्ट्रों पर जबरन थोपना चाहते हैं-का कोई विकल्प है ही नहीं। एक हताशा है जो सभी राजनैतिक दलों के एकरूप चेहरे से जन्म लेकर वर्तमान सत्ताधारियों और इसी सत्ता के आगामी लालच में जीभ नरम किए हुए सांसे गिनते पल-छिन काट रहे हैं। वे आपसी भ्रमों में आश्वस्त हैं कि उनमें से कोई किसी का विकल्प नहीं है बल्कि एक ही कुरूप चेहरे में विभिन्न रूप हैं। सभी को अंतत: उन्ही बेलगाम घोड़ों की सवारी करनी है और उन्हीं की पीठ पर हिचकोले खाते हुए इस उपग्रह की धरती और जीवों पर अश्वमेध के स्वप्न को जीना है।

सम्पूर्ण अश्वमेध का यह स्पप्न पूरा होता है शक्ति की उपासना से और आज के युग में 'शक्ति ही अराजकता` है। अवैध धन अराजक गतिविधियों का पक्का सबूत है और इसका उद्गम भ्रष्टाचार, डांगबाजी, लठैती, हवाला और कबूतरबाजी इत्यादि के बिना कहां सम्भव है। जिस वैश्विक आतंकवाद को दिन रात पानी पी-पी कर कोसा जाता है उसकी जड़ों में आर्थिक शोषण का महासमुद्र ठाठें मारता है। कानून की आड़ में भामाशाहों को डरा धमकाकार ही इसे संचय करना सम्भव है। यह डराना-धमकाना कोई शाब्दिक या सांकेतिक भर नहीं है बल्कि आतंक से दिलों में कंपकपी पैदाकर थैलियों के मुंह खुलवाना है। जन की मेहनत की कमाई पर डाका डलवाने की शुरूआत यहीं से शुरू होती है। दाल, नमक, चावल और आटा अचानक बाजार से यूं ही गायब नहीं हो जाता और रातों रात कीमतें यूं ही आसमान नहीं छूने लगतीं। दरअसल आज की इस दुनिया में कुछ भी यूं ही नहीं होता। अफगानिस्तान और इराक को यूं ही ध्वस्त नहीं कर दिया जाता। उत्तरी कोरिया और ईरान पर दादा की कुदृष्टि यूं ही नहीं जा टिकती। फिर इस 'पुरातन` भारत में यूं ही कुछ हो जाएगा, यह मान लेना बहुत भोलापन है या बहुत बड़ी शातिरता। शक्ति यूं ही बिना किसी अराधना के नहीं मिलती। कुछ भी यूं ही.. यही आज के इस संसार मंे प्रचलित 'बहुरूपीय` लोकतन्त्र का नियम है।

जार्ज आर्वेल सम्भवत: आज के अपने नए 'पशुवाड़े` के लिए 'गुंडागर्दी ही लोकतन्त्र है`, जैसा कुछ ईज़ाद करते। निश्चय ही निर्णय का अधिकार इस लोकतन्त्र में भाभाशाहों की थैलियों में कैद है। अंडरवर्ल्ड के शिखर पुरूषों (कृपया 'व्यक्ति` पढ़ें) के दरबारों में हाजिरी करने वाले तब खुद कितना खुश होते हैं जब प्रताड़नाओं और आतंक से निजात पाने के लिए पीड़ित जन उनके अपने दरबारों में गिड़-गिड़ा रहा होता है और लोकतंत्र तब तानाशाही होने का सुबूत दे रहा होता है। सार्थक विकल्प की तलाश यहीं से शुरू होती है जिसके बारे में पूंजीवादी-भूमंडलीकृत लौह-व्यवस्था ताल ठोंककर व गर्व से कहती है कि बिना किसी भारी भरकम खून-खराबे के विकल्प की सोच पाना ही व्यर्थ है।

इस समाज के वंचित से वंचित व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में (प्रतीत होता है) मध्यवर्गीय चकाचौंध का एक ऐसा सपना कुलबुला रहा है जिसके आलोक में कुरीतियां ही समाजिक रीतियां बनती चल रही हैं। वे शायद नहीं जानते वे अपने लिए किसी अंधसुरंग का निर्माण कर रहे हैं। और विकल्प की तलाश में भटकते फिरने वाले स्पप्न द्रष्टाओं की जमात का लुप्तप्राय: होने का खत़रा मंडरा रहा है। इसके मूल में निरर्थकता बोध से उपजती हताशाएं तो हैं ही, लेकिन बाजारवाद उदारीकरण और भूमंडलीकरण जैसी आर्थिक शब्दावलियों ने एक ऐसी लहर पैदा कर डाली है जो इस लुप्तीकरण की प्रक्रिया को अधिकाधिक तेज कर रहीं हंै। इसलिए भी खुद को हताशाओं के समंदर में डुबो देने की बजाए जीवन की सक्रियता और उसके प्रयोगात्मक फॉर्मों को अपनाने के लिए आगे बढ़ना होगा। आज के युग में कविता और कहानी जैसे अनवरत अल्पसंख्यक होते फार्म लेखकों को सीधे आलोचनात्मक हस्तक्षेप की तरफ खींच रहे हैं। अरुंधति की सामाजिक व लेखकीय सक्रियता एक उदाहरण है। यह किसी भी कविताई या औपन्यासिक फार्म से कमतर नहीं आंकी जा सकती।

आर्थिक विकास की वृद्धिदर के आंकडों का तब सचमुच कोई महत्व नहीं रह जाता जब 'जन` अपने लिए ऐसे किसी विकल्प की तलाश में निकल पड़े।



राजकुमार राकेश कथाकार व मार्क्सवादी आलोचक हैं। तीन उपन्यास और तीन कहानी संग्रह प्रकाशित। आलोचना व संवाद की पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य।

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