December 17, 2007

कविताओं में नंदीग्राम




१० नवंबर, १९५४ को जन्मे जय गोस्वामी प्रसिद्ध बांग्ला कवि हैं। उनके राजनीतिक पिता ने उन्हें साहित्य के प्रति उत्साहित किया। इनका पहला कविता संग्रह था-क्रिसमस ओ शीतेर सोनेटगुच्छ था। इन्हें १९८९ में 'घुमियेछो झौपता` पर प्रतिष्ठित आनंद पुरस्कार मिला था और २००० में 'पगली तोमारा संगे` पर साहित्य अकादमी सम्मान। जय ने केवल लेखन तक ही अपने को सीमित नहीं किया। वे लगातार जनता के संघर्षों के साथ जुड़े रहे हैं। उसकी आवाज में आवाज मिलाते रहे हैं। अभी हाल ही में जब नंदीग्राम में किसानों का निर्मम नरसंहार हुआ तो वह अपनी कविताओं के साथ सड़कों पर आ गये।

यहां प्रकाशित तीन कविताएं जय गोस्वामी ने नंदीग्राम की घटना के विरोध में हुई एक सभा में पढ़ी थीं। इनके साथ बांग्ला के प्रसिद्ध कवि द्युतिमान चौधरी की भी एक कविता प्रकाशित की जा रही है। इन मूल बांग्ला कविताओं का अनुवाद किया है बांग्ला कवि विश्वजीत सेन ने।


  • जय गोस्वामी

शासक के लिए


आप जो कहेंगे-मैं वही करूंगा
वही सुनूंगा, वही खाऊंगा
उसी को पहन कर खेत पर जाऊंगा
एक शब्द नहीं बोलूंगा

आप कहेंगे
गले में रस्सी डाल
झूलते रहो सारी रात
वही करूंगा
केवल
अगले दिन
जब आप कहेंगे
अब उतर आओ
तब लोगों की जरूरत पड़ेगी
मुझे उतारने के लिए
मैं खुद उतर नहीं पाऊंगा

सिर्फ इतना भर मैं नहीं कर पाऊंगा
इसके लिए आप मुझे
दोषी न समझें



स्वेच्छा से

उन्होंने जमीन दी है स्वेच्छा से
उन्होंने घर छोड़ा है स्वेच्छा से
लाठी के नीचे उन्होंने
बिछा दी है अपनी पीठ

क्यों तुम्हें यह सारा कुछ
दिखायी नहीं देता?

देख रहा हूं, सब कुछ देख रहा हूं
स्वेच्छा से
मैं देखने को बाध्य हूं
स्वेच्छा से/कि मानवाधिकार की लाशें
बाढ़ के पानी में बहती जा रही हैं

राजा के हुक्म से हथकड़ी लग चुकी है
लोकतंत्र को
उसके शरीर से टपक रहा है खून
प्रहरी उसे चला कर ले जा रहे हैं
श्मशान की ओर

हम सब खड़े हैं मुख्य सड़क पर
देख रहा हूं केवल
देख रहा हूं
स्वेच्छा से ।




हाजिरी बही

पहले छीन लो मेरा खेत
फिर मुझसे मजदूरी कराओ
मेरी जितनी भर आजादी थी
उसे तोड़वा दो लठैतों से
फिर उसे
कारखाने की सीमेंट और बालू में
सनवा दो

उसके बाद/सालों साल
मसनद रोशन कर
डंडा संभाले बैठे रहो।



अजीब अंधेरा
  • द्युतिमान चौधरी

वे इस बंगाल में ले आए हैं आज
एक अजीब अंधेरा
जिन्होंने कहा था 'अंधेरे को दूर भगाएंगे हम`
वही आज सारी रोशनी का लोप कर रहे हैं,
अंधेरे के राजाओं के हाथ
सुपुर्द कर रहे हैं जमीन और चेतना-
'तेभागा`१ की स्मृतियों को दफन कर रहे हैं
कह रहे हैं 'जाओ, पूंजी के आगोश में जाओ`

नन्दिनी२ अपने दो हाथों से
हटा रही है अंधेरा, पूकारती 'रंजन कहां हो तुम!`
जितने रंजन हैं सभी घुसपैठिए, यह मानकर
जारी हुआ है वारंट
फिर भी वे आ खड़े हो रहे हैं
किसानों के कंधों से कंधा मिलाकर
'तेभागा` के नारे पुन: सुनाई दे रहे हैं
उनकी प्रतिध्वनि जगा रही है संकल्प के पर्वत सी मानसिकता,
विरोध चारों ओर, कोतवाल त्रस्त हैं

जंगे-मैदान में नई रेखाएं खींची जा चुकी हैं
तय कर लो तुम किधर जाओगे,
क्या तुम भी कदम बढ़ाओगे व्यक्तिस्वार्थ की चारदिवारी की ओर
जैसे पूंजी की चाकरी करनेवाले 'वाम` ने बढ़ाए हैं
या रहोगे मनुष्य के साथ
विभिन्न रंगों में रंगे सेवादासों ने
षड़यंत्रों के जो जाल बूने हैं
उसे नष्ट करते हुए
नए दिवस का, नए समाज का स्वप्न
देखना क्या नहीं चाहते तुम?


१. तेभागा : स्वतंत्रता पूर्व अविभाजित बंगाल का किसान आन्दोलन, जिसने भू-व्यवस्था पर आधारित शोषण की जडों हिलाकर रख दिया था।
२. नंदिनी : रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित 'रक्तकरबी` (लाल कनेर) नाटक की नायिका। रंजन उसके प्रेमी एक युवक का नाम है।

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