December 10, 2007

अरुण कमल से प्रमोद रंजन की बातचीत

साहित्य प्राय: उनका पक्ष लेता है जो हारे हुए हैं



प्रमोद रंजन : आपको २०वीं सदी के एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में रेखांकित किया गया और २१वीं सदी में भी आपकी रचना सक्रियता बनी हुई है। इस दौरान विश्व पटल पर कई महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं । हिंदी की मुख्यधारा की रचनाशीलता को दिशा देने वाला समाजवाद हाशिए पर चला गया है। अब भूमंडलीकरण को निर्मित करने वाली आर्थिक शक्तियां एक भिन्न किस्म का समाजशास्‍त्र भी गढ़ रही हैं। आप इन परिवर्तनों को कैसे देखते हैं?


अरुण कमल : किसी भी साधारण आदमी के जीवन में अचानक न तो एक सदी खतम होती है, न दूसरी शुरू। सब कुछ एक साथ लगातार चलता रहता है। दुनिया का बदलना और आपका लिखना पढ़ना भी। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप की समाजवादी सरकारें आज नहीं हैं। लेकिन यह भी सच है कि क्यूबा, चीन और वियतनाम हैं। और दक्षिणी अमेरिका में नये वामपंथी रूझान हैं। नेपाल में बदलाव है। भारत में भी वामपंथियों को आज संसद में पहले के मुकाबले ज्यादा जगहें हैं । पूरी दुनिया में पूंजीवाद त्रस्त है। और सबसे बड़ी बात यह कि हार जाने से न तो आदर्श समाप्त होते हैं न स्वप्न। साहित्य किसी बाह्य राजनीतिक सत्ता से नहीं, इन्हीं आदर्शों और स्वप्नों से प्रेरित होता है। अंधेरे में ही सबसे उज्जवल, सुगंध भरे फूल फूटते हैं। साहित्य प्राय: उनका पक्ष लेता है जो हारे हुए हैं, जो अपना सब कुछ खो चुके हैं। 'हो न सके जो पूर्ण काम उनको प्रणाम।`


प्रमोद रंजन : मौजूदा स्थिति में क्या भूमंडलीकरण का कोई व्यवहारिक विकल्प हो सकता है? इसे एकमात्र विकल्प मानने वाले भी इसमें निहित साम्राज्यवाद के खतरे को चिन्हित करते हैं। ऐसे में भारतीय जनता का स्टैंड क्या होना चाहिए? इस संदर्भ में सत्तागत नीतियां क्या होनी चाहिए?


अरुण कमल : आरम्भ से ही समूची दुनिया को एक में जोड़ने-बांधने का सिलसिला चल रहा है। पूंजीवाद ने यह काम सबसे ज्यादा और सबसे तेजी से किया जो मानव इतिहास में अभूतपूर्व है। इसके अनेक फायदे हैं। यह जरूरी भी है। तकनीकी क्रांति ने इसमें बहुत हाथ बंटाया है। आज पूंजी और श्रम-शक्ति दोनों अबाध गति से पूरे भूमंडल में संचरण कर रहे हैं। इसका अर्थ यह भी है कि पूंजीवाद के विरोध की शक्तियां भी एक साथ पूरे भूमंडल में फैल सकती हैं। हम पीछे नहीं लौट सकते। हम वापस स्वयंसम्पूर्ण ग्राम-व्यवस्था में नहीं जा सकते। जरूरत इस बात की है कि जो लोग नया संसार-समानता-स्वतंत्रता के मूल्यों पर आधारित शोषणमुक्त संसार-बनाना चाहते हैं वे भी एकजुट हों। ऐसी कोशिशें चल रही हैं।



प्रमोद रंजन : सूचनाओं के महाविस्फोट ने मध्यवर्ग को एक तरह के वर्चूअल (आभासी) संसार का निवासी बना दिया है। कहा जा रहा है कि जल्दी ही प्रतिरोध की बची-खुची कवायदें भी समाचार माध्यमों के दृश्य पटल का हिस्सा भर रह जाएंगी। क्या यह श्रेयकर होगा कि इस आभासी संसार का आनंद 'सभी` को उपलब्ध हो पाए?
ऐसा होना किस तरह मनुष्‍यता के खिलाफ जाएगा? रियल से वर्चूअल की यह यात्रा कितनी प्रायोजित है?



अरुण कमल : एक तरफ टेलिविजन, विज्ञापन आदि का 'आभासी` संसार है तो दूसरी तरफ स्वयं कठोर भौतिक जीवन का 'वास्तविक` संसार भी है। स्वयं अमेरिका और यूरोप का मध्यवर्ग इन दो संसारों के द्वंद्व को महसूस करता है जिसका एक प्रमाण इन समृद्ध देशों का अवसाद भरा, कुटुम्बहीन अकेलापन है। मध्यवर्ग को वास्तविक जीवन का पूरा अंदाज है-नौकरी में असुरक्षा, काम के बढ़ते घंटे, अवकाश का अभाव, प्रेम की कमी, जीवन में जोखिम जिसे टी.एस.इलियट ने बहुत पहले भांपा था- 'वेयर इज द लाइफ वी हैव लॉस्ट इन लिविंग?` कहां है वो जीवन जो हमने जीने में खो दिया? इसलिए पूंजीवाद का विरोध अंतत: वे लोग भी करेंगे जो आज इसके आश्रय हैं। क्योंकि नये समाज के निर्माण का अर्थ सुखभरे समाज का निर्माण है जहां आप चार घंटे काम करेंगे और बाकी समय पढ़ेंगे-लिखेंगे, संगीत सुनेंगे, घूमेंगे, मछली मारेंगे, बागवानी करेंगे और आजाद रहेंगे। मनुष्य को आभासी नहीं, वास्तविक सुख चाहिए। एक को नहीं। सबको।



प्रमोद रंजन : ऐसा लगता है जैसे वर्चस्व की सांप्रदायिक प्रवृत्ति ने 'सभ्यताओं के संघर्ष का वैचारिक चोगा पहन लिया है। अमेरिका द्वारा इराक के जबरन अपदस्थ किए गए रा ट्रपति सद्दाम हुसेन और भारतीय संसद पर हमला करने के आरोपी अफजल में क्या आप भी कोई समानता देखते हैं? एक समानता तो यह है कि दोनों विश्व के महान लोकतांत्रिक देशों (अमेरिका समर्थित देश द्वारा सद्दाम व भारत द्वारा अफजल) की न्याय व्यवस्थाओं द्वारा घोषित जघन्य अपराधी हैं और मृत्यु दंड की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
इसके अलावा एक इतर प्रश्न यह भी पूछना चाहूंगा कि भगत सिंह और अफजल में क्या असमानताएं हैं?


अरुण कमल : नहीं। सद्दाम हुसेन को पहले तो अमेरिका ने ही खड़ा किया था जैसे लादेन को, जैसे तमाम जनतंत्र और जन-विरोधियों को। फिर सद्दाम हुसेन को इराक की संप्रभुतासंपन्न सरकार ने नहीं, वरन् अमेरिकी कठपुतली सरकार ने सजा दी है, उसकी पोषित न्यायपालिका ने। इसलिए यह गलत है। जबकि जिस हत्यारे का आप नाम ले रहे हैं उसे एक संप्रभुतासम्पन्न संसद पर हमले के लिए सजा दी जा रही है, जिसके लिए उसके मुंह में कभी खेद का एक शब्द भी नहीं है। दोनों की तुलना गलत है।
मैं किसी भी प्रकार की हत्या या अत्याचार का विरोधी हूं। चाहे वह हत्या एक व्यक्ति करे या कोई समूह या सरकार।
आपके प्रश्न के अंतिम खंड के बारे में मेरा कहना है कि जिस पंक्ति में महान् शहीद भगत सिंह का नाम लिखा जाए उसमें किसी और का नाम न लिखें। स्वर्णाक्षर केवल शहीदों के लिए है, क्रांतिकारियों के लिए। पेशेवर हत्यारों के लिए नहीं।



प्रमोद रंजन : एक मार्क्सवादी होने के नाते इन दिनों सशक्त रूप से अभिव्यक्ति पा रहे सामाजिक समूहों की अस्मिताओं के संघर्ष को आप किस रूप में देखते हैं? क्या आपका कवि इनमें किसी मानवीय दृटि टकोण की तलाश कर पा रहा है? मार्क्सवादी दलों ने इधर अपने ऐजेंडे में वर्ग के साथ-साथ वर्ण को भी प्रमुखता से शामिल करना आरंभ किया है। जाति हिंदू समाज की मूल सच्चाई रही है। भारतीय मार्क्सवादियों को इसे समझने में इतनी देर क्यों लगी? राजनीति ही नहीं, बौद्धिक हलकों में भी समाज का इतना सूक्ष्म विश्लेषण करने वाले मार्क्सवादी इतिहासकार, साहित्यिक व अन्य समाज-संस्कृतिकर्मी इसे प्रमुखता देने से क्यों बचते रहे? इतने लंबे समय तक इस यथार्थ की उपेक्षा को क्या आयातित विचारों का खुमार भर माना जाए, या षययंत्र भी?



अरुण कमल : वंचित सामाजिक समूहों का उभार पिछले कुछ दशकों की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। और यह बहुत खुशी की बात है। जब तक हाशिया केन्द्र नहीं बनेगा और फिर एक ऐसा समाज न होगा जहां न तो केन्द्र होगा न हाशिया, तब तक यह उभार चलता रहेगा। लेकिन हमें केन्द्र-हाशिया नहीं, समतल एकरस भूमि चाहिए।
जहां तक वर्ग और वर्ण तथा मार्क्सवादी इतिहासकारों की भूमिका की बात है तो मैं विनम्रतापूर्वक कहूंगा कि मेरा ज्ञान इस विषय में बहुत कम है। आप किसी इतिहासकार से इस पर बात करें तो मेरा भी फायदा होगा। फिर भी मुझे लगता है, हांलाकि मैं गलत हो सकता हूं, कि आज भारतीय जीवन को चलाने वाली व्यवस्था न तो सामंती है न जाति-आधारित। जैसा कि आपके पूर्व प्रश्न भी बताते हैं आज यहां पूंजीवाद ही मुख्य चालक-शक्ति है। आज शोषण का मुख्य कारण पूंजी है। हांलाकि अंतर्विरोध अनेक हैं जैसे जाति, धर्म, योनि, क्षेत्र, भाषा आदि पर आधारित। एक ही साथ अनेक प्रकार के विभेद और शोषण मौजूद हैं। सबका खात्मा जरूरी है। आप कहते हैं कि जाति हिंदू धर्म की मूल सच्चाई है। हो सकता है। लेकिन क्या धर्म बदलने से यह खत्म हो जाता है। अगर ऐसा होता तो फिर दूसरे धर्मों के लोग जाति-आधारित फायदे क्यों चाह रहे हैं? मेरा अनुभव है कि पाकिस्तान में भी, जो शुद्ध मुस्लिम देश है, जात-पांत है, कबीले हैं, यहां तक कि गोत्र हैं और पंथ विभाजन जैसे शिया-सुन्नी-अहमदिया आदि तो है ही। और म्यांमार में भी जो शुद्ध बुद्ध-राष्ट्र है, जात-पांत तथा सामाजिक विभेद है। जबकि 'हिंदू` नेपाल में अपेक्षाकृत कम। स्वयं भारत में भी सभी धर्मों में जाति-भेद आज भी लगभग एक जैसा है। मैं नहीं जानता क्यों। लेकिन इतना लगता है कि वर्ण तथा जाति की व्यवस्था का संबंध केवल धर्म से नहीं है। कोई और कारण भी है। मार्क्सवादी इतिहास का इतिहास ज्यादा लंबा नहीं है। फिर भी मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इस बारे में सोचा है। इरफान हबीब का एक लेख जाति-व्यवस्था पर बहुुत महत्वपूर्ण है जिसमें वह पूछते हैं कि ऐसा क्यों है कि बुद्ध से लेकर अब तक जितने भी शासक आये-देशी या विदेशी-सबने जाति-व्यवस्था को लगातार मजबूत ही किया और आज भी कर रहे हैं। डॉ. रामशरण शर्मा ने भी विचार किया है। और भारत को समझने के लिए सर्वोपरि डी.डी. कोसाम्बी को पढ़ना जरूरी है। मैं यह भी सोचता हूं कि ऐसा क्यों है कि कोई ऐसी जाति नहीं जिसमें अमीर-गरीब दो वर्ग न हों? जहां मलाई और मट्ठा दोनों न हों? आज शोषण का मुख्य कारण पूंजीवाद है, जाति या धर्म नहीं। बेरोजगार हर जाति-धर्म में हैं। दरिद्रता हर जगह हर जाति में है, जैसे सम्पन्नता कहीं कम कहीं ज्यादा। फिर भी जाति की भावना है और शायद रहेगी। क्योंकि यह एक मानसिक अवस्था भी है; अपने को ऊंचा या नीचा समझना। चेखव ने लिखा है कि वह एक मोची के बेटे थे। उन्हें यह बात सालती थी। एक सुबह उन्होंने तै किया कि मैं इसे भूल रहा हूं और वह नये आदमी बन गये। ऐसा ही गोर्की ने भी किया। ऐसा ही राहुल जी ने भी किया। लेकिन यह रास्ता कठिन है। अपनी सारी पूर्वप्रदत्त पहचानों को छोड़ना सबसे कठिन है, पूर्वाग्रहों को तोड़ पाना उससे भी कठिन। जैसा कि आइन्सटाइन ने कहा है, 'एक परमाणु के विखंडन से कहीं अधिक कठिन है पूर्वाग्रहों का खंडन`। फिर भी हम सब उस जातिविहीन, वर्गविहीन और धर्मविहीन समाज की इच्छा करते हैं। चाहे जैसे हो, यह हो। इसके लिए जरूरी है कि पूरे सामाजिक जीवन को उन्नत, आधुनिक और तकनीक सम्पन्न बनाया जाय ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार काम पा सके, ताकि उसे पुश्तैनी काम करने पर मजबूर न होना पड़े। हमारे समाज के सबसे दलित भंगी-मेहतर और उनकी य़िां पहले माथे पर मैला ढोती थीं। नये आधुनिक शौचालयों ने उनको इस अमानवीयता से मुक्त किया। इसी तरह पूरा जीवन बदल सकता है। न तो मेहतर का बच्चा पाखाना धोने वाला मेहतर बनना चाहता है न ब्राह्मण का बेटा आरती घुमाने वाला भिखमंगा ब्राह्मण। बिना जाति-मुक्ति के देश का कल्याण नहीं हो सकता।



प्रमोद रंजन : भारतीय लेखन का विश्व बाजार निर्मित हुआ है। सलमान रश्दी, विक्रम सेठ आदि से लेकर अरुंधति राय तक की किताबें भारत में भी खूब बिक रहीं हैं। हिंदी में भी कभी लेेखकों को पर्याप्त सम्मान मिला करता था। आज वह स्थिति नहीं है। अपने समकालीन दिग्गज लेखकों को हिंदी समाज जानता तक नहींं। इस परिदृश्य के पीछे आप क्या कारण देखते हैं? क्या कोई सामाजिक कारण भी है-मसलन, गांवों में जागरण का समाप्त होना, एक किस्म के अभिजात्य पाठक का आगमन ..
अरुण कमल : जिसे आप भारतीय लेखन कह रहे हैं वह वास्तव में अंग्रेजी लेखन है। जो भारत के मध्यवर्ग की भाषा है। दूसरे देशों का मध्यवर्ग आज भी अपनी भाषा को प्रेम करता है। पर भारत का नहीं। हिंदी समाज स्वयं अपनी भाषा और साहित्य से प्रेम नहीं करता। दुनिया के किसी देश में कवियों का मजाक उड़ाने वाले चुटकुले, धारावाहिक और हास्यास्पद चौकड़े नहीं होते। भारत को छोड़ कर। हमारे गांव पहले से भी ज्यादा जहालत और बर्बादी में हैं। लेकिन इन सबके पीछे एक कारण यह भी है कि भारतीय भाषाओं का लेखन, हिंदी का लेखन, आपको चेतना के स्तर पर उकसाता है, वह व्यवस्था-विरोधी है जबकि भारतीय-अंग्रेजी लेखन मुख्यत: उपभोगवादी है। वहां न तो हेराल्ड पिंटर संभव हैं न हेराल्ड ब्लूम न मुक्तिबोध। यह सत्ता के लिए सुविधाजनक है।
प्रमोद रंजन : रूस के दिग्गज आलोचक मिखाइल बाख्त़िन कहते हैं कि "कविता एक विशे ााधिकार प्राप्त, बुनियादी रूप से सौंदर्यवादी विधा है। यह एकालापी (ऑटोटेलिक) है तथा सिर्फ 'कहने की भा ाा` में संभव हो पाती है। यह संवादपरक नहीं है जबकि उपन्यास रैटारिक तत्व से चालित विधा है।"
एक ऐसे समय में जब समस्याएं जटिलतम होकर अधिकाधिक संवाद की मांग करने लगीं, कविता हाशिए पर चली गई। क्या ऐसा नहीं लगता की बाख्त़िन का आकलन सही है? आप आधुनिक चुनौतियों के समक्ष कविता को कितना सक्षम पाते हैं?
अरुण कमल : बाख्त़िन को रूपवादी आलोचक माना जाता है जिन्होंने मार्क्सवादी धारणाओं का भी व्यवहार किया। उनका सबसे महत्त्वपूर्ण काम दॉस्तॉवस्की के उपन्यासों पर है। उन्होंने कहा कि दॉस्तॉवस्की के उपन्यास तॉल्सतॉय की तुलना में कहीं अधिक 'बहुस्तरीय`, 'बहुस्वरीय` तथा लेखक के अधिनायकत्व से मुक्त अनेक चरित्र स्वरों का स्वतंत्र संपुंजन हैं। इससे आप सहमत-असहमत हो सकते हैं, परन्तु इतना तै है कि बाख्त़िन ने खुले, समावेशी, बहुस्तरीय, बहुस्वरीय रचना की वकालत की। अगर हम इसे आधार मानें तो यह स्थिति सबसे ज्यादा शेक्सपीयर की कविता में घटित होती है। जहां कोई एक अंतिम स्वर नहीं है। कविता भाषा की अनन्त सम्भावनाओं का भी उपयोग करती है। प्रश्न कविता बनाम उपन्यास का नहीं है। ऐसा करना वाजिब नहीं। बाख्त़िन ने तो एक उपन्यासकार बनाम दूसरे की बात की। फिर भी साहित्य में कोई भी निर्णय अंतिम नहीं होता। बहुत से लोग तॉल्सतॉय को ज्यादा महत्त्व देते हैं और बहुत से लोग सर्वेन्तीज को। कविता एक अलग काम है। आधुनिक चुनौतियों ने ही आधुनिक कविता को जन्म दिया। फिर भी कविता बहुत कम लोग पढ़ते हैं। कविता हाशिए पर है या केन्द्र में यह सवाल नहीं है। हम जिसे प्रेम करते हैं वह अगर धूल में भी हो, कूड़े में भी हो, अंत्यज और क्षुद्र हो तब भी उसे ही प्रेम करते हैं । यही उसकी महानता है। कविता बहुमुखी संवाद है-दूसरे से भी और खुद से भी। 'सुनो भाई साधो` इसकी टेक है।



प्रमोद रंजन : मंत्रों से लेकर आधुनिक कविता तक को 'स्वत: स्थापित सत्य` की तरह कोट किया जाता है। जबकि वास्तव में वह एक व्यक्ति (कवि) का 'सत्य`- उसके द्वारा विश्लेि ात धारणा होती है। वह कौन से तत्व हैं जो काव्य को ऐसी विश्वसनीयता प्रदान करते हैं? और यह कितनी जेनुईन होती है?
अरुण कमल : हर रचना व्यक्ति ही करता है। यह व्यक्ति समाज का सर्वाधिक उर्वर तंतु होता है। फिर भी न तो कोई अंतिम सत्य है न अंतिम विश्वसनीयता। 'स्वत: स्थापित सत्य` तो होता ही नहीं। जब कोई कविता अधिक से अधिक लोगों को अधिक से अधिक कालों तक प्रभावित करती जाती है तो वह ऐसी विश्वसनीयता हासिल कर लेती है। जब कभी कोई पंक्ति आपको अचानक कभी याद आ जाए तो समझिए वह सच्ची है।
प्रमोद रंजन : आपके नए कविता संग्रह 'पुतली में संसार` में एक कविता है 'पक्ष का कारण`। 'पूरी बहस में मैं जूता उतारने के खिलाफ था/मेरा कहना था कि/जूता उतारकर अंदर आने को कहना/न सिर्फ असभ्यता की निशानी है बल्कि सामंती मनोवृति का अवशे ा भी..`। इस कविता के अंत में आप कहते हैं कि 'सच बात तो यह थी कि मैं जूता उतारने के/इसलिए खिलाफ था कि मेरा पैताबा/तार-तार था`। यह कविता प्रकारंतर से मोहभंग का संकेत करती लगती है!



अरुण कमल : मैं खुद नहीं कह सकता कि यह कविता 'मोहभंग का संकेत` करती है या नहीं। शायद आशय यह हो कि आपकी आर्थिक स्थिति जैसी होगी प्राय: आपका पक्ष भी वैसा ही होगा। आर्थिक स्थिति बदलते ही आपकी चाल-ढाल, बात-व्यवहार, चरित्र तथा रूप-रंग भी बदल जाते हैं। फ्रांसीसी उपन्यासकार फ्लॉबेय की एक पंक्ति है 'मादाम बुवारी` में : 'हिज कम्पलेक्शन वाज द कम्पलेक्शन ऑफ वेल्थ`। उसका रंग उसके धन का रंग था।


प्रमोद रंजन : हिंदी में इन दिनों हो रहे विपुल लेखन के पीछे कौन से कारक काम कर रहे हैं? आपका आलोचनात्मक विवेक इसे कितना प्रासंगिक पाता है? हिंदी पाठक कैसे अपने लिए किताबों, पाठ्य सामग्री का चुनाव करे; आप कुछ सुझाव देंगे?


अरुण कमल : हिंदी में इन दिनों हो रहे विपुल लेखन का अर्थ है कि पहले की तुलना में अधिक लोग लिख-पढ़ रहे हैं। जो वंचित समूह हैं उनसे भी लेखक आ रहे हैं। यह शुभ है। वैसे आलोचक वाल्टर बेंजामिन कहते थे कि रद्दी किताबें छापने वाले प्रकाशन को दंड मिलना चाहिए। मैं समझता हूं कि प्रत्येक सजग पाठक अपना चुनाव खुद कर लेता है। हर पुस्तक का अपना नियत पाठक, अपना गंतव्य, अपना भाग्य होता है। जिसको जो मन सो पढ़े। मैं पढ़ने में समाज में और जीवन में पूर्ण जनतंत्र चाहता हूं। मैथिली में एक कहावत है-बाजते रहलौं त हारलौं कि? बोलता ही रहा तो हारा कैसे?

1 comment:

  1. अरुण कमल जी की कविताओं कि प्रशंसक हूँ,विभिन्न प्रश्नों के उत्तर में उनके विचार पढ़े ,साक्षात्कार हम तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद.
    अंतिम पंक्ति में कहावत के ज़रिए बहुत अच्छी बात कही है.यही बात ब्लॉग्गिंग या अंतर्जाल पर बढ़ते हिंदी लेखन पर भी लागू होती है जिसे घटिया या निम्नस्तरीय कह कर 'बड़े नामो' द्वारा नकार दिया जाता है.

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