मतांतर
- विनय कुमार
'यवन की परी` एक लड़ती हुई औरत की ही नहीं एक मनोरोगी की भी आवाज है। मनोरोग और आत्महत्या के शिकार कई लेखकों ने संतुलित ही नहीं विश्वस्तरीय लेखन किया है। रही बात परिपक्वता की तो वह इस बात पर निर्भर है कि परिपक्वता पहले आई या मनोरोग पहले हुआ। मनोरोग से उबर कर भी परिपक्वता प्राप्त की जा सकती है। यह कविता 'परी` की रोगमुक्ति की घोषणा है और अगर उसने आत्महत्या कर ली है तो यह उसके परिजनों और चिकित्सा व्यवस्था की विफलता है।
जन विकल्प के उद्घाटन अंक (जनवरी,०७) में प्रकाशित लेखों के वैविध्य और तेवर से आपकी तैयारी का पता चलता है और उम्मीद की जा सकती है कि पत्रिका एक बड़ा पाठक-वर्ग बनाएगी। कविता का यह अदना कार्यकर्ता आभारी है कि आपने न सिर्फ ३२ पृष्ठों में ६ पृष्ठ कविता को (अरुण कमल से उपयोगी बातचीत सहित) को दिए बल्कि कविता पुस्तिका 'यवन की परी` भी प्रकाशित की।
कविता पुस्तिका में रति सक्सेना के इंटरनेटीय सौजन्य से प्राप्त कविता 'एक खत़ पागल खाने से` एक अद्भुत उपलब्धि है। कविता की रचना की पृष्ठभूमि (अरब, एक बंद समाज का मानसिक अस्पताल और कवयित्रि की आत्महत्या) इसे और भी महत्त्वपूर्ण बनाती है। यह कविता एक सचेत और सक्रिय आत्मा की जानलेवा पीड़ाओं के दस्तावेज से ज्यादा प्रतिरोध की आवाज है-जुझारू और अपराजित। इसी अंक से अरुण कमल द्वारा उद्धृत एक पंक्ति दुहराना चाहूंगा- 'बोलता ही रहा तो हारा कैसे?`
एक अज्ञात और मनोरोगी कवि की इतनी संतुलित और प्रौढ़ रचना पर एक मित्र ने मुझसे पूछा कि क्या एक मनोरोगी ऐसी कविता लिख सकती है। चूंकि मनोरोग को असंतुलन का पर्याय समझा जाता है, इसलिए यह प्रश्न स्वाभाविक है। उनके इस प्रश्न का संपूर्ण उत्तर एक किताब की शक्ल में ही संभव हो सकता है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि रचनात्मकता व्यक्ति की क्षमता होती है और सारे मनोरोग व्यक्ति की सभी क्षमताओं को पूरी तरह नष्ट करने वाले नहीं होते। मनोरोग और आत्महत्या के शिकार विश्व के कई लेखकों ने संतुलित ही नहीं विश्वस्तरीय लेखन किया है। रही बात परिपक्वता की तो वह इस बात पर निर्भर है कि परिपक्वता पहले आई या मनोरोग पहले हुआ। मनोरोग से उबर कर भी परिपक्वता प्राप्त की जा सकती है। नोबेल पुरस्कार विजेता गणितज्ञ जॉन नैश ने रोग के नियंत्रित हो जाने के बाद कई महत्वपूर्ण शोध किए। ज्ञातव्य है कि नैश स्क्जिाे़फ्रेनिया के मरीज हैं और प्रिंसटन (अमेरिका) में रहते हैं। इतना तय है कि सायकोटिक फेज में संतुलित और सार्थक रचना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में फार्म और कंटेंट दोनों पर मनोविकृतियों के (दु:) प्रभाव पड़ेंगे।
जहां तक 'परी` का सवाल है तो पुस्तिका के पाठ से उपलब्ध सूचनाओं और कविता की पड़ताल से अनुमान लगता है कि कवयित्री ने रचना-प्रविधि और कविता की समझ में महारत पहले हासिल की और कालांतर में अपनी 'हिमाकत` के कारण बाहरी दबावों को झेलने के लिए विवश हुई। इसकी तुलना एक आइने से की जा सकती है जो पत्थरों के शहर में अंतस में कौंधते अक्स के श्रोत को पाने की कोशिश में भागे और चूर हो जाए।
एक काव्य-साधन-संपन्न कवि अगर मनोरोग और अस्पताल के अनुभवों से भोक्ता बनकर गुजरे और इलाज की प्रक्रिया उसके 'लूजनिंग ऑफ असोशिएसंस` (विचारों की उश्रृंखलता) में कमी ला दे तो 'यवन की परी` का रचा जाना संभव है।
यह कविता एक लड़ती हुई औरत की ही नहीं एक मनोरोगी की भी आवाज है। यह आवाज मनोरोग से जुड़े कई अंधविश्वासों पर प्रहार करती है। यह कविता 'परी` की रोगमुक्ति की घोषणा है और अगर उसने सचमुच आत्महत्या कर ली है तो यह उसके परिवार, मित्रों, समाज और अस्पताल की चिकित्सा व्यवस्था की विफलता है।
साहित्य और मनोचिकित्सा दो अलग विधाएं हैं। इनमें जीवन को देखने, जानने और समझने के औजार अलग-अलग हैं। 'परी` जो कि 'पारानॉयड` स्टेज में है, उसे अस्पताल का वातावरण शत्रुवत् लगता है तो कोई अचरज की बात नहीं। किन्तु अस्पताल की जगह 'समाज` लिखकर कविता पढें तो पारानोइया के बावजूद 'परी` एक सार्थक रचनाकार के रूप में उपस्थित होती है।
विनय कुमार ख्यात मनोचिकित्सक व 'समकालीन कविता` के संपादक हैं।
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