December 24, 2007

फिर उभरा फासीवादी जिन्न



  • स्वतंत्र मिश्र

सीडी जैसे तमाम प्रकरण भाजपा की रणनीति के औजार हैं । इस घटना से जुड़ी तमाम खबरों के अध्ययन के बाद जाहिर तौर पर यह घटना प्रायोजित मालूम पड़ती है। भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस का गठन १९२५ में इसी आधार पर किया गया था।


किसी कारण से मेरे टेलीवीजन के रिमोट ने काम करना बंद कर दिया था। मेरी मजबूरी यह हो गयी कि मैं एक मात्र खबरिया चैनल आईबीएन-७ का दर्शन कर सकूं, जिस पर भाजपा द्वारा प्रचारित जहरीली सीडी का विज्ञापननुमा समाचार अनगिनत ब्रेकों के बाद भी अबाध गति से प्रसारित हो रहा था। खबरों में सीडीमयता के प्रवाह के बारे में अगर कहूं कि चैनल आकंठ 'जहरीली सीडी` में डूब गया था तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन, केशरीनाथ त्रिपाठी, राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, रविशंकर प्रसाद, वैंकेया नायडू, लालकृष्ण आडवाणी समेत तमाम लोग सीडी के इस जहरीले प्रकरण पर कभी शर्माते , कभी घबराते हुए, कभी दहाड़ते हुए भीगते-सूखते बारी-बारी से मीडिया के जरिये आम वोटरों से रू-ब-रू होते रहे। अभी तक यूपी में अमिताभी करिश्मा के जरिये समाजवादी पार्टी ने 'यूपी में बड़ा दम है` की तर्ज वाले ढेर सारे प्रचारों के जरिये लाभ लेने की कोशिश की थी ताकि 'मुलायम कायम रहें`। इसके बाद कांग्रेस ने विज्ञापन के जरिये राज्य की खस्ताहाल तस्वीरों को दिखाकर जनता को यह बताने की कोशिश की कि 'इससे तो अच्छी १९ साल पहले कांग्रेस की सरकार` थी। भाजपा इस चुनाव में एक सिरे से गायब मालूम पड़ रही थी। चुनाव प्रचार के अंतिम चरणों में अचानक चैनलों के सौजन्य से एक सीडी को चलाने की कोशिश की गयी। साथ में चैनल के एंकरों द्वारा यह बताया जाता रहा कि वे इसलिए सीडी का प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं क्योंकि इससे दो संप्रदायों के बीच दंगा भड़क जाने का निश्चित खतरा पैदा हो जाएगा। चैनल वालों ने इस सीडी का राज आम दर्शकों के सामने साफ तौर पर बयां नहीं किया इसलिए दंगा नहीं भड़का। हालांकि भाजपा को इस विस्फोट का जो लाभ पाना था, वह उसे चुनाव समीक्षकों के अनुसार मिल जाएगा। जनता के बीच सौहार्द बना रहे चैनल की इस सदिच्छा के लिए उन्‍हें धन्यवाद दिया जाना चाहिए। परंतु उनकी सदिच्छा जनता के हित की कुछ खबर विशेष तक क्यों सिमट कर रह जाती है, इस पर कभी और बात करना ठीक होगा। फिलहाल अभी हिट हो चुकी सीडी की सुनिश्चित और सफल होती योजनाओं के वर्तमान संदर्भों पर चर्चा लाजिमी होगी।

सीडी के जारी होते ही टेलीविजन और समाचार पत्रों में आती दनादन खबरों ने उत्तर प्रदेश चुनाव में हाशिये पर खड़ी भारतीय जनता पार्टी को चुनाव के केंद्र में ला दिया। हालत यह है कि तीसरे चरण का चुनाव संपन्न होने के बाद एनडीटीवी एक्जिट पोल में चुनाव समीक्षकों ने माना कि भाजपा अब तक २०-२४ सीट पर बढ़त बनाते हुए सबसे आगे चल रही है। वैसे कुल मिलाकर इस एक्जिट पोल के अनुसार बसपा इस बार की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आएगी। चुनाव में सबसे ज्यादा घाटा समाजवादी पार्टी का होना तय माना जा रहा है। सीडी प्रकरण से पूर्व टीवी पर आ रहे विज्ञापनों के हिसाब से समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच जबरदस्त घमासान की तस्वीर बनती दिख रही थी। परंतु सीडी की नौटंकी के बाद अब समीकरण बदल चुका लगता है। इस प्रकरण से भाजपा को मिलता लाभ देखकर तमाम तरह की क्षुद्रता से कोई भी पार्टी बचना नहीं चाह रही है। इस घटना के बाद राहुल गांधी ने भी विवाद खड़ा करने की मानसिकता से परिवारवादी परिभाषा से रचा बसा हुआ बयान दे डाला।


परिवारवाद कांगेस की राजनीति का मूल आधार रहा है। बहुजन समाज पार्टी पर भाजपा ने यह आरोप लगाया कि पार्टी ने 'बहनजी का संदेश` पुस्तिका जारी की है। इस पुस्तिका में उन्होंने सीधे तौर पर विभिन्न जातियों के लिए आपत्तिजनक बातें कहीं हैं। वास्तव में आज की राजनीति का जो मूल सार है उसके हिसाब से ऐसी बात जायज सी हो गयी लगती है। चुनाव में बाजी मारने के लिए सारी बुर्जुआ पार्टियां नैतिकता आदि राजनीति के मूल सवालों को दरकिनार करके जाति, संप्रदाय, दंगे, मंदिर-मस्जिद, सीडी, साड़ी आदि जैसे कुछ बेहूदा खेल रचकर सत्ता हासिल कर लेना चाहती हैं। बुर्जुआ राजनीति में सत्ता पर काबिज होने की दौड़ में यह हमेशा से एक नियम की तरह लागू रहा है। गांधी इस देश के आज तक के सबसे ताकतवर जन नेता के रूप में उभरे हैं। परंतु इतिहास के पन्नों में आप झांककर देखें तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस से पट्टाभी सीतारमैया की हार पर गांधी जी ने जो बयान दिया था, वह उनकी महानता की सीमाओं को दर्शाता है। सत्ता की लालसा मनुष्य की सीमाओं को उजागर करती है। इसकी पुष्टि के लिए गांधी जी का उद्धरण दे रहा हूं। उस समय की राजनीति में नैतिकता का स्थान था। इसलिए नेताजी ने इस घटना के बाद अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया था। वे बापू का सम्मान पूर्ववत् करते रहे। राजनीति में त्याग की भावना का महत्व था। आज की राजनीति और राजनेताओं, नेताओं से स्वार्थ की बू आती है। हो सकता है कि एक-आध लोग इस सामान्यीकरण से परे हो सकते हैं। इसलिए आज के दौर में ऐसी तात्कालिक घटनाओं के संदर्भ में मैं व्यक्तिगत तौर पर विभिन्न पार्टियों द्वारा इस्तेमाल किये जानेवाले ऐसे चुनावी प्रस्तावों को और उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि के आधार पर इन प्रकरणों को समझे जाने की जरूरत महसूस करता हूं। दरअसल इन तमाम बुर्जुआ पार्टियों में से किसी भी पार्टी के लिए ऐसे तमाम प्रतीकों का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी पार्टी की ऐसी हरकतें अनायस कहीं आसमान से नहीं टपक पड़ती हंै और न ही पाताल फोड़कर आश्चर्यजनक रूप से सामने आ जाती हंै। यह सब कुछ उनकी विचारधारा के तहत् पनपती और बढ़ती रहती हैं। ऐसे प्रकरण ज्वालामुखी की तरह या बादलों के संधनन प्रक्रिया की तरह मौके की ताक में रहती हैं, मौका पाते ही यह जबरदस्त ढंग से फट पड़ती हैं। इन प्रकरणों के उत्स ढूंढे जाने चाहिए।

सीडी जैसे तमाम प्रकरण भाजपा की रणनीति का एक औजार हैं। इस घटना से जुड़ी तमाम खबरों के अध्ययन के बाद जाहिर तौर पर यह घटना प्रायोजित मालूम पड़ती है। भाजपा के मातृ पार्टी आरएसएस का गठन १९२५ में इस बिना पर ही किया गया था। वे मुगल शासन में हुए हिंदुओं पर अत्याचार के नाम पर सांस्कृतिक तौर पर हिंदुओं के मन में विष भर देना चाहती थीं। लेकिन लंबे समय की कार्यवाही के नतीजों के तौर पर और खासकर गांधी की हत्या के बाद आरएसएस का दमन बड़े स्तर पर हुआ। आरएसएस कलंकित होकर हाशिये पर चली गयी थी। इस घटना के बाद सबक के तौर पर आरएसएस को लगा कि केवल सांस्कृतिक स्तर पर कार्यकर्ता तैयार करने से काम नहीं चलने वाला है। उसने राजनीतिक कार्यकर्ता तैयार करने के लिए संघ (फैक्ट्री) का निर्माण किया जिसने आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी के रूप में 'राष्ट्रीय` पार्टी का आकार ले लिया। गांधी की हत्या से कलंकित आरएसएस को राजनीतिक स्वीकृति जेपी आंदोलन में जयप्रकाश नारायण के जीवन की सबसे बड़ी भूल के तौर मिल पायी। गांधी के मृत्यु के समय राजनीति का मतलब चरित्र की ऊंचाईयों से लगाया जाता था। यही कारण है कि गांधी की हत्या आरएसएस को बहुत लंबे समय तक महंगी साबित होती रही। आज राजनीति का मतलब अपनी सारी इच्छाओं के पूरित होने या सबकुछ गटक लेने से लगाया जाता है। इन हालातों में जहरीली सीडी, अयोध्या, गोधरा, नांदेड़ आदि जैसे षड्यंत्र हों या फिर लालजी टंडन द्वारा पिछले लोकसभा चुनाव में साड़ी बांटने के दौरान मची अफरा-तफरी से कई लोगों की मृत्यु का मामला हो कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। एक बात और है कि राजनीति में ऐसी शक्तियों को चुनौती देने के लिए किसी जन-संगठन ने अपना जनाधार इस रूप में नहीं फैलाया जिससे इन शक्तियों को सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर पराजित किया जा सके। समाज को सही दिशा में गतिमान किया जा सके यह जन-संगठनों के लिए एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी होगी। जन-संगठनों को गोलबंद होकर इन फासीवादी ताकतों द्वारा रोजी, रोटी के मसलों को पीछे धकेलकर सीडी जैसे खेल खेलने से रोकना होगा। अन्यथा रोजी, रोटी और बुनियादी सवालों की लड़ाई को अपमानित होने से नहीं रोका जा सकेगा।

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