December 14, 2007

माओवाद, हिंसा की राजनीति और सामाजिक परिवर्तन के सवाल

संपादकीय



बंगाल के नक्सलबाड़ी जिले में वसंत के वज्रनाद के चालीस साल होने जा रहे हैं। तब से इस धारा ने अनेक मोड़ लिये हैं और आज भी एक नये रूप में यह समग्र राजनीति को प्रभावित कर रहा है। बगल के देश नेपाल में माओवादियों का क्रूर दमन किया गया परंतु आखिर में वहां की राणाशाही ही पराजित हुई। अभी भी बिहार सहित देश के कई हिस्सों में नक्सलवादी राजनीति के आधार क्षेत्र बने हुए हैं। सरकार इसे विधि-व्यवस्था की बड़ी समस्या मानती है और इसे उग्रवाद बतला कर बलपूर्वक कुचलना चाहती है।


नक्सलवाद मार्क्सवाद की वह पाठशाला है जहां मार्क्स और लेनिन के अलावे माओ के विचारों का प्रभाव है। इससे जुड़े राजनैतिक कार्यकर्त्ता तो माओवाद को ही सब कुछ मानते हैं। विनोद मिश्र के नेतृत्व वाले लिबरेशन पर माओवाद का प्रभाव न के बराबर था, लेकिन यह गुट अब लगभग पूरी तरह प्रभावहीन हो गया है। माओवादी ताकतें ही ज्यादा प्रभावशाली हैं। माओ का प्रसिद्ध नारा था राजसत्ता बंदूक की नली से निकलती है।


माओ च तुंग (२६,दिसंबर १८९३-९,सितंबर १९७६) के करिश्माई व्यक्तित्व से मैं आज भी प्रभावित हूं। जिन लोगों ने एडगर स्नो की किताब 'रेड स्टार ओवर चाइना` पढ़ी है, वे उसके व्यक्तित्व के प्रति उदासीन नहीं रह सकते। चुडण् वनश्येन द्वारा लिखित माओ के जीवन चरित से मैं जब गुजर रहा था तब एक जगह आकर ठहर गया। चुड. वनश्येन ने समापन के पहले लिखा है-'माओ चतुड. ने अपनी जीवनसंध्या में अनेक गलतियां कीं, लेकिन चीनी क्रांति के लिए उन्होंने जो अमिट महान योगदान किए, उनके लिए चीनी जनता माओ चतुंड. का अब भी हृदय से सम्मान करती है और उनको दिल से याद करती है।` वनश्येन का यह जीवन चरित किसी अमेरिकी प्रकाशन गृह ने नहीं, चीन के सरकारी प्रकाशन गृह ने प्रकाशित किया है। इसलिए इसे पढ़कर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ कि क्यों माओ को आज अपने ही देश में भुला दिया गया है। उनकी स्थिति चीन में लगभग वैसी ही है जैसी अपने देश में गांधी की। वे आदरणीय हैं, अनुकरणीय नहीं। यही कारण है कि चीन माओ के चित्र और सितारेदार लाल झंडे के नेतृत्व में अमेरिकी पूंजीवाद को टक्कर दे रहा है। चीन ने 'समाजवादी` छतरी के नीचे अपना ही पूंजीवाद विकसित किया है। लेकिन माओ और गांधी की इज्जत बनी रहेगी, रहनी चाहिए। माओ की मुश्किलें गांधी से कहीं ज्यादा इसलिए थीं कि उन्होंने आरंभ से ही मार्क्सवादी विज्ञान का सहारा लिया। गांधी की तरह रामनामी ओढ़ कर उनका काम आसान हो सकता था। माओ का राष्ट्रीय आंदोलन साम्राज्यवाद के उतना खिलाफ नहीं था, जितना गांधी का आंदोलन। इसलिए माओ ने गरीब-गुरबों, किसानों और मजदूरों को इकट्ठा किया। गांधी की तरह वह बुर्जुआ तबके के उदार नेता नहीं, बल्कि पिछड़े किसानों के क्रांतिकारी नेता थे। गांधी की तरह वह पंचमेल की राजनीति नहीं कर रहे थे, जहां परस्पर विरोधी विचार शक्तियाने और व्यक्तियों का जमावड़ा हो। शायद यही कारण था कि गांधी की अपेक्षा उनके अंतरविरोध कम थे।


माओ ने साठ के दशक में सांस्कृतिक क्रांति का नेतृत्व किया था। संस्कृति को शायद वह अविच्छिन्न प्रवाह नहीं समझते थे। चीन में बौद्ध मत प्रभावशाली है और लगभग अस्सी फीसदी चीनियों का संस्कार बौद्ध है। बुद्ध मत का मूल प्रतीत्यसमुत्पाद है जो जीवन और जगत के अविच्छिन्न प्रवाह को मानता है,यह परिवर्तनवाद है। माओ ने संस्कृति में क्रांति करनी चाही-आमूल परिवर्तन। पुराने का संपूर्ण निषेध और बिल्कुल नये की स्थापना। माओ इसमें विफल हुए, बदनाम भी। तब से वे लगातार अप्रासंगिक होते गये, अपने ही समाज और देश में।


लेकिन उनकी जो छवि बीसवीं सदी के तीस, चालीस और पचास के दशक में थी, वह हमारे देश के कुछ समर्पित और ईमानदार युवा मित्रों को प्रभावित कर रहा है। और इसका कारण शायद यह है कि हमारे देश के देहाती इलाकों में आज भी स्थिति वैसी ही है जैसी बीसवीं सदी के मध्य में चीन के देहाती इलाकों की थी।


हममें से हर कोई यह स्वीकारेगा कि देश की मुख्यधारा में गांव के लोग नहीं आये हैं। गांव और शहर की दूरी बढ़ रही है। भूमि सुधारों और हरित क्रांति के अभाव ने गांवों को गलीज बना दिया है। कृषि पर इतना जन भार उठाने की क्षमता नहीं है। चालीस प्रतिशत अतिरिक्त आबादी का बोझ यह सेक्टर उठाये हुए है। सामंतवाद-ब्राह्मणवाद का खाज अलग से है।


ऐसे में यह समझाना मुश्किल है कि हिंसा समस्या का समाधान नहीं है। संसदीय राजनीति में जो लक्षण उभरे हैं वे इतने गैर जिम्मेदार हैं कि इससे गांवों में रह रहे निष्ठावान नौजवानों को बस कोफ्त होती है। शासक दल एक तरफ सवर्ण गंुडों व चापलूसों को राजनीतिक ओहदों का तगमा पहना कर लाल बत्ती वाली गाड़ियों पर घुमायेगा और दूसरी तरफ इज्जत व रोटी की लड़ाई लड़ने वाले नौजवानों को यातनायें देगा, तो आक्रोश फूटेगा ही।


पिछले दिनों मैं गया के पास एक गांव में था तो ग्रामीणों ने मिलकर बतलाया कि जब पुलिस को हम गरीबों को सताना होता है तब हम पर माओवादी होने का आरोप लगाती है। जिन पुस्तकों, परचों और असलहों को हमलोगों ने कभी नहीं देखा, उन्हें हमारे घर से बरामद बता कर हमारे घर के नौजवानों को सीखचों के भीतर करती है। हमारी बहू-बेटियों के साथ अभद्र व्यवहार और कभी-कभी बलात्कार तक करती है। हम जब इसके खिलाफ आवाज उठाते हैं तब नक्सलवादी-माओवादी बतला कर हम पर गोली बरसाती है। सरकारी और सामंती हिंसा का मुकाबला हम कैसे करें, यह उनका आखिरी सवाल होता है। थोड़ी आत्मीयता दिखलाने पर वे और खुलते हैं। निर्गुण की जगह सगुण भाषा में बतियाने लगते हैं। उनका कहना होता है कि वे पिछड़ी व दलित जातियों से आते हैं, जबकि पुलिस और उसके अधिकारी ज्यादातर ऊंची जातियों से ताल्लुक रखते हैं।

अन्य राज्यों की पुलिस को मैं उतना नहीं जानता, लेकिन बिहार पुलिस पर सवर्ण वर्चस्व बहुत साफ दिखता है। विधि-व्यवस्था को ठीक करने के नाम पर हर बार कुछ पिछडे-दलित नौजवानों की बलि दी जाती है। अपराधी कोई खास जाति समूह में ही नहीं होते, लगभग हर में होते हैं, लेकिन बिहार के जेलों का सर्वेक्षण करके कोई देख ले, वहां पिछड़ी दलित जातियों के कैदी नब्बे फीसदी मिलेंगे। इसका कारण यह नहीं है कि वे अपराध ही इस मात्रा में करते हैं। दरअसल वे जटिल और खर्चीली न्यायिक व्यवस्था के चक्रव्यूह से बाहर नहीं आते। ऊंची जातियों के लोग जिन मामलों में आसानी से अग्रिम जमानत पा जाते हैं, उन्हीं मामलों में पिछड़ी जातियों के लोग बरसों की 'सजा` भुगतते हैं।


पिछले महीने बिहार पुलिस की बांछें अचानक खिल गयीं। उसने माओवादी नेता अजय को गिरफ्तार कर लिया। अजय पर १३ नवंबर २००५ के जेल ब्रेक का भी आरोप है। इस प्रकरण में पुलिस का सवर्णवादी रूख इतना साफ आया, लेकिन मीडिया ने भी इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। पुलिस ने अजय का नाम बतलाया अजय कानू। मीडिया ने भी इसे ही प्रकाशित किया। 'कानू` बिहारी समाज की एक अति पिछड़ी जाति है जिससे अजय आते होंगे। निश्चित रूप से उनका यह सरनेम नहीं होगा। उनके नाम के साथ जुड़ा होगा कुमार या प्रसाद। लेकिन पुलिस को दिखाना होता है उसकी जाति-कि देखो ये नीच-पतित लोग क्या-क्या करते रहते हैं। बिहार पुलिस तथाकथित निम्नजाति के अपराधियों के नाम के साथ उनका जातिनाम जोड़ना कभी नहीं भूलती, लेकिन ऐसा ही ऊंची जाति के अपराधियों के साथ नहीं करती। मीडिया भी उसका अनुसरण करता है।


अजय (कानू) मामले में मैंने एक बड़े अधिकारी से जब पूछा कि उस पर मामला क्या है कि उसे इतनी कठोर यातना दी जा रही है तब उसने बतलाया कि अन्य अपराधों के साथ उस पर जेल ब्रेक का अपराध है। मेरे यह कहने पर कि वही अपराध न जिसे जयप्रकाश नारायण ने ८ नवंबर १९४२ को किया था, वह अधिकारी बगलें झांकने लगा। यह हमारे व्यक्तित्व का एक अजीब विरोधाभास है जिस पर हम गौर नहीं करना चाहते। हम नारों, आप्तवाक्यों और सुभाषितों में जिस तरह खुद को व्यक्त करते हैं, उस तरह बनना नहीं चाहते। वर्तमान बिहार के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री दोनों जयप्रकाश आंदोलन की राजनीतिक कोख से निकले हैं। इस आंदोलन का एक प्रभावशाली नारा था- 'जेल का फाटक टूटेगा, भाई हमारा छूटेगा`। जैसा कि मैंने ऊपर बतलाया कि जे.पी के जीवन का भी सबसे बहादुर कारनामा जेल से भागना ही था। जे.पी या भगत सिंह की राजनीति थी, तो अजय की भी राजनीति है। एक सभ्य समाज के नागरिक के नाते हम इस विषय पर विवेक और संवेदना के साथ विचार क्यों नहीं करते?


तथाकथित माओवादी उग्रवाद का इलाज पुलिसिया दमन से होता है तो हम इसका विरोध करना चाहेंगे। माओवादियों की हिंसा का हम समर्थन नहीं करते, लेकिन वे दलित-पिछड़े तबकों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, इसे हम जानते हैं। भगत सिंह का लाला लाजपत राय की राजनीति से मतलब नहीं था। लाजपत राय हिन्दू सभायी थे, लेकिन उन्होंने लाठियां देश की खातिर खायी थीं, इसलिए उनकी बर्बर पिटायी से भगत सिंह इतने मर्माहत हुए कि उन्होंने ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सैण्डर्स की हत्या का फैसला किया। अजय सहित तमाम माओवादी मित्रों को हम इस आशा के साथ सलाम करते हैं कि वे सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसा की राजनीति का परित्याग करेंगे।

  • प्रेमकुमार मणि

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