December 17, 2007

काबुली वाले के देश में

फिल्‍म



  • फ़ज़ल इमाम मल्लिक



वह बच्चा नहीं जानता कि जंग क्या होती है, लेकिन अनचाहे जंग ने उसे अपंग बना कर उससे उसका बचपन ही नहीं, उसका सब कुछ छीन लिया। जंग ऐसे ही हजाऱों मासूमों की आंखों से उनके सपने छीन ले जाती है। 'काबुल एक्सप्रेस` हमें इस सच से रूबरू कराती है।




अफगानिस्‍तान की पृष्ठभूमि पर बनी कबीर खा़न की फिल्म 'काबुल एक्सप्रेस` देखते हुए रवींद्रनाथ टैगोर की मशहूर कहानी 'काबुली वाला और मिनी` बरबस याद आ जाती है उन यादों में अफगानियों के चेहरे जेह़न में उभरते हैं। पटना, कोलकाता, मुगलसराय और देश के दूसरे हिस्सों में रहने वाले, आपस में पश्तो में बोलते-बतियाते, हमसे पश्तोनुमा हिंदी या उर्दू में बातें करते अफगानियों के चेहरे यादों की खिड़कियां खोल कर चुपके से सर निकालते हैं। हालांकि छुटपन में उनकी डीलडोल और पहनावा देख कर डर भी लगता था लेकिन धीरे-धीरे यह डर निकलता गया और उन्हें नज़दीक से जानने-समझने के बाद लगा कि वे भी हमारे जैसे ही हैं, हमसे अलग नहीं। भारतीय व्यंजन, गीत-संगीत और फिल्में उन्हें बहुत भाती थीं। 'काबुल एक्सप्रेस` के शुरुआती सीन में ही एक पश्तो चेहरा उभरता है। वह हिंदी नहीं जानता लेकिन अमिताभ बच्चन, आमिर खान और शाहरुख खान को जानता है और नामों की वजह से ही हिंदुस्तान उसके अंदर कहीं बसा हुआ है। उस चेहरे को देखते ही भारत में रह रहे अफगानियों के चेहरे घूमने लगते हैं। न तो वे चेहरे पराए लगते हैं और न ही काबुल की गलियां अनजानी। लेकिन कबीर खाऩ 'काबुल एक्सप्रेस` में हमें काबुल की सैर नहीं कराते हैं। बल्कि कुछ जरूरी और बुनयादी सवाल हमारे सामने उठाते हुए उस अफगानिस्तान की तस्वीर हमारे सामने रखते हैं जो आज खंडहरों में तब्दील हो चुका है। काबुल की गलियों से गुज़रते हुए एक अजब तरह की वहशत पसरी दिखाई पड़ती है। कुछ दृश्यों को देख कर तो रोंगटे खेड़े हो जाते हैं। इंसानियत के नाम पर थोपी गई जंग एक देश को किस तरह बर्बाद कर डालती है, अफगानिस्तान में जगह-जगह यह दिखाई पड़ता है। फ़िल्म के एक दृश्य में जॉन अब्राहम को वर्जिश करते दिखाया गया है। थोड़ी दूर बैठा एक बच्चा जॉन को वर्जिश करते बहुत गौऱ से देख रहा होता है। जान मुस्कुराते हुए उससे पूछते हैं 'वर्जिश करेगा`। लड़का खाम़ोश रहता है तो वे उसके पास जाते हैं। लड़के के पास पहुंचते ही उनकी मुस्कुराहट दम तोड़ जाती है और उनके चेहरे पर एक पीड़ी उभरती है। बिना बोले वे जंग की उस दर्दनाक सच्चाई को बयान कर डालते हैं। जॉन जिस बच्चे को अपने साथ वर्जिश करने के लिए बुला रहे थे वह अपंग था। जंग के दौरान कहीं से कोई मिशाइल, कोई बम या कोई रॉकेट आया और उससे उसका सब कुछ छीन कर ले गया। बच्चा नहीं जानता था कि जंग क्या होती है, लेकिन अनचाहे जंग ने उसे अपंग बना कर उससे उसका बचपन ही नहीं, उसका सब कुछ छीन लिया। जंग ऐसे ही हजाऱों मासूमों की आंखों से उनके सपने छीन ले जाती है। 'काबुल एक्सप्रेस` हमें इस सच से रूबरू कराती है।


दुनिया पर हकूमत का सपना देखता अमेरिका पूरी दुनिया पर दादागिरी कर इंसानियत को शर्मिंदा कर रहा है। पहले अफगानिस्तान फिर इराक और अब कुछ दूसरे देशों को धमकाता अमेरिका इंसानियत की दुहाई देकरा जंग के लिए दूसरों को जिम्मेवार ठहरा रहा है। बंदूक जिसके पास होती है, लोग उसके साथ होते हैं और वह हर उस इंसान से अपनी मर्जी का उत्तर बुलवा लेता है। कबीर खा़न अपनी पहली फिल्म 'काबुली एक्सप्रेस` में इस सच को हमारे सामने रखते हैं। लेकिन सिर्फ यही एक बात कबीर खान अपनी इस फिल्म में नहीं उठाते बल्कि ऐसे और भी कई सवाल बहुत ही शिद्दत से वे उठाते हैं। 'काबुली एक्सप्रेस` में किसी कविता की तरह स्लोलाइड पर उभरते हैं कई दृश्य। उनमें जीवन की कई छवियां, कई शेड्स, कई रंग और कई अर्थ दिखाई देते हैं और धीर-धीरे इसके अर्थ हम पर खुलते हैं।


कबीर खाऩ की यों तो यह पहली फ़ीचर फिल्म है लेकिन लंबे अरसे तक अफगानिस्तान में उन्होंने काम किया है और कुछ डाक्युमेंट्री वहां की पृष्ठभूमि पर बना चुके हैं इसलिए विषय उनके हाथ से फिसलता नहीं है। फिल्म का फोकस तालिबान और उसके बाद के अफगानिस्तान पर है। जंग से तबाह हुए अफनागिस्तान में स्थितियों में आए बदलाव को वे परदे पर तो उकेरते ही हैं, हिंसा की जो नई इबारत अमेरिकी फौज और तालिबान विरोधी लिख रहे हैं उसे भी वे हमारे सामने रखते हैं। तालिबानियों के खिलाफ गुस्से व नफरत के माहौल को परदे पर उतारते हुए कबीर खंडहरों में तब्दील हुए शहरों और कस्बों को बिना किसी झिझक के दिखाते हैं। अफगानिस्तान के कबायली इलाकों से गुजरते अरशद और जॉन को हनीफ बताते हैं यह इलाका कभी गुलजार रहा करता था। यहां के अंगूरों का जवाब नहीं था लेकिन अब तो यहां कुछ भी नहीं सिर्फ बर्बाद खंडहरों के।


फिल्म में सलमान शाहिद अमेरिकी और अफगानी सेना से बचने के लिए बाकी चारों का अपहरण कर लेता है। हनीफ उनसे बार-बार उलझता है। विचारों के साथ-साथ दोनों में नजरिये का टकराव भी है इसलिए दोनों के बीच गर्मागर्मी होती है लेकिन बंदूक चूंकि सलमान के हाथ में होती है इसलिए हनीफ उनकी वह बात भी मानता है जो उसे सही नहीं लगती। अरशद और सलामन में भी टकराव होता है। छोटी-छोटी बातों पर वे उलझते हैं। इमरान खान और कपिल देव पर भी दोनों में बहस होती है। बेहतर आलराउंडर कौन है इस पर दोनों में तकरार होती है लेकिन स्थितियां सलमान के पक्ष में होती हैं इसलिए अरशद को मानना पड़ता है कि इमरान खान बेहतर आलरांउर थे। लेकिन थोड़ी देर के लिए स्थितयां बदलती हैं और बंदूक अरशद और हनीफ के हाथ में आ जाती है तो सलमान ताकत के आगे झुक कर यह मान लेता है कि कपिल देव ही बेहतर आलराउंडर थे। फिल्म में सलमान पाकिस्तानी सैनिक इमरान खान आफरिदी की भूमिका में हैं। अरशद और जान को जब वे अपना नाम बताते हैं तो दोनों उनसे पूछते हैं कि क्रिकेट में उन्होंने अपनी किस्मत क्यों नही आजमाई, तब वे सवाल करते हैं, तुम्हारे यहां सचिन नाम का हर आदमी क्रिकेट खेलता है क्या? हालांकि बहुत ही सहजता से यह सवाल वे पूछते हैं लेकिन इसके व्यापक अर्थ दर्शकों पर खुलते हैं।


कोक और पेप्सी के बीच ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर तो कबीर व्यंग्य करते ही हैं, तालिबानियों का दोहरा चरित्र भी उनके निशाने पर होता है। अमेरिकी विमानों के हमले की वजह से तालिबानी एक ट्रक छोड़कर भाग जाते है। ट्रक से कोई पेय पदार्थ टपकता है तो अरशद उसे चख कर कहते हैं, पेप्सी है। लेकिन जॉन उससे इत्तेफाक नहीं रखते। वे कहते हैं-नहीं कोक है। अरशद अपना फैसला सुनाते हैं-नहीं पेप्सी ही है क्योंकि यह मीठा है। लेकिन जान नहीं मानते तो वे अमेरिकी पत्रकार लिंडा से पूछते है तुम अमेरिकी हो, बताओ यह कोक है या पेप्सी तो उसका जवाब होता है-मैं न तो कोक पीती हूं और न ही पेप्सी। लिंडा का जवाब दोनों को हैरत में डाल देता है और वे उससे कहते हैं, तुम कैसी अमेरिकन हो न कोक पीती हो न पेप्सी। इस एक छोटे से सवंाद से कबीर बहुत कुछ कह डालते हैं। इनके बीच ही कुटनीति और राजनीति के रंग भी उभरते हैं। अमेरिका पर ९/११ के हमले के बाद विश्व में स्थितियों में जो बदलाव आया है उसे भी रेखांकित करती है 'काबुल एक्सप्रेस`। इस हमले के बाद पाकिस्तान की प्राथमिकताएं बदली हैं, उसे कबीर ने बेहतर ढंग से पेश किया है।

कुछ बातें और भी हैं। जिसकी चर्चा यहां जरूरी लगती हैं सलामान भारतीय फिल्मों और गीतों के शौकीन हंै। रेडियो पर वे भारतीय फिल्म का गीत सुनते हैं। तो अरशद पूछते हैं, तुम्हें भारतीय गाना सुनना पसंद है। जवाब में सलमान कहते हैं-बचपन से ही भारतीय गीत और संगीत का शौक रहा है। अरशद व्यंग्य भरे लहजे में पूछते हैं-कैसे तालिबानी हो, तालिबानियों ने तो हमारे यहां के गीत और सिनेमा पर पाबंदी लगा दी है। सलामन जवाब में कहते हैं-वे जाहिल थे। भारतीय फिल्मों से अपने लगाव को वे छुपाते नहीं हैं। वे कहते हैं तुम्हारे यहां की माधुरी दीक्षित बहुत अच्छी अभिनेत्री है। तुम हमें माधुरी दीक्षित दे दो, कश्मीर ले लो। सारी बातचीत सुन रहे जॉन तब बोलते हैं-माधुरी तो ब्याह रचा कर अमेरिका जा बसी। सलामन अफसोस और मायूसी भरे लहले में कहते हैंऱ्यही तो हमारी बदकिस्मती है, हर अच्छी चीज अमेरिका चली जाती है।


विश्व पर अमेरिकी दादागिरी जिस तरह बढ़ रही है, वहां यह एक वाक्य झकझोर डालता है। क्योंकि बढ़ते अमेरिकी दखल़ ने पूरे विश्व को एक अजब तरह के दहशत में डाल रखा है और इस दहशत के बीच हर अच्छी चीज अमेरिका चली जाती है या यों कहें अमेरिका हमसे छीन कर ले जाता है.

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