October 30, 2007

आस्था नहीं, वैज्ञानिक चेतना

संपादकीय


  • प्रेमकुमार मणि



पिछले कुछ दिनों से मेरे मन में बार-बार यह बात आ रही है कि हम कहां जा रहे हैं। एक तरफ मुल्क में वैज्ञानिक तकनीकी संस्थानों का जाल बिछ रहा है जिसमें लाखों युवा विज्ञान और तकनीक की उम्दा पढ़ाई कर रहे हैं, दूसरी ओर हमारी सामाजिक प्रवृत्तियों में धर्मान्धता, कट्टरता और अवैज्ञानिकता का जोर बढ़ता जा रहा है। जब हमारी पीढ़ी तरूणाई में थी तब इक्कीसवीं सदी का सुनहला स्वप्न देखती थी। हम समझते थे इस स्वप्निल सदी में वर्ग तो शायद कुछ रह जाए, वर्ण और जाति का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। समाज में ज्यादा समानता होगी, न्याय होगा। पंडे और मुल्ले अजायब घरों की चीज हो जायेंगे। इनकी जगह प्रखर बौद्धिक आध्यात्मिक गुरू ले लेंगे। आदि..आदि..

लेकिन जो हुआ सो आपके सामने है। सुनहला स्वप्न, दु:स्वप्न की तरह हमें डरा रहा है। वर्ग, वर्ण, जाति सब की खाई बढ़ी है। असमानता बढ़ी है। पंडे और मुल्ले तो अब राजनीति से लेकर साहित्य तक की पहरेदारी कर रहे हैं। वे बड़ी संख्या में विधान सभाओं और संसद में पहुंच चुके हैं। १९५० के दशक में एक धर्म भीरू राष्ट्रपति ने जब बनारस में पंडों के पैर धोये थे, तब समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया ने इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। आज मंत्री और मुख्यमंत्री खुले आम ऐसी बेशर्मी कर रहे हैं और कोई इनके खिलाफ एक बयान तक नहीं देता।
मुझे बड़ा झटका तब लगा, जब पिछले दिनों सेतुसमुद्रम् मामले में राष्ट्र की संचित मूर्खता बलबला कर सामने आयी। जिस रोज विश्व हिंदू परिषद ने इसके खिलाफ राष्ट्रव्यापी बंद का आयोजन किया था, मैं दिल्ली में था। मुझे आवश्यक कार्यवश एक जगह जाना था, लेकिन नहीं जा सका, क्योंकि जगह-जगह विहिप का बैनर लगाये भाजपायी रंगरूट राह रोके हुए थे। अपने कमरे में टी.वी पर मैं समाचार देख रहा था। राष्ट्र की 'विराट` मूर्खता के 'भव्य` दर्शन से मैं अचंभित था। यह एक नया भारत था, या कहें इक्कीसवीं सदी के भारत की यह नयी अंगड़ाई थी।

फिर तो मूर्खता की प्रतियोगिता शुरू हो गयी। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के अधिकारियों ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर किया कि राम के सम्बंध में हमारे पास कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं हैं। उन अधिकारियों ने वही कहा था जो सच था। लेकिन इसे लेकर मारा-मारी शुरू हो गयी। जिन्ना के बारे में एक टिप्पणी देकर अपने घराने में अपना राजनीतिक स्वत्व खो चुके आडवानी को लगा कि यही मौका है कि पुन: धर्मान्धता की दीक्षा ले ली जाय। वे आगे आये और भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण और केंद्र सरकार पर हमला किया। केंद्र सरकार की दादी अम्मा को लगा कि यही मौका है अपनी विदेशी मूल को देशी चासनी में डुबोने का। उन्होंने कट्टरता और दिमागी दिवालियेपन के सामने खुद को वैसे ही बिछा दिया जैसे उनके दिवंगत पति ने शाहबानों मामले में मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने खुद को बिछा दिया था। समाजवादी घरानों से आये राजनेताओं को लगा कि लोहिया जी भी तो रामायण मेला लगाते थे। जो हो रहा है, सो होने दो। ऐसी चीजों पर ज्यादा मगज लगाना ठीक नहीं। देश के कवियों, लेखकों, संपादकों में से भी मेेरे जानते कोई सामने नहीं आया कि पूरे मामले को तर्क और बुद्धि के चश्मे से देखा जाय। मूर्खता के इस जलजले से सब सहमे हुए थे। राम हमारी आस्था के चीज हैं। उनकी रक्षा तो होनी चाहिए। कुल मिलाकर यही भाव सामने आया।

मैं भी रामायण का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। दुनिया भर में मेरे जानते किसी भी भाषा में वैसी कृति नहीं है, जैसी कि रामायण है। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि उसे केवल राम की कथा के रूप में स्वीकार किया गया है। रामायण में जो शाश्वत सत्य है, वह यह कि राजपद व्यक्ति को भ्रष्ट बनाता है। किसी भी महापुरुष को वह राजत्व से बचने की सलाह भी देती है। रामायण के नायक पुरुष राम को लें। वह जब तक राजपद से दूर रहते हैं, बहुत ही प्रगतिशील हैं। आयोनिजा सीता, जो जनक को खेत में लावारिश मिली थीं, उनसे विवाह करते हैं राम। संभवत: संस्कारों का यह शिव धनुष था, जिसे तोड़ने से तमाम राजा सकुचा रहे थे और जनक को लगने लगा था कि सीता अब कुअंारी रह जायेगी। आज के इस प्रगतिशील जमाने में भी ऐसी लड़की से विवाह करने के लिए कितने युवा तैयार होंगे, इसे आप समझ सकते हैं। शायद इस विवाह के कारण भी राम को अयोध्या का अभिजात् तबका स्वीकार नहीं कर सका और उन्हें वनवास की सजा मिली। अब वनवास को लीजिए। राम शबरी (जो वनवासिनी थी, आज की आदिवासी ) का जूठा बेर खाते हैं। वनवासियों के साथ ही रहते हैं। गरीब जनता के इस हद तक घुल-मिल जाते हैं कि एक साधारण गरीब-गुरबे की ही भांति उनकी पत्‍नी का भी अपहरण हो जाता है और तब राम आदिवासियों-वनवासियों की ही सेना तैयार करते हैं। (वह अयोध्या के भरत से सहायता नहीं मांगते) और लंका के रावण को पराजित कर सीता को मुक्त कराते हैं। यह राम के जीवन का एक अध्याय है जो बहुत ही प्रगतिशील तत्वों से जुड़ा हुआ है। एक बात ध्यान देने की यह भी है कि राम के इस जीवन का संस्कार विश्वामित्र ने किया है जो गैर ब्राह्मण हैं।

लंका विजय के बाद राम अयोध्या के राजा ही नहीं बल्कि ब्राह्मण वशिष्ठ के पौरोहित्य से भी जुड़ जाते हैं और अब देखिए कि राम का पतन शुरू हो जाता है। सीता के लिए आठ-आठ आंसू रोने वाले और संग्राम करने वाले राम उसकी अग्नि परीक्षा लेते हैं और अंतत: घर निकाला दे देते हैं। जो राम शबरी के झूठे बेर खाता था, अब शंबूक का सिर तराश लेता है और जिस राम की तुलसीदास ने 'रावण रथी, विरथ रघुबीरा` कहकर प्रतिष्ठा की है, वही राम अपने ही विरथ पुत्रों से रथी होकर संग्राम करता है। कोई आश्चर्य नहीं कि अपने ही पुत्रों के हाथ पराजित होने वाले राम ने सरयू में जल समाधि ले ली।

यह है राम का पतन। राजा बनकर राम, रावण से भी ज्यादा पतित हो जाता है। रामायण का यह अमर संदेश है कि यह राजपद व्यक्ति को भ्रष्ट बनाता है। मैंने तो इस रूप में रामायण को देखा है और उसे विश्व की अद्भुत साहित्यिक कृति मानता हूं।

आस्था विचित्र चीज है। जिन चीजों को हम विस्तार से नहीं जानते, उन्हीं चीजों के बारे में हम एक कल्पना कर लेते हैं और फिर यह कल्पना आस्था का रूप ले लेती है। गैलेलियो के जमाने में पादरियों का मानना था कि पृथ्वी ही केंद्र में है और सूर्य उसका चक्कर लगाता है। वे पृथ्वी को स्थिर और सूर्य को चलते हुए देखते रहे थे। विज्ञान की गहरायी में गये बिना यह उनकी आस्था हो गयी थी। गैलेलियो ने दूरबीन (तकनीक) और विज्ञान से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर बतलाया कि पृथ्वी ही सूर्य का चक्कर लगाती है तब पादरी समूह समेत पूरे यूरोप के लोगों को लगा कि गैलेलियो यह क्या कह रहा है। गैलेलियो उसी इटली के थे जहां की सोनिया रही हैं। गैलेलियो को सच कहने के लिए एकांतवास की सजा मिली थी। बाद में गैलेलियो ने दबाव में आकर यह भी कहा कि मैंने जो कहा वह गलत है। लेकिन यूरोप ने गैलेलियो को एक प्रतीक के रूप में लिया। गैलेलियो ने विश्व में तकनीकी क्रांति का सूत्रपात किया और आज की दुनिया गैलेलियो की दुनिया है, पादरियों की नहीं।

मैं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के उन ईमानदार अधिकारियों की प्रशस्ति करना चाहता हूं जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में ठीक-ठीक बात रखी। दूसरा हलफनामा तो गैलेलियो का दूसरा हलफनामा बनकर रह गया। आखिर उन्होंने क्या कहा? कुल मिलाकर उनकी बात यही थी कि राम के बारे में उनके पास पुरातात्विक साक्ष्य नहीं हैं। पुरातत्व इतिहास से जुड़ा विषय है। भारतीय इतिहास के विद्यार्थी यह जानते हैं कि न तो आदि, न प्राक् इतिहास में राम आते हैं, न ज्ञात इतिहास में। भारतीय इतिहास की ठोस शुरूआत हड़प्पा काल से होती है। फिर प्राक् वैदिक, वैदिक और उत्तर वैदिक काल आते हैं। अब वैदिक काल का पुरातात्विक प्रमाण मांगेंगे तो इतिहासकार ज्यादा से ज्यादा वेद ग्रंथ दे सकेंगे। इंद्र या पुरंदर के वज्रा मेरे जानते नहीं मिले हैं। कभी मिल जायेंगे, तो इससे इतिहास में एक नया मोड़ आयेगा। पुरातात्विक सर्वेक्षण से जुड़े लोग उसे दिखला सकेंगे। सौ साल पहले हमारे पास हड़प्पा, बुद्ध, अशोक आदि के पुरातात्विक साक्ष्य नहीं थे। उस समय सर्वेक्षण से यदि इनके प्रमाण मांगे जाते तो वे यही कहते कि हमारे पास ठोस प्रमाण नहीं हैं। नालंदा, विक्रमशिला, कुम्हरार जैसी खुदाइयां सौ साल के भीतर की हैं। इन खुदाइयों से इतिहास के अध्ययन और सोच में मोड़ आये हैं। यदि भविष्य में राम, हनुमान और सीता के पुरातात्विक साक्ष्य मिले तो उससे भी इतिहास में मोड़ आयेंगे और तब भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण दिखला सकेगा कि यह राम की अस्थि है और यह जनक का शिव धनुष। लेकिन अभी आप भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण से यह आशा क्यों करते हैं कि वह कहीं-न-कहीं से कोई प्रमाण दे ही। गलती तो सर्वोच्च न्यायालय की है जो उसने राम को लौकिक दायरे में लाने की कोशिश की। लोग जिस आस्था की बात करते हैं उसे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ही तोड़ा है। लोग इतने कायर हैं कि डर से सच कहना नहीं चाहते। उन्हें संविधान द्वारा दिये गये अभिव्यक्ति के अधिकार का वाजिब इस्तेमाल करना भी नहीं आता।

इसी अंक में राम और रामायण पर दो लेख दिये जा रहे हैं। श्री सुरेश पंडित का लेख रामायण पर द्रविड़ आंदोलन के नेता पेरियार ई.वी. रामास्वामी नय्यकर के नजरिये को सामने रखता है, तो कवि दिनकर का लेख राम कथा के विविध पक्षों को दर्शाता है। राम को लेकर हमारे यहां अनेक काव्य लिखे गये। वे हमारे मिथक हैं। जो लोग मिथकों को इतिहास में शामिल करना चाहते हैं, वे नहीं जानते कितनी मूर्खता कर रहे हैं। मिथक हमें परिकल्पनात्मकता प्रदान करते हैं। बुद्ध या मार्क्स या गांधी मिथक नहीं हो सकते। उन्हें जब हम मिथक बनाना चाहेंगे तो यह भी मूर्खता होगी।

राम का सबसे खूबसूरत प्रयोग भक्तिकाल के शूद्र कवियों ने किया। राम का नाम लेकर वे जातिवाद और ब्राह्मणवाद पर हमला कर रहे थे। पर उनके राम दशरथनंदन राम नहीं थे। आडवानी और सोनिया ने, सर्वोच्च न्यायालय और विहिप-भाजपा की मंडली ने कभी एक बार कबीर के राम पर भी विचार किया है? हम बार-बार किसी असभ्य घटना को मध्ययुगीन घटना बता कर उपहास करते हैं। लेकिन अपने सोच में हम मध्ययुग से पीछे जा रहे हैं। बुद्ध और महावीर के युग से भी पीछे। राम को लेकर, रामायण को लेकर कोई सांस्कृतिक बहस होगी तो उससे हमारे समाज को सांस्कृतिक उर्जा मिलेगी। लेकिन विमर्श और बहस की संस्कृति तो विकसित हो। पूजा और आस्था से केवल अंधविश्वास फैलेगा और यह अंधविश्वास समाज को अन्याय और असमानता के गह्वर में धकेल देगा।

3 comments:

  1. आपका विद्वता पूर्ण लेख आपके गहरे अध्ययन को दर्शाता है ,आपकी व्याख्याएँ उचित हैं .मगर एक रिक्तता है -आपने लोक परम्परा के साक्ष्य को अनदेखा कर दिया है .वेद हज़ार सालों तक एक वाचिक परम्परा ,स्मृतियों के सहारे सुरक्षित रह सके.इतिहास को साक्ष्य के इस विपुल स्रोत से भी समृद्ध कराने की प्रक्रिया विकसित करनी चाहिए ..हाँ हमे नीर क्षीर विवेक रखना होगा .इतिहास की जानकारी अभी अधूरी है -दशरथ के राम को अस्वीकार करना अतार्किक है -हमारा ज्ञान अधूरा है ,इतिहास अधूरा है ,इसे कैसे सम्पूर्ण किया जाय यह बड़ी चुनौती है .लोक साक्ष्यों ,अंतर्सक्ष्यों को हमे देखना होगा .अच्छे लेख के लिए धन्यवाद !

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  2. आपके लेख पर अनायास नजर पड़ी व भाग्य से इस पहरे पर , मैं भी रामायण का बहुत बड़ा प्रशंसक ...... ! राम कथा को जिस प्रकार आपने एक दर्शन को समझाने के लिए उपयोग किया है वह बहुत सही लगा ।
    घुघूती बासूती

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  3. आपके महान जनवादी विचारों में घालमेल भी कमल का होता है बंधू ।। हर चीज़ वैज्ञाननिकता से नहीं पोषित होती है विशेषकर मानवीय सम्बन्ध और आस्था ।। अब आपकी अपनी माँ पर आस्था है तो है ।। ये आस्था किसी भी डीएनए रिपोर्ट से नहीं आती ।। वर्ना आपके जैसे लोग अपनी माँ को भी एक usable human entity न कह दें कभी ।।

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