October 30, 2007

दो दलित कविताएं



  • मुसाफिर बैठा

सुनो द्रोणाचार्य

सुनो द्रोणाचार्य सुनो
अब लदने को हैं दिन तुम्हारे
छल के
बल के
छल-बल के

कि लंगड़ा ही सही
अब लोकतंत्र आ गया है
जिसमें एकलव्यों के लिए भी
पर्याप्त स्पेस होगा
मिल सकेगा अब जैसा को तैसा
अंगूठा के बदले और
हनुमानकूद लगाना लगवाना अर्जुनों का
न कदापि अब आसान होगा

तब के दैव राज में
पाखंडी लंगड़ा था न्याय तुम्हारा
जो बेशक तुम्हारे राग दरबारी से उपजा होगा
था छल स्वार्थ सना तुम्हारा गुरुधर्म
पर अब गया लद दिन दहाड़े हकमारी का
वो पुरा ख्याल पुरा जमाना

अब के लोकतंत्र में तर्कयुग में
उघड़ रहा है
छलात्कारों, हत्कर्मों, हरमजदगियों का कच्चा चिट्ठा
जो साफ शफ्फाफ बेदाग बनकर
अब तक अक्षुण्ण खड़ा था
तुम्हारे द्वारा सताए गयों के
अधिकार अचेतन रहित होने की बाबत

चेतो डरो या कि कुछ करो द्रोण
कि बाबा साहेब के सूत्र संदेश
पढ़ो शिक्षित बनो संघर्ष करो
की अधिकार पट्टी पढ़ गुन कर
इन्कलाबी प्रत्याक्रमण बुभुझु युयुत्सु
तुम्हारे सामने भीमकाय जत्था खड़ा है।



ईश मोर्चे पर औकात

द्विजो,
तुम्हारा वर्णश्रेष्ठता का अहंमहल
अब तो भरभरा कर
गिर ही जाना चाहिए

कि अब तक
ब्रह्मा के अलैंगिक मुख से जनमे
वरद संतान थे तुम
और इस पर अकुंठ अभिमान था तुम्हें
परंतु किंचित शक संदेह भी

कि अब तो
अलैंगिक मानव जन्म भी
होने संभव हैं आधुनिक तकनीकों के तहत
कि यह आमद
तुम्हारे कथात्मक जन्म वजूद को
कहीं प्रमाणित भी करती है
और वर्तमान वजूद को चिंदी चिंदी भी
कि इस तकनीक धनी समय में
कैसे बचाओगे अपना द्विजपन

कि अब तो
एकछत्र ईश-बिचौलिया राज भी
छिन रहा है, छीज रहा है तुम्हारा पंडित

कि पटना के नवांकुर स्टेशन हनुमान मंदिर
और सोनपुर मेले के पौराणिक हरिहरनाथ मंदिर में
तुम्हारे अक्षर संस्कारी तन मन को
परंपरा-घृणित दलित हाथों से भी
ग्रहण करने पडेंगें पावन प्रसाद
कि इस पाप का प्रक्षालन कैसे करोगे

मुझे नहीं मालूम
कि तुम्हारे छूत की क्या होगी बिसात
और ईश मोर्चे पर अब
कैसे तौलोगे अपनी औकात?

1 comment:

  1. बहुत ही सराहनीय, सहमे दबे लोगों में नवचेतना जागृत करने वाली व सोये हुओं को जगाने वाली कविताएँ हैं ये । आपके चिट्ठे पर नई नई आई हूँ मैं किन्तु जो पढ़ा वह अच्छा लगा व सोचने पर बाध्य करता हुआ लगा ।
    घुघूती बासूती

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