October 30, 2007

परमाणु संधि के निहितार्थ


विदेश नीति


  • अभिषेक श्रीवास्तव


भारत और अमेरिका के बीच १२३ करार हो चुका है। हालांकी, अब भी इसके जमीन पर उतर कर साकार रूप लेने में कई चरण बाकी हैं। न तो परमाणु समझौते के पक्ष में खड़े लोगों को कोई जल्दी है और न ही विरोधियों को। दिक्कत यह है कि कुछेक पढ़े-लिखे राजनेताओं और टिप्पणीकारों समेत वैज्ञानिकों को छोड़ दें तो इस समझौते में क्या है, इसकी जानकारी वास्तव में किसी को नहीं। जो मूल बात सारे विमर्श में छूटती नज़र आ रही है वह यह कि आखिर हम परमाणु समझौते का करेंगे क्या? दूसरे, क्या यह भारत को परमाणु ऊर्जा मिलने के संदर्भ में महत्वपूर्ण है या किसी बड़ी अमेरिकी परियोजना का हिस्सा भर है?

क्या करेंगे हम परमाणु ऊर्जा का?

गौरतलब है कि परमाणु उर्जा से बिजली उत्पादन के क्षेत्र में हजारों करोड़ रुपयों के निवेश के बाद भी भारत ३ प्रतिशत ही बिजली-उत्पादन क्षमता हासिल कर पाया है और यह निवेश अन्य टिकाऊ ऊर्जा स्रोतों की कीमत पर हो रहा है। भारतीय परमाणु प्रतिष्ठान ने अन्य जगहों के संस्थानों की तरह, लेकिन अपेक्षाकृत अधिक नाटकीय ढंग से अधिक का वादा किया, और कम उपलब्धियां हासिल कर पाया। अपनी शुरूआत से ही परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) 'परमाणु ऊर्जा` को हमारी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के समाधान के तौर पर प्रस्तुत कर उसे बढ़ावा दे रहा है। डीएई की भविष्यवाणी के अनुसार २००० तक देश की परमाणु (बिजली) उत्पादन क्षमता ४३,५०० मेगावॉट हो जानी थी, लेकिन अभी तक ३,३१० मेगावॉट ही हो पायी हैं जो तय बिजली उत्पादन क्षमता के तीन प्रतिशत से भी कम है। डीएई के लिए अधिक आवंटन अन्य अधिक टिकाऊ बिजली स्रोतों की कीमत पर किया जाता है। वर्ष २००२-०३ में डीएई को ३३५१.६९ करोड़ रुपयों का आवंटन हुआ जबकि गैर-परंपरागत ऊर्जा श्रोत मंत्रालय (एमएनईएस) का बजट कम करते हुए ४७३.५६ करोड़ रुपये कर दिया गया। गौरतलब है कि गैर परंपरागत ऊर्जा श्रोत मंत्रालय सौर, पवन चक्की, लघु जल और जैविक पदार्थ (बायोमा़स) आधारित बिजली के विकास का रखवाला है। छोटे आवंटन के बावजूद परमाणु ऊर्जा की ३,३१० मेगावाट की तुलना में इन श्रोतों की तय क्षमता ४,८०० मेगावॉट है। दूसरे, भारत जैसे देश में परमाणु रिएक्टरों से होने वाली संभावित दुर्घटनाओं का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसी दुर्घटनाओं पर चिंता जाहिर करने के कुछ प्रायोगिक आधार हैं। डीएई द्वारा संचालित होने वाली परमाणु इंर्धन श्रंृखला से जुड़े सभी परमाणु रिएक्टर अलग-अलग असर वाली दुर्घटनाएं झेल चुकी हैं। मसलन, २००४ में काकरापार रिएक्टर में बिना किसी स्पष्ट कारण के हुआ विद्युत प्रवाह, १९९३ में नरोरा में लगी आग आदि। इन दुर्घटनाओं में से कई रेडियोधर्मिता के व्यापक फैलाव का कारण बन सकती थी। चिंता का एक अन्य कारण यह भी है कि अटॉमिक एनर्जी रेगुलेटरी बोर्ड (एईआरबी) डीएई से स्वतंत्र नहीं है। गौरतलब है कि एईआरबी सारे नागरिक परमाणु संस्थानों के सुरक्षात्मक ढंग से चलने की देखरेख करता है। इसके अलावा एईआरबी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. गोपालकृष्णन कह चुके हैं कि 'एईआरबी` के अपने योग्य कर्मचारी बहुत कम हैं और इसकी सुरक्षा समिति के ९५ प्रतिशत तकनीकी कर्मचारी डीएई के अधिकारी हैं, जिनकी सेवाएं उनके अपने कार्यों की समीक्षा के लिए मामले दर मामले के आधार पर मुहैया करायी जाती हैं। इससे आम समझ यह बनती है कि ऐसी निर्भरता से डीएई के प्रबंधन द्वारा एईआरबी के मूल्यांकनों और निर्णयों को आसानी से प्रभावित किया जा सकता है।

अमेरिकी प्रोजेक्ट का एक हिस्सा

आइए, अब देखते हैं कि मौजूदा संधि के पीछे का खेल क्या है। वास्तव में, यदि हम इस संधि का विस्तार से अध्ययन करें तो पाएंगे कि अमेरिका की जरूरत है कि वह अपनी वैश्विक योजनाओं का हिस्सा भारत को बनाए। वह भारत को एशिया के उन देशों के खिलाफ अपने औजार के रूप में इस्तेमाल करना चाहता है जिन्हें वह पसंद नहीं करता जैसे पाकिस्तान, ईरान और चीन। ऐसा करके अमेरिका दुनिया पर राज करने वाले अपने महत्वाकांक्षी सपने को पूरा कर सकेगा, साथ ही दुनिया में एकध्रुवीय वर्चस्व कायम कर सकेगा। एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था कायम करने की अमेरिका की वैश्विक रणनीति को भारत की हिस्सेदारी से लाभ ही पहुंचेगा। यह चीन, ईरान और अमेरिका के आलोचक अन्य देशों के खिलाफ एक भूराजनैतिक कदम भी है जिससे उन्हें हथियारों की होड़ में धकेला जा सके और एशिया में अस्थिरता पैदा की जा सके।
वैश्विक ऊर्जा बाजार में ईरान एक प्रमुख खिलाड़ी है। ओपेक में वह दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक है और दुनिया के तेल भंडारों का करीब १० फीसद ईरान में है। वहीं प्राकृतिक गैस का दूसरा सबसे बड़ा भंडार ईरान के ही पास है। हालांकि, ईरान ने ९/११ की घटना में अपनी किसी भी भूमिका संबंधी आरोपों को सिरे से खारिज करने में सफलता पा ली थी, लेकिन अफगानिस्तान पर हमले के बाद काबुल से तालिबान को बेदखल किए जाने तथा इराक पर हमले के बाद सद्दाम के पतन जैसे कारकों ने मध्य एशिया में एक नई भूराजनैतिक स्थिति पैदा कर दी है। इसी लिहाज से ईरान को अपनी सत्ता व परमाणु क्षमताएं विस्तृत करने की और ज्यादा जगह मिली है जो कि अमेरिका को मंजूर नहीं है। इसीलिए, अमेरिका इस कोशिश में है कि ईरान को अरब देशों के एक ऐसे शत्रु के रूप में पेश किया जाए जो इजरायल से भी ज्यादा खतरनाक है जिससे ये देश ईरान के खिलाफ मोर्चा खोल दें और अमेरिका दूर बैठा देख आनंदित होता रहे। अब ऐसा ही भारत के साथ किया जा रहा है और भारत का इस्तेमाल ईरान को यह संदेश देने में हो रहा है कि उसे एनपीटी का सदस्य होने के बावजूद अपना स्वतंत्र परमाणु कार्यक्रम चलाने में दिक्कत पैदा की जा रही है, जबकि अमेरिका एनपीटी का हिस्सा न होने के बावजूद भारत को प्रौद्योगिकी और इंर्धन मुहैया करा रहा है। ईरान के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद खतामी की २००३ में भारत यात्रा के बाद से ही द्विपक्षीय संबंध अब ऊर्जा के क्षेत्र में रणनीतिक संबंधों में बदल चुके हैं। तत्कालीन भारतीय पेट्रोलियम मंत्री ने कहा था कि २००४-२००५ में ईरान के साथ कई करार किए जाएंगे। इनमें से कुछ पर दस्तखत हो चुके हैं और कुछ विचाराधीन हैं। इसमें सबसे बड़ी परियोजना पाकिस्तान से होकर जाने वाली ईरान-भारत गैस पाइपलाइन परियोजना है। उक्त परियोजना के प्रभाव उम्मीद से कहीं ज्यादा ठहरेंगे क्योंकि इससे भारत के लिए ऊर्जा प्राप्त करने का एक रास्ता खुल रहा है, साथ ही यह भारत के अंतरराष्ट्रीय वर्चस्व का भी मार्ग प्रशस्त करेगा। भारत के लिए यह पाइपलाइन परियोजना निर्णायक है क्योंकि इसे मध्य एशिया और चीन से तो जोड़ा ही जा सकता है, भारत व पाकिस्तान के बंदरगाहों से भी जोड़ा जा सकता है। और जाहिर तौर पर, अपने हितों के मद्देनजर अमेरिका ऐसी किसी भी साझीदारी के खिलाफ ही रहेगा।
पूर्व एशिया के तेल बाजार पर अमेरिकी कंपनियों का वर्चस्व है। सोवियत संघ के पतन के बाद अब अमेरिका मध्य एशिया और कैस्पियन क्षेत्र के तेल और गैस पर भी अपना प्रभुत्व चाह रहा है। यूरोप के साथ मिल कर वह रूस को हाशिए पर धकेलने के लिए तेजी से एक ऐसा ढांचा तैयार कर रहा है जिससे तेल और गैस के संसाधनों को यूरोप में मेडिटेरेनियन के रास्ते भेजा जा सके जिससे इन संसाधनों पर उसका एकाधिकार हो जाए। इतना ही नहीं, अमेरिका ने भारत पर ऐसा कोई दबाव नहीं बनाया कि वह ईरान के परमाणु मामले में अमेरिकी अभियान का हिस्सा बने। भारत में अमेरिकी राजदूत श्री मलफोर्ड ने भारत-अमेरिका करार के क्रियान्वयन को ईरान के परमाणु कार्यक्रम के प्रति भारत के आचरण से जोड़ डाला। आखिरकार, आईएईए में भारत ने ईरान के खिलाफ दो बार अपना मत दिया और इस पर सहमत हो गया कि ईरानी परमाणु कार्यक्रम का मसला सुरक्षा परिषद को भेज दिया जाए। ज़ाहिर तौर पर, ईरान के प्रति भारत दोहरी नीति अपना रहा है। एक ओर जहां वह परमाणु मसले पर उससे तनातनी पैदा कर रहा है, वहीं इन रिपोर्टों को भी बाद में झुठला दिया गया है कि वह ईरान के साथ अपने संंंबंध कायम किए हुए है और भारत ईरानी सैन्य टुकड़ियों को प्रशिक्षण मुहैया करा रहा है। यह स्पष्ट है कि भारत अब तक समानांतर रणनीति अपनाता रहा है, लेकिन ईरान के खिलाफ सैन्य तैनाती बढ़ाए जाने के बाद भारत को या तो अपने बड़े वैश्विक सहयोगी अमेरिका को चुनना होगा या क्षेत्रीय सहयोगी ईरान को।

पाकिस्तान और चीन दोनों मौजूदा समझौते के खिलाफ हैं। इसका नतीजा यह हो सकता है कि पाकिस्तान ऐसा ही कोई करार चीन के साथ कर ले, खासकर इसलिए भी क्योंकि अमेरिका ने परमाणु प्रसार के मामले में पाकिस्तान के खराब अतीत के मद्देनजर उसके साथ ऐसा कोई समझौता करने से इनकार कर दिया है। इसीलिए ९/११ के बाद अमेरिका पाकिस्तान की बजाय भारत के प्रति नरम हो गया जिससे कश्मीर में आतंकवाद को पाकिस्तान का समर्थन बंद हो सके। इसी अफगानिस्तान युद्ध के दौरान राजनीतिक और सैन्य ताकत के मामले में भारत का प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय स्थिति कमजोर हुई थी। अब, भारत-अमेरिका समझौते के बाद पाकिस्तान को भारत के साथ बढ़ती दूरी के और गहराने का खतरा सता रहा है। यह सब कुछ भारत और पाकिस्तान के बीच जारी शांति प्रक्रिया में निश्चित तौर पर बाधा डालेगा तथा सेना के आधुनिकीकरण की कोशिशों को और तेज करेगा। ऐसा ही चीन के साथ भी होगा जो अपनी उभरती ताकत के साथ भारत और अमेरिका दोनों के लिए खतरा बना हुआ है। इस समझौते पर टिप्पणी करते हुए चीन ने साफ कहा कि वह 'परमाणु प्रसार की ओर बढ़ने वाले किसी भी कदम के खिलाफ है तथा भारत और अमेरिका के बीच परमाणु संधि को अंतरराष्ट्रीय परमाणु अप्रसार संधि के प्रावधानों के तहत सामान्यत: स्वीकृत कानूनों और नियमों का पालन करना चाहिए।` न सिर्फ चीन बल्कि परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के अन्य सदस्य जर्मनी, जापान और दक्षिण अफ्रीका भी इसके खिलाफ हैं। संभव है कि इस पर पलटवार करते हुए चीन, ईरान और पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम की मदद करे। इसके ठीक उलट अमेरिका यह मानता है कि चीन और रूस दोनों ही उसके लिए गंभीर चुनौती हैं और यदि भारत इनके साथ चला गया तो उनकी ताकत बढ़ जाएगी। अमेरिका का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भारत ऐसा न करे। इतना ही नहीं, वह भारत और चीन के बीच संबंधों के पटरी पर आने की किसी भी संभावना को तोड़ना चाहता है। यह संधि कोरियाई प्रायद्वीप को परमाणुमुक्त करने के लिए चलाई जा रही प्रक्रिया और बातचीत पर भी उलटा असर डालेगी। वस्तुत: अमेरिका अपनी भूराजनैतिक रणनीति और महत्वाकांक्षाओं से भारत को बांधने के लिए मार और पुचकार की दोहरी नीति अपना रहा है। यह संधि वास्तव में एशिया में परमाणु निरी़करण लाने की बजाय हथियारों की होड़ को जन्म देगी। अमेरिका यह भी चाहता है कि भारत उसके साथ ऐसा सामरिक समझौता करे जिसके चलते वह परमाणु ऊर्जा संबंधी हर जरूरत के लिए अमेरिका पर निर्भर हो जाए। उपर्युक्त दोनों विश्लेषणों से यह तय है कि न तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति के नजरिए से और न ही आंतरिक संसाधन प्रबंधन की दृष्टि से परमाणु ऊर्जा हमारे लिए जरूरी है। इस बात को हमें समझ लेना चाहिए कि हमारी सरकारें अब पूरी तरह जनविरोधी हो चुकी हैं और यदि वरिष्ठ अधिवक्ता कन्नाबिरन के शब्दों में कहें तो, उनकी भूमिका सिर्फ राज्यों को पुलिस और सेना मुहैया कराने तक सीमित रह गई है। अपनी पुलिस और सेना से तो फिर भी जनता शायद निपट ले, लेकिन साम्राज्यवादी सेनाआंे से भविष्य में कभी मार खानी पड़ी तो इससे ज्यादा अपनमानजक आजादी और कुछ नहीं होगी।

अभिषेक श्रीवास्तव स्वतंत्र पत्रकार हैं।

1 comment:

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