- शंभुकुमार सुमन
समकालीन राजनीतिक परिदृश्य एवं सामाजिक अंतर्द्वंद्व को उद्घाटित करती 'सामाजिक चेतना की वैचारिकी` जन विकल्प मासिक पत्रिका की शुरुआत जनवरी, २००७ से हुई । सोवियत रूस एवं पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवादी सरकारों के पतन के बाद साम्राज्यवादी शक्तियां पूंजीवाद का जयकारा लगाते हुए संघर्षों एवं विकल्प की संभावनाओं का अंत मानने लगी है, वे आक्रामक प्रचार नीति के सहारे पिज्जा-बर्गर, कोक-पेप्सी, भक्ति और भोग की संस्कृति को एमकात्र विकल्प के रूप में स्थापित करने की कोशिश में तल्लीन हैं , इसी पृष्ठभूमि में असहमति का स्वर बुलंद करती और विकल्पहीनता की अवधारणा को चुनौती देतीं लघु पत्रिकाओं के बीच बहुत कम समय में जन विकल्प ने अपनी पहचान बनायी है। यह इस मायने में भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि व्यवस्था एवं सत्ता के करीब रहते हुए भी संपादक विपक्ष की संवेदनशीलता के साथ रचनाओं के चयन में परदर्शी दिखते हैं। कभी पटना से ही 'फिलहाल' पत्रिका निकालनेवाले प्रसिद्ध आलोचक वीरभारत तलवार लिखते हैं कि जन विकल्प के गेट अप, आकार-प्रकार और विषय सूची वगैरह को देख कर मुझे 'फिलहाल` की याद आ गयी, साहित्यिक पत्रिकाओं के बीच जन विकल्प इस स्थिति में है कि इससे कोई विचार के स्तर पर असहमति रख सकता है, मगर नजरअंदाज नहीं कर सकता। इसे दुनिया भर के हिंदी पाठकों से मिल रहीं प्रतिक्रियाओं से समझा जा सकता है।
किसी पत्रिका की पठनीयता को पाठकों की प्रतिक्रिया के आंका जा सकता है। हिंदी प्रदेश में सही सूचनाओं और नये शोधपरक विचारों का अभाव है। यहां का माहौल भावनात्मक और आस्थवादी ज्यादा, विचार-विवेकपूर्ण कम है। विज्ञान एवं तकनीक से संचालित जीवन जीते हुए भी वैज्ञानिक चिंतन एवं विश्लेशण से काई सरोकार नहीं। अक्तूबर-नवंबर, २००७ अंक में सेतु समुद्रम परियोजना मामले में 'राष्ट्र की संचित मूर्खता के भव्य दर्शन` से अचंभित संपादक लिखते हैं कि 'पूजा और आस्था से केवल अंधविश्वास फैलेगा और यह अंधविश्वास समाज को अन्याय और असमानता के गह्वर में धकेल देगा । `
इस संदर्भ में 'अंतरिक्ष की धर्म यात्रा` (जुलाई, २००७) शीर्षक लेख में युवा लेखक मुसाफिर बैठा लिखते हैं कि सुनीता विलियम्स की सफलता को भारतीय गौरव के साथ जोड़कर देखा जाना, वैज्ञानिक उपलब्धि में धार्मिक पूजा-अनुष्ठानों, दुआ-मन्नतों एवं ग्रह-नक्षत्रों आदि की अंधपरक ज्योतिष्कीय भूमिका का श्रेय दिया जाना, हमारे मीडिया की तार्किक सोच शून्यता तथा सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति घोर लापरवाही को दरसाता है।
पत्रिका के प्रकाशन को एक साल होनेवाला है। विभिन्न अंकों से गुजरते हुए यह साफ-साफ दिखता है कि समाज, संस्कृति, राजनीति एवं ज्ञान-विज्ञान के सभी अनुशासनों से खुद को जोड़कर पत्रिका ने अपने पाठकों को ज्ञान और विज्ञान के स्तर पर समृद्ध किया है। देश और दुनिया के तमाम जरूरी मुद्दों पर असहमति रखते हुए भी उन पर सामग्री प्रकाशित की गयी है। इस क्रम मे जून-जुलाई, २००७ अंकों में माओवादी नेता गणपति का लंबा साक्षातकार भी शामिल है। महत्वपूर्ण यह है कि माओवादियों से अपनी असहमति (मार्च, २००७) दिखाते हुए संपादक लिखते हैं कि माओवादी मित्रों को हम इस आशा के साथ सलाम करते हैं कि वे सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसा की राजनीति का परित्याग करेंगे। साहित्य और संसकृति 'जनतंत्र` में इस तरह की उदारता देखने को कम ही मिलती है। विरोधी स्वर की आलोचना एवं सम्मान साथ-साथ चले तो हिंसा की संभावना क्षीण होती ही है। इसे नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारियों को संरक्षित करके ही पाया जा सकता है।
जीवन जीने की बुनियादी जरूरतें आम आदमी को अब भी हमारे देश में मयस्सर नहीं हो सकी है, रोटी, कपड़ा और मकान के सवाल अब भी अनुत्तरित हैं, शिक्षा और स्वास्थ्य तो बाद में आते हैं। बिहार में सिर्फ 'चोरी भी आशंका` मात्र से अराजक भीड़ ने कुरेरी जाति के १० घुमंतु युवकों की पीट-पीट कर हत्या कर दी। बर्बर होते समाज के संकेतों को पढ़ते हुए डॉ विनय कुमार लिखते हैं कि 'हर व्यक्ति के भीतर हिंसक विचार होते हैं । मगर वह उन्हें प्रकट करने में उसी तरह झिझकता है, जैसे रोशनी में सबके सामने कपडा उतारने में - भीड़ में, अंधेरे में व्यक्ति की हिंसकता मुखर हो उठती है।`
सवाल लोकतंत्र को भीड़ तंत्र बनने से बचाने का है। मगर दुर्भाग्य यह है कि वामपंथी पार्टियों को छोड़कर तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रिय राजनीतिक पार्टियों के पास जन शिक्षण एवं जनचेतना विकसित करने का कोई कार्यक्रम नहीं है। उल्टे विचार और विवेक से रहित भीड़ की संस्कृति विकसित की जा रही है। भीड़ की संस्कृति के खिलाफ एक अनवरत संघर्ष की जरूरत को शिद्दत से महसूस कराती है यह पत्रिका।
हालिया अक्तूबर-नवंबर अंक में दिलीप मंडल का लेख उत्तर-भारत में पिछड़ावाद, रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखित राम कथा के विविध रूप, राम पुनियानी का संविधान है राष्ट्रीय धर्मशास्त्र आदि लेख भेड़चाल के बरअक्स विचार एवं बुद्धिसंगतता के पक्ष को पुष्ट करते हैं।
शरद यादव के लेख 'संविधान पर न्यायपालिका के हमले के खिलाफ` एवं प्रमोद रंजन का लेख 'ब्राह्मणवाद की पुनर्वस्थापना का षडयंत्र` खास उल्लेखनीय है। पत्रिका ने माइक थेवर जैसे व्यक्तित्व को भी सामने लाया है, जो चुपचाप अपने काम से उन भ्रामक आशंकाओं की जड़ खोद रहे हैं, जिन्हें अभिजात वर्ग की-जान से पनपाने में लगा हुआ है।
- समीक्षा
- प्रभात खबर, 20 नवंबर,2007, पटना
mere sujhaav par aapne dhayan diya isliye aabhaari hoon. ek baat aur kehna chaahoongi ki aapne itihaas ke jis subultern studies ki baat ki hai aur uspar ek itihaaskaar ka interview diya hai mere hisaab se unka naam SATISH CHANDRA hona chahiye par naam kuch aur chapa hai. please ispar dhyan dijiyega.agar kisi famous personality ka naam galat chape to logo tak galat soochna jaati hai.aasah hai aap iska dhyan rakhenge ki logon tak kam se kam aapke dwara sahi soochnaayein presit ho.
ReplyDeleteअक्टूबर-नवंबर,2007 अंक में जो साक्षात्कार छपा है , वह इतिहासकार सुधीर चंद्र का ही है ।
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