नेपाल
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी )
नेपाल में जनयुद्ध की विशेषता यह है कि नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी ) दलितों और औरतों समेत नेपाल के सभी पीड़ित वर्गो् को लामबंद करने में सफल रही है। दलितों पर हो रहे अत्याचार सबसे ज्यादा गंभीर और गहराई तक परंपरा-आबद्ध होते हैं। नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी ) ने दलित शोषण को विशेष कार के शोषण का दर्जा देते हुए दलितों को दलित लिबरेशन अंतर्गत संगठित किया। दलित मुददों पर नीतियां बनाने के लिए पार्टी की केंद्रीय समिति के अधीन दलित विभाग काम करता है। सीपीएन (एम ) ने इस सवाल पर कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किऐ हैं जिनमें पार्टी, सेना तथा राज्य संगठनों में दलितों को प्रतिनिधित्व का खास अधिकार देना शामिल है।
संसदीय तथा अर्द्धसंसदीय तंत्र द्वारा दिये जाने वाले आरक्षण के अधिकार तथा नवजनवादी राजस द्वारा दिये जा रहे विशेष आधिकारों के बीच के अंतर को समझना महत्वपूर्ण है। आरक्षण हमेशा ही प्रबुद्ध बुर्जुआ वर्ग द्वारा दी जाने वाली एक सहूलियत होती है। इससे दलित हमेशा उनकी दया पर जीते हैं। ऐसे आधिकारों ; दलितों के बीच से बुर्जुआ पैदा करने, यदि दलित बुर्जुआ पहले से मौजूद नहीं हैं, या दलित बुर्जुआ की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए, यदि दलित बुर्जुआ पहले से मौजूद है, दिये जाते हैं। ऐसे आरक्षण अधिकार सभी क्षेत्रों में नहीं बल्कि कुछ विशेष क्षेत्रों में ही दिये जाते हैं। इसके विपरीत, दलित अपने विशेष अधिकार वर्ग संघर्ष, खास दलित संघर्ष तथा विद्रोह करने के अधिकार को संस्थागत रूप देने के लिए किये गये संघर्ष की ताकत से प्राप्त करते हैं। ये विशेष अधिकार सभी क्षेत्रों में लागू किये जाते हैं, और गरीब दलितों पर विशेष जोर देते हैं तथा सामंती तथा साम्राज्यवादी प्रतिग्क्र भयावादी ताकतों पर तानाशाही के साथ लागू किये जाते हैं।
नेपाल के जनयुद्ध में दलितों द्वारा उत्साहपूर्वक भाग लेने का प्रमाण है कि जनयुद्ध का पहला शहीद ग्यारह वर्षीय दलित गोरखा छात्र दिल बहादुर रामतेल था जो पुलिस की गिरफ्त से स्कूल के हेडमास्टर को छुड़ाने के लिए अन्य छात्रों के साथ २७ फरवरी, १९९६ को गया तथा मारा गया। जनयुद्ध के पिछले दस वर्षों में सैंकड़ों दलितों ने अपने आप को कुर्बान किया है। इनमें दलित मुक्ति मोर्चा के महासचिव कामरेड में बराइली तथा समिति के सदस्य कामरेड चिता बहादुर, कामरेड शंकर दरलामी, कामरेड बाल बहादुर तथा कामरेड रामकुमार शामिल हैं। कालिकोट की चालीस प्रतिशत आबादी दलित है। यह कभी दलितों पर अत्याचार का गढ़ हुआ करता था, उंची जाति में गिने जाने वाले ठाकुर उनसे घंटों बेगारी खटवाते थे तथा उंची जाति के लोगों के घरों के अहाते में उनके घुसने पर रोक थी। आज जनवादी राज्य के अधीन कई क्षेत्रों, जिलों तथा इलाकों में दलित प्रधान हैं। स्वया क्षेत्रीय जनपरिषद में दलितों की बीस प्रतिशत भागीदारी है। ग्राम जन समिति तथा जिला जन समिति में लगभग २०-२५ प्रतिशत दलितों की भागीदारी है। देश भर में दलितों पर होने वाले अत्याचारों में ७५ प्रतिशत तथा आधारभूत क्षेत्रों में ९० प्रतिशत की कमी आयी है।
२००४ की रिपोर्ट के अनुसार म ९य कमांड के अधीन विशेष क्षेत्र (ऐसे सात क्षेत्र पूरे देश भर में है ) में पचास हजार आठ सौ दलितों को सदस्यता दी गयी है, जन मुक्ति सेना (पीएलए ) में १७७५ दलित हैं, १९९६ में जनयुद्ध की शुरूआत से अब तक २०७ दलितों की शहादतें हुई हैं। इस इलाके में दलितों के सत्रह मॉडल गांव कायम हैं जिनमें ९० प्रतिशत आबादी ने दलितों के साथ भेदभाव खत्म कर दिये हैं।
माओ के कथन ' द्भांति को ग्रहण करो तथा उत्पाद को बढ़ाओ` को दलितों पर सोच समझकर लागू किया गया है। इस द्भम में उन्हें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सैनिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में सि द्भय किया गया है। नव जनवादी राज्य में उनको विशेष अधिकार दिये गये हैं, उनके कौशल को युद्ध उद्योग में काम में लाया गया है। स्थानीय स्तर पर देशी तथा स्वचालित बंदूकों, ग्रेनेड आदि बनाने तथा मरम्मत करने में, पीएलए के सैनिकों के लिए वर्दियां बनाने, सांस्कृतिक दलों के लिए पोशाक, बैग, झोला आदि तैयार करने तथा चमड़ा उद्योग में दलितों के कौशल को लगाया गया है।
मिलीट्री क्षेत्र में एक बड़ा परिवर्तन आया है। पुराना राज्य मिलीटरी में उनको भर्ती करने से बचता था। पीएलए और मिलिशिया ने दलितों को अपने आ द्भोश को जाहिर करने के लिए मंच दिया है। जनयुद्ध ने द्भांतिकारी विचार धारा तथा गोला-बारूद-हथियार से दलितों को लैस करके उन्हें प्रतिरोध की क्षमता से लैस किया है। आज वे प्रतिक्रियावादी शोषक वर्ग पर तानाशाही व्यक्त करने के लायक हैं। वे पीएलए में शामिल होकर रोमांचित होते हैं क्योंकि इस क्षेत्र में तेज गति से परिवर्तन घटित होते हैं। अस्पृश्यता पीएलए में एक अपराध है तथा यहां अंतरजातीय विवाहों की संख्या तेजी से बढ़ी है। दलितों के सामाजिक बहिष्कार को खत्म करने के प्रयास दो स्तरों पर किये जा रहे हैं, पहला जनता के स्तर पर, तथा दूसरा, प्रतिक्रियावादी वर्गों के स्तर पर। जनता के स्तर पर अंतरजातीय विवाह तथा अंतरजातीय भोज आयोजित किये जाते हैं तथा जाति संबंधित सभी अंतर्विरोध एकता, संघर्ष एवं रूपांतरण के द्वारा हल किये जाते हैं। मामला जब प्रतिक्रियावादी वर्गों का होता है तो पहले उन्हें चेतावनी दी जाती है तथा जनअदालत के द्वारा अस्पृश्यता के खिलाफ कार्रवाई की जाती है। इसके अंतर्गत छुआछूत मानने वालों के घरों में जबर्दस्ती घुसकर उनके नल आदि छुए जाते हैं। दलित मुक्ति मोर्चा, नेपाल ने अस्पृश्यता को अपराध घोषित कर दिया है। सांस्कृतिक क्षेत्र में, दलितों में जहां-जहां नशाखोरी की आदत मौजूद है वहां औरतों तथा मोर्चा के संयु प्रयास से नशाखोरी को खत्म किया जाता है। दलितों को सफाई का महत्व समझाया गया है। गाने, बजाने तथा नाचने के उनके परंपरागत पेशे को द्भांतिकारी सांस्कृतिक क्षेत्र में काम में लाया गया है। द्भांति के सभी क्षेत्रों में दलितों की बढ़ती भागीदारी तथा युद्ध उद्योग में उनके कौशल के इस्तेमाल के चलते दलितों में आत्मविश्वास का संचार हुआ है। आंदोलन के भीतर एवं बाहर उनको इज्जत दी जाती है।
दलित मुक्ति मोर्चा शहीद गेट, विश्रामालाय तथा जले हुए घरों आदि को बनाने का काम भी करता है। जहां संशोधनवादी वाम पार्टियां मंदिर प्रवेश की लड़ाई लड़ने के लिए दलितों को प्रोत्साहित करती हैं, वहीं सीपीएन (एम ) दलितों को हिन्दू मंदिरों तथा सामंतों की जमीन पर कब्जे में कर सामंतवाद तथा र्धम के आर्थिक आधार को कमजोर करने के लिए प्रेरित करती है। एक उदाहरण के रूप में पश्चिम नेपाल के अरधाकांची जिले में चतरागंज गांव को लें जहां २००४ में गांव के मंदिर के जमीन को कब्जे में लिया गया। जब्त किये गये जमीनों के बंटवारे में भी दलितों को वरीयता दी जाती है। स्थानीय दूघ डिपो का बहिष्कार किया जाता है तथा उनके खिलाफ कार्रवाई की जाती है, यदि वे दलितों से प्राप्त दूध को लेने से मना करते हैं। वर्तमान सामंती आर्थिक आधार को बदलना जरूरी है जिससे नयी व्यवस्था में इन नूतन परिवर्तनों को जारी रखा जा सके।
जनयुद्ध और दलित फ्री का सवाल
जनयुद्ध ने दलित औरतों की स्थिति को भी जबर्दस्त तरीके से बदल डाला है। वे तीन तरह के अत्याचारों को सहती आ रहीं थीं-वर्ग, जाति और पितृसत्तात्मक । वे नियमित रूप से अपने पिय ञ्ड़ निराश पतियों के हाथों घरेलू हिंसा को झेल रहीं थीं। पुलिस एवं उंची जातियों के साथ दलितों के झगड़े में पुलिस एवं उंची जातियों से बलत्कृत हो रहीं थीं। उनकी छवि चरित्रहीन तथा सेक्स वस्तु की बना दी गयी है जिसको उंची जातियों एवं वर्गों के द्वारा इस्तेमाल कर फेंक दिया जा सकता है। दलितों में सबसे निचले पायदान पर अवस्थित बाड़ी जाति के औरतों की स्थिति सबसे दयनीय है जहां बेटियों के लिए ग्राहक ढूंढ़ने का काम मां-बाप ही करते हैं। दलित शोषण गहराई से धर्म, कर्मकांड तथा सामाजिक व्यवहार में धंसा हुआ है, इसलिए दलित औरतों को सबसे ज्यादा जाति शोषण सहना पड़ता है। दलित पुरूषों के विपरीत दलित सि्त्रयां प्राय: उत्पादक श्रम से कटी रहती हैं तथा उनकी स्थिति मुख्य रूप से बच्चे पैदा करने तथा घर की देखभाल करना होता है। उन पर प्राय: डायन-जोगिन का आरोप लगाकर हमला किया जाता है तथा कभी-कभी उन्हें मानव मल खाने के लिए मजबूर किया जाता है। उनकी बेरहमी से पिटायी की जाती है, कभी-कभी तो पत्थर मारते-मारते उनको मार दिया जाता है। मधेशी दलित औरतों पर ऐसे जुल्म सबसे ज्यादा ढाये जाते हैं।
जनयुद्ध ने उन्हें नयी पहचान तथा नयी ताकत दी है। १९९८ में कालीकोट जिले में पुलिस से ग्रामीण औरतों द्वारा हथियार छीनने की ऐतिहासिक घटनाओं में शामिल सभी औरतें दलित थीं। वे आज जन समितियों, जनमोचो आदि में महत्वपूर्ण पदों पर हैं तथा पीएलए में कमांडर तथा उप-कमांडर हैं। सांस्कृतिक जन संगठनों में भी वे महत्वपूर्ण पदों पर हैं। पीएलए के पश्चिमी कमांड की बटालियन कमांडर कल्पना दलित हैं और वह शहीद कामरेड योधा, जो कालिकोट के दलित ब्रिगेड के उप-कमांडर थे, की पत्नी हैं।
पूर्ण दलित लिबरेशन के रास्ते में बाधाएं प्राय: कहा जाता है कि सामाजिक क्रांति आर्थिक द्भांति से ज्यादा समय लेती है। यह बात पुरातन और जड़बद्ध दलित शोषण के साथ और भी सत्य है। दलितों ने नौ सालों के जनयुद्ध में जो पाया है वह निश्चय ही एक परिघटना है। जाति बंधनों को तोड़ने के मामले में नेपाल के दलित आज भारतीय दलितों से काफी आगे हैं। तथापि कुछ कठिनाइयां हैं जिनका दलितों की पूर्ण मुक्ति के लिए समाधान किया जाना है। पार्टी के अंदर भी कुछ मामले आते रहते हैं जिनमें दलित कैडरों को उस तकलीफदेह अनुभव से गुजरना होता है जब उंची जातियों के पार्टी कैडरों के परिवारों में उनको स्वीकृति नहीं मिलती, खासकर जनयुद्ध के विस्तारित क्षेत्रों में। इसी तरह नेपाल के कतिपय क्षेत्रों में पार्टी के दलित हमददोर्द की शिकायत होती है कि उंची जातियों के पार्टी संगठनकर्ताओं को दलितों के बीच काम करने में हिचकिचाहट होती है। पुराने राज के दमन चक्र के तेज हाने पर कोई विकल्प नहीं होने पर ही वे दलितों के घरों में आश्रय लेते हैं। ऐसी कमियों को पार्टी के अन्दर नियमित दुरूस्तीकरण की क्रिया को चलाकर दूर किया जा सकता है। यौन अपराध की तरह दलितों के साथ भेदभाव के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने की मांग दलित कैडर पार्टी में जोरदार तरीके से उठाते रहे हैं। जनता के स्तर पर दलित मुक्ति मोर्चा के सि द्भय हस्तक्षेप तथा संगीन मामलों में जन अदालत की कार्रवाइयों के चलते दलितों के साथ सामाजिक भेदभाव में कमी आयी है। जनयुद्ध के विस्तारित इलाके में गैर-माओवादी दलितों के साथ बराबरी का व्यवहार करने में अभी भी हिचकिचाहट है। जबकि माओवादी दलित कैडरों को उंची जातियों के घरों में प्रवेश पर कोई दि ञ्त नहीं आती है किन्तु उसी गांव के गैर-माओवादी दलितों को कभी-कभी भेदवभाव सहना पड़ता है। सीपीएन (एम ) तथा दलित मुक्ति मोर्चा के सामने यह चुनौती है कि गैर-माओवादी तथ माओवादी दलितों के बीच इस भेद को कैसे खत्म करें। कई मामलों पर, उत्पीड़ित समूहों को भी बुद्ध ब्रा ख्रणों एवं क्षत्रियों की अपेक्षा दलितों के मामले में ज्यादा दकियानूसी पाया गया है।
दलित माओवादी कैडरों के साथ कुछ मनोगत समस्यायें भी हैं यद्यपि उनका खूब सशि क़रण भी हुआ है। उनमें हीनभावना है, सत्ता के प्रति गुलामी का भाव है तथा अपने ही समुदाय को विभाजित करने की प्रवृत्ति है, जो कि उंची जाति के लोगों के द्वारा उन्हें लंबे समय तक गुलाम बनाये रखने के कारण है। पार्टी में इसकी अभिव्यि इस तरह होती है कि वे अपनी जाति पहचान छुपाते हैं या केवल विशुद्ध दलित मुददों अपना ९यान केंद्रि त करते हैं, अपने ज्ञान का विस्तार नहीं करते तथा नेतृत्व की जिम्मेदारी उठाने से कतराते हैं। इस तरह की प्रवृतियों के खिलाफ दलितों को खुद आलोचना-आत्मलोचना की क्रिया में जाना होगा जिससे खुद को बदल सकें। गुलामी की मानसिकता से मु होने का समय है। उची जातियों के लिए भी समय है कि वह दलितों के प्रति अपनी मानसिकता को बदलें।
निष्कर्ष
>कम्युनिस्ट क्रांति पारंपरिक सपंत्ति संबंधों से सबसे द्भांतिकारी ढंग का संबंधो विच्छेद है; स्वाभाविक रूप से इसके विकास की क्रिया में पारंपरिक विचारों से सबसे द्भांतिकारी ढंग का संबंध विच्छेद शामिल है। -कार्ल मार्क्स : कम्युनिस्ट मनिफेस्टो
जनयुद्ध के शुरू होने के बाद दलित शोषण रणनीतिक मुक्त बनने लगा। दलित मुक्ति में बाधक पुराने हिन्दू राज्य को हमले का निशाना बनाकर दलित मुक्ति मोर्चा, नेपाल ने सही दावा किया है कि सामंत-विरोध तथा साम्राज्यवाद-विरोध जनवादी राज्य की स्थापना किये बगैर दलित मुक्ति एक मिथक है। दलित मोर्चे ने विचार धारा , संगठन तथा संघर्ष के बीच द्वंद्वात्मक रिश्ते को सही पकड़ा है। वे आज द्भांति के तीनों अंगों में विद्यमान हैं; पार्टी, जन मुक्ति सेना तथा संयु जन मोर्चा।
दक्षिण एशिया के क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को दलित प्रश्न को रणनीतिक महत्व देना होगा क्योंकि आज दक्षिण एशिया क्रांति केंद्र बन चुका है। मनोगत रूप से द्भांति की संभावना का दोहन करने के लिए इस क्षेत्र के सबसे ज्वलंत सवाल पर ९यान ले जाना होगा। दलित शोषण इस क्षेत्र की ऐसी ही एक समस्या है जिसका इस क्षेत्र की जनता के लिए बड़ा आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक महत्व है। इस उपमहाद्वीप की माओवादी पार्टियों को दलित समुदाय को सबसे विश्वस्त शोषित समूह मानकर अपने साथ लाना होगा। इसके लिए औरतों का या दूसरे जन संगठनों की तरह दलितों का अलग से जन संगठन बनाना होगा। द्भांतिकारी कम्युनिस्टों को समझना होगा कि लंबी अविधि इससे वर्गीय में मजबूत ही होंगे न कि कमजोर; जैसा कि कुछ कठमुल्ले कम्युनिस्टों का विचार होता है। ठोस परिस्थिति का ठोस विश्लेषण के सिद्धांत को लागू करके ही दक्षिण एशिया के संदर्भ में मार्क्सवाद-लेनिनवाद माओवाद की रक्षा की जा सकती है, उसको लागू तथा विकसित किया जा सकता है। दलित सवाल ऐसे ही कदमों की मांग करता है। शोषण के विभन्न , खासकर दलित मुक्ति , को संबोधित करने से माओवादी पार्टियां अपनी मोनोलिथिक छवि को तोड़ती है तथा समाज में व्याप्त सभी प्रवृतियों को समाहित करने वाली एक व्यापक छवि बनाती है। इससे उत्पीड़ित समुदायों में कम्युनिस्ट नेतृत्व के फैलने में मदद होती है। जैसा कि लेनिन ने कहा था, 'सामाजिक जनवादियों का आदर्श ट्रेड यूनियन का से होना चाहिये, उसका आदर्श तो जनता के प्रतिनिधियों का ऐसा ट्रिब्यून होना चाहिये, जो अन्याय, अत्याचार एवं उत्पीड़न की प्रत्येक घटना के खिलाफ प्रतिक्रिया कर सके, वह घटना चाहे जहां, जिस वर्ग तथा जनता के हिस्से के साथ घटित हो।` ('क्या करें,` १९०२ )
अंत में, कम्युनिस्टों को केवल दलित उत्पीड़न नहीं बल्कि पूरी जाति व्यवस्था की खिलाफत करनी चाहिये क्योंकि यह शोषकों और शोषितों के बीच तीव्र वर्गीय धुरवीकारण को रोकता है। दक्षिण एशिया में दलितों को माओवादी पार्टियों के साथ संगठित होना चाहिये क्योंकि प्रतिगक्रयावादी क्रियावादी ताकतों के ३पर बल योग की सख्त जरूरत है और साथ ही उन्हें उत्पादन के विकसित साधन, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक वातावरण तथा विकसित दृष्टिकोण की जरूरत है जिससे वे पिछड़ी संस्कृति से बाहर निकल सकें। दूसरे उत्पीड़ित समुदायों से उत्पीड़ित होने के बावजूद दलितों को इन समुदायों से एकता करनी होगी जिससे शोषक वर्गों के खिलाफ संयु रूप से लड़ा जा सके। इन समुदायों के बीच के अंतर्विरोघ को अविरोधी तरीके से हल करना होगा। केवल माओवादी पार्टियां जिनके पास विकसित वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा जनपक्षीय राजनीतिक लाइन तथा द्भांतिकारी व्यवहार है तथा जो उत्पीड़ित जनसमुदाय में नास्तिकता, सामूहिक तथा वैश्विक दृष्टिकोण भर सकते हैं, इस अंतर्विरोध को हल कर सकते हैं। दलितों को समझना होगा कि उनकी पूर्ण मुक्ति दूसरे उत्पीड़ित समुदायों की मुक्ति के साथ जुड़ा हुआ है। यह मुक्ति सर्वहारा के अधिनकत्व तथा लगातार क्रांति की सफलता पर निर्भर करती है। यह महत्वपूर्ण है कि सभी उत्पीड़ित समुदायों का सशि क़रण तथा उनके बीच सहयोग केवल सर्वहारा के नेतृत्व में संभव है क्योंकि सर्वहारा की कोई लैंगिक, जाति, धामिर्क तथा राष्टरीय पहचान नहीं होती है सिवाय वर्गीय पहचान के। जहां इसके पास खोने के लिए जंजीरों के अलावा कुछ नहीं होता है।
अंत में उन उत्पीड़ित समुदायों को जो अभी भी दलितों को दबाते हैं हम मार्क्स के उस कथन को याद दिलाते हैं जो उन्होंने प्रथम इंटरनेशनल में कहा था : 'जो जनता दूसरों को गुलाम बनाती है वह अपने लिए जंजीरों को खुद ही रचती है।`
(सीपीएन (एम ) के मुख पत्र 'द वर्कर` १० मई, ०७ से साभार। अनुवाद-ज.वि.टी. )
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