November 30, 2007

स्‍त्री अस्मिता और पहचान की सशक्त आवाज

प्रभात खबर, १८ अप्रैल, २००७


रोहित प्रकाश

जन विकल्प के उदघाटन अंक के साथ एक कविता पुस्तिका आयी थी- 'यवन की परी`। यवन देश की एक महिला, जिसने पागलखाने में आत्महत्या कर ली थी, की एक लंबी कतिवा छपी थी-'एक पत्र पागलखाने से`। कविता में अनुभूति और अभिव्‍यक्ति की तीव्रता और तीक्ष्णता अवाक कर देनेवाली थीं। परी (कवयित्री का कल्पित नाम) की इस संपूर्ण कविता में सचेत स्त्री दृष्टि है, जो पितृसत्ता के ऊपरी शोषणचक्र को ही नहीं, बल्कि उसके आधार और संश्रयों को भी बखूबी समझती है -

'उन्हें प्यार है दीवारों से
उन्हें नफरत हैं खिड़कियों से
वे मुझे मार डालने के आदी हो गये हैं'

इस कविता की सार्थकता इन अर्थों में और अधिक बढ़ जाती है कि कविता लिखनेवाली स्‍त्री स्थिति की स्पष्‍ट समझदारी के साथ-साथ प्रतिरोध की चेतना से भी लैस है-

' कभी भी नहीं मागूंगी उनसे धर्मग्रंथ
पापों के प्रायश्चित के लिए
जिससे महसूस कर सकें वे अपने को
मजबूत'

यह कविता इनकार करती है और इकरारनामे की शर्त खुद ही तय करती है। कविता में पांच बार एक ही पंक्ति आंती है-' शॉक थेरेपी इससे बेहतर है ' । इसे पढ़ते हुए आलोकधन्वा की कविता ब्रूनों की बेटियां की प्रसिद्ध पंक्तियां याद आती हैं 'बातें बार-बार दुहरा रहा हूं मैं एक छोटी-सी बात का विशाल प्रचार कर रहा हूं` . लेकिन न तो स्‍त्री ‍ शोषण एक साधारण प्रक्रिया है और न ही स्‍त्री मुक्ति की लड़ाई साधारण है। पितृसत्ताओं और वर्गों का आपसी संबंध जितना जटिल है, जिस प्रकार पूंजीवाद खुद को बनाये रखने के लिए आत्म सुधार की प्रक्रिया में रहता है। वैसे ही पित्तृसत्ता भी अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए आत्म सुधार का रास्ता अपनाती है। इस तरह से काफी हद तक यह स्‍त्री मानस को अनुकूलित करता है और प्रतिरोध को कम या भ्रमित करने में भी सफल होता है। इस लिहाज से भी यह एक असाधारण लड़ाई है। और कई बार ऐसा होता है कि स्‍त्री मुक्ति की इस लड़ाई या विमर्श को 'पुरूष स्वार्थ` से वीशीभूत तत्व इसे खास दायरे में ले जाने या दिशा देने की कोशिश करते हैं।

परी की इस कविता में मानवीय सौंदर्य और गरिमा की भावपूर्ण अभव्यिक्ति मौजूद है-


' मुझे कतई यह बात झूठ लगती है
बम क्या खाक बच्चों को मारेंगे
वे तो दुश्मनों के लिए बने हैं'

बहुत 'इनोसेंट` सी नजर आनेवाली यह टिप्पणी साम्राज्यवादी हिंसा पर तीखा प्रहार करती है-

' मैं इस वक्त मृत चींटी के बारे में सोच रही हूं
सारे मीडिया वाले इस बात पर खामोश हैं
ये चीटीं अमेरिका की प्रेसिडेंट जो नहीं थी
ही कोई धार्मिक गुरु
दुनिया की आखिरी चींटी भी नहीं'

इस चींटी के साथ परी को रखा जा सकता है । परी के साथ असंख्य स्त्रियों को, असंख्य मनुष्‍यों को जो पितृसत्तात्मक, पूंजीवादी सम्राज्यवादी शोषण के शिकार हैं । स्‍त्री स्मिता और पहचान की सशक्त आवाज के तौर पर इसे कविता को देखा जा सकता है।

1 comment:

  1. जनविकल्प के सारे अंक पढे मैंने, बहुत अच्छी पहल लगी।


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    Vijay Thakur

    ALC, University of Michigan
    202 South Thayer Street, Suite 6111
    ANN ARBOR, MI 48104 USA

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