'Jan Vikalp' has its own active participation in bringing Justice, Equality and liberty to society. This Hindi monthly, published from Patna, one of the oldest cities of India.
November 30, 2007
आंतरिक जनतंत्र का सवाल
' राजनीतिक पार्टियां देश में जनतंत्र के खतरे को चाहे जितना समझती हों , अपनी ही पार्टियों के आंतरिक जनतंत्र के प्रति पूरी तरह उदासिन हैं। जो राजनीतिक दल अपने आंतरिक जनतंत्र को ठीक नहीं रख सकता, वह देश के जनतंत्र को भी ठीक नहीं रख सकता . कमजोर जनतंत्र पर टिके ये राजनीतिक दल देश के जनतंत्र को कमजोर ही करेंगे।..कुछ अपवादों के साथ लगभग सभी राजनीतिक दल एक गिरोह के रूप में काम कर रहे हैं जहां अनुशासन का अर्थ है दलीय तानाशाही की कारगुजारियों पर चुप्पी साधे रखना। यह उद्धरण नवजात पत्रिका 'जन विकल्प ` के संपादकीय अग्रलेख से लिया गया है जो पत्रिका के दो संपादकों में से एक सुपरिचित कथाकार प्रेमकुमार मणि के नाम से प्रकाशित है।
प्रेमकुमार मणि की दलीय प्रतिबद्धताओं से जो लोग परिचित हैं वे समझ सकते हैं कि ये पंक्तियां जहां व्यापक रूप से देश की संसदीय राजनीति के स्वास्थ्य की ओर संकेत करती हैं वहीं इसके आसन्न संकेत संपादक के अपने दल से संदर्भित भी हैं जिसकी पुष्टि जार्ज फर्नांडीज पर केंद्रित अभय मौर्य के लेख 'एक नायक का पतन` से भी होती हैं इस लेख को इंट्रो है, 'एक समय विद्रोही नायक सा दिखने वाला व्यक्ति पतन के ऐसे गर्त में गिर सकता है । देश को आज यह सवाल पूछने क अधिकार है कि आखिर क्यों बीते दिनों के उस डायनामाइट नायक का यह हश्र कैसे हुआ?` अपने ही दलीय मंच से उठाया गया दलगत आंतरिक जनतंत्र का सवाल निश्चय ही देश के वर्तमान और भविष्य की चिंताएं अपने में समेटे हैं लेकिन यहां एक अवधारणात्मक सवाल उठता है कि जनतंत्र के साथ नायक क्यों? जनतंत्र का तो मूल विचार ही नायकवाद के विरुद्ध है। हमारी विडंबना ही यह है कि हम किसी नायक की कल्पना से मुक्त नहीं हो पाते . जबकि सटीक जनतंत्र के लिए नायकवाद से मुक्ति पहली शर्त है। फ्रांस की राज्यक्रांति से अब तक हम बार बार नायकवाद से मुक्ति की आकांक्षा के बावजूद उसकी ही गिरफ्त में जाने को अभिशप्त रहे हैं। यही बुनियादी वजह है कि अपने लंबे इतिहास के बावजूद सच्चा जनतंत्र अब तक एक सपना ही बना हुआ है। दूसरी बात यह कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा पैरोकार अमेरिका दुनिया भर में लोकतंत्र को किस तरह परिभाषित रहा है, उसके साथ कैसा सुलूक कर रहा है। स्थापित तथ्य है कि जार्ज बुश के नेतृत्व वाला जो अमेरिका जहां दुनिया भर के सच्चे लोकतांत्रिक विश्वासों के लिए आतंक का प्रतीक बना हुआ है वहीं अमेरिका हमारे आंतरिक जनतंत्र की अनदेखी और उपेक्षा की प्रोटीन भी इंजेक्ट कर रहा है। अगर हम इस तथ्य को ध्यान में रख्कर देखें तो जनतंत्र के विमर्श में दिगंत व्यापक होंगें एक सच्ची वैचारिक पत्रिका या मंच को यहीं से शुरुआत करनी होगी। पूंजीवादी या जनवादी लोकतंत्र की बहस फिलहाल हम छोड़ भी दें तो वाल्ट व्हिटमैन, अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर किंग ने जिस लोकतंत्र का झंडा उठाया था और साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद के चक्के तले पिसती राष्टीयताओं को जिससे जीवनी शक्ति मिली थी, वह लोकतंत्र आज उन्हीं की जमीन पर तार-तार हो रहा है। पिछले डेढ़ सौ सालों से अमेरिका अपने तौर तरीकों से सारी दुनिया को प्रभावित करता रहा है। आज भी कर रहा है। इसलिए हमें तत्कालिक और स्थानीय लाभों को देखने के बजाय असली लक्ष्य को ही नजर में रखना होगा।
पत्रिका के प्रथमांक का संयोजन सामाजिक न्याय , महिला मुक्ति , इतिहास विमर्श, सामाजिकी तथा भाषा और साहित्य, कवि अरुण कमल से प्रमोद रंजन की बातचीत, राजकुमार राकेश के समकालीन संदर्भों से जुड़ा हुआ है और निश्चय ही इस सामग्री में पाठकों के लिए सोचने और प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए बहुत कुछ है। मिसाल के तौर पर ज्ञानचंद की पुस्तक 'एक भाषा दो लिखावट` को लेकर उर्दूवालों के बीच जो तीखीं प्रतिक्रिया हुई और हो रही है, जौकी ने उस पर तार्किग ढंग से विचार किया है । वे ज्ञानचंद को बख्शते नहीं हैं लेकिन उर्दू वालों पर उंगली उठाने में भी कोई चूक नहीं करते। जिन्होंने पूरी जीवन उर्दू पर कुर्बान कर देने के बावजूद निरंतर उपेक्षा में जीते आए ज्ञानचंद के मनोविज्ञान को नहीं समझा। मुशर्रफ आलम जौकी की यह उदारवादी तार्किक दृष्टि , खेद के साथ कहना पड़ता है कि उर्दू में सोचने और लिखनेवाले लेकिन नागरी अक्षरों में छपने का हौसला रखने वाले हमारे दूसरे दोस्तों के पास नहीं है। वे उर्दू जबान और अदब के बारे में किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा कही गई बात को सीधे भाडयंत्र और आक्रमण की भांति लेते हैं।
१८५७ पर लिखतेहुए कंवल भारती ने कोई नई बात नहीं कही है। सत्तावन को लेकर दो नजरिए शुरू से ही रहे हैं। एक नजरिया जहां उसे साम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद विरोधी विस्फोट के रूप में लेता है तो दूसरा विशुद्ध सामंती असंतोष के रूप में और यह कि अगर सत्तावन के विद्रोह में उनकी जीत होती तो इतिहास का पहिया बजाय आगे बढ़ने के पीछे मुड़ जाता। हम आधुनिक पूंजीवादी चरण में पहुंचने की बजाय सामंती दौर में लौट जाते। नंबूरीपाद जैसे कम्युनिस्ट तक इस सोच के शिकार रहे हैं। कंवल भारती वहां तक भी नहीं जाते। उनकी पापुलर पालिमिक्स सत्तावन पूर्व के संथाल, मुंडा आदि आदिवासी जनजाति के विद्रोहों की उपेक्षा करते हुए अंबेडकरवाद के ही चक्कर लगाती रहती है। ऐसे पूर्वग्रहों के बीच इतिहास, साहित्य के किसी निरपेक्ष पुर्नमूल्यांकन की उम्मीद निरर्थक है।
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