November 30, 2007

एक बहुध्रुवीय दुनिया का सपना



(राष्ट्रीय सहारा 5 अगस्‍त, 2007, रविवार)

- सुरेश सलिल

आज जब हिंगलशिया शेखी कारपोरेट साम्राज्यवाद और उसके संवाहक मीडिया की प्रवक्‍ता बनकर इतिहास और विचारधारा यहां तक कि आदमी के अंत तक की घोषणाएं करते नहीं थक रही. 'सामाजिक चेतना की वैचारिकी` की मोटी लाइन के साथ 'जन विकल्प` की दस्तक ( जुलाई, २००७), उन जय घोषणाओं की ति‍ली लि-ली करती हुई प्रखर सामाजिक चेतना के साथ समाचार भूमि से उभर रही है. छत्तीस पृष्‍ठों की एक क्षीणकाय पत्रिका से उभरती यह दस्तक मुर्डोक के दैत्याकार मीडिया साम्राज्‍य के सामने उसी तरह की चुनौती पेश करती है जैसे बुश की साम्राज्यवादी सोच के सामने इराक की चुनौती. यह दस्तक अकेली एक पत्रिका की नहीं है. इसमें फिलहाल युवा संवाद, सामयिक वार्ता जैसी उन तमाम छोटी पत्रिकाओं के स्पष्ट रेसे मिले हैं जो तथाकथित मीडिया की पहुंच से बाहर के इलाकों की जनभावना को अभिव्यक्ति देती है और एक व्यापक वैचारिक युद्ध की पृष्‍ठभूमि तैयार करने में संलग्न है. फिर भी यहां चर्चा फिलहाल जन विकल्प` के जुलाई अंक की ही. ..

इस अंक की संपादकीय टिप्पणियां बिहार में माओवादी हिंसा, निवर्तमान राष्‍ट्रपति अब्दुल कलाम की विदाई तथा स्व चंद्रशेखर की स्मृति को समर्पित हैं. बिहार के विभिन्न हिस्सों में माओवादी हिंसा पर टिप्पणी करते हुए यहां कहा गया है- 'हम किसी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं करते. चाहे वह सरकारी हिंसा हो या किसी राजनीतिक संगठन की.. लेकिन जो सरकार एकाएक आगे बढ़कर १८५७ के सश्‍स्‍त्र विद्रोह की १५०वीं जयंती पर जलसों का आयोजन कर रही हो उसे इस तरह की हिंसा का विरोध करने का कोई नैतिक हक नहीं है. माअवोदी कह सकते है और कहते हैं कि यह उनका मुक्तियुद्ध है. ..हम एक बार फिर सरकार से कहना चाहेंगे कि वह उग्रवाद उभरने के वास्तविक कारणों तक जाए और उनका निराकरण करे बजाय पुलिसिया दमन के. इसके लिए आवश्यक है कि गरीबों को विश्वास में लिया जाए.

पिछले पंद्रह वर्षों के लालू राज में बिहार का विकास तो नहीं हुआ लेकिन पिछड़े दलितों में झूठा ही सही यह अहसास तो था कि लालू उनके हैं और उनके माध्यम से उनका राज चल रहा है. इस कारण अतिवादी ताकतें गरीब जनता को गोलबंद करने से विफल रहीं. नीतीश सरकार बनते ही एक अफवाह फैली कि सामंतों का राज फिर कायम हो गया. दुर्भाग्य से यह बात निचले स्तरों तक चली गई है।


..पूर्व राष्‍ट्रपति अब्दुल कलाम को यहां मुख्यत: मिसाइलमैन के रूप में ही रेखांकित किया है और यह कि एक मिसाइलमैन को देश का राष्‍ट्रपति बनाना दुर्भाग्यपूर्ण था. ' राष्‍ट्रपति के रूप में कलाम ने कोई आदर्श नहीं रखा. कबीर की बानी उधार ले लें तो कहा जा सकता है कि चाद मैली ही थी. ..उनकी मिसाइलें मानवता के विरूद्ध ही खड़ी हैं. यहां हिरोशिमा, नागासाकी पर एटम बम गिराने वाले अमेरिकी वैज्ञानिक क्लाड इथरली को याद किया गया है जो बाद में पश्चाताप से पागल हो गया था. इथरली में इतनी चेतना तो थी कि वह प्रायश्चित कर सकता था. अग्नि की उड़ान की तरह अपनी सफलता की कहानी 'महाप्रलय` की तरह वह भी लिख सकता था. लेकिन उसने पागलखाने में रहना बेहतर समझा। इथरली के पागल होने की घटना ने सारी दुनिया को जो संदेश दिया उसे कलाम अगर समझते तो उन्हें मैं सलाम करता...'


कभी के युवा तुर्क और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के निधन पर उन्हें याद करते हुए उनके राजनीतिक जीवन के परवर्ती दौर में चंद्रास्वामी और सूरजदेव सिंह का निकट से निकटतर आते जाना संपादक को आहत करना है: 'आश्चर्य होता है जिस व्यक्ति के कभी आचार्य नरेंद्रदेव के शिष्‍यत्व में राजनीति धारण की थी, जो बहुत दिनों तक सत्तू और किताबों से घिरा, वह ऐसी वैचारिक अधोगति का शिकार बन गया.'


समसामयिक समाचारों से जुड़ी ये टिप्पणियां महान साहित्य नहीं है, इन्हें थोरा, इमर्सन, रसेल के अमर वक्तव्यों की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकती. लेकिन आज की मूल्यहीनता के दौर में ये गणेश शंकर विद्यार्थी की मूल्यपरक पत्रकारिता की परंपरा से अवश्‍य जुड़ती है और एक सार्थक हस्तक्षेप करती है. पत्रिका के इस अंक में 'सिर पर मैला ढोन की प्रथा` (ज्ञानेश्वर शंभरकर), 'भारत अमेरिकी परमाणु समझौता` (पंकज परशर), 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी के महासचिव गणपति का साक्षात्कार, कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल का 'जनयुद्ध और दलित प्रश्न` शीर्षक दस्तावेज, खड़ी बोली कविता के प्रथम पैरोकार अयोध्याप्रसाद खत्री के महत्व पर राजीव रंजन गिरि का दृष्टि संपन्न लेख और खत्री जी पर फिल्म बनाने वाले कवि फिल्मकार वीरेन नंदा का साक्षात्कार आदि कई ऐसे गद्य है जो जनमानस को शिक्षित प्रेरित करेंगे और मूल्यपरक पत्रकारिता का अर्थ बताएंगे। लेकिन अभी हाल मं संपन्न हुए राष्‍ट्रपति चुनाव की समीक्षा करता रजनीश का आलेख तथा पूर्व रूसी राष्‍ट्रपति बोरिस येल्तसिन के निधन के बहाने सोवियत यूनियन के बिखराव की बाहर और अंदरूनी साजिश की गहरी पड़ताल करता अनीश अंकुर का लेख विशेष रूप से पढ़े जाने चाहिए. ये हमारी दृष्टि और सोच को समृद्ध करते है. रजनीश का यह कथन सरकारी नाम की कथनी और करनी पर एक सशक्त टिप्पणी मानी जानी चाहिए. 'यदि योग्यता को ध्यान में रखकर यूपीए और वामपंथी दलों ने उम्मीदवार तय किया होता तो वो आजादी की लड़ाई में महान योगदान करके आई और पिदले चुनाव की उम्मीदवार कैप्टन लक्ष्मी सहगल के नाम पर दुबारा गौर जरूर करते. गौर तो खैर उन्होंने आजादी की लड़ाई में मास्टर दा (सूर्यसेन) के साथ जान लड़ा देने वाली आशालता सरकार और अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली चर्चित लेखिका अंरुधति राय जैसी महिलाओं के नाम पर भी नहीं किया. ऐसा शायद इसलिए कि सत्ता के हुक्मरानों का संवैधानिक प्रमुख के पद पर कोई समझदार महिला नहीं बल्कि गूंगी गुड़िया चाहिए।

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