July 17, 2007

ज्ञानेश्‍वर शंभरकर


कलंक


सिर पर मैला ठोने की प्रथा



मानवता के लिए कलंक, अमानवीय, निकृष्ट जैसे कई नाम दिए गए। अनेक पुस्तकें लिखी गईं , कानून बने, योजनाएं बनीं, आयोग बने। करोड़ों रुपए खर्च किए गए। मगर सिर पर मैला ढोने की प्रथा आज भी बरकरार है। हम इस प्रथा को समाप्त नहीं कर पाए हैं। मामला फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में है। सफाई कर्मचारी आंदोलन, ६ अन्य सहयोगी संगठन और मैला ढोने वाले ७ व्यक्तियों ने वर्ष २००३ में इस संबंध में एक जनहित याचिका दाखिल की थी।

१२ लाख लोगों का व्यवसाय

संविधान की धारा १७, १४, १९ और २१ के आधार पर याचिका में अस्पृश्यता पर पाबंदी, समता, स्वतंत्रता, जीवन की सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को रेखांकित करते हुए शीर्ष अदालत से अनुरोध किया गया है कि वह इस प्रथा पर पूरी तरह से रोक लगाने और इससे जुड़े लोगों के समयबद्ध पुनर्वास का निर्देश केंद्र और राज्य सरकारों को दे। १९९३ के मैलावहन, रोजगार और शुष्क शौचालयों के निर्माण (प्रतिबंध) कानून के क्रियान्वयन की मांग की गई है। अलावा इसके, कोर्ट के ध्यान में यह बात भी लाई गई है कि देश में १२ लाख लोग इस निकृष्ट व्यवसाय से जुड़े हैं।
हालांकि, इस याचिका के दाखिल होने के बाद अनेक राज्यों ने अदालत को बताया कि उनके यहां यह प्रथा अब नहीं है और मैलावाहकों का अन्य व्यवसाय में पुनर्वास कर दिया गया है। मगर राज्यों ने इसके लिए भी तीन साल का वक्त लिया और वह भी अदालत की फटकार के बाद। कुछ राज्यों ने प्रथा के अस्तित्व को स्वीकार किया तो कुछ ने इसके अस्तित्व से ही इन्कार किया। राज्यों द्वारा शुष्क (बिना पानी के) शौचालयों के अस्तित्व से इन्कार करने का अर्थ है कि उनके यहां मैला ढोने की प्रथा का भी अस्तित्व नहीं है।

अस्तित्व से ही इन्कार

सवाल यह है कि अगर राज्य समस्या के अस्तित्व से ही इन्कार करेंगे तो फिर उसके हल की कोशिश कैसे होगी? सुनवाई के दौरान अदालत ने केंद्र और राज्य सरकार के सभी विभाग और मंत्रालयों को वरिष्ठ अधिकारियों के मार्फत ६ महीने के भीतर शपथपत्र दाखिल करने का अंतिम आदेश दिया था। अदालत ने कहा, शपथपत्र में मैला ढोने की प्रथा का उल्लेख हाने पर पुनर्वास और उसकी समाप्ति के समयबद्ध कार्यक्रम के संबंध में सुझाव भी दिए जाएं। अदालत ने असत्य वक्तव्य के लिए चेतावनी भी दी थी। लगभग सभी राज्यों ने कहा कि उनके यहां शुष्क (बिना पानी के) शौचालयों को नष्ट कर दिया गया है। लेकिन, इस क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने इसे सिर्फ और सिर्फ झूठ का पुलिंदा बताया।
केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने वर्ष २००२-०३ में स्वीकार किया था कि आज भी ६.६७ लाख लोग मानव मैला ढोने का काम करते हैं। देश के २१ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ९२ लाख शुष्क शौचालय अस्तित्व में है। उक्त मंत्रालय ने २२ जुलाई २००५ को एक प्रेस विज्ञप्ति में इन आंकड़ों की पुष्टि करते हुए कहा, उत्तर प्रदेश में १.४९ लाख, मध्य प्रदेश में ८०,००० और गुजरात में ६४,००० मैलावाहक हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रकाशित 'रिपोर्ट ऑन प्रिवेंशन ऑफ एट्रॉसिटीज अगेन्स्ट शेडयूल कास्ट` (नवंबर २००५) के अनुसार, देश में ६,७६,००९ मैलावाहक हैं, जिसमें से ३,९४,६३८ का पुनर्वास हो गया है जबकि, तय कार्यक्रम के मुताबिक २ अक्टूबर २००२ तक पूरी तरह पुनर्वास कर दिया था। १० सितंबर २००१ तक ५४ लाख में से केवल १४ लाख ६० हजार शुष्क शौचालयों को पानी वाले शौचालयों में रूपांतरित किया गया। इसमें ३६४३ शहर ही मैलावाहक मुक्त घोषित किए गए।
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के शपथपत्र के अनुसार 'वर्ष २००२ तक १.५६ लाख लोगों को प्रशिक्षण दिया गया, ४.०८ लाख लोगों का पुनर्वास किया गया और राज्यों को ७१२.१४ करोड़ रुपए आवंटित किए गए। १९८९ में ४ लाख मैलावाहक थे।` मगर लोकलेखा समिति की ९वीं रिपोर्ट के मुताबिक, इस मंत्रालय ने अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग आंकड़े पेश किए हैं। जैसे, असम में १९९७ और १९९९ में मैलावाहकों की संख्या में तीन गुना वृद्धि दिखाई देती है।

१९४७ में आया था विधेयक

नियंत्रक और महालेखापरीक्षक (कैग) ने मैलावाहक मुक्ति और पुनर्वास राष्ट्रीय योजना के तहत वर्ष १९९२ से २००२ तक के व्यय का अध्ययन किया। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक, 'केंद्र द्वारा राज्यों को दिया गया ६०० करोड़ रुपया सचमुच शौचालयों में बह गया।`
१५ अक्तूबर १९४७ को बृहंमुंबई में इस संबंध में बहसें हुइंर्। अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार प्रतिबंधक) कानून १९८९, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग, मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, सफाई कर्मचारी आयोग, सफाई कर्मचारी आर्थिक और विकास महामंडल जैसे आयोग बने। वर्ष १९९३ में मैलावाहक रोजगार और शुष्क शौचालयों का निर्माण (प्रतिबंधित) कानून बना। मगर इस कानून के तहत १३ साल बाद भी एक बार भी कानूनी कार्रवाई नहीं की गई है। कानून में एक साल की सजा, २० हजार रुपए तक जुर्माना अथवा दोनों सजाओं का प्रावधान है। मगर यह कानून किसी 'बिना दांतों वाली योजना` जैसा है। इसके तहत, कामगार स्वयं मामला दाखिल नहीं कर सकता। यह अधिकार सफाई निरीक्षक और कलेक्टर को दिया गया है। खुले गटर, मैनहोल और सेफ्टी टैंकों की सफाई करने वाले कामगार इसमें शामिल नहीं हैं। राज्यों ने इस कानून को स्वीकार तो कर लिया, मगर शायद उसके नियम और प्रावधानों को स्वीकार नहीं किया। इसलिए इच्छित परिणाम भी दिखाई नहीं देते। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कार्यकर्ताओं के दबाव के चलते हाल में इस कानून को स्वीकार किया गया है। यह कानून किसी भी राज्य में तभी लागू होता है जब राज्य सरकार अधिसूचना जारी कर किसी विशिष्ट क्षेत्र में कानून के प्रावधानों को लागू करने की तिथि घोषित करती है। ९० दिनों की पूर्वसूचना पर अधिसूचना जारी की जाती है।

तमिलनाडु

जिन राज्यों में मैला ढोने की प्रथा का अभी भी अस्तित्व है, ऐसे राज्यों के समक्ष योजना आयोग ने उक्त कानून स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा। कानून स्वीकार नहीं करने पर राज्यों की वार्षिक योजना में से केंद्रीय सहायता में कटौती अथवा सहायता रोकने की सिफारिश की। इस संबंध में कुछ राज्यों का उदाहरण दिया जा सकता है। वर्ष २००१ की जनगणना के मुताबिक तमिलनाडु में १.४१ करोड़ घरों में से ९१.९० लाख से भी अधिक में शौचालय नहीं हैं। केवल ३२.९१ लाख घरों में ही वॉटर क्लोसेट सुविधा उपलब्ध है। शुष्क (बिना पानी के) शौचालयों की संख्या करीब ६.६५ लाख है, जबकि गड्डे वाले शौचालय १०.३५ लाख हैं। वॉटर क्लोसेट सुविधा के मामले में राष्ट्रीय औसत (२३.२२ प्रतिशत) की तुलना में तमिलनाडु में धर्मपुरी, थिरुपन्नापलाई, विल्लूपुरम, पेरांबदूर, विरुधूनगर जैसे १३ जिलों का प्रतिशत १८.०२ है। तामीझर पेरावई संगठन का दावा है कि राज्य में ३५५६१ व्यक्ति मैला ढोने के काम में जुटे हैं। बताया जाता है कि तिरूचेंदुर में विशेष पर्व पर लाखों लोग इकट्ठा होते है। वहां अस्थायी रूप से गड्ढे वाले शौचालयों का निर्माण किया जाता है और ५०० लोगों को तैनात किया जाता है। हाइटेक शहर के रूप में विख्यात हैदराबाद से कोई २० किलोमीटर दूर दर्जनों शुष्क शौचालय हैं। लक्ष्य था, दिसंबर २००२ तक ही राज्य को शुष्क शौचायल से मुक्त करने का। बाद में इस अवधि को बढ़ाकर दिसंबर २००५ कर दिया गया। लेकिन, हालत आज भी जस के तस है।

आंध्रप्रदेश

आंध्र प्रदेश शेड्यूल्डकास्ट कोऑपरेटिव फाइनांस कार्पोरेशन और सफाई कमर्चारी आंदोलन द्वारा संयुक्त रूप से २००१ में कराए गए सर्वेक्षण के मुताबिक राज्य में नगरपालिका और ग्राम पंचायतों द्वारा संचालित सार्वजनिक शुष्क शौचालयों की संख्या २५७६२ थी। इसमें कुर्नूल में सर्वाधिक ४७८२, अनंतपुर में ४१७३, पश्चिम गोदावरी में ३५०३, कडपा में २३२४, विशाखापट्टन में २२५१ और पूर्व गोदावरी में २२४८ शौचालय थे। इसमें ३०९२१ लोग लगे हुए थे। बाद में अधिकृत आंकड़े प्राप्त करने की कोशिश ही नहीं हुई। शुष्क शौचालयों की संख्या दो लाख से अधिक होने का अनुमान व्यक्त किया जाता है। सरकार का दावा है कि उसने २०००-०१ और २००३-०४ के दौरान ६९.४३ करोड़ रुपया खर्च कर २८०९९ मैलावाहक और उन पर निर्भर लोगों का वैकल्पिक और सम्मानजनक व्यवसाय में पुनर्वास कर दिया है। वर्ष २००५-०६ में ११९७५ लोगों के लाभर्थ २३.९६ करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था।
नागरिक समाज समूह इसे केवल कागज पर का खेल भर मानते हैं। उनके मुताबिक सरकारी सहायता नाममात्र की होती है। बैंक कर्ज स्वीकार करने में आनाकानी करते हंै। केवल कागजों पर कर्ज मंजूर और वसूली दिखाकर खाते बंद कर दिए जाते हैं। थक-हारकर पुनर्वसित व्यक्ति फिर इसी पेशे की तरफ लौट जाता है। इस संबंध में राज्य के एक कार्यकर्ता का साक्षात्कार आंख खोलने के लिए काफी है। उसके मुताबिक, 'एक सार्वजनिक शौचालय में करीब ४०० शौचकूप होते हैं। उसमें से हाथ से मैला निकालना पड़ता है। यह विश्व का अत्यंत घृणित और निकृष्ट दर्जे का व्यवसाय है, और इस व्यवसाय से जुड़े लोगों को जातिव्यवस्था में सबसे निचला दर्जा दिया गया है।` (तुटलेले लोक-पृ.२१)

गुजरात

नवसर्जन ट्रस्ट के मुताबिक गुजरात में ५५,००० मैलावाहक हैं। गुजरात राज्य में हाथ से मैला निकालने वाला एक व्यक्ति कहता है-'जब हम मेहनत-मजदूरी के काम में होते है तब भी सवर्ण कहते हैं कि हमारे करीब मत आओ, चाय-पान की दुकान में दलितों के लिए अलग कप आदि रखी जाती है। चाय और नाश्ता खरीदकर खाने के बाद भी कप-प्लेट हमें ही साफ करनी पड़ती है। हम मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते। हमें सवर्णों की बस्तियों में नल से पानी भरने से रोका जाता है। पानी के लिए हमें एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। जब हम उन्हें अपने नागरिक अधिकारों के बारे में बताते हैं तो सरकारी और नगर प्रशासन के अधिकारी हमें जला डालने तक की धमकी देते हैं। परिणामस्वरूप हमें चुप ही रहना पड़ता है।` (तुटलेले लोक-पृ.७)

राष्ट्रीय मानसिकता

दरअसल, मैला ढोने के मूल में जातीयता ही है और जातीयता हमारी राष्ट्रीय मानसिकता में अवस्थित है। मैला ढोने वाले विभिन्न राज्यों में हत, हादी, वाल्मीकि, धानुक, मेहतर, मेथर, भंगी, पाकी, थोट्टी, मादिगा, भिरा, लालबेगी, चुहरा, बालाशाही, यानुदिस, हलालखोर, अरुणथाथिअर, सिक्कालियर जैसे अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं। मगर येे सब सामाजिक व्यवस्था में निम्न माने जाने वाले दलित-अस्पृश्य वर्ग में ही शामिल हंै। इसमें भी य़िां ७० प्रतिशत हैं। पुरुष ज्यादातर सफाई निरीक्षक होते हैं। मैलावाहक परिवारों में महिलाओं का यह काम करना अनुचित नहीं माना जाता। क्योंकि हमेशा आर्थिक तंगी में जीने वाले इस समुदाय को महिलाओं के काम करने से थोड़ा-बहुत पैसा और बचा-खुचा भोजन मिला जाता है। मजदूरी की दर कहीं प्रति माह २० रुपया प्रति शौचायल है तो कहीं १० रुपया। एक व्यक्ति प्रतिदिन साधारणत: ५० घरों में काम करता है। एक तरफ शहरों में स्वच्छता का अभाव, नॉन-फ्लैश शौचालयों की अधिकता, ग्रामीण भागों में शौचालय की अपेक्षा खुले मैदान का इस्तेमाल इस प्रथा को बढ़ाने में सहायता ही करते हैं। दूसरी ओर मैला ढोने के लिए गाड़ियों का अभाव, हाथ के मोजे-गमबूटा आदि उचित साधनों की कमी के कारण सिर पर मैला ढोने के अलावा और कोई विकल्प बचता नहीं। बदले में मिलती है, केवल सामाजिक उपेक्षा।
इन लोगों को छोटे शहरों और गांवों में नीची नजरों से देखा जाता है। मुख्य समूह से दूर स्थिति बस्तियों में मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जीना पड़ता है। कहीं-कहीं तो उच्च जाति के लोग गिलास में पानी भी पीने को नहीं देते। इस संबंध में २० वर्षीय युवती का अनुभव देखिए-'अचानक, मैं मैला से भरी हुई टोकरी लेकर गटर में गिर पड़ी। मगर कोई मदद को नहीं आया। मैं तब तक वैसे ही गटर में पड़ी रही जब तक कि दूसरी मैला ढोने वाली महिला नहीं आ गई और तब मुझे महसूस हुआ कि मैं विश्व की सबसे बदनसीब लड़की हूं।` (फ्रंटलाइन २२ सितंबर २००६, पृ.५) उसी युवती का पति कहता है, 'रिश्वतखोरी के चलते कोई दूसरा व्यवसाय मिला नहीं। आखिर इसी व्यवसाय में आना पड़ा। यह काम हाल में निजी क्षेत्र में आ गया है। कभी-कभी सफाई के लिए पानी तक उपलब्ध नहीं रहता। ऐसे में बाहर से खुले गटर से बाल्टी में पानी लाना पड़ता है। कई लोग तो शौचालय में भी गड्ढे के बाहर ही शौच कर देते हैंं। उनके मुताबिक यह सब साफ करना सफाई कर्मचारी का काम है।` (फ्रंटलाइन, २२ सितंबर २००६, पृ. ६)

बीमारियों का घर

यह सवाल स्वच्छता और सामाजिकता के साथ ही स्वास्थ्य से भी जुड़ा है। 'एनवायरनमेंटल सैनिटेशन इंस्टीट्यूट गांधी आश्रम` के अनुसार अधिकांश मैलावाहक एनिमिया, डायरिया आदि बीमारियों से ग्रस्त हैं। ६२ प्रतिशत लोगों को श्वास रोग, ३२, प्रतिशत त्वचारोग, ४२ प्रतिशत पीलिया और २३ प्रतिशत अंधत्व के शिकार हैं। सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय कार्बन मोनोऑक्साइड के जहरीले प्रभाव और प्राणवायु के अभाव में अनेक कर्मचारियों की मृत्यु होती रहती है। खुले गटर भी मलेरिया, डेंगू, गैस्ट्रो, हेपटाइटिस को निमंत्रण देते रहते हैं। ऐसा नहीं कि इसका कोई उपाय या योजना नहीं है। मगर नौकरशाही और लालफीताशाही यहां भी आड़े आ जाती है। सरकारी योजनाएं लाने वाले विभाग के पास क्रियान्वयन मशीनरी नहीं होने के कारण एक विभाग दूसरे की तरफ उंगली उठाता रहता है। खुले तौर पर जल आपूर्ति और बिजली आपूर्ति की तरह लोगों का रोष स्वच्छता के संबंध में दिखाई नहीं देता। परिणामस्वरूप सरकार और महानगर व्यवस्था भी इस तरफ से आंख-कान बंद ही रखते हैं।

राजकीय इच्छाशक्ति का अभाव

इस संबंध में हाल की योजना यानी वर्ष २००७ तक मैला ढोने की प्रथा को पूरी तरह समाप्त करने की राष्ट्रीय कार्ययोजना है। मैलावाहक मुक्ति और पुनर्वास की पूरी जिम्मेदारी शहरी रोजगार ओर गरीबी निर्मूलन मंत्रालय पर सौंपी गई है। मगर केवल केंद्र सरकार अकेले इस पर विजय नहीं प्राप्त कर सकती। क्योंकि स्वच्छता राज्यों से जुड़ा विषय है। दरअसल, इसमें राजकीय इच्छाशक्ति का अभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। संसद में अनुसूचित जाति के ७९ सदस्य हैं, मगर यह समस्या उनकी चिंता का विषय कभी नहीं बनती। रेल जैसा भारी भरकम सरकारी विभाग भी इसमें अपवाद नहीं है। रेलवे डिब्बों में खुली प्रणाली के कारण प्लेटफार्म सफाई आवश्यक होती है। अनेक रेलवे स्टेशनों पर मैलासफाई की पर्याप्त मशीनरी उपलब्ध नहीं है। रेलवे ने सुप्रीम कोर्ट में कहा, उसके पास मशीनरी उपलब्ध कराने के लिए 'धन का अभाव` है। और कहा कि, पूर्णत: सीलबंद शौचव्यवस्था विचाराधीन है। और, विभिन्न तकनीकी शैलियों पर विचार जारी होने की बात कहते हुए निश्चित समयसीमा तय करने से इन्कार कर दिया।
उत्तरांचल ने तो अपने शपथपत्र में डंके की चोट पर कहा, 'जब तक शुष्क शौचालय हैं तब तक उसकी सफाई करने वाले मैलावाहक भी रहेंगे ही।` सरकारों ने ही अगर इसका समाधान करना ठान लिया होता तो सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता।

वैश्विक हस्तक्षेप

विश्व के बाजार में तब्दील होने के इस दौर में आंदोलन तक वैश्विक स्तर पर होने लगे हैं। दलितों की समस्याएं भी इसमें अपवाद नहीं है। 'ह्यूमन राइट्स वॉच` नामक अंतराष्ट्रीय संस्था के एक प्रतिनिधिमंडल ने १९९८ में जनवरी से मार्च और जुलाई-अगस्त में गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि राज्यों का दौरा किया। अनेक लोगों के साक्षात्कार लिए, मार्च १९९९ में संस्था ने 'ब्रोकन पीपल` नामक २९१ पेजों की एक रिपोर्ट अमेरिका में जारी की। 'तुटलेले लोक` (टूटे हुए लोग) उसी का सारांश है। भारत सरकार, सभी राज्य, संयुक्त राष्ट्रसंघ, विश्व बैंक और अन्य अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्था, भारतीय दानदाता और व्यापार-उद्योग के भागीदारों के लिए अनेक सिफारिशें की गइंर्। खबर है कि अमेरिकन कांग्रेस ने एक विधेयक पारित कर कहा है कि, 'अगर भारत में मैलावहन मजूरी प्रतिबंधित नहीं की जाती है तो भारत में जारी जल और स्वच्छता विषयक परियोजनाओं के खिलाफ अमेरिका विश्व बैंक में अपनी टिप्पणी (मत) दर्ज कराए। समझा जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वंशभेद निर्मूलन समिति, मानवाधिकार समिति, वर्णभेद निर्मूलन विषयक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (अगस्त १९९६) और साउथ एशिया ह्यूमन राइटस् डाकुमेंटेशन सेंटर इं. ने भी इस संबंध में हस्तक्षेप किया है।
डरबन परिषद (२००१), दलितों के स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन, मलेशिया (अक्तूबर १९९०), लंदन (१६-१७ सितंबर २००३), वैंकूवर कनाडा (१६-१८ मई २००३), दलित विजन फॉर ट्वेन्टी फर्स्ट सेंचुरी के अलावा ६ अगस्त २००५ को अमेरिका में हुए सम्मेलन 'कांग्रेसनल हियरिंग` में भी यह मामला उठाया गया है। कट्टर मानवाधिकार समर्थक तथा न्यू जर्सी के कांग्रेस के रिपब्लिकन सदस्य एवं सभागृह की अंतर्राष्ट्रीय संबंध समिति के उपाध्यक्ष क्रिस्तोफर स्मिथ ने इस सम्मेलन की अध्यक्षता की। उनका वक्तव्य सोचने पर मजबूर कर देता है। 'एक चौथाई जनसंख्या को दूसरे स्तर का मानवीय दर्जा देना केवल बलपूर्वक मानवाधिकार का उल्लंघन ही नहीं, बल्कि आर्थिक, राजकीय गतिहीनता का सूचक है। एक समय अफ्रीकी नागरिकों को अमेरिका में मूलभूत अधिकार और अवसर देने से मना कर दिया गया था। आज तक हम उसका परिणाम भुगत रहे हैं।`

भारत की प्रगति में बाधक

अमेरिका का एक नेता अपने पूर्वजों की गलतियों को स्वीकार करता है। मगर भारत में अस्पृश्यता को पूर्व जन्म का पाप माना जाता है। उपसमिति की नेता और कैलिफोर्निया की कांग्रेस सदस्य बारबरा ली के मुताबिक, 'भारत में अस्पृश्यता जैसी सामाजिक परंपरा का पालन करना आधुनिक भारत की प्रगति में बाधक है।`
एक अंतर्राष्ट्रीय कमेटी के समक्ष भारतीय कार्यकताओं ने मांग की थी कि १५ करोड़ से अधिक अस्पृश्य और आदिवासियों के साथ होने वाले भेदभाव, शोषण और अत्याचार पर रोक लगाने के लिए अमेरिका तथा संयुक्त राष्ट्र को भारत में हस्तक्षेप करना चाहिए। साथ ही, अमेरिकी प्रशासन को विश्व बैंक और अन्य बहुराष्ट्रीय संस्थानों के अधिकारियों को निर्देश देकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भारत में विभिन्न परियोजनाओं के लिए दी जाने वाली राशि बिना किसी भेदभाव के खर्च हो और दलित कोटा अलग से रखा जाए 'हाउस इंटरनेशनल सबकमिटी ऑन ग्लोबल ह्यूमन राइट्स एंड इंटरनेशनल ऑपरेशन` के समक्ष 'इंडियाज अनफिनिश्ड एजेंडा: इक्वैलिटी एंड जस्टिस फॉर २०० मिलियन विक्टिम्स ऑफ द कास्ट सिस्टम` संबंधी गवाही देते हुए उक्त मांग भारतीय कार्यकर्ताओं ने रखी थी। मांग करने वालों में उदितराज, कांचा इलिया, इंदिरा सिंह आठवले, टी.कुमार, जोसेफ डिसूजा आदि शामिल थे।

प्रतिबद्धता का सवाल

कुल मिलाकर सवाल परिचय, शिक्षा और विकल्प का नहीं, बल्कि प्रतिबद्धता का है। सरकार का जोर पुनर्वास पर अधिक, व्यवसाय-मुक्ति पर कम होता है। सरकारी योजनाएं बनती हैं, क्रियान्वयन की समयसीमा भी तय होती है, मगर उसका हमेशा उल्लंघन होता रहता है। इसलिए इस संवेदनशील और मिश्रित सामाजिक-आर्थिक समस्या को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हल करने की जरूरत है। सरकार और नागरिक प्रशासन द्वारा शुष्क शौचालयों को तोड़ने का व्यापक कार्यक्रम चलाना, पुनर्वास के तहत कम से कम दो एकड़ जमीन देना और अन्य संबंधित कदम उठाना सरकार के लिए असंभव नहीं हैं। उम्मीद करें कि नागरिकों की क्रियाशीलता, राष्ट्रीय उपाय, राजनीति प्रतिबद्धता और अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते यह प्रथा एक दिन जड़-मूल से समाप्त की जा सकेगी।

ज्ञानेश्वर शंभरकर सामाजिक कार्यकार्ता व लेखक हैं। (मराठी से अनुवाद : मनोहर गौर)

( जुलाई,2007)

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